भागसूचना
द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णका अर्जुनके साथ हस्तिनापुर जाना और वहाँ सबसे मिलकर युधिष्ठिरकी आज्ञा ले सुभद्राके साथ द्वारकाको प्रस्थान करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभ्यनोदयत् कृष्णो युज्यतामिति दारुकम्।
मुहूर्तादिव चाचष्ट युक्तमित्येव दारुकः ॥ १ ॥
मूलम्
ततोऽभ्यनोदयत् कृष्णो युज्यतामिति दारुकम्।
मुहूर्तादिव चाचष्ट युक्तमित्येव दारुकः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने दारुकको आज्ञा दी कि ‘रथ जोतकर तैयार करो।’ दारुकने दो ही घड़ीमें लौटकर सूचना दी कि ‘रथ जुत गया’॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव चानुयात्रादि चोदयामास पाण्डवः।
सज्जयध्वं प्रयास्यामो नगरं गजसाह्वयम् ॥ २ ॥
मूलम्
तथैव चानुयात्रादि चोदयामास पाण्डवः।
सज्जयध्वं प्रयास्यामो नगरं गजसाह्वयम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार अर्जुनने भी अपने सेवकोंको आदेश दिया कि ‘सब लोग रथको सुसज्जित करो। अब हमें हस्तिनापुरकी यात्रा करनी है’॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ताः सैनिकास्ते तु सज्जीभूता विशाम्पते।
आचख्युः सज्जमित्येवं पार्थायामिततेजसे ॥ ३ ॥
मूलम्
इत्युक्ताः सैनिकास्ते तु सज्जीभूता विशाम्पते।
आचख्युः सज्जमित्येवं पार्थायामिततेजसे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! आज्ञा पाते ही सम्पूर्ण सैनिक तैयार हो गये और महान् तेजस्वी अर्जुनके पास जाकर बोले—‘रथ सुसज्जित है और यात्राकी सारी तैयारी हो गयी’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तौ रथमास्थाय प्रयातौ कृष्णपाण्डवौ।
विकुर्वाणौ कथाश्चित्राः प्रीयमाणौ विशाम्पते ॥ ४ ॥
मूलम्
ततस्तौ रथमास्थाय प्रयातौ कृष्णपाण्डवौ।
विकुर्वाणौ कथाश्चित्राः प्रीयमाणौ विशाम्पते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन रथपर बैठकर आपसमें तरह-तरहकी विचित्र बातें करते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे चल दिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथस्थं तु महातेजा वासुदेवं धनंजयः।
पुनरेवाब्रवीद् वाक्यमिदं भरतसत्तम ॥ ५ ॥
मूलम्
रथस्थं तु महातेजा वासुदेवं धनंजयः।
पुनरेवाब्रवीद् वाक्यमिदं भरतसत्तम ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतभूषण! रथपर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णसे पुनः इस प्रकार महातेजस्वी अर्जुन बोले—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्प्रसादाज्जयः प्राप्तो राज्ञा वृष्णिकुलोद्वह।
नियताः शत्रवश्चापि प्राप्तं राज्यमकण्टकम् ॥ ६ ॥
मूलम्
त्वत्प्रसादाज्जयः प्राप्तो राज्ञा वृष्णिकुलोद्वह।
नियताः शत्रवश्चापि प्राप्तं राज्यमकण्टकम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वृष्णिकुलधुरन्धर श्रीकृष्ण! आपकी कृपासे ही राजा युधिष्ठिरको विजय प्राप्त हुई है। उनके शत्रुओंका दमन हो गया और उन्हें निष्कण्टक राज्य मिला॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाथवन्तश्च भवता पाण्डवा मधुसूदन।
भवन्तं प्लवमासाद्य तीर्णाः स्म कुरुसागरम् ॥ ७ ॥
मूलम्
नाथवन्तश्च भवता पाण्डवा मधुसूदन।
भवन्तं प्लवमासाद्य तीर्णाः स्म कुरुसागरम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! हम सभी पाण्डव आपसे सनाथ हैं, आपको ही नौकारूप पाकर हमलोग कौरवसेनारूपी समुद्रसे पार हुए हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसत्तम।
तथा त्वामभिजानामि यथा चाहं भवन्मतः ॥ ८ ॥
मूलम्
विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसत्तम।
तथा त्वामभिजानामि यथा चाहं भवन्मतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वकर्मन्! आपको नमस्कार है। विश्वात्मन्! आप सम्पूर्ण विश्वमें सबसे श्रेष्ठ हैं। मैं आपको उसी तरह जानता हूँ, जिस तरह आप मुझे समझते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्तेजः सम्भवो नित्यं भूतात्मा मधुसूदन।
रतिः क्रीडामयी तुभ्यं माया ते रोदसी विभो ॥ ९ ॥
मूलम्
त्वत्तेजः सम्भवो नित्यं भूतात्मा मधुसूदन।
रतिः क्रीडामयी तुभ्यं माया ते रोदसी विभो ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! आपके ही तेजसे सदा सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति होती है। आप ही सब प्राणियोंके आत्मा हैं। प्रभो! नाना प्रकारकी लीलाएँ आपकी रति (मनोरंजन) हैं। आकाश और पृथिवी आपकी माया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयि सर्वमिदं विश्वं यदिदं स्थाणु जङ्गमम्।
त्वं हि सर्वं विकुरुषे भूतग्रामं चतुर्विधम् ॥ १० ॥
मूलम्
त्वयि सर्वमिदं विश्वं यदिदं स्थाणु जङ्गमम्।
त्वं हि सर्वं विकुरुषे भूतग्रामं चतुर्विधम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह जो स्थावर-जंगमरूप जगत् है, सब आपहीमें प्रतिष्ठित है। आप ही चार प्रकारके समस्त प्राणिसमुदायकी सृष्टि करते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवीं चान्तरिक्षं च द्यां चैव मधुसूदन।
हसितं तेऽमला ज्योत्स्ना ऋतवश्चेन्द्रियाणि ते ॥ ११ ॥
मूलम्
पृथिवीं चान्तरिक्षं च द्यां चैव मधुसूदन।
हसितं तेऽमला ज्योत्स्ना ऋतवश्चेन्द्रियाणि ते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! पृथ्वी, अन्तरिक्ष और आकाशकी सृष्टि भी आपने ही की है। निर्मल चाँदनी आपका हास्य है और ऋतुएँ आपकी इन्द्रियाँ हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणो वायुः सततगः क्रोधो मृत्युः सनातनः।
प्रसादे चापि पद्मा श्रीर्नित्यं त्वयि महामते ॥ १२ ॥
मूलम्
प्राणो वायुः सततगः क्रोधो मृत्युः सनातनः।
प्रसादे चापि पद्मा श्रीर्नित्यं त्वयि महामते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सदा चलनेवाली वायु प्राण है, क्रोध सनातन मृत्यु है। महामते! आपके प्रसादमें लक्ष्मी विराजमान हैं। आपके वक्षःस्थलमें सदा ही श्रीजीका निवास है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतिस्तुष्टिर्धृतिः क्षान्तिर्मतिः कान्तिश्चराचरम् ।
त्वमेवेह युगान्तेषु निधनं प्रोच्यसेऽनघ ॥ १३ ॥
मूलम्
रतिस्तुष्टिर्धृतिः क्षान्तिर्मतिः कान्तिश्चराचरम् ।
त्वमेवेह युगान्तेषु निधनं प्रोच्यसेऽनघ ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनघ! आपमें ही रति, तुष्टि, धृति, क्षान्ति, मति, कान्ति और चराचर जगत् है। आप ही युगान्तकालमें प्रलय कहे जाते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदीर्घेणापि कालेन न ते शक्या गुणा मया।
आत्मा च परमात्मा च नमस्ते नलिनेक्षण ॥ १४ ॥
मूलम्
सुदीर्घेणापि कालेन न ते शक्या गुणा मया।
आत्मा च परमात्मा च नमस्ते नलिनेक्षण ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दीर्घकालतक गणना करनेपर भी आपके गुणोंका पार पाना असम्भव है। आप ही आत्मा और परमात्मा हैं। कमलनयन! आपको नमस्कार है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदितो मे सुदुर्धर्ष नारदाद् देवलात् तथा।
कृष्णद्वैपायनाच्चैव तथा कुरुपितामहात् ॥ १५ ॥
मूलम्
विदितो मे सुदुर्धर्ष नारदाद् देवलात् तथा।
कृष्णद्वैपायनाच्चैव तथा कुरुपितामहात् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्धर्ष परमेश्वर! मैंने देवर्षि नारद, देवल, श्रीकृष्णद्वैपायन तथा पितामह भीष्मके मुखसे आपके माहात्म्यका ज्ञान प्राप्त किया है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयि सर्वं समासक्तं त्वमेवैको जनेश्वरः।
यच्चानुग्रहसंयुक्तमेतदुक्तं त्वयानघ ॥ १६ ॥
एतत् सर्वमहं सम्यगाचरिष्ये जनार्दन।
मूलम्
त्वयि सर्वं समासक्तं त्वमेवैको जनेश्वरः।
यच्चानुग्रहसंयुक्तमेतदुक्तं त्वयानघ ॥ १६ ॥
एतत् सर्वमहं सम्यगाचरिष्ये जनार्दन।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सारा जगत् आपमें ही ओत-प्रोत है। एकमात्र आप ही मनुष्योंके अधीश्वर हैं। निष्पाप जनार्दन! आपने मुझपर कृपा करके जो यह उपदेश दिया है, उसका मैं यथावत् पालन करूँगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं चाद्भुतमत्यन्तं कृतमस्मत्प्रियेप्सया ॥ १७ ॥
यत्पापो निहतः संख्ये कौरव्यो धृतराष्ट्रजः।
मूलम्
इदं चाद्भुतमत्यन्तं कृतमस्मत्प्रियेप्सया ॥ १७ ॥
यत्पापो निहतः संख्ये कौरव्यो धृतराष्ट्रजः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमलोगोंका प्रिय करनेकी इच्छासे आपने यह अत्यन्त अद्भुत कार्य किया कि धृतराष्ट्रके पुत्र कुरुकुलकलंक पापी दुर्योधनको (भैया भीमके द्वारा) युद्धमें मरवा डाला॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया दग्धं हि तत्सैन्यं मया विजितमाहवे ॥ १८ ॥
भवता तत्कृतं कर्म येनावाप्तो जयो मया।
मूलम्
त्वया दग्धं हि तत्सैन्यं मया विजितमाहवे ॥ १८ ॥
भवता तत्कृतं कर्म येनावाप्तो जयो मया।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुकी सेनाको आपने ही अपने तेजसे दग्ध कर दिया था। तभी मैंने युद्धमें उसपर विजय पायी है। आपने ही ऐसे-ऐसे उपाय किये हैं, जिनसे मुझे विजय सुलभ हुई है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनस्य संग्रामे तव बुद्धिपराक्रमैः ॥ १९ ॥
कर्णस्य च वधोपायो यथावत् सम्प्रदर्शितः।
सैन्धवस्य च पापस्य भूरिश्रवस एव च ॥ २० ॥
मूलम्
दुर्योधनस्य संग्रामे तव बुद्धिपराक्रमैः ॥ १९ ॥
कर्णस्य च वधोपायो यथावत् सम्प्रदर्शितः।
सैन्धवस्य च पापस्य भूरिश्रवस एव च ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संग्राममें आपकी ही बुद्धि और पराक्रमसे दुर्योधन, कर्ण, पापी सिन्धुराज जयद्रथ तथा भूरिश्रवाके वधका उपाय मुझे यथावत् रूपसे दृष्टिगोचर हुआ॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं च प्रीयमाणेन त्वया देवकिनन्दन।
यदुक्तस्तत् करिष्यामि न हि मेऽत्र विचारणा ॥ २१ ॥
मूलम्
अहं च प्रीयमाणेन त्वया देवकिनन्दन।
यदुक्तस्तत् करिष्यामि न हि मेऽत्र विचारणा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवकीनन्दन! आपने प्रेमपूर्वक प्रसन्नताके साथ मुझे जो कार्य करनेके लिये कहा है, उसे अवश्य करूँगा; इसमें मुझे कुछ भी विचार नहीं करना है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानं च समासाद्य धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
चोदयिष्यामि धर्मज्ञ गमनार्थं तवानघ ॥ २२ ॥
रुचितं हि ममैतत्ते द्वारकागमनं प्रभो।
अचिरादेव द्रष्टा त्वं मातुलं मे जनार्दन ॥ २३ ॥
बलदेवं च दुर्धर्षं तथान्यान् वृष्णिपुङ्गवान्।
मूलम्
राजानं च समासाद्य धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
चोदयिष्यामि धर्मज्ञ गमनार्थं तवानघ ॥ २२ ॥
रुचितं हि ममैतत्ते द्वारकागमनं प्रभो।
अचिरादेव द्रष्टा त्वं मातुलं मे जनार्दन ॥ २३ ॥
बलदेवं च दुर्धर्षं तथान्यान् वृष्णिपुङ्गवान्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मज्ञ एवं निष्पाप भगवान् जनार्दन! मैं धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरके पास चलकर उनसे आपके जानेके लिये आज्ञा प्रदान करनेका अनुरोध करूँगा। इस समय आपका द्वारका जाना आवश्यक है, इसमें मेरी भी सम्मति है। अब आप शीघ्र ही मामाजीका दर्शन करेंगे और दुर्जय वीर बलदेवजी तथा अन्यान्य वृष्णिवंशी वीरोंसे मिल सकेंगे’॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सम्भाषमाणौ तौ प्राप्तौ वारणसाह्वयम् ॥ २४ ॥
तथा विविशतुश्चोभौ सम्प्रहृष्टनराकुलम् ।
मूलम्
एवं सम्भाषमाणौ तौ प्राप्तौ वारणसाह्वयम् ॥ २४ ॥
तथा विविशतुश्चोभौ सम्प्रहृष्टनराकुलम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बातचीत करते हुए वे दोनों मित्र हस्तिनापुरमें जा पहुँचे। उन दोनोंने हृष्ट-पुष्ट मनुष्योंसे भरे हुए नगरमें प्रवेश किया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ गत्वा धृतराष्ट्रस्य गृहं शक्रगृहोपमम् ॥ २५ ॥
ददृशाते महाराज धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्।
विदुरं च महाबुद्धिं राजानं च युधिष्ठिरम् ॥ २६ ॥
मूलम्
तौ गत्वा धृतराष्ट्रस्य गृहं शक्रगृहोपमम् ॥ २५ ॥
ददृशाते महाराज धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्।
विदुरं च महाबुद्धिं राजानं च युधिष्ठिरम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इन्द्रभवनके समान शोभा पानेवाले धृतराष्ट्रके महलमें उन दोनोंने राजा धृतराष्ट्र, महाबुद्धिमान् विदुर और राजा युधिष्ठिरका दर्शन किया॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनं च दुर्धर्षं माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
धृतराष्ट्रमुपासीनं युयुत्सुं चापराजितम् ॥ २७ ॥
गान्धारीं च महाप्रज्ञां पृथां कृष्णां च भामिनीम्।
सुभद्राद्याश्च ताः सर्वा भरतानां स्त्रियस्तथा ॥ २८ ॥
ददृशाते स्त्रियः सर्वा गान्धारीपरिचारिकाः।
मूलम्
भीमसेनं च दुर्धर्षं माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
धृतराष्ट्रमुपासीनं युयुत्सुं चापराजितम् ॥ २७ ॥
गान्धारीं च महाप्रज्ञां पृथां कृष्णां च भामिनीम्।
सुभद्राद्याश्च ताः सर्वा भरतानां स्त्रियस्तथा ॥ २८ ॥
ददृशाते स्त्रियः सर्वा गान्धारीपरिचारिकाः।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर क्रमशः दुर्जय वीर भीमसेन, माद्रीनन्दन पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव, धृतराष्ट्रकी सेवामें लगे रहनेवाले अपराजित वीर युयुत्सु, परम बुद्धिमती गान्धारी, कुन्ती, भार्या द्रौपदी तथा सुभद्रा आदि भरतवंशकी सभी स्त्रियोंसे मिले। गान्धारीकी सेवामें रहनेवाली उन सभी स्त्रियोंका उन दोनोंने दर्शन किया॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः समेत्य राजानं धृतराष्ट्रमरिंदमौ ॥ २९ ॥
निवेद्य नामधेये स्वे तस्य पादावगृह्णताम्।
गान्धार्याश्च पृथायाश्च धर्मराजस्य चैव हि ॥ ३० ॥
भीमस्य च महात्मानौ तथा पादावगृह्णताम्।
मूलम्
ततः समेत्य राजानं धृतराष्ट्रमरिंदमौ ॥ २९ ॥
निवेद्य नामधेये स्वे तस्य पादावगृह्णताम्।
गान्धार्याश्च पृथायाश्च धर्मराजस्य चैव हि ॥ ३० ॥
भीमस्य च महात्मानौ तथा पादावगृह्णताम्।
अनुवाद (हिन्दी)
सबसे पहले उन शत्रुदमन वीरोंने राजा धृतराष्ट्रके पास जाकर अपने नाम बताते हुए उनके दोनों चरणोंका स्पर्श किया। उसके बाद उन महात्माओंने गान्धारी, कुन्ती, धर्मराज युधिष्ठिर और भीमसेनके पैर छूये॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्तारं चापि संगृह्य पृष्ट्त्वा कुशलमव्ययम् ॥ ३१ ॥
(परिष्वज्य महात्मानं वैश्यापुत्रं महारथम्।)
तैः सार्धं नृपतिं वृद्धं ततस्तौ पर्युपासताम्।
मूलम्
क्षत्तारं चापि संगृह्य पृष्ट्त्वा कुशलमव्ययम् ॥ ३१ ॥
(परिष्वज्य महात्मानं वैश्यापुत्रं महारथम्।)
तैः सार्धं नृपतिं वृद्धं ततस्तौ पर्युपासताम्।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर विदुरजीसे मिलकर उनका कुशल-मंगल पूछा। इसके बाद वैश्यापुत्र महारथी महामना युयुत्सुको भी हृदयसे लगाया। तत्पश्चात् उन सबके साथ वे दोनों बूढ़े राजा धृतराष्ट्रके पास जा बैठे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निशि महाराजो धृतराष्ट्रः कुरूद्वहान् ॥ ३२ ॥
जनार्दनं च मेधावी व्यसर्जयत वै गृहान्।
तेऽनुज्ञाता नृपतिना ययुः स्वं स्वं निवेशनम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततो निशि महाराजो धृतराष्ट्रः कुरूद्वहान् ॥ ३२ ॥
जनार्दनं च मेधावी व्यसर्जयत वै गृहान्।
तेऽनुज्ञाता नृपतिना ययुः स्वं स्वं निवेशनम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रात हो जानेपर मेधावी महाराज धृतराष्ट्रने उन कुरुश्रेष्ठ वीरों तथा भगवान् श्रीकृष्णको अपने-अपने घरमें जानेके लिये विदा किया। राजाकी आज्ञा पाकर वे सब लोग अपने-अपने घरको गये॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनंजयगृहानेव ययौ कृष्णस्तु वीर्यवान्।
तत्रार्चितो यथान्यायं सर्वकामैरुपस्थितः ॥ ३४ ॥
मूलम्
धनंजयगृहानेव ययौ कृष्णस्तु वीर्यवान्।
तत्रार्चितो यथान्यायं सर्वकामैरुपस्थितः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पराक्रमी भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनके ही घरमें गये। वहाँ उनकी यथोचित पूजा हुई और सम्पूर्ण अभीष्ट पदार्थ उनकी सेवामें उपस्थित किये गये॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णः सुष्वाप मेधावी धनंजयसहायवान्।
प्रभातायां तु शर्वर्यां कृत्वा पौर्वाह्णिकीं क्रियाम् ॥ ३५ ॥
धर्मराजस्य भवनं जग्मतुः परमार्चितौ।
यत्रास्ते स सहामात्यो धर्मराजो महाबलः ॥ ३६ ॥
मूलम्
कृष्णः सुष्वाप मेधावी धनंजयसहायवान्।
प्रभातायां तु शर्वर्यां कृत्वा पौर्वाह्णिकीं क्रियाम् ॥ ३५ ॥
धर्मराजस्य भवनं जग्मतुः परमार्चितौ।
यत्रास्ते स सहामात्यो धर्मराजो महाबलः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भोजनके पश्चात् मेधावी श्रीकृष्ण अर्जुनके साथ सोये। जब रात बीती और प्रातःकाल हुआ, तब पूर्वाह्नकालकी क्रिया—संध्या-वन्दन आदि करके वे दोनों परम पूजित मित्र धर्मराज युधिष्ठिरके महलमें गये। जहाँ महाबली धर्मराज अपने मन्त्रियोंके साथ रहते थे॥३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ प्रविश्य महात्मानौ तद् गृहं परमार्चितम्।
धर्मराजं ददृशतुर्देवराजमिवाश्विनौ ॥ ३७ ॥
मूलम्
तौ प्रविश्य महात्मानौ तद् गृहं परमार्चितम्।
धर्मराजं ददृशतुर्देवराजमिवाश्विनौ ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस परम सुन्दर एवं सुसज्जित भवनमें प्रवेश करके उन महात्माओंने धर्मराज युधिष्ठिरका दर्शन किया। मानो दोनों अश्विनीकुमार देवराज इन्द्रसे आकर मिले हों॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समासाद्य तु राजानं वार्ष्णेयकुरुपुङ्गवौ।
निषीदतुरनुज्ञातौ प्रीयमाणेन तेन तौ ॥ ३८ ॥
मूलम्
समासाद्य तु राजानं वार्ष्णेयकुरुपुङ्गवौ।
निषीदतुरनुज्ञातौ प्रीयमाणेन तेन तौ ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण और अर्जुन जब राजाके पास पहुँचे, तब उन्हें देख उनको बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर उनके आज्ञा देनेपर वे दोनों मित्र आसनपर विराजमान हुए॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स राजा मेधावी विवक्षू प्रेक्ष्य तावुभौ।
प्रोवाच वदतां श्रेष्ठो वचनं राजसत्तमः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततः स राजा मेधावी विवक्षू प्रेक्ष्य तावुभौ।
प्रोवाच वदतां श्रेष्ठो वचनं राजसत्तमः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वक्ताओंमें श्रेष्ठ भूपालशिरोमणि मेधावी युधिष्ठिरने उन्हें कुछ कहनेके लिये इच्छुक देख उनसे इस प्रकार कहा—॥३९॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवक्षू हि युवां मन्ये वीरौ यदुकुरूद्वहौ।
ब्रूतं कर्तास्मि सर्वं वां नचिरान्मा विचार्यताम् ॥ ४० ॥
मूलम्
विवक्षू हि युवां मन्ये वीरौ यदुकुरूद्वहौ।
ब्रूतं कर्तास्मि सर्वं वां नचिरान्मा विचार्यताम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— यदुकुल और कुरुकुलको अलंकृत करनेवाले वीरो! मालूम होता है, तुमलोग मुझसे कुछ कहना चाहते हो। जो भी कहना हो, कहो; मैं तुम्हारी सारी इच्छाओंको शीघ्र ही पूर्ण करूँगा। तुम मनमें कुछ अन्यथा विचार न करो॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः फाल्गुनस्तत्र धर्मराजानमब्रवीत् ।
विनीतवदुपागम्य वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ ४१ ॥
मूलम्
इत्युक्तः फाल्गुनस्तत्र धर्मराजानमब्रवीत् ।
विनीतवदुपागम्य वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके इस प्रकार कहनेपर बातचीत करनेमें कुशल अर्जुनने धर्मराजके पास जाकर बड़े विनीत भावसे कहा—॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं चिरोषितो राजन् वासुदेवः प्रतापवान्।
भवन्तं समनुज्ञाप्य पितरं द्रष्टुमिच्छति ॥ ४२ ॥
स गच्छेदभ्यनुज्ञातो भवता यदि मन्यसे।
आनर्तनगरीं वीरस्तदनुज्ञातुमर्हसि ॥ ४३ ॥
मूलम्
अयं चिरोषितो राजन् वासुदेवः प्रतापवान्।
भवन्तं समनुज्ञाप्य पितरं द्रष्टुमिच्छति ॥ ४२ ॥
स गच्छेदभ्यनुज्ञातो भवता यदि मन्यसे।
आनर्तनगरीं वीरस्तदनुज्ञातुमर्हसि ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! परम प्रतापी वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णको यहाँ रहते बहुत दिन हो गया। अब ये आपकी आज्ञा लेकर अपने पिताजीका दर्शन करना चाहते हैं। यदि आप स्वीकार करें और हर्षपूर्वक आज्ञा दे दें तभी ये वीरवर श्रीकृष्ण आनर्तनगरी द्वारकाको जायँगे। अतः आप इन्हें जानेकी आज्ञा दे दें’॥४२-४३॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्डरीकाक्ष भद्रं ते गच्छ त्वं मधुसूदन।
पुरीं द्वारवतीमद्य द्रष्टुं शूरसुतं प्रभो ॥ ४४ ॥
मूलम्
पुण्डरीकाक्ष भद्रं ते गच्छ त्वं मधुसूदन।
पुरीं द्वारवतीमद्य द्रष्टुं शूरसुतं प्रभो ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— कमलनयन मधुसूदन! आपका कल्याण हो। प्रभो! आप शूरनन्दन वसुदेवजीका दर्शन करनेके लिये आज ही द्वारकाको प्रस्थान कीजिये॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोचते मे महाबाहो गमनं तव केशव।
मातुलश्चिरदृष्टो मे त्वया देवी च देवकी ॥ ४५ ॥
मूलम्
रोचते मे महाबाहो गमनं तव केशव।
मातुलश्चिरदृष्टो मे त्वया देवी च देवकी ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु केशव! मुझे आपका जाना इसलिये ठीक लगता है कि आपने मेरे मामाजी और मामी देवकी देवीको बहुत दिनोंसे नहीं देखा है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समेत्य मातुलं गत्वा बलदेवं च मानद।
पूजयेथा महाप्राज्ञ मद्वाक्येन यथार्हतः ॥ ४६ ॥
मूलम्
समेत्य मातुलं गत्वा बलदेवं च मानद।
पूजयेथा महाप्राज्ञ मद्वाक्येन यथार्हतः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मानद! महाप्राज्ञ! आप मामाजी तथा भैया बलदेवजीके पास जाकर उनसे मिलिये और मेरी ओरसे उनका यथायोग्य सत्कार कीजिये॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मरेथाश्चापि मां नित्यं भीमं च बलिनां वरम्।
फाल्गुनं सहदेवं च नकुलं चैव मानद ॥ ४७ ॥
मूलम्
स्मरेथाश्चापि मां नित्यं भीमं च बलिनां वरम्।
फाल्गुनं सहदेवं च नकुलं चैव मानद ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भक्तोंको मान देनेवाले श्रीकृष्ण! द्वारकामें पहुँचकर आप मुझको, बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेनको, अर्जुन, सहदेव और नकुलको भी सदा याद रखियेगा॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनर्तानवलोक्य त्वं पितरं च महाभुज।
वृष्णींश्च पुनरागच्छेर्हयमेधे ममानघ ॥ ४८ ॥
मूलम्
आनर्तानवलोक्य त्वं पितरं च महाभुज।
वृष्णींश्च पुनरागच्छेर्हयमेधे ममानघ ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु निष्पाप श्रीकृष्ण! आनर्त देशकी प्रजा, अपने माता-पिता तथा वृष्णिवंशी बन्धु-बान्धवोंसे मिलकर पुनः मेरे अश्वमेध यज्ञमें पधारियेगा॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गच्छ रत्नान्यादाय विविधानि वसूनि च।
यच्चाप्यन्यन्मनोज्ञं ते तदप्यादत्स्व सात्वत ॥ ४९ ॥
इयं च वसुधा कृत्स्ना प्रसादात् तव केशव।
अस्मानुपगता वीर निहताश्चापि शत्रवः ॥ ५० ॥
मूलम्
स गच्छ रत्नान्यादाय विविधानि वसूनि च।
यच्चाप्यन्यन्मनोज्ञं ते तदप्यादत्स्व सात्वत ॥ ४९ ॥
इयं च वसुधा कृत्स्ना प्रसादात् तव केशव।
अस्मानुपगता वीर निहताश्चापि शत्रवः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुनन्दन केशव! ये तरह-तरहके रत्न और धन प्रस्तुत हैं। इन्हें तथा दूसरी-दूसरी वस्तुएँ जो आपको पसंद हों लेकर यात्रा कीजिये। वीरवर! आपके प्रसादसे ही इस सम्पूर्ण भूमण्डलका राज्य हमारे हाथमें आया है और हमारे शत्रु भी मारे गये॥४९-५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवति कौरव्ये धर्मराजे युधिष्ठिरे।
वासुदेवो वरः पुंसामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ५१ ॥
मूलम्
एवं ब्रुवति कौरव्ये धर्मराजे युधिष्ठिरे।
वासुदेवो वरः पुंसामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन धर्मराज युधिष्ठिर जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय पुरुषोत्तम वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने उनसे यह बात कही—॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवैव रत्नानि धनं च केवलं
धरा तु कृत्स्ना तु महाभुजाद्य वै।
यदस्ति चान्यद् द्रविणं गृहे मम
त्वमेव तस्येश्वर नित्यमीश्वरः ॥ ५२ ॥
मूलम्
तवैव रत्नानि धनं च केवलं
धरा तु कृत्स्ना तु महाभुजाद्य वै।
यदस्ति चान्यद् द्रविणं गृहे मम
त्वमेव तस्येश्वर नित्यमीश्वरः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! ये रत्न, धन और समूची पृथ्वी अब केवल आपकी ही है। इतना ही नहीं, मेरे घरमें भी जो कुछ धन-वैभव है, उसको भी आप अपना ही समझिये। नरेश्वर! आप ही सदा उसके भी स्वामी हैं’॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्यथोक्तः प्रतिपूजितस्तदा
गदाग्रजो धर्मसुतेन वीर्यवान् ।
पितृष्वसारं त्ववदद् यथाविधि
सम्पूजितश्चाप्यगमत् प्रदक्षिणम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
तथेत्यथोक्तः प्रतिपूजितस्तदा
गदाग्रजो धर्मसुतेन वीर्यवान् ।
पितृष्वसारं त्ववदद् यथाविधि
सम्पूजितश्चाप्यगमत् प्रदक्षिणम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर धर्मपुत्र युधिष्ठिरने जो आज्ञा कहकर उनके वचनोंका आदर किया। उनसे सम्मानित हो पराक्रमी श्रीकृष्णने अपनी बुआ कुन्तीके पास जाकर बातचीत की और उनसे यथोचित सत्कार पाकर उनकी प्रदक्षिणा की॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया स सम्यक् प्रतिनन्दितस्तत-
स्तथैव सर्वैर्विदुरादिभिस्तथा ।
विनिर्ययौ नागपुराद् गदाग्रजो
रथेन दिव्येन चतुर्भुजः स्वयम् ॥ ५४ ॥
मूलम्
तया स सम्यक् प्रतिनन्दितस्तत-
स्तथैव सर्वैर्विदुरादिभिस्तथा ।
विनिर्ययौ नागपुराद् गदाग्रजो
रथेन दिव्येन चतुर्भुजः स्वयम् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीसे भलीभाँति अभिनन्दित हो विदुर आदि सब लोगोंसे सत्कारपूर्वक विदा ले चार भुजाधारी भगवान् श्रीकृष्ण अपने दिव्य रथद्वारा हस्तिनापुरसे बाहर निकले॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथे सुभद्रामधिरोप्य भाविनीं
युधिष्ठिरस्यानुमते जनार्दनः ।
पितृष्वसुश्चापि तथा महाभुजो
विनिर्ययौ पौरजनाभिसंवृतः ॥ ५५ ॥
मूलम्
रथे सुभद्रामधिरोप्य भाविनीं
युधिष्ठिरस्यानुमते जनार्दनः ।
पितृष्वसुश्चापि तथा महाभुजो
विनिर्ययौ पौरजनाभिसंवृतः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुआ कुन्ती तथा राजा युधिष्ठिरकी आज्ञासे भाविनी सुभद्राको भी रथपर बिठाकर महाबाहु जनार्दन पुरवासियोंसे घिरे हुए नगरसे बाहर निकले॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमन्वयाद् वानरवर्यकेतनः
ससात्यकिर्माद्रवतीसुतावपि ।
अगाधबुद्धिर्विदुरश्च माधवं
स्वयं च भीमो गजराजविक्रमः ॥ ५६ ॥
मूलम्
तमन्वयाद् वानरवर्यकेतनः
ससात्यकिर्माद्रवतीसुतावपि ।
अगाधबुद्धिर्विदुरश्च माधवं
स्वयं च भीमो गजराजविक्रमः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उन माधवके पीछे कपिध्वज अर्जुन, सात्यकि, नकुल-सहदेव, अगाधबुद्धि विदुर और गजराजके समान पराक्रमी स्वयं भीमसेन भी कुछ दूरतक पहुँचानेके लिये गये॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवर्तयित्वा कुरुराष्ट्रवर्धनां-
स्ततः स सर्वान् विदुरं च वीर्यवान्।
जनार्दनो दारुकमाह सत्वरः
प्रचोदयाश्वानिति सात्यकिं तथा ॥ ५७ ॥
मूलम्
निवर्तयित्वा कुरुराष्ट्रवर्धनां-
स्ततः स सर्वान् विदुरं च वीर्यवान्।
जनार्दनो दारुकमाह सत्वरः
प्रचोदयाश्वानिति सात्यकिं तथा ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पराक्रमी श्रीकृष्णने कौरवराज्यकी वृद्धि करनेवाले उन समस्त पाण्डवों तथा विदुरजीको लौटाकर दारुक तथा सात्यकिसे कहा—‘अब घोड़ोंको जोरसे हाँको’॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ययौ शत्रुगणप्रमर्दनः
शिनिप्रवीरानुगतो जनार्दनः ।
यथा निहत्यारिगणं शतक्रतु-
र्दिवं तथाऽऽनर्तपुरीं प्रतापवान् ॥ ५८ ॥
मूलम्
ततो ययौ शत्रुगणप्रमर्दनः
शिनिप्रवीरानुगतो जनार्दनः ।
यथा निहत्यारिगणं शतक्रतु-
र्दिवं तथाऽऽनर्तपुरीं प्रतापवान् ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् शिनिवीर सात्यकिको साथ लिये शत्रुदलमर्दन प्रतापी श्रीकृष्ण आनर्तपुरी द्वारकाकी ओर उसी प्रकार चल दिये, जैसे प्रतापी इन्द्र अपने शत्रुसमुदायका संहार करके स्वर्गमें जा रहे हों॥५८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि कृष्णप्रयाणे द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें श्रीकृष्णका द्वारकाको प्रस्थानविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ५८ श्लोक हैं)