भागसूचना
एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
तपस्याका प्रभाव, आत्माका स्वरूप और उसके ज्ञानकी महिमा तथा अनुगीताका उपसंहार
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतानामथ पञ्चानां यथैषामीश्वरं मनः।
नियमे च विसर्गे च भूतात्मा मन एव च॥१॥
मूलम्
भूतानामथ पञ्चानां यथैषामीश्वरं मनः।
नियमे च विसर्गे च भूतात्मा मन एव च॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— महर्षियो! जिस प्रकार इन पाँचों महाभूतोंकी उत्पत्ति और नियमन करनेमें मन समर्थ है, उसी प्रकार स्थितिकालमें भी मन ही भूतोंका आत्मा है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिष्ठाता मनो नित्यं भूतानां महतां तथा।
बुद्धिरैश्वर्यमाचष्टे क्षेत्रज्ञश्च स उच्यते ॥ २ ॥
मूलम्
अधिष्ठाता मनो नित्यं भूतानां महतां तथा।
बुद्धिरैश्वर्यमाचष्टे क्षेत्रज्ञश्च स उच्यते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन पञ्चमहाभूतोंका नित्य आधार भी मन ही है। बुद्धि जिसके ऐश्वर्यको प्रकाशित करती है, वह क्षेत्रज्ञ कहा जाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि मनो युङ्क्ते सदश्वानिव सारथिः।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः क्षेत्रज्ञे युज्यते सदा ॥ ३ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणि मनो युङ्क्ते सदश्वानिव सारथिः।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः क्षेत्रज्ञे युज्यते सदा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सारथि अच्छे घोड़ोंको अपने काबूमें रखता है, उसी प्रकार मन सम्पूर्ण इन्द्रियोंपर शासन करता है। इन्द्रिय, मन और बुद्धि—ये सदा क्षेत्रज्ञके साथ संयुक्त रहते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महदश्वसमायुक्तं बुद्धिसंयमनं रथम् ।
समारुह्य स भूतात्मा समन्तात् परिधावति ॥ ४ ॥
मूलम्
महदश्वसमायुक्तं बुद्धिसंयमनं रथम् ।
समारुह्य स भूतात्मा समन्तात् परिधावति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसमें इन्द्रियरूपी घोड़े जुते हुए हैं, जिसका बुद्धिरूपी सारथिके द्वारा नियन्त्रण हो रहा है, उस देहरूपी रथपर सवार होकर वह भूतात्मा (क्षेत्रज्ञ) चारों ओर दौड़ लगाता रहता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियग्रामसंयुक्तो मनःसारथिरेव च ।
बुद्धिसंयमनो नित्यं महान् ब्रह्ममयो रथः ॥ ५ ॥
मूलम्
इन्द्रियग्रामसंयुक्तो मनःसारथिरेव च ।
बुद्धिसंयमनो नित्यं महान् ब्रह्ममयो रथः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्ममय रथ सदा रहनेवाला और महान् है, इन्द्रियाँ उसके घोड़े, मन सारथि और बुद्धि चाबुक है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं यो वेत्ति विद्वान् वै सदा ब्रह्ममयं रथम्।
स धीरः सर्वभूतेषु न मोहमधिगच्छति ॥ ६ ॥
मूलम्
एवं यो वेत्ति विद्वान् वै सदा ब्रह्ममयं रथम्।
स धीरः सर्वभूतेषु न मोहमधिगच्छति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जो विद्वान् इस ब्रह्ममय रथकी सदा जानकारी रखता है, वह समस्त प्राणियोंमें धीर है और कभी मोहमें नहीं पड़ता॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तादि विशेषान्तं सहस्थावरजङ्गमम् ।
सूर्यचन्द्रप्रभालोकं ग्रहनक्षत्रमण्डितम् ॥ ७ ॥
नदीपर्वतजालैश्च सर्वतः परिभूषितम् ।
विविधाभिस्तथा चाद्भिः सततं समलंकृतम् ॥ ८ ॥
आजीवं सर्वभूतानां सर्वप्राणभृतां गतिः।
एतद् ब्रह्मवनं नित्यं तस्मिंश्चरति क्षेत्रवित् ॥ ९ ॥
मूलम्
अव्यक्तादि विशेषान्तं सहस्थावरजङ्गमम् ।
सूर्यचन्द्रप्रभालोकं ग्रहनक्षत्रमण्डितम् ॥ ७ ॥
नदीपर्वतजालैश्च सर्वतः परिभूषितम् ।
विविधाभिस्तथा चाद्भिः सततं समलंकृतम् ॥ ८ ॥
आजीवं सर्वभूतानां सर्वप्राणभृतां गतिः।
एतद् ब्रह्मवनं नित्यं तस्मिंश्चरति क्षेत्रवित् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जगत् एक ब्रह्मवन है। अव्यक्त प्रकृति इसका आदि है। पाँच महाभूत, दस इन्द्रियाँ और एक मन—इन सोलह विशेषोंतक इसका विस्तार है। यह चराचर प्राणियोंसे भरा हुआ है। सूर्य और चन्द्रमा आदिके प्रकाशसे प्रकाशित है। ग्रह और नक्षत्रोंसे सुशोभित है। नदियों और पर्वतोंके समूहसे सब ओर विभूषित है। नाना प्रकारके जलसे सदा ही अलंकृत है। यही सम्पूर्ण भूतोंका जीवन और सम्पूर्ण प्राणियोंकी गति है। इस ब्रह्मवनमें क्षेत्रज्ञ विचरण करता है॥७—९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकेऽस्मिन् यानि सत्त्वानि त्रसानि स्थावराणि च।
तान्येवाग्रे प्रलीयन्ते पश्चाद् भूतकृता गुणाः।
गुणेभ्यः पञ्चभूतानि एष भूतसमुच्छ्रयः ॥ १० ॥
मूलम्
लोकेऽस्मिन् यानि सत्त्वानि त्रसानि स्थावराणि च।
तान्येवाग्रे प्रलीयन्ते पश्चाद् भूतकृता गुणाः।
गुणेभ्यः पञ्चभूतानि एष भूतसमुच्छ्रयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस लोकमें जो स्थावर-जंगम प्राणी हैं, वे ही पहले प्रकृतिमें विलीन होते हैं, उसके बाद पाँच भूतोंके कार्य लीन होते हैं और कार्यरूप गुणोंके बाद पाँच भूत लीन होते हैं। इस प्रकार यह भूतसमुदाय प्रकृतिमें लीन होता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवा मनुष्या गन्धर्वाः पिशाचासुरराक्षसाः।
सर्वे स्वभावतः सृष्टा न क्रियाभ्यो न कारणात् ॥ ११ ॥
मूलम्
देवा मनुष्या गन्धर्वाः पिशाचासुरराक्षसाः।
सर्वे स्वभावतः सृष्टा न क्रियाभ्यो न कारणात् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पिशाच, असुर, राक्षस सभी स्वभावसे रचे गये हैं; किसी क्रियासे या कारणसे इनकी रचना नहीं हुई है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते विश्वसृजो विप्रा जायन्तीह पुनः पुनः।
तेभ्यः प्रसूतास्तेष्वेव महाभूतेषु पञ्चसु।
प्रलीयन्ते यथाकालमूर्मयः सागरे यथा ॥ १२ ॥
मूलम्
एते विश्वसृजो विप्रा जायन्तीह पुनः पुनः।
तेभ्यः प्रसूतास्तेष्वेव महाभूतेषु पञ्चसु।
प्रलीयन्ते यथाकालमूर्मयः सागरे यथा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वकी सृष्टि करनेवाले ये मरीचि आदि ब्राह्मण समुद्रकी लहरोंके समान बारंबार पञ्चमहाभूतोंसे उत्पन्न होते हैं। और उत्पन्न हुए वे फिर समयानुसार उन्हींमें लीन हो जाते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वसृग्भ्यस्तु भूतेभ्यो महाभूतास्तु सर्वशः।
भूतेभ्यश्चापि पञ्चभ्यो मुक्तो गच्छेत् परां गतिम् ॥ १३ ॥
मूलम्
विश्वसृग्भ्यस्तु भूतेभ्यो महाभूतास्तु सर्वशः।
भूतेभ्यश्चापि पञ्चभ्यो मुक्तो गच्छेत् परां गतिम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विश्वकी रचना करनेवाले प्राणियोंसे पञ्च महाभूत सब प्रकार पर है। जो इन पञ्च महाभूतोंसे छूट जाता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतिरिदं सर्वं मनसैवासृजत् प्रभुः।
तथैव देवानृषयस्तपसा प्रतिपेदिरे ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रजापतिरिदं सर्वं मनसैवासृजत् प्रभुः।
तथैव देवानृषयस्तपसा प्रतिपेदिरे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शक्तिसम्पन्न प्रजापतिने अपने मनके ही द्वारा सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि की है तथा ऋषि भी तपस्यासे ही देवत्वको प्राप्त हुए हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसश्चानुपूर्व्येण फलमूलाशिनस्तथा ।
त्रैलोक्यं तपसा सिद्धाः पश्यन्तीह समाहिताः ॥ १५ ॥
मूलम्
तपसश्चानुपूर्व्येण फलमूलाशिनस्तथा ।
त्रैलोक्यं तपसा सिद्धाः पश्यन्तीह समाहिताः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फल-मूलका भोजन करनेवाले सिद्ध महात्मा यहाँ तपस्याके प्रभावसे ही चित्तको एकाग्र करके तीनों लोकोंकी बातोंको क्रमशः प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
औषधान्यगदादीनि नानाविद्याश्च सर्वशः ।
तपसैव प्रसिद्ध्यन्ति तपोमूलं हि साधनम् ॥ १६ ॥
मूलम्
औषधान्यगदादीनि नानाविद्याश्च सर्वशः ।
तपसैव प्रसिद्ध्यन्ति तपोमूलं हि साधनम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आरोग्यकी साधनभूत ओषधियाँ और नाना प्रकारकी विद्याएँ तपसे ही सिद्ध होती हैं। सारे साधनोंकी जड़ तपस्या ही है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्दुरापं दुराम्नायं दुराधर्षं दुरन्वयम्।
तत् सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ १७ ॥
मूलम्
यद्दुरापं दुराम्नायं दुराधर्षं दुरन्वयम्।
तत् सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसको पाना, जिसका अभ्यास करना, जिसे दबाना और जिसकी संगति लगाना नितान्त कठिन है, वह तपस्याके द्वारा साध्य हो जाता है; क्योंकि तपका प्रभाव दुर्लङ्घ्य है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरापो ब्रह्महा स्तेयी भ्रूणहा गुरुतल्पगः।
तपसैव सुतप्तेन मुच्यते किल्बिषात् ततः ॥ १८ ॥
मूलम्
सुरापो ब्रह्महा स्तेयी भ्रूणहा गुरुतल्पगः।
तपसैव सुतप्तेन मुच्यते किल्बिषात् ततः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शराबी, ब्रह्महत्यारा, चोर, गर्भ नष्ट करनेवाला और गुरुपत्नीकी शय्यापर सोनेवाला महापापी भी भलीभाँति तपस्या करके ही उस महान् पापसे छुटकारा पा सकता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनुष्याः पितरो देवाः पशवो मृगपक्षिणः।
यानि चान्यानि भूतानि त्रसानि स्थावराणि च ॥ १९ ॥
तपःपरायणा नित्यं सिद्ध्यन्ते तपसा सदा।
तथैव तपसा देवा महामाया दिवं गताः ॥ २० ॥
मूलम्
मनुष्याः पितरो देवाः पशवो मृगपक्षिणः।
यानि चान्यानि भूतानि त्रसानि स्थावराणि च ॥ १९ ॥
तपःपरायणा नित्यं सिद्ध्यन्ते तपसा सदा।
तथैव तपसा देवा महामाया दिवं गताः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य, पितर, देवता, पशु, मृग, पक्षी तथा अन्य जितने चराचर प्राणी हैं, वे सब नित्य तपस्यामें संलग्न होकर ही सदा सिद्धि प्राप्त करते हैं। तपस्याके बलसे ही महामायावी देवता स्वर्गमें निवास करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीर्युक्तानि कर्माणि कुर्वते ये त्वतन्द्रिताः।
अहंकारसमायुक्तास्ते सकाशे प्रजापतेः ॥ २१ ॥
मूलम्
आशीर्युक्तानि कर्माणि कुर्वते ये त्वतन्द्रिताः।
अहंकारसमायुक्तास्ते सकाशे प्रजापतेः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग आलस्य त्यागकर अहंकारसे युक्त हो सकाम कर्मका अनुष्ठान करते हैं, वे प्रजापतिके लोकमें जाते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यानयोगेन शुद्धेन निर्ममा निरहंकृताः।
आप्नुवन्ति महात्मानो महान्तं लोकमुत्तमम् ॥ २२ ॥
मूलम्
ध्यानयोगेन शुद्धेन निर्ममा निरहंकृताः।
आप्नुवन्ति महात्मानो महान्तं लोकमुत्तमम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अहंता-ममतासे रहित हैं, वे महात्मा विशुद्ध ध्यानयोगके द्वारा महान् उत्तम लोकको प्राप्त करते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यानयोगमुपागम्य प्रसन्नमतयः सदा ।
सुखोपचयमव्यक्तं प्रविशन्त्यात्मवित्तमाः ॥ २३ ॥
मूलम्
ध्यानयोगमुपागम्य प्रसन्नमतयः सदा ।
सुखोपचयमव्यक्तं प्रविशन्त्यात्मवित्तमाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ध्यानयोगका आश्रय लेकर सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं, वे आत्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ पुरुष सुखकी राशिभूत अव्यक्त परमात्मामें प्रवेश करते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यानयोगमादुपागम्य निर्ममा निरहंकृताः ।
अव्यक्तं प्रविशन्तीह महतां लोकमुत्तमम् ॥ २४ ॥
मूलम्
ध्यानयोगमादुपागम्य निर्ममा निरहंकृताः ।
अव्यक्तं प्रविशन्तीह महतां लोकमुत्तमम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु जो ध्यानयोगसे पीछे लौटकर अर्थात् ध्यानमें असफल होकर ममता और अहंकारसे रहित जीवन व्यतीत करता है, वह निष्काम पुरुष भी महापुरुषोंके उत्तम अव्यक्त लोकमें लीन होता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तादेव सम्भूतः समसंज्ञां गतः पुनः।
तमोरजोभ्यां निर्मुक्तः सत्त्वमास्थाय केवलम् ॥ २५ ॥
मूलम्
अव्यक्तादेव सम्भूतः समसंज्ञां गतः पुनः।
तमोरजोभ्यां निर्मुक्तः सत्त्वमास्थाय केवलम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर स्वयं भी उसकी समताको प्राप्त होकर अव्यक्तसे ही प्रकट होता है और केवल सत्त्वका आश्रय लेकर तमोगुण एवं रजोगुणके बन्धनसे छुटकारा पा जाता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यः सर्वं सृजति निष्कलम्।
क्षेत्रज्ञ इति तं विद्याद् यस्तं वेद स वेदवित्॥२६॥
मूलम्
निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यः सर्वं सृजति निष्कलम्।
क्षेत्रज्ञ इति तं विद्याद् यस्तं वेद स वेदवित्॥२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सब पापोंसे मुक्त रहकर सबकी सृष्टि करता है, उस अखण्ड आत्माको क्षेत्रज्ञ समझना चाहिये। जो मनुष्य उसका ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वही वेदवेत्ता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्तं चित्तादुपागम्य मुनिरासीत संयतः।
यच्चित्तं तन्मयो वश्यं गुह्यमेतत् सनातनम् ॥ २७ ॥
मूलम्
चित्तं चित्तादुपागम्य मुनिरासीत संयतः।
यच्चित्तं तन्मयो वश्यं गुह्यमेतत् सनातनम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिको उचित है कि चिन्तनके द्वारा चेतना (सम्यग्ज्ञान) पाकर मन और इन्द्रियोंको एकाग्र करके परमात्माके ध्यानमें स्थित हो जाय; क्योंकि जिसका चित्त जिसमें लगा होता है, वह निश्चय ही उसका स्वरूप हो जाता है—यह सनातन गोपनीय रहस्य है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तादिविशेषान्तमविद्यालक्षणं स्मृतम् ।
निबोधत तथा हीदं गुणैर्लक्षणमित्युत ॥ २८ ॥
मूलम्
अव्यक्तादिविशेषान्तमविद्यालक्षणं स्मृतम् ।
निबोधत तथा हीदं गुणैर्लक्षणमित्युत ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अव्यक्तसे लेकर सोलह विशेषोंतक सभी अविद्याके लक्षण बताये गये हैं। ऐसा समझना चाहिये कि यह गुणोंका ही विस्तार है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम् ॥ २९ ॥
मूलम्
द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दो अक्षरका पद ‘मम’ (यह मेरा है—ऐसा भाव) मृत्युरूप है और तीन अक्षरका पद ‘न मम’ (यह मेरा नहीं है—ऐसा भाव) सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति करानेवाला है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्म केचित् प्रशंसन्ति मन्दबुद्धिरता नराः।
ये तु वृद्धा महात्मानो न प्रशंसन्ति कर्म ते॥३०॥
मूलम्
कर्म केचित् प्रशंसन्ति मन्दबुद्धिरता नराः।
ये तु वृद्धा महात्मानो न प्रशंसन्ति कर्म ते॥३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ मन्द-बुद्धियुक्त पुरुष (स्वर्गादि फल प्रदान करनेवाले) काम्य-कर्मोंकी प्रशंसा करते हैं, किंतु वृद्ध महात्माजन उन कर्मोंको उत्तम नहीं बतलाते॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा जायते जन्तुर्मूर्तिमान् षोडशात्मकः।
पुरुषं ग्रसतेऽविद्या तद् ग्राह्यममृताशिनाम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
कर्मणा जायते जन्तुर्मूर्तिमान् षोडशात्मकः।
पुरुषं ग्रसतेऽविद्या तद् ग्राह्यममृताशिनाम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि सकाम कर्मके अनुष्ठानसे जीवको सोलह विकारोंसे निर्मित स्थूल शरीर धारण करके जन्म लेना पड़ता है और वह सदा अविद्याका ग्रास बना रहता है। इतना ही नहीं, कर्मठ पुरुष देवताओंके भी उपभोगका विषय होता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् कर्मसु निःस्नेहा ये केचित् पारदर्शिनः।
विद्यामयोऽयं पुरुषो न तु कर्ममयः स्मृतः ॥ ३२ ॥
मूलम्
तस्मात् कर्मसु निःस्नेहा ये केचित् पारदर्शिनः।
विद्यामयोऽयं पुरुषो न तु कर्ममयः स्मृतः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये जो कोई पारदर्शी विद्वान् होते हैं, वे कर्मोंमें आसक्त नहीं होते; क्योंकि यह पुरुष (आत्मा) ज्ञानमय है, कर्ममय नहीं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एवममृतं नित्यमग्राह्यं शश्वदक्षरम्।
वश्यात्मानमसंश्लिष्टं यो वेद न मृतो भवेत् ॥ ३३ ॥
मूलम्
य एवममृतं नित्यमग्राह्यं शश्वदक्षरम्।
वश्यात्मानमसंश्लिष्टं यो वेद न मृतो भवेत् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इस प्रकार चेतन आत्माको अमृतस्वरूप, नित्य, इन्द्रियातीत, सनातन, अक्षर, जितात्मा एवं असंग समझता है, वह कभी मृत्युके बन्धनमें नहीं पड़ता॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपूर्वमकृतं नित्यं य एनमविचारिणम्।
य एवं विन्देदात्मानमग्राह्यममृताशनम् ।
अग्राह्योऽमृतो भवति स एभिः कारणैर्ध्रुवः ॥ ३४ ॥
मूलम्
अपूर्वमकृतं नित्यं य एनमविचारिणम्।
य एवं विन्देदात्मानमग्राह्यममृताशनम् ।
अग्राह्योऽमृतो भवति स एभिः कारणैर्ध्रुवः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी दृष्टिमें आत्मा अपूर्व (अनादि), अकृत (अजन्मा), नित्य, अचल, अग्राह्य और अमृताशी है, वह इन गुणोंका चिन्तन करनेसे स्वयं भी अग्राह्य (इन्द्रियातीत), निश्चल एवं अमृतस्वरूप हो जाता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयोज्य सर्वसंस्कारान् संयम्यात्मानमात्मनि ।
स तद् ब्रह्म शुभं वेत्ति यस्माद् भूयो न विद्यते॥३५॥
मूलम्
आयोज्य सर्वसंस्कारान् संयम्यात्मानमात्मनि ।
स तद् ब्रह्म शुभं वेत्ति यस्माद् भूयो न विद्यते॥३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो चित्तको शुद्ध करनेवाले सम्पूर्ण संस्कारोंका सम्पादन करके मनको आत्माके ध्यानमें लगा देता है, वही उस कल्याणमय ब्रह्मको प्राप्त करता है, जिससे बड़ा कोई नहीं है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसादे चैव सत्त्वस्य प्रसादं समवाप्नुयात्।
लक्षणं हि प्रसादस्य यथा स्यात् स्वप्नदर्शनम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
प्रसादे चैव सत्त्वस्य प्रसादं समवाप्नुयात्।
लक्षणं हि प्रसादस्य यथा स्यात् स्वप्नदर्शनम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण अन्तःकरणके स्वच्छ हो जानेपर साधकको शुद्ध प्रसन्नता प्राप्त होती है। जैसे स्वप्नसे जगे हुए मनुष्यके लिये स्वप्न शान्त हो जाता है, उसी प्रकार चित्तशुद्धिका लक्षण है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतिरेषा तु मुक्तानां ये ज्ञानपरिनिष्ठिताः।
प्रवृत्तयश्च याः सर्वाः पश्यन्ति परिणामजाः ॥ ३७ ॥
मूलम्
गतिरेषा तु मुक्तानां ये ज्ञानपरिनिष्ठिताः।
प्रवृत्तयश्च याः सर्वाः पश्यन्ति परिणामजाः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञाननिष्ठ जीवन्मुक्त महात्माओंकी यही परम गति है; क्योंकि वे उन समस्त प्रवृत्तियोंको शुभाशुभ फल देनेवाली समझते हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा गतिर्विरक्तानामेष धर्मः सनातनः।
एषा ज्ञानवतां प्राप्तिरेतद् वृत्तमनिन्दितम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
एषा गतिर्विरक्तानामेष धर्मः सनातनः।
एषा ज्ञानवतां प्राप्तिरेतद् वृत्तमनिन्दितम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यही विरक्त पुरुषोंकी गति है, यही सनातन धर्म है, यही ज्ञानियोंका प्राप्तव्य स्थान है और यही अनिन्दित सदाचार है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समेन सर्वभूतेषु निःस्पृहेण निराशिषा।
शक्या गतिरियं गन्तुं सर्वत्र समदर्शिना ॥ ३९ ॥
मूलम्
समेन सर्वभूतेषु निःस्पृहेण निराशिषा।
शक्या गतिरियं गन्तुं सर्वत्र समदर्शिना ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण भूतोंमें समानभाव रखता है, लोभ और कामनासे रहित है तथा जिसकी सर्वत्र समान दृष्टि रहती है, वह ज्ञानी पुरुष ही इस परम गतिको प्राप्त कर सकता है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् वः सर्वमाख्यातं मया विप्रर्षिसत्तमाः।
एवमाचरत क्षिप्रं ततः सिद्धिमवाप्स्यथ ॥ ४० ॥
मूलम्
एतद् वः सर्वमाख्यातं मया विप्रर्षिसत्तमाः।
एवमाचरत क्षिप्रं ततः सिद्धिमवाप्स्यथ ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मर्षियो! यह सब विषय मैंने विस्तारके साथ तुम लोगोंको बता दिया। इसीके अनुसार आचरण करो, इससे तुम्हें शीघ्र ही परम सिद्धि प्राप्त होगी॥४०॥
मूलम् (वचनम्)
गुरुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तास्ते तु मुनयो गुरुणा ब्रह्मणा तथा।
कृतवन्तो महात्मानस्ततो लोकमवाप्नुवन् ॥ ४१ ॥
मूलम्
इत्युक्तास्ते तु मुनयो गुरुणा ब्रह्मणा तथा।
कृतवन्तो महात्मानस्ततो लोकमवाप्नुवन् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुने कहा— बेटा! ब्रह्माजीके इस प्रकार उपदेश देनेपर उन महात्मा मुनियोंने इसीके अनुसार आचरण किया। इससे उन्हें उत्तम लोककी प्राप्ति हुई॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमप्येतन्महाभाग मयोक्तं ब्रह्मणो वचः।
सम्यगाचर शुद्धात्मंस्ततः सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ ४२ ॥
मूलम्
त्वमप्येतन्महाभाग मयोक्तं ब्रह्मणो वचः।
सम्यगाचर शुद्धात्मंस्ततः सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभाग! तुम्हारा चित्त शुद्ध है, इसलिये तुम भी मेरे बताये हुए ब्रह्माजीके उत्तम उपदेशका भलीभाँति पालन करो। इससे तुम्हें भी सिद्धि प्राप्त होगी॥४२॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स तदा शिष्यो गुरुणा धर्ममुत्तमम्।
चकार सर्वं कौन्तेय ततो मोक्षमवाप्तवान् ॥ ४३ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स तदा शिष्यो गुरुणा धर्ममुत्तमम्।
चकार सर्वं कौन्तेय ततो मोक्षमवाप्तवान् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने कहा— अर्जुन! गुरुदेवके ऐसा कहनेपर उस शिष्यने समस्त उत्तम धर्मोंका पालन किया। इससे वह संसार-बन्धनसे मुक्त हो गया॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतकृत्यश्च स तदा शिष्यः कुरुकुलोद्वह।
तत् पदं समनुप्राप्तो यत्र गत्वा न शोचति ॥ ४४ ॥
मूलम्
कृतकृत्यश्च स तदा शिष्यः कुरुकुलोद्वह।
तत् पदं समनुप्राप्तो यत्र गत्वा न शोचति ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलनन्दन! उस समय कृतार्थ होकर उस शिष्यने वह ब्रह्मपद प्राप्त किया, जहाँ जाकर शोक नहीं करना पड़ता॥४४॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
को न्वसौ ब्राह्मणः कृष्ण कश्च शिष्यो जनार्दन।
श्रोतव्यं चेन्मयैतद् वै तत्त्वमाचक्ष्व मे विभो ॥ ४५ ॥
मूलम्
को न्वसौ ब्राह्मणः कृष्ण कश्च शिष्यो जनार्दन।
श्रोतव्यं चेन्मयैतद् वै तत्त्वमाचक्ष्व मे विभो ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने पूछा— जनार्दन श्रीकृष्ण! वे ब्रह्मनिष्ठ गुरु कौन थे और शिष्य कौन थे? प्रभो! यदि मेरे सुननेयोग्य हो तो ठीक-ठीक बतानेकी कृपा कीजिये॥४५॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं गुरुर्महाबाहो मनः शिष्यं च विद्धि मे।
त्वत्प्रीत्या गुह्यमेतच्च कथितं ते धनंजय ॥ ४६ ॥
मूलम्
अहं गुरुर्महाबाहो मनः शिष्यं च विद्धि मे।
त्वत्प्रीत्या गुह्यमेतच्च कथितं ते धनंजय ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने कहा— महाबाहो! मैं ही गुरु हूँ और मेरे मनको ही शिष्य समझो। धनंजय! तुम्हारे स्नेहवश मैंने इस गोपनीय रहस्यका वर्णन किया है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयि चेदस्ति ते प्रीतिर्नित्यं कुरुकुलोद्वह।
अध्यात्ममेतच्छ्रुत्वा त्वं सम्यगाचर सुव्रत ॥ ४७ ॥
मूलम्
मयि चेदस्ति ते प्रीतिर्नित्यं कुरुकुलोद्वह।
अध्यात्ममेतच्छ्रुत्वा त्वं सम्यगाचर सुव्रत ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम व्रतका पालन करनेवाले कुरुकुलनन्दन! यदि मुझपर तुम्हारा प्रेम हो तो इस अध्यात्मज्ञानको सुनकर तुम नित्य इसका यथावत् पालन करो॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त्वं सम्यगाचीर्णे धर्मेऽस्मिन्नरिकर्षण ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो मोक्षं प्राप्स्यसि केवलम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
ततस्त्वं सम्यगाचीर्णे धर्मेऽस्मिन्नरिकर्षण ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो मोक्षं प्राप्स्यसि केवलम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन! इस धर्मका पूर्णतया आचरण करनेपर तुम समस्त पापोंसे छूटकर विशुद्ध मोक्षको प्राप्त कर लोगे॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वमप्येतदेवोक्तं युद्धकाल उपस्थिते ।
मया तव महाबाहो तस्मादत्र मनः कुरु ॥ ४९ ॥
मूलम्
पूर्वमप्येतदेवोक्तं युद्धकाल उपस्थिते ।
मया तव महाबाहो तस्मादत्र मनः कुरु ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! पहले भी मैंने युद्धकाल उपस्थित होनेपर यही उपदेश तुमको सुनाया था। इसलिये तुम इसमें मन लगाओ॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया तु भरतश्रेष्ठ चिरदृष्टः पिता प्रभुः।
तमहं द्रष्टुमिच्छामि सम्मते तव फाल्गुन ॥ ५० ॥
मूलम्
मया तु भरतश्रेष्ठ चिरदृष्टः पिता प्रभुः।
तमहं द्रष्टुमिच्छामि सम्मते तव फाल्गुन ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ अर्जुन! अब मैं पिताजीका दर्शन करना चाहता हूँ। उन्हें देखे बहुत दिन हो गये। यदि तुम्हारी राय हो तो मैं उनके दर्शनके लिये द्वारका जाऊँ॥५०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तवचनं कृष्णं प्रत्युवाच धनंजयः।
गच्छावो नगरं कृष्ण गजसाह्वयमद्य वै ॥ ५१ ॥
समेत्य तत्र राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
समनुज्ञाप्य राजानं स्वां पुरीं यातुमर्हसि ॥ ५२ ॥
मूलम्
इत्युक्तवचनं कृष्णं प्रत्युवाच धनंजयः।
गच्छावो नगरं कृष्ण गजसाह्वयमद्य वै ॥ ५१ ॥
समेत्य तत्र राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
समनुज्ञाप्य राजानं स्वां पुरीं यातुमर्हसि ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! भगवान् श्रीकृष्णकी बात सुनकर अर्जुनने कहा—‘श्रीकृष्ण! अब हमलोग यहाँसे हस्तिनापुरको चलें। वहाँ धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरसे मिलकर और उनकी आज्ञा लेकर आप अपनी पुरीको पधारें’॥५१-५२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरुशिष्यसंवादविषयक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५१॥