०५४ कृष्णवाक्ये

भागसूचना

चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णका उत्तंकसे अध्यात्मतत्त्वका वर्णन करना तथा दुर्योधनके अपराधको कौरवोंके विनाशका कारण बतलाना

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रूहि केशव तत्त्वेन त्वमध्यात्ममनिन्दितम्।
श्रुत्वा श्रेयोऽभिधास्यामि शापं वा ते जनार्दन ॥ १ ॥

मूलम्

ब्रूहि केशव तत्त्वेन त्वमध्यात्ममनिन्दितम्।
श्रुत्वा श्रेयोऽभिधास्यामि शापं वा ते जनार्दन ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकने कहा— केशव! जनार्दन! तुम यथार्थरूपसे उत्तम अध्यात्मतत्त्वका वर्णन करो। उसे सुनकर मैं तुम्हारे कल्याणके लिये आशीर्वाद दूँगा अथवा शाप प्रदान करूँगा॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमो रजश्च सत्त्वं च विद्धि भावान् मदाश्रयान्।
तथा रुद्रान्‌ वसून् वापि विद्धि मत्प्रभवान् द्विज ॥ २ ॥

मूलम्

तमो रजश्च सत्त्वं च विद्धि भावान् मदाश्रयान्।
तथा रुद्रान्‌ वसून् वापि विद्धि मत्प्रभवान् द्विज ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णने कहा— ब्रह्मर्षे! आपको यह विदित होना चाहिये कि तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण—ये सभी भाव मेरे ही आश्रित हैं। रुद्रों और वसुओंको भी आप मुझसे ही उत्पन्न जानिये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि सर्वाणि भूतानि सर्वभूतेषु चाप्यहम्।
स्थित इत्यभिजानीहि मा तेऽभूदत्र संशयः ॥ ३ ॥

मूलम्

मयि सर्वाणि भूतानि सर्वभूतेषु चाप्यहम्।
स्थित इत्यभिजानीहि मा तेऽभूदत्र संशयः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण भूत मुझमें हैं और सम्पूर्ण भूतोंमें मैं स्थित हूँ। इस बातको आप अच्छी तरह समझ लें। इसमें आपको संशय नहीं होना चाहिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा दैत्यगणान् सर्वान् यक्षगन्धर्वराक्षसान्।
नागानप्सरसश्चैव विद्धि मत्प्रभवान् द्विज ॥ ४ ॥

मूलम्

तथा दैत्यगणान् सर्वान् यक्षगन्धर्वराक्षसान्।
नागानप्सरसश्चैव विद्धि मत्प्रभवान् द्विज ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! सम्पूर्ण दैत्यगण, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, नाग और अप्सराओंको मुझसे ही उत्पन्न जानिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदसच्चैव यत् प्राहुरव्यक्तं व्यक्तमेव च।
अक्षरं च क्षरं चैव सर्वमेतन्मदात्मकम् ॥ ५ ॥

मूलम्

सदसच्चैव यत् प्राहुरव्यक्तं व्यक्तमेव च।
अक्षरं च क्षरं चैव सर्वमेतन्मदात्मकम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् लोग जिसे सत्-असत्, व्यक्त-अव्यक्त और क्षर-अक्षर कहते हैं, यह सब मेरा ही स्वरूप है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये चाश्रमेषु वै धर्माश्चतुर्धा विदिता मुने।
वैदिकानि च सर्वाणि विद्धि सर्वं मदात्मकम् ॥ ६ ॥

मूलम्

ये चाश्रमेषु वै धर्माश्चतुर्धा विदिता मुने।
वैदिकानि च सर्वाणि विद्धि सर्वं मदात्मकम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुने! चारों आश्रमोंमें जो चार प्रकारके धर्म प्रसिद्ध हैं तथा जो सम्पूर्ण वेदोक्त कर्म हैं, उन सबको मेरा स्वरूप ही समझिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असच्च सदसच्चैव यद् विश्वं सदसत् परम्।
मत्तः परतरं नास्ति देवदेवात् सनातनात् ॥ ७ ॥

मूलम्

असच्च सदसच्चैव यद् विश्वं सदसत् परम्।
मत्तः परतरं नास्ति देवदेवात् सनातनात् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

असत्, सदसत् तथा उससे भी परे जो अव्यक्त जगत् है, वह भी मुझ सनातन देवाधिदेवसे पृथक् नहीं है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओङ्कारप्रमुखान् वेदान् विद्धि मां त्वं भृगूद्वह।
यूपं सोमं चरुं होमं त्रिदशाप्यायनं मखे ॥ ८ ॥
होतारमपि हव्यं च विद्धि मां भृगुनन्दन।
अध्वर्युः कल्पकश्चापि हविः परमसंस्कृतम् ॥ ९ ॥

मूलम्

ओङ्कारप्रमुखान् वेदान् विद्धि मां त्वं भृगूद्वह।
यूपं सोमं चरुं होमं त्रिदशाप्यायनं मखे ॥ ८ ॥
होतारमपि हव्यं च विद्धि मां भृगुनन्दन।
अध्वर्युः कल्पकश्चापि हविः परमसंस्कृतम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुश्रेष्ठ! ॐकारसे आरम्भ होनेवाले चारों वेद मुझे ही समझिये। यज्ञमें यूप, सोम, चरु, देवताओंको तृप्त करनेवाला होम, होता और हवन-सामग्री भी मुझे ही जानिये। भृगुनन्दन! अध्वर्यु, कल्पक और अच्छी प्रकार संस्कार किया हुआ हविष्य—ये सब मेरे ही स्वरूप हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्‌गाता चापि मां स्तौति गीताघोषैर्महाध्वरे।
प्रायश्चित्तेषु मां ब्रह्मन् शान्तिमङ्गलवाचकाः ॥ १० ॥
स्तुवन्ति विश्वकर्माणं सततं द्विजसत्तम।
मम विद्धि सुतं धर्ममग्रजं द्विजसत्तम ॥ ११ ॥
मानसं दयितं विप्र सर्वभूतदयात्मकम्।

मूलम्

उद्‌गाता चापि मां स्तौति गीताघोषैर्महाध्वरे।
प्रायश्चित्तेषु मां ब्रह्मन् शान्तिमङ्गलवाचकाः ॥ १० ॥
स्तुवन्ति विश्वकर्माणं सततं द्विजसत्तम।
मम विद्धि सुतं धर्ममग्रजं द्विजसत्तम ॥ ११ ॥
मानसं दयितं विप्र सर्वभूतदयात्मकम्।

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े यज्ञोंमें उद्‌गाता उच्च स्वरसे सामगान करके मेरी ही स्तुति करते हैं। ब्रह्मन्! प्रायश्चित्त-कर्ममें शान्तिपाठ तथा मंगलपाठ करनेवाले ब्राह्मण सदा मुझ विश्वकर्माका ही स्तवन करते हैं। द्विजश्रेष्ठ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करना-रूप जो धर्म है, वह मेरा परमप्रिय ज्येष्ठ पुत्र है। मेरे मनसे उसका प्रादुर्भाव हुआ है॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राहं वर्तमानैश्च निवृत्तैश्चैव मानवैः ॥ १२ ॥
बह्वीः संसरमाणो वै योनीर्वर्तामि सत्तम।
धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च ॥ १३ ॥
तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव।

मूलम्

तत्राहं वर्तमानैश्च निवृत्तैश्चैव मानवैः ॥ १२ ॥
बह्वीः संसरमाणो वै योनीर्वर्तामि सत्तम।
धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च ॥ १३ ॥
तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव।

अनुवाद (हिन्दी)

भार्गव! उस धर्ममें प्रवृत्त होकर जो पाप-कर्मोंसे निवृत्त हो गये हैं ऐसे मनुष्योंके साथ मैं सदा निवास करता हूँ। साधुशिरोमणे! मैं धर्मकी रक्षा और स्थापनाके लिये तीनों लोकोंमें बहुत-सी योनियोंमें अवतार धारण करके उन-उन रूपों और वेषोंद्वारा तदनुरूप बर्ताव करता हूँ॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं विष्णुरहं ब्रह्मा शक्रोऽथ प्रभवाप्ययः ॥ १४ ॥
भूतग्रामस्य सर्वस्य स्रष्टा संहार एव च।

मूलम्

अहं विष्णुरहं ब्रह्मा शक्रोऽथ प्रभवाप्ययः ॥ १४ ॥
भूतग्रामस्य सर्वस्य स्रष्टा संहार एव च।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं ही विष्णु, मैं ही ब्रह्मा और मैं ही इन्द्र हूँ। सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति और प्रलयका कारण भी मैं ही हूँ। समस्त प्राणिसमुदायकी सृष्टि और संहार भी मेरे ही द्वारा होते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मे वर्तमानानां सर्वेषामहमच्युतः ॥ १५ ॥
धर्मस्य सेतुं बध्नामि चलिते चलिते युगे।
तास्ता योनीः प्रविश्याहं प्रजानां हितकाम्यया ॥ १६ ॥

मूलम्

अधर्मे वर्तमानानां सर्वेषामहमच्युतः ॥ १५ ॥
धर्मस्य सेतुं बध्नामि चलिते चलिते युगे।
तास्ता योनीः प्रविश्याहं प्रजानां हितकाम्यया ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अधर्ममें लगे हुए सभी मनुष्योंको दण्ड देनेवाला और अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाला ईश्वर मैं ही हूँ। जब-जब युगका परिवर्तन होता है, तब-तब मैं प्रजाकी भलाईके लिये भिन्न-भिन्न योनियोंमें प्रविष्ट होकर धर्ममर्यादाकी स्थापना करता हूँ॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा त्वहं देवयोनौ वर्तामि भृगुनन्दन।
तदाहं देववत् सर्वमाचरामि न संशयः ॥ १७ ॥

मूलम्

यदा त्वहं देवयोनौ वर्तामि भृगुनन्दन।
तदाहं देववत् सर्वमाचरामि न संशयः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुनन्दन! जब मैं देवयोनिमें अवतार लेता हूँ, तब देवताओंकी ही भाँति सारे आचार-विचारका पालन करता हूँ, इसमें संशय नहीं है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा गन्धर्वयोनौ वा वर्तामि भृगुनन्दन।
तदा गन्धर्ववत् सर्वमाचरामि न संशयः ॥ १८ ॥

मूलम्

यदा गन्धर्वयोनौ वा वर्तामि भृगुनन्दन।
तदा गन्धर्ववत् सर्वमाचरामि न संशयः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुकुलको आनन्द प्रदान करनेवाले महर्षे! जब मैं गन्धर्व-योनिमें प्रकट होता हूँ, तब मेरे सारे आचार-विचार गन्धर्वोंके ही समान होते हैं, इसमें संदेह नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागयोनौ यदा चैव तदा वर्तामि नागवत्।
यक्षराक्षसयोन्योस्तु यथावद् विचराम्यहम् ॥ १९ ॥

मूलम्

नागयोनौ यदा चैव तदा वर्तामि नागवत्।
यक्षराक्षसयोन्योस्तु यथावद् विचराम्यहम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मैं नागयोनिमें जन्म ग्रहण करता हूँ, तब नागोंकी तरह बर्ताव करता हूँ। यक्षों और राक्षसोंकी योनियोंमें प्रकट होनेपर उन्हींके आचार-विचारका यथावत् रूपसे पालन करता हूँ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुष्ये वर्तमाने तु कृपणं याचिता मया।
न च ते जातसम्मोहा वचोऽगृह्णन्त मे हितम् ॥ २० ॥

मूलम्

मानुष्ये वर्तमाने तु कृपणं याचिता मया।
न च ते जातसम्मोहा वचोऽगृह्णन्त मे हितम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय मैं मनुष्ययोनिमें अवतीर्ण हुआ हूँ, इसलिये कौरवोंपर अपनी ईश्वरीय शक्तिका प्रयोग न करके पहले मैंने दीनतापूर्वक ही संधिके लिये प्रार्थना की थी; परंतु उन्होंने मोहग्रस्त होनेके कारण मेरी हितकर बात नहीं मानी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भयं च महदुद्दिश्य त्रासिताः कुरवो मया।
क्रुद्धेन भूत्वा तु पुनर्यथावदनुदर्शिताः ॥ २१ ॥
तेऽधर्मेणेह संयुक्ताः परीताः कालधर्मणा।
धर्मेण निहता युद्धे गताः स्वर्गं न संशयः ॥ २२ ॥

मूलम्

भयं च महदुद्दिश्य त्रासिताः कुरवो मया।
क्रुद्धेन भूत्वा तु पुनर्यथावदनुदर्शिताः ॥ २१ ॥
तेऽधर्मेणेह संयुक्ताः परीताः कालधर्मणा।
धर्मेण निहता युद्धे गताः स्वर्गं न संशयः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद क्रोधमें भरकर मैंने कौरवोंको बड़े-बड़े भय दिखाये और उन्हें बहुत डराया-धमकाया तथा यथार्थरूपसे युद्धका भावी परिणाम भी उन्हें दिखाया; परंतु वे तो अधर्मसे युक्त एवं कालसे ग्रस्त थे। अतः मेरी बात माननेको राजी न हुए। फिर क्षत्रिय-धर्मके अनुसार युद्धमें मारे गये। इसमें संदेह नहीं कि वे सब-के-सब स्वर्गलोकमें गये हैं॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकेषु पाण्डवाश्चैव गताः ख्यातिं द्विजोत्तम।
एतत् ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ २३ ॥

मूलम्

लोकेषु पाण्डवाश्चैव गताः ख्यातिं द्विजोत्तम।
एतत् ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! पाण्डव अपने धर्माचरणके कारण समस्त लोकोंमें विख्यात हुए हैं। आपने जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार मैंने यह सारा प्रसङ्ग कह सुनाया॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि उत्तङ्कोपाख्याने कृष्णवाक्ये चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५४॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें उत्तंकके उपाख्यानमें श्रीकृष्णका वचनविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५४॥