०५५ उत्तङ्कोपाख्याने

भागसूचना

पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका उत्तंक मुनिको विश्वरूपका दर्शन कराना और मरुदेशमें जल प्राप्त होनेका वरदान देना

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिजानामि जगतः कर्तारं त्वां जनार्दन।
नूनं भवत्प्रसादोऽयमिति मे नास्ति संशयः ॥ १ ॥

मूलम्

अभिजानामि जगतः कर्तारं त्वां जनार्दन।
नूनं भवत्प्रसादोऽयमिति मे नास्ति संशयः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकने कहा— जनार्दन! मैं यह जानता हूँ कि आप सम्पूर्ण जगत्‌के कर्ता हैं। निश्चय ही यह आपकी कृपा है (जो आपने मुझे अध्यात्मतत्त्वका उपदेश दिया), इसमें संशय नहीं है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्तं च सुप्रसन्नं मे त्वद्भावगतमच्युत।
विनिवृत्तं च मे शापादिति विद्धि परंतप ॥ २ ॥

मूलम्

चित्तं च सुप्रसन्नं मे त्वद्भावगतमच्युत।
विनिवृत्तं च मे शापादिति विद्धि परंतप ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले अच्युत! अब मेरा चित्त अत्यन्त प्रसन्न और आपके प्रति भक्तिभावसे परिपूर्ण हो गया है; अतः इसे शाप देनेके विचारसे निवृत्त हुआ समझें॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वनुग्रहं कंचित् त्वत्तोऽर्हामि जनार्दन।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं तन्निदर्शय ॥ ३ ॥

मूलम्

यदि त्वनुग्रहं कंचित् त्वत्तोऽर्हामि जनार्दन।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं तन्निदर्शय ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! यदि मैं आपसे कुछ भी कृपा प्राप्त करनेका अधिकारी होऊँ तो आप मुझे अपना ईश्वरीय रूप दिखा दीजिये। आपके उस रूपको देखनेकी बड़ी इच्छा है॥३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स तस्मै प्रीतात्मा दर्शयामास तद् वपुः।
शाश्वतं वैप्णवं धीमान् ददृशे यद् धनंजयः ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः स तस्मै प्रीतात्मा दर्शयामास तद् वपुः।
शाश्वतं वैप्णवं धीमान् ददृशे यद् धनंजयः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तब परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्णने प्रसन्नचित्त होकर उन्हें अपने उसी सनातन वैष्णव स्वरूपका दर्शन कराया, जिसे युद्धके प्रारम्भमें अर्जुनने देखा था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ददर्श महात्मानं विश्वरूपं महाभुजम्।
सहस्रसूर्यप्रतिमं दीप्तिमत् पावकोपमम् ॥ ५ ॥

मूलम्

स ददर्श महात्मानं विश्वरूपं महाभुजम्।
सहस्रसूर्यप्रतिमं दीप्तिमत् पावकोपमम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंक मुनिने उस विश्वरूपका दर्शन किया, जिसका स्वरूप महान् था। जो सहस्रों सूर्योंके समान प्रकाशमान तथा बड़ी-बड़ी भुजाओंसे सुशोभित था। उससे प्रज्वलित अग्निके समान लपटें निकल रही थीं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वमाकाशमावृत्य तिष्ठन्तं सर्वतोमुखम् ।
तद् दृष्ट्वा परमं रूपं विष्णोर्वैष्णवमद्‌भुतम्।
विस्मयं च ययौ विप्रस्तं दृष्ट्वा परमेश्वरम् ॥ ६ ॥

मूलम्

सर्वमाकाशमावृत्य तिष्ठन्तं सर्वतोमुखम् ।
तद् दृष्ट्वा परमं रूपं विष्णोर्वैष्णवमद्‌भुतम्।
विस्मयं च ययौ विप्रस्तं दृष्ट्वा परमेश्वरम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके सब ओर मुख था और वह सम्पूर्ण आकाशको घेरकर खड़ा था। भगवान् विष्णुके उस अद्‌भुत एवं उत्कृष्ट वैष्णव रूपको देखकर उन परमेश्वरकी ओर दृष्टिपात करके ब्रह्मर्षि उत्तंकको बड़ा विस्मय हुआ॥६॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(नमो नमस्ते सर्वात्मन् नारायण परात्पर।
परमात्मन् पद्मनाभ पुण्डरीकाक्ष माधव॥

मूलम्

(नमो नमस्ते सर्वात्मन् नारायण परात्पर।
परमात्मन् पद्मनाभ पुण्डरीकाक्ष माधव॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंक बोले— सर्वात्मन्! परात्पर नारायण! आपको बारंबार नमस्कार है। परमात्मन्! पद्मनाभ! पुण्डरीकाक्ष! माधव! आपको नमस्कार है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यगर्भरूपाय संसारोत्तारणाय च ।
पुरुषाय पुराणाय चान्तर्यामाय ते नमः॥

मूलम्

हिरण्यगर्भरूपाय संसारोत्तारणाय च ।
पुरुषाय पुराणाय चान्तर्यामाय ते नमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा आपके ही स्वरूप हैं। आप संसार-सागरसे पार उतारनेवाले हैं। आप ही अन्तर्यामी पुराण-पुरुष हैं। आपको नमस्कार है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविद्यातिमिरादित्यं भवव्याधिमहौषधिम् ।
संसारार्णवपारं त्वां प्रणमामि गतिर्भव॥

मूलम्

अविद्यातिमिरादित्यं भवव्याधिमहौषधिम् ।
संसारार्णवपारं त्वां प्रणमामि गतिर्भव॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अविद्यारूपी अन्धकारको मिटानेवाले सूर्य, संसाररूपी रोगके महान् औषध तथा भवसागरसे पार करनेवाले हैं। आपको प्रणाम करता हूँ। आप मेरे आश्रय-दाता हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्ववेदैकवेद्याय सर्वदेवमयाय च ।
वासुदेवाय नित्याय नमो भक्तप्रियाय ते॥

मूलम्

सर्ववेदैकवेद्याय सर्वदेवमयाय च ।
वासुदेवाय नित्याय नमो भक्तप्रियाय ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सम्पूर्ण वेदोंके एकमात्र वेद्यतत्त्व हैं। सम्पूर्ण देवता आपके ही स्वरूप हैं तथा आप भक्तजनोंको अत्यन्त प्रिय हैं। आप नित्यस्वरूप भगवान् वासुदेवको नमस्कार है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दयया दुःखमोहान्मां समुद्धर्तुमिहार्हसि ।
कर्मभिर्बहुभिः पापैर्बद्धं पाहि जनार्दन॥)

मूलम्

दयया दुःखमोहान्मां समुद्धर्तुमिहार्हसि ।
कर्मभिर्बहुभिः पापैर्बद्धं पाहि जनार्दन॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! आप स्वयं ही दया करके दुःखजनित मोहसे मेरा उद्धार करें। मैं बहुत-से पाप-कर्मोंद्वारा बँधा हुआ हूँ। आप मेरी रक्षा करें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वकर्मन्‌ नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसम्भव।
पद्भ्यां ते पृथिवी व्याप्ता शिरसा चावृतं नभः ॥ ७ ॥

मूलम्

विश्वकर्मन्‌ नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसम्भव।
पद्भ्यां ते पृथिवी व्याप्ता शिरसा चावृतं नभः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वकर्मन्! आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्तिके स्थानभूत विश्वात्मन्! आपके दोनों पैरोंसे पृथ्वी और सिरसे आकाश व्याप्त है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्यावापृथिव्योर्यन्मध्यं जठरेण तवावृतम् ।
भुजाभ्यामावृताश्चाशास्त्वमिदं सर्वमच्युत ॥ ८ ॥

मूलम्

द्यावापृथिव्योर्यन्मध्यं जठरेण तवावृतम् ।
भुजाभ्यामावृताश्चाशास्त्वमिदं सर्वमच्युत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाश और पृथ्वीके बीचका जो भाग है, वह आपके उदरसे व्याप्त हो रहा है। आपकी भुजाओंने सम्पूर्ण दिशाओंको घेर लिया है। अच्युत! यह सारा दृश्य-प्रपंच आप ही हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहरस्व पुनर्देव रूपमक्षय्यमुत्तमम् ।
पुनस्त्वां स्वेन रूपेण द्रष्टुमिच्छामि शाश्वतम् ॥ ९ ॥

मूलम्

संहरस्व पुनर्देव रूपमक्षय्यमुत्तमम् ।
पुनस्त्वां स्वेन रूपेण द्रष्टुमिच्छामि शाश्वतम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! अब अपने इस उत्तम एवं अविनाशी स्वरूपको फिर समेट लीजिये। मैं आप सनातन पुरुषको पुनः अपने पूर्वरूपमें ही देखना चाहता हूँ॥९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच प्रसन्नात्मा गोविन्दो जनमेजय।
वरं वृणीष्वेति तदा तमुत्तङ्कोऽब्रवीदिदम् ॥ १० ॥

मूलम्

तमुवाच प्रसन्नात्मा गोविन्दो जनमेजय।
वरं वृणीष्वेति तदा तमुत्तङ्कोऽब्रवीदिदम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! मुनिकी बात सुनकर सदा प्रसन्नचित्त रहनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘महर्षे! आप मुझसे कोई वर माँगिये।’ तब उत्तंकने कहा—॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्याप्त एष एवाद्य वरस्त्वत्तो महाद्युते।
यत् ते रूपमिदं कृष्ण पश्यामि पुरुषोत्तम ॥ ११ ॥

मूलम्

पर्याप्त एष एवाद्य वरस्त्वत्तो महाद्युते।
यत् ते रूपमिदं कृष्ण पश्यामि पुरुषोत्तम ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महातेजस्वी पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण! आपके इस स्वरूपका जो मैं दर्शन कर रहा हूँ, यही मेरे लिये आज आपकी ओरसे बहुत बड़ा वरदान प्राप्त हो गया’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीत् पुनः कृष्णो मा त्वमत्र विचारय।
अवश्यमेतत् कर्तव्यममोघं दर्शनं मम ॥ १२ ॥

मूलम्

तमब्रवीत् पुनः कृष्णो मा त्वमत्र विचारय।
अवश्यमेतत् कर्तव्यममोघं दर्शनं मम ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर श्रीकृष्णने फिर कहा—‘मुने! आप इसमें कोई अन्यथा विचार न करें। आपको अवश्य ही मुझसे वर माँगना चाहिये; क्योंकि मेरा दर्शन अमोघ है’॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवश्यं करणीयं च यद्येतन्मन्यसे विभो।
तोयमिच्छामि यत्रेष्टं मरुष्वेतद्धि दुर्लभम् ॥ १३ ॥

मूलम्

अवश्यं करणीयं च यद्येतन्मन्यसे विभो।
तोयमिच्छामि यत्रेष्टं मरुष्वेतद्धि दुर्लभम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंक बोले— प्रभो! यदि वर माँगना आप मेरे लिये आवश्यक कर्तव्य मानते हैं तो मैं यही चाहता हूँ कि मुझे यहाँ यथेष्ट जल प्राप्त हो; क्योंकि इस मरुभूमिमें जल बड़ा ही दुर्लभ है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संहृत्य तत् तेजः प्रोवाचोत्तङ्कमीश्वरः।
एष्टव्ये सति चिन्त्योऽहमित्युक्त्वा द्वारकां ययौ ॥ १४ ॥

मूलम्

ततः संहृत्य तत् तेजः प्रोवाचोत्तङ्कमीश्वरः।
एष्टव्ये सति चिन्त्योऽहमित्युक्त्वा द्वारकां ययौ ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान्‌ने अपने उस तेजोमय स्वरूपको समेटकर उत्तंक मुनिसे कहा—‘मुने! जब आपको जलकी इच्छा हो, तब आप मेरा स्मरण कीजियेगा।’ ऐसा कहकर वे द्वारका चले गये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कदाचिद् भगवानुत्तङ्कस्तोयकाङ्क्षया ।
तृषितः परिचक्राम मरौ सस्मार चाच्युतम् ॥ १५ ॥

मूलम्

ततः कदाचिद् भगवानुत्तङ्कस्तोयकाङ्क्षया ।
तृषितः परिचक्राम मरौ सस्मार चाच्युतम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् एक दिन उत्तंक मुनिको बड़ी प्यास लगी। वे पानीकी इच्छासे उस मरुभूमिमें चारों ओर घूमने लगे। घूमते-घूमते उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण किया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दिग्वाससं धीमान् मातङ्गं मलपङ्किनम्।
अपश्यत मरौ तस्मिन् श्वयूथपरिवारितम् ॥ १६ ॥

मूलम्

ततो दिग्वाससं धीमान् मातङ्गं मलपङ्किनम्।
अपश्यत मरौ तस्मिन् श्वयूथपरिवारितम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेहीमें उन बुद्धिमान् मुनिको उस मरुप्रदेशमें कुत्तोंके झुंडसे घिरा हुआ एक नंग-धड़ंग चाण्डाल दिखायी पड़ा, जिसके शरीरमें मैल और कीचड़ जमी हुई थी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीषणं बद्धनिस्त्रिंशं बाणकार्मुकधारिणम् ।
तस्याधः स्रोतसोऽपश्यद् वारि भूरि द्विजोत्तमः ॥ १७ ॥

मूलम्

भीषणं बद्धनिस्त्रिंशं बाणकार्मुकधारिणम् ।
तस्याधः स्रोतसोऽपश्यद् वारि भूरि द्विजोत्तमः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह देखनेमें बड़ा भयंकर था। उसने कमरमें तलवार बाँध रखी थी और हाथोंमें धनुष-बाण धारण किये थे। द्विजश्रेष्ठ उत्तंकने देखा—उसके नीचे पैरोंके समीप एक छिद्रसे प्रचुर जलकी धारा गिर रही है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मरन्नेव च तं प्राह मातङ्गः प्रहसन्निव।
एह्युत्तङ्क प्रतीच्छस्व मत्तो वारि भृगूद्वह ॥ १८ ॥
कृपा हि मे सुमहती त्वां दृष्ट्वा तृट् समाश्रितम्।
इत्युक्तस्तेन स मुनिस्तत् तोयं नाभ्यनन्दत ॥ १९ ॥

मूलम्

स्मरन्नेव च तं प्राह मातङ्गः प्रहसन्निव।
एह्युत्तङ्क प्रतीच्छस्व मत्तो वारि भृगूद्वह ॥ १८ ॥
कृपा हि मे सुमहती त्वां दृष्ट्वा तृट् समाश्रितम्।
इत्युक्तस्तेन स मुनिस्तत् तोयं नाभ्यनन्दत ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिको पहचानते ही वह जोर-जोरसे हँसता हुआ-सा बोला—‘भृगकुलतिलक उत्तंक! आओ, मुझसे जल ग्रहण करो। तुम्हें प्याससे पीड़ित देखकर मुझे तुमपर बड़ी दया आ रही है।’ चाण्डालके ऐसा कहनेपर भी मुनिने उसके जलका अभिनन्दन नहीं किया—उसे लेनेसे इनकार कर दिया॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिक्षेप च स तं धीमान्‌ वाग्भिरुग्राभिरच्युतम्।
पुनः पुनश्च मातङ्गः पिबस्वेति तमब्रवीत् ॥ २० ॥

मूलम्

चिक्षेप च स तं धीमान्‌ वाग्भिरुग्राभिरच्युतम्।
पुनः पुनश्च मातङ्गः पिबस्वेति तमब्रवीत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय बुद्धिमान् उत्तंकने अपने कठोर वचनों-द्वारा भगवान् श्रीकृष्णपर भी आक्षेप किया। उधर चाण्डाल बारंबार आग्रह करने लगा—‘महर्षे! जल पी लीजिये’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चापिबत् स सक्रोधः क्षुभितेनान्तरात्मना।
स तथा निश्चयात् तेन प्रत्याख्यातो महात्मना ॥ २१ ॥

मूलम्

न चापिबत् स सक्रोधः क्षुभितेनान्तरात्मना।
स तथा निश्चयात् तेन प्रत्याख्यातो महात्मना ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकने उस जलको नहीं पीया। वे अत्यन्त कुपित हो उठे थे। उनके अन्तःकरणमें बड़ा क्षोभ था। उन महात्माने अपने निश्चयपर अटल रहकर चाण्डालको जवाब दे दिया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वभिः सह महाराज तत्रैवान्तरधीयत।
उत्तङ्कस्तं तथा दृष्ट्वा ततो व्रीडितमानसः ॥ २२ ॥
मेने प्रलब्धमात्मानं कृष्णेनामित्रघातिना ।

मूलम्

श्वभिः सह महाराज तत्रैवान्तरधीयत।
उत्तङ्कस्तं तथा दृष्ट्वा ततो व्रीडितमानसः ॥ २२ ॥
मेने प्रलब्धमात्मानं कृष्णेनामित्रघातिना ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! मुनिके इनकार करते ही कुत्तोंसहित वह चाण्डाल वहीं अन्तर्धान हो गया। यह देख उत्तंक मन-ही-मन बहुत लज्जित हुए और सोचने लगे कि ‘शत्रुघाती श्रीकृष्णने मुझे ठग लिया’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तेनैव मार्गेण शङ्खचक्रगदाधरः ॥ २३ ॥
आजगाम महाबुद्धिरुत्तङ्कश्चेनमब्रवीत् ।
न युक्तं तादृशं दातुं त्वया पुरुषसत्तम ॥ २४ ॥
सलिलं विप्रमुख्येभ्यो मातङ्गस्रोतसा विभो।

मूलम्

अथ तेनैव मार्गेण शङ्खचक्रगदाधरः ॥ २३ ॥
आजगाम महाबुद्धिरुत्तङ्कश्चेनमब्रवीत् ।
न युक्तं तादृशं दातुं त्वया पुरुषसत्तम ॥ २४ ॥
सलिलं विप्रमुख्येभ्यो मातङ्गस्रोतसा विभो।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण उसी मार्गसे प्रकट होकर आये। उन्हें देखकर महामति उत्तंकने कहा—‘पुरुषोत्तम! प्रभो! आपको श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके लिये चाण्डालसे स्पर्श किया हुआ वैसा अपवित्र जल देना उचित नहीं है’॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तवचनं तं तु महाबुद्धिर्जनार्दनः ॥ २५ ॥
उत्तङ्कं श्लक्ष्णया वाचा सान्त्वयन्निदमब्रवीत्।

मूलम्

इत्युक्तवचनं तं तु महाबुद्धिर्जनार्दनः ॥ २५ ॥
उत्तङ्कं श्लक्ष्णया वाचा सान्त्वयन्निदमब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकके ऐसा कहनेपर महाबुद्धिमान् जनार्दनने उन्हें मधुर वाणीद्वारा सान्त्वना देते हुए कहा—॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादृशेनेह रूपेण योग्यं दातुं धृतेन वै ॥ २६ ॥
तादृशं खलु ते दत्तं यच्च त्वं नावबुध्यथाः।

मूलम्

यादृशेनेह रूपेण योग्यं दातुं धृतेन वै ॥ २६ ॥
तादृशं खलु ते दत्तं यच्च त्वं नावबुध्यथाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महर्षे! वहाँ जैसा रूप धारण करके वह जल आपके लिये देना उचित था, उसी रूपसे दिया गया; किंतु आप उसे समझ न सके॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया त्वदर्थमुक्तो वै वज्रपाणिः पुरंदरः ॥ २७ ॥
उत्तङ्कायामृतं देहि तोयरूपमिति प्रभुः।
स मामुवाच देवेन्द्रो न मर्त्योऽमर्त्यतां व्रजेत् ॥ २८ ॥
अन्यमस्मै वरं देहीत्यसकृद् भृगुनन्दन।
अमृतं देयमित्येव मयोक्तः स शचीपतिः ॥ २९ ॥

मूलम्

मया त्वदर्थमुक्तो वै वज्रपाणिः पुरंदरः ॥ २७ ॥
उत्तङ्कायामृतं देहि तोयरूपमिति प्रभुः।
स मामुवाच देवेन्द्रो न मर्त्योऽमर्त्यतां व्रजेत् ॥ २८ ॥
अन्यमस्मै वरं देहीत्यसकृद् भृगुनन्दन।
अमृतं देयमित्येव मयोक्तः स शचीपतिः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भृगुनन्दन! मैंने आपके लिये वज्रधारी इन्द्रसे जाकर कहा था कि तुम उत्तंक मुनिको जलके रूपमें अमृत प्रदान करो। मेरी बात सुनकर प्रभावशाली देवेन्द्रने बारम्बार मुझसे कहा कि ‘मनुष्य अमर नहीं हो सकता। इसलिये आप उन्हें अमृत न देकर और कोई वर दीजिये।’ परंतु मैंने शचीपति इन्द्रसे जोर देकर कहा कि उत्तङ्कको तो अमृत ही देना है॥२७—२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मां प्रसाद्य देवेन्द्रः पुनरेवेदमब्रवीत्।
यदि देयमवश्यं वै मातङ्गोऽहं महामते ॥ ३० ॥
भूत्वामृतं प्रदास्यामि भार्गवाय महात्मने।
यद्येवं प्रतिगृह्णाति भार्गवोऽमृतमद्य वै ॥ ३१ ॥
प्रदातुमेष गच्छामि भार्गवस्यामृतं विभो।
प्रत्याख्यातस्त्वहं तेन दास्यामि न कथंचन ॥ ३२ ॥

मूलम्

स मां प्रसाद्य देवेन्द्रः पुनरेवेदमब्रवीत्।
यदि देयमवश्यं वै मातङ्गोऽहं महामते ॥ ३० ॥
भूत्वामृतं प्रदास्यामि भार्गवाय महात्मने।
यद्येवं प्रतिगृह्णाति भार्गवोऽमृतमद्य वै ॥ ३१ ॥
प्रदातुमेष गच्छामि भार्गवस्यामृतं विभो।
प्रत्याख्यातस्त्वहं तेन दास्यामि न कथंचन ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब देवराज इन्द्र मुझे प्रसन्न करके बोले—‘सर्वव्यापी महामते! यदि भृगुनन्दन महात्मा उत्तंकको अमृत अवश्य देना है तो मैं चाण्डालका रूप धारण करके उन्हें अमृत प्रदान करूँगा। यदि इस प्रकार आज भृगुवंशी उत्तंक अमृत लेना स्वीकार करेंगे तो मैं उन्हें वर देनेके लिये अभी जा रहा हूँ और यदि वे अस्वीकार कर देंगे तो मैं किसी तरह उन्हें अमृत नहीं दूँगा’॥३०—३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथा समयं कृत्वा तेन रूपेण वासवः।
उपस्थितस्त्वया चापि प्रत्याख्यातोऽमृतं ददत् ॥ ३३ ॥

मूलम्

स तथा समयं कृत्वा तेन रूपेण वासवः।
उपस्थितस्त्वया चापि प्रत्याख्यातोऽमृतं ददत् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस तरहकी शर्त करके साक्षात् इन्द्र चाण्डालके रूपमें यहाँ उपस्थित हुए थे और आपको अमृत दे रहे थे; परंतु आपने उन्हें ठुकरा दिया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चाण्डालरूपी भगवान् सुमहांस्ते व्यतिक्रमः।
यत् तु शक्यं मया कर्तुं भूय एव तवेप्सितम्॥३४॥

मूलम्

चाण्डालरूपी भगवान् सुमहांस्ते व्यतिक्रमः।
यत् तु शक्यं मया कर्तुं भूय एव तवेप्सितम्॥३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपने चाण्डालरूपधारी भगवान् इन्द्रको ठुकराया है, यह आपका महान् अपराध है। अच्छा, आपकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये मैं पुनः जो कुछ कर सकता हूँ, करूँगा॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोयेप्सां तव दुर्धर्षां करिष्ये सफलामहम्।
येष्वहःसु च ते ब्रह्मन् सलिलेप्सा भविष्यति ॥ ३५ ॥
तदा मरौ भविष्यन्ति जलपूर्णाः पयोधराः।
रसवच्च प्रदास्यन्ति तोयं ते भृगुनन्दन ॥ ३६ ॥
उत्तङ्कमेघा इत्युक्ताः ख्यातिं यास्यन्ति चापि ते।

मूलम्

तोयेप्सां तव दुर्धर्षां करिष्ये सफलामहम्।
येष्वहःसु च ते ब्रह्मन् सलिलेप्सा भविष्यति ॥ ३५ ॥
तदा मरौ भविष्यन्ति जलपूर्णाः पयोधराः।
रसवच्च प्रदास्यन्ति तोयं ते भृगुनन्दन ॥ ३६ ॥
उत्तङ्कमेघा इत्युक्ताः ख्यातिं यास्यन्ति चापि ते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! आपकी तीव्र पिपासाको मैं अवश्य सफल करूँगा। जिन दिनों आपको जल पीनेकी इच्छा होगी, उन्हीं दिनों मरुप्रदेशमें जलसे भरे हुए मेघ प्रकट होंगे। भृगुनन्दन! वे आपको सरस जल प्रदान करेंगे और इस पृथ्वीपर उत्तंक मेघके नामसे विख्यात होंगे’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः प्रीतिमान् विप्रः कृष्णेन स बभूव ह।
अद्याप्युत्तङ्कमेघाश्च मरौ वर्षन्ति भारत ॥ ३७ ॥

मूलम्

इत्युक्तः प्रीतिमान् विप्रः कृष्णेन स बभूव ह।
अद्याप्युत्तङ्कमेघाश्च मरौ वर्षन्ति भारत ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर विप्रवर उत्तंक मुनि बड़े प्रसन्न हुए। इस समय भी मरुभूमिमें उत्तंक मेघ प्रकट होकर जलकी वर्षा करते हैं॥३७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि उत्तङ्कोपाख्याने पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें उत्तङ्कोपाख्यानमें कृष्णवाक्यविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५५॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ४२ श्लोक हैं)