०५० गुरुशिष्यसंवादे

भागसूचना

पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सत्त्व और पुरुषकी भिन्नता, बुद्धिमान्‌की प्रशंसा, पञ्चभूतोंके गुणोंका विस्तार और परमात्माकी श्रेष्ठताका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त वः संप्रवक्ष्यामि यन्मां पृच्छथ सत्तमाः।
गुरुणा शिष्यमासाद्य यदुक्तं तन्निबोधत ॥ १ ॥

मूलम्

हन्त वः संप्रवक्ष्यामि यन्मां पृच्छथ सत्तमाः।
गुरुणा शिष्यमासाद्य यदुक्तं तन्निबोधत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजी बोले— श्रेष्ठ महर्षियो! तुमलोगोंने जो विषय पूछा है, उसे अब मैं कहूँगा। गुरुने सुयोग्य शिष्यको पाकर जो उपदेश दिया है, उसे तुमलोग सुनो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समस्तमिह तच्छ्रुत्वा सम्यगेवावधार्यताम् ।
अहिंसा सर्वभूतानामेतत् कृत्यतमं मतम् ॥ २ ॥
एतत् पदमनुद्विग्नं वरिष्ठं धर्मलक्षणम्।

मूलम्

समस्तमिह तच्छ्रुत्वा सम्यगेवावधार्यताम् ।
अहिंसा सर्वभूतानामेतत् कृत्यतमं मतम् ॥ २ ॥
एतत् पदमनुद्विग्नं वरिष्ठं धर्मलक्षणम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उस विषयको यहाँ पूर्णतया सुनकर अच्छी प्रकार धारण करो। सब प्राणियोंकी अहिंसा ही सर्वोत्तम कर्तव्य है—ऐसा माना गया है। यह साधन उद्वेगरहित, सर्वश्रेष्ठ और धर्मको लक्षित करानेवाला है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानं निःश्रेय इत्याहुर्वृद्धा निश्चितदर्शिनः ॥ ३ ॥
तस्माज्ज्ञानेन शुद्धेन मुच्यते सर्वकिल्बिषैः।

मूलम्

ज्ञानं निःश्रेय इत्याहुर्वृद्धा निश्चितदर्शिनः ॥ ३ ॥
तस्माज्ज्ञानेन शुद्धेन मुच्यते सर्वकिल्बिषैः।

अनुवाद (हिन्दी)

निश्चयको साक्षात् करनेवाले वृद्ध लोग कहते हैं कि ‘ज्ञान ही परम कल्याणका साधन है।’ इसलिये परम शुद्ध ज्ञानके द्वारा ही मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिंसापराश्च ये केचिद् ये च नास्तिकवृत्तयः।
लोभमोहसमायुक्तास्ते वै निरयगामिनः ॥ ४ ॥

मूलम्

हिंसापराश्च ये केचिद् ये च नास्तिकवृत्तयः।
लोभमोहसमायुक्तास्ते वै निरयगामिनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग प्राणियोंकी हिंसा करते हैं, नास्तिक-वृत्तिका आश्रय लेते हैं और लोभ तथा मोहमें फँसे हुए हैं, उन्हें नरकमें गिरना पड़ता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशीर्युक्तानि कर्माणि कुर्वते ये त्वतन्द्रिताः।
तेऽस्मिल्लोँके प्रमोदन्ते जायमानाः पुनः पुनः ॥ ५ ॥

मूलम्

आशीर्युक्तानि कर्माणि कुर्वते ये त्वतन्द्रिताः।
तेऽस्मिल्लोँके प्रमोदन्ते जायमानाः पुनः पुनः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग सावधान होकर सकाम कर्मोंका अनुष्ठान करते हैं, वे बार-बार इस लोकमें जन्म ग्रहण करके सुखी होते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्वते ये तु कर्माणि श्रद्दधाना विपश्चितः।
अनाशीर्योगसंयुक्तास्ते धीराः साधुदर्शिनः ॥ ६ ॥

मूलम्

कुर्वते ये तु कर्माणि श्रद्दधाना विपश्चितः।
अनाशीर्योगसंयुक्तास्ते धीराः साधुदर्शिनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विद्वान् समत्वयोगमें स्थित हो श्रद्धाके साथ कर्तव्य-कर्मोंका अनुष्ठान करते हैं और उनके फलमें आसक्त नहीं होते, वे धीर और उत्तम दृष्टिवाले माने गये हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः परं प्रवक्ष्यामि सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्यथा।
संयोगो विप्रयोगश्च तन्निबोधत सत्तमाः ॥ ७ ॥

मूलम्

अतः परं प्रवक्ष्यामि सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्यथा।
संयोगो विप्रयोगश्च तन्निबोधत सत्तमाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ महर्षियो! अब मैं यह बता रहा हूँ कि सत्त्व और क्षेत्रज्ञका परस्पर संयोग और वियोग कैसे होता है? इस विषयको ध्यान देकर सुनो॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषयो विषयित्वं च सम्बन्धोऽयमिहोच्यते।
विषयी पुरुषो नित्यं सत्त्वं च विषयः स्मृतः ॥ ८ ॥

मूलम्

विषयो विषयित्वं च सम्बन्धोऽयमिहोच्यते।
विषयी पुरुषो नित्यं सत्त्वं च विषयः स्मृतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन दोनोंमें यहाँ यह विषय-विषयिभाव सम्बन्ध माना गया है। इनमें पुरुष तो सदा विषयी और सत्त्व विषय माना जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याख्यातं पूर्वकल्पेन मशकोदुम्बरं यथा।
भुज्यमानं न जानीते नित्यं सत्त्वमचेतनम्।
यस्त्वेवं तं विजानीते यो भुङ्क्ते यश्च भुज्यते ॥ ९ ॥

मूलम्

व्याख्यातं पूर्वकल्पेन मशकोदुम्बरं यथा।
भुज्यमानं न जानीते नित्यं सत्त्वमचेतनम्।
यस्त्वेवं तं विजानीते यो भुङ्क्ते यश्च भुज्यते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्व अध्यायमें मच्छर और गूलरके उदाहरणसे यह बात बतायी जा चुकी है कि भोगा जानेवाला अचेतन सत्त्व नित्य-स्वरूप क्षेत्रज्ञको नहीं जानता, किंतु जो क्षेत्रज्ञ है वह इस प्रकार जानता है कि जो भोगता है वह आत्मा है और जो भोगा जाता है, वह सत्त्व है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं द्वन्द्वसमायुक्तं सत्त्वमाहुर्मनीषिणः ।
निर्द्वन्द्वो निष्कलो नित्यः क्षेत्रज्ञो निर्गुणात्मकः ॥ १० ॥

मूलम्

नित्यं द्वन्द्वसमायुक्तं सत्त्वमाहुर्मनीषिणः ।
निर्द्वन्द्वो निष्कलो नित्यः क्षेत्रज्ञो निर्गुणात्मकः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनीषी पुरुष सत्त्वको द्वन्द्वयुक्त कहते हैं और क्षेत्रज्ञ निर्द्वन्द्व, निष्कल, नित्य और निर्गुणस्वरूप है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समं संज्ञानुगश्चैव स सर्वत्र व्यवस्थितः।
उपभुङ्क्ते सदा सत्त्वमपः पुष्करपर्णवत् ॥ ११ ॥

मूलम्

समं संज्ञानुगश्चैव स सर्वत्र व्यवस्थितः।
उपभुङ्क्ते सदा सत्त्वमपः पुष्करपर्णवत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह क्षेत्रज्ञ समभावसे सर्वत्र भलीभाँति स्थित हुआ ज्ञानका अनुसरण करता है। जैसे कमलका पत्ता निर्लिप्त रहकर जलको धारण करता है, वैसे ही क्षेत्रज्ञ सदा सत्त्वका उपभोग करता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वैरपि गुणैर्विद्वान् व्यतिषक्तो न लिप्यते।
जलबिन्दुर्यथा लोलः पद्मिनीपत्रसंस्थितः ॥ १२ ॥
एवमेवाप्यसंयुक्तः पुरुषः स्यान्न संशयः।

मूलम्

सर्वैरपि गुणैर्विद्वान् व्यतिषक्तो न लिप्यते।
जलबिन्दुर्यथा लोलः पद्मिनीपत्रसंस्थितः ॥ १२ ॥
एवमेवाप्यसंयुक्तः पुरुषः स्यान्न संशयः।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कमलके पत्तेपर पड़ी हुई जलकी चंचल बूँद उसे भिगो नहीं पाती, उसी प्रकार विद्वान् पुरुष समस्त गुणोंसे सम्बन्ध रखते हुए भी किसीसे लिप्त नहीं होता। अतः क्षेत्रज्ञ पुरुष वास्तविकमें असंग है, इसमें संदेह नहीं है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रव्यमात्रभूत् सत्त्वं पुरुषस्येति निश्चयः ॥ १३ ॥
यथा द्रव्यं च कर्ता च संयोगोऽप्यनयोस्तथा।

मूलम्

द्रव्यमात्रभूत् सत्त्वं पुरुषस्येति निश्चयः ॥ १३ ॥
यथा द्रव्यं च कर्ता च संयोगोऽप्यनयोस्तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

यह निश्चित बात है कि पुरुषके भोगनेयोग्य द्रव्यमात्रकी संज्ञा सत्त्व है तथा जैसे द्रव्य और कर्ताका सम्बन्ध है, वैसे ही इन दोनोंका सम्बन्ध है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा प्रदीपमादाय कश्चित् तमसि गच्छति।
तथा सत्त्वप्रदीपेन गच्छन्ति परमैषिणः ॥ १४ ॥

मूलम्

यथा प्रदीपमादाय कश्चित् तमसि गच्छति।
तथा सत्त्वप्रदीपेन गच्छन्ति परमैषिणः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई मनुष्य दीपक लेकर अन्धकारमें चलता है, वैसे ही परम तत्त्वको चाहनेवाले साधक सत्त्वरूप दीपकके प्रकाशमें साधनमार्गपर चलते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद् द्रव्यं गुणस्तावत् प्रदीपः सम्प्रकाशते।
क्षीणे द्रव्ये गुणे ज्योतिरन्तर्धानाय गच्छति ॥ १५ ॥

मूलम्

यावद् द्रव्यं गुणस्तावत् प्रदीपः सम्प्रकाशते।
क्षीणे द्रव्ये गुणे ज्योतिरन्तर्धानाय गच्छति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक दीपकमें द्रव्य और गुण रहते हैं, तभीतक वह प्रकाश फैलाता है। द्रव्य और गुणका क्षय हो जानेपर ज्योति भी अन्तर्धान हो जाती है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यक्तः सत्त्वगुणस्त्वेवं पुरुषोऽव्यक्त इष्यते।
एतद् विप्रा विजानीत हन्त भूयो ब्रवीमि वः ॥ १६ ॥

मूलम्

व्यक्तः सत्त्वगुणस्त्वेवं पुरुषोऽव्यक्त इष्यते।
एतद् विप्रा विजानीत हन्त भूयो ब्रवीमि वः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सत्त्वगुण तो व्यक्त है और पुरुष अव्यक्त माना गया है। ब्रह्मर्षियो! इस तत्त्वको समझो। अब मैं तुमलोगोंसे आगेकी बात बताता हूँ॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्रेणापि दुर्मेधा न बुद्धिमधिगच्छति।
चतुर्थेनाप्यथांशेन बुद्धिमान् सुखमेधते ॥ १७ ॥

मूलम्

सहस्रेणापि दुर्मेधा न बुद्धिमधिगच्छति।
चतुर्थेनाप्यथांशेन बुद्धिमान् सुखमेधते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं है, उसे हजार उपाय करनेपर भी ज्ञान नहीं होता और जो बुद्धिमान् है वह चौथाई प्रयत्नसे भी ज्ञान पाकर सुखका अनुभव करता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं धर्मस्य विज्ञेयं संसाधनमुपायतः।
उपायज्ञो हि मेधावी सुखमत्यन्तमश्नुते ॥ १८ ॥

मूलम्

एवं धर्मस्य विज्ञेयं संसाधनमुपायतः।
उपायज्ञो हि मेधावी सुखमत्यन्तमश्नुते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा विचारकर किसी उपायसे धर्मके साधनका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये; क्योंकि उपायको जाननेवाला मेधावी पुरुष अत्यन्त सुखका भागी होता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाध्वानमपाथेयः प्रपन्नो मनुजः क्वचित्।
क्लेशेन याति महता विनश्येदन्तरापि च ॥ १९ ॥

मूलम्

यथाध्वानमपाथेयः प्रपन्नो मनुजः क्वचित्।
क्लेशेन याति महता विनश्येदन्तरापि च ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई मनुष्य यदि राह-खर्चका प्रबन्ध किये बिना ही यात्रा करता है तो उसे मार्गमें बहुत क्लेश उठाना पड़ता है अथवा वह बीचहीमें मर भी सकता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा कर्मसु विज्ञेयं फलं भवति वा न वा।
पुरुषस्यात्मनिःश्रेयः शुभाशुभनिदर्शनम् ॥ २० ॥

मूलम्

तथा कर्मसु विज्ञेयं फलं भवति वा न वा।
पुरुषस्यात्मनिःश्रेयः शुभाशुभनिदर्शनम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे ही (पूर्वजन्मोंके पुण्योंसे हीन पुरुष) योगमार्गके साधनमें लगनेपर योगसिद्धिरूप फल कठिनतासे पाता है अथवा नहीं भी पाता। पुरुषका अपना कल्याण-साधन ही उसके पूर्वजन्मके शुभाशुभ-संस्कारोंको बतानेवाला है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा च दीर्घमध्वानं पद्भ्यामेव प्रपद्यते।
अदृष्टपूर्वं सहसा तत्त्वदर्शनवर्जितः ॥ २१ ॥

मूलम्

यथा च दीर्घमध्वानं पद्भ्यामेव प्रपद्यते।
अदृष्टपूर्वं सहसा तत्त्वदर्शनवर्जितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पहले न देखे हुए दूरके रास्तेपर जब मनुष्य सहसा पैदल ही चल पड़ता है (तो वह अपने गन्तव्य स्थानपर नहीं पहुँच पाता), यही दशा तत्त्वज्ञानसे रहित अज्ञानी पुरुषकी होती है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेव च यथाध्यानं रथेनेहाशुगामिना।
गच्छत्यश्वप्रयुक्तेन तथा बुद्धिमतां गतिः ॥ २२ ॥
ऊर्ध्वं पर्वतमारुह्य नान्ववेक्षेत भूतलम्।

मूलम्

तमेव च यथाध्यानं रथेनेहाशुगामिना।
गच्छत्यश्वप्रयुक्तेन तथा बुद्धिमतां गतिः ॥ २२ ॥
ऊर्ध्वं पर्वतमारुह्य नान्ववेक्षेत भूतलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु उसी मार्गपर घोड़े जुते हुए शीघ्रगामी रथके द्वारा यात्रा करनेवाला पुरुष जिस प्रकार शीघ्र ही अपने लक्ष्य स्थानपर पहुँच जाता है तथा वह ऊँचे पर्वतपर चढ़कर नीचे पृथ्वीकी ओर नहीं देखता, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुषोंकी गति होती है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथेन रथिनं पश्य क्लिश्यमानमचेतनम् ॥ २३ ॥
यावद् रथपथस्तावद् रथेन स तु गच्छति।
क्षीणे रथपदे विद्वान् रथमुत्सृज्य गच्छति ॥ २४ ॥

मूलम्

रथेन रथिनं पश्य क्लिश्यमानमचेतनम् ॥ २३ ॥
यावद् रथपथस्तावद् रथेन स तु गच्छति।
क्षीणे रथपदे विद्वान् रथमुत्सृज्य गच्छति ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, रथके द्वारा जानेवाला भी मूर्ख मनुष्य ऊँचे पर्वतके पास पहुँचकर कष्ट पाता रहता है, किंतु बुद्धिमान् मनुष्य जहाँतक रथ जानेका मार्ग है वहाँतक रथसे जाता है और जब रथका रास्ता समाप्त हो जाता है तब वह उसे छोड़कर पैदल यात्रा करता है॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं गच्छति मेधावी तत्त्वयोगविधानवित्।
परिज्ञाय गुणज्ञश्च उत्तरादुत्तरोत्तरम् ॥ २५ ॥

मूलम्

एवं गच्छति मेधावी तत्त्वयोगविधानवित्।
परिज्ञाय गुणज्ञश्च उत्तरादुत्तरोत्तरम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार तत्त्व और योगविधिको जाननेवाला बुद्धिमान् एवं गुणज्ञ पुरुष अच्छी तरह समझ-बूझकर उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथार्णवं महाघोरमप्लवः सम्प्रगाहते ।
बाहुभ्यामेव सम्मोहाद् वधं वाञ्छत्यसंशयम् ॥ २६ ॥

मूलम्

यथार्णवं महाघोरमप्लवः सम्प्रगाहते ।
बाहुभ्यामेव सम्मोहाद् वधं वाञ्छत्यसंशयम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई पुरुष मोहवश बिना नावके ही भयंकर समुद्रमें प्रवेश करता है और दोनों भुजाओंसे ही तैरकर उसके पार होनेका भरोसा रखता है तो निश्चय ही वह अपनी मौत बुलाना चाहता है (उसी प्रकार ज्ञान-नौकाका सहारा लिये बिना मनुष्य भवसागरसे पार नहीं हो सकता)॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नावा चापि यथा प्राज्ञो विभागज्ञः स्वरित्रया।
अश्रान्तः सलिले गच्छेच्छीघ्रं संतरते ह्रदम् ॥ २७ ॥
तीर्णो गच्छेत् परं पारं नावमुत्सृज्य निर्ममः।
व्याख्यातं पूर्वकल्पेन यथा रथपदातिनोः ॥ २८ ॥

मूलम्

नावा चापि यथा प्राज्ञो विभागज्ञः स्वरित्रया।
अश्रान्तः सलिले गच्छेच्छीघ्रं संतरते ह्रदम् ॥ २७ ॥
तीर्णो गच्छेत् परं पारं नावमुत्सृज्य निर्ममः।
व्याख्यातं पूर्वकल्पेन यथा रथपदातिनोः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस तरह जलमार्गके विभागको जाननेवाला बुद्धिमान् पुरुष सुन्दर डाँडवाली नावके द्वारा अनायास ही जलपर यात्रा करके शीघ्र समुद्रसे तर जाता है एवं पार पहुँच जानेपर नावकी ममता छोड़कर चल देता है; (उसी प्रकार संसार-सागरसे पार हो जानेपर बुद्धिमान् पुरुष पहलेके साधन-सामग्रीकी ममता छोड़ देता है।) यह बात रथपर चलनेवाले और पैदल चलनेवालेके दृष्टान्तसे पहले भी कही जा चुकी है॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नेहात् सम्मोहमापन्नो नावि दाशो यथा तथा।
ममत्वेनाभिभूतः संस्तत्रैव परिवर्तते ॥ २९ ॥

मूलम्

स्नेहात् सम्मोहमापन्नो नावि दाशो यथा तथा।
ममत्वेनाभिभूतः संस्तत्रैव परिवर्तते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु स्नेहवश मोहको प्राप्त हुआ मनुष्य ममतासे आबद्ध होकर नावपर सदा बैठे रहनेवाले मल्लाहकी भाँति वहीं चक्कर काटता रहता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नावं न शक्यमारुह्य स्थले विपरिवर्तितुम्।
तथैव रथमारुह्य नाप्सु चर्या विधीयते ॥ ३० ॥
एवं कर्म कृतं चित्रं विषयस्थं पृथक् पृथक्।
यथा कर्म कृतं लोके तथैतानुपपद्यते ॥ ३१ ॥

मूलम्

नावं न शक्यमारुह्य स्थले विपरिवर्तितुम्।
तथैव रथमारुह्य नाप्सु चर्या विधीयते ॥ ३० ॥
एवं कर्म कृतं चित्रं विषयस्थं पृथक् पृथक्।
यथा कर्म कृतं लोके तथैतानुपपद्यते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नौकापर चढ़कर जिस प्रकार स्थलपर विचरण करना सम्भव नहीं है तथा रथपर चढ़कर जलमें विचरण करना सम्भव नहीं बताया गया है, इसी प्रकार किये हुए विचित्र कर्म अलग-अलग स्थानपर पहुँचानेवाले हैं। संसारमें जिनके द्वारा जैसा कर्म किया गया है, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्नैव गन्धिनो रस्यं न रूपस्पर्शशब्दवत्।
मन्यन्ते मुनयो बुद्ध्या तत् प्रधानं प्रचक्षते ॥ ३२ ॥

मूलम्

यन्नैव गन्धिनो रस्यं न रूपस्पर्शशब्दवत्।
मन्यन्ते मुनयो बुद्ध्या तत् प्रधानं प्रचक्षते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्दसे युक्त नहीं है तथा मुनिलोग बुद्धिके द्वारा जिसका मनन करते हैं, वह ‘प्रधान’ कहलाता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र प्रधानमव्यक्तमव्यक्तस्य गुणो महान्।
महत्प्रधानभूतस्य गुणोऽहंकार एव च ॥ ३३ ॥

मूलम्

तत्र प्रधानमव्यक्तमव्यक्तस्य गुणो महान्।
महत्प्रधानभूतस्य गुणोऽहंकार एव च ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रधानका दूसरा नाम अव्यक्त है। अव्यक्तका कार्य महत्तत्त्व है और प्रकृतिसे उत्पन्न महत्तत्त्वका कार्य अहंकार है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहंकारात् तु सम्भूतो महाभूतकृतो गुणः।
पृथक्त्वेन हि भूतानां विषया वै गुणाः स्मृताः ॥ ३४ ॥

मूलम्

अहंकारात् तु सम्भूतो महाभूतकृतो गुणः।
पृथक्त्वेन हि भूतानां विषया वै गुणाः स्मृताः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहंकारसे पञ्च महाभूतोंको प्रकट करनेवाले गुणकी उत्पत्ति हुई है। पञ्च महाभूतोंके कार्य हैं रूप, रस आदि विषय। वे पृथक्-पृथक् गुणोंके नामसे प्रसिद्ध हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बीजधर्मं तथाव्यक्तं प्रसवात्मकमेव च।
बीजधर्मा महानात्मा प्रसवश्चेति नः श्रुतम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

बीजधर्मं तथाव्यक्तं प्रसवात्मकमेव च।
बीजधर्मा महानात्मा प्रसवश्चेति नः श्रुतम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अव्यक्त प्रकृति कारणरूपा भी है और कार्यरूपा भी। इसी प्रकार महत्तत्त्वके भी कारण और कार्य दोनों ही स्वरूप सुने गये हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बीजधर्मस्त्वहंकारः प्रसवश्च पुनः पुनः।
बीजप्रसवधर्माणि महाभूतानि पञ्च वै ॥ ३६ ॥

मूलम्

बीजधर्मस्त्वहंकारः प्रसवश्च पुनः पुनः।
बीजप्रसवधर्माणि महाभूतानि पञ्च वै ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहंकार भी कारणरूप तो है ही, कार्यरूपमें भी बारम्बार परिणत होता रहता है। पञ्च महाभूतों (पञ्चतन्मात्राओं)-में भी कारणत्व और कार्यत्व दोनों धर्म हैं। वे शब्दादि विषयोंको उत्पन्न करते हैं, इसलिये ऐसा कहा जाता है कि वे बीजधर्मी हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बीजधर्मिण इत्याहुः प्रसवं च प्रकुर्वते।
विशेषाः पञ्चभूतानां तेषां चित्तं विशेषणम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

बीजधर्मिण इत्याहुः प्रसवं च प्रकुर्वते।
विशेषाः पञ्चभूतानां तेषां चित्तं विशेषणम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन पाँचो भूतोंके विशेष कार्य शब्द आदि विषय हैं। उन विषयोंका प्रवर्तक चित्त है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैकगुणमाकाशं द्विगुणो वायुरुच्यते ।
त्रिगुणं ज्योतिरित्याहुरापश्चापि चतुर्गुणाः ॥ ३८ ॥

मूलम्

तत्रैकगुणमाकाशं द्विगुणो वायुरुच्यते ।
त्रिगुणं ज्योतिरित्याहुरापश्चापि चतुर्गुणाः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पञ्चमहाभूतोंमेंसे आकाशमें एक ही गुण माना गया है। वायुके दो गुण बतलाये जाते हैं। तेज तीन गुणोंसे युक्त कहा गया है। जलके चार गुण हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथ्वी पञ्चगुणा ज्ञेया चरस्थावरसंकुला।
सर्वभूतकरी देवी शुभाशुभनिदर्शिनी ॥ ३९ ॥

मूलम्

पृथ्वी पञ्चगुणा ज्ञेया चरस्थावरसंकुला।
सर्वभूतकरी देवी शुभाशुभनिदर्शिनी ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीके पाँच गुण समझने चाहिये। यह देवी स्थावर-जंगम प्राणियोंसे भरी हुई, समस्त जीवोंको जन्म देनेवाली तथा शुभ और अशुभका निर्देश करनेवाली है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पञ्चमः।
एते पञ्च गुणा भूमेर्विज्ञेया द्विजसत्तमाः ॥ ४० ॥

मूलम्

शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पञ्चमः।
एते पञ्च गुणा भूमेर्विज्ञेया द्विजसत्तमाः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवरो! शब्द, स्पर्श, रूप, रस और पाँचवाँ गन्ध—ये ही पृथ्वीके पाँच गुण जानने चाहिये॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थिवश्च सदा गन्धो गन्धश्च बहुधा स्मृतः।
तस्य गन्धस्य वक्ष्यामि विस्तरेण बहून् गुणान् ॥ ४१ ॥

मूलम्

पार्थिवश्च सदा गन्धो गन्धश्च बहुधा स्मृतः।
तस्य गन्धस्य वक्ष्यामि विस्तरेण बहून् गुणान् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमें भी गन्ध उसका खास गुण है। गन्ध अनेक प्रकारकी मानी गयी है। मैं उस गन्धके गुणोंका विस्तारके साथ वर्णन करूँगा॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टश्चानिष्टगन्धश्च मधुरोऽम्लः कटुस्तथा ।
निर्हारी संहतः स्निग्धो रूक्षो विशद एव च ॥ ४२ ॥
एवं दशविधो ज्ञेयः पार्थिवो गन्ध इत्युत।

मूलम्

इष्टश्चानिष्टगन्धश्च मधुरोऽम्लः कटुस्तथा ।
निर्हारी संहतः स्निग्धो रूक्षो विशद एव च ॥ ४२ ॥
एवं दशविधो ज्ञेयः पार्थिवो गन्ध इत्युत।

अनुवाद (हिन्दी)

इष्ट (सुगन्ध), अनिष्ट (दुर्गन्ध), मधुर, अम्ल, कटु, निहारी (दुरतक फैलनेवाली), मिश्रित, स्निग्ध, रूक्ष और विशद—ये पार्थिव गन्धके दस भेद समझने चाहिये॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं द्रवश्चाणां गुणाः स्मृताः ॥ ४३ ॥
रसज्ञानं तु वक्ष्यामि रसस्तु बहुधा स्मृतः।

मूलम्

शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं द्रवश्चाणां गुणाः स्मृताः ॥ ४३ ॥
रसज्ञानं तु वक्ष्यामि रसस्तु बहुधा स्मृतः।

अनुवाद (हिन्दी)

शब्द, स्पर्श, रूप, रस—ये जलके चार गुण माने गये हैं (इनमें रस ही जलका मुख्य गुण है)। अब मैं रस-विज्ञानका वर्णन करता हूँ। रसके बहुत-से भेद बताये गये हैं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मधुरोऽम्लः कटुस्तिक्तः कषायो लवणस्तथा ॥ ४४ ॥
एवं षड्विधविस्तारो रसो वारिमयः स्मृतः।

मूलम्

मधुरोऽम्लः कटुस्तिक्तः कषायो लवणस्तथा ॥ ४४ ॥
एवं षड्विधविस्तारो रसो वारिमयः स्मृतः।

अनुवाद (हिन्दी)

मीठा, खट्टा, कड़ुआ, तीता, कसैला और नमकीन—इस प्रकार छः भेदोंमें जलमय रसका विस्तार बताया गया है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं त्रिगुणं ज्योतिरुच्यते ॥ ४५ ॥
ज्योतिषश्च गुणो रूपं रूपं च बहुधा स्मृतम्।

मूलम्

शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं त्रिगुणं ज्योतिरुच्यते ॥ ४५ ॥
ज्योतिषश्च गुणो रूपं रूपं च बहुधा स्मृतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

शब्द, स्पर्श और रूप—ये तेजके तीन गुण कहे गये हैं। इनमें रूप ही तेजका मुख्य गुण है। रूपके भी कई भेद माने गये हैं॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्लं कृष्णं तथा रक्तं नीलं पीतारुणं तथा ॥ ४६ ॥
ह्रस्वं दीर्घं कृशं स्थूलं चतुरस्रं तु वृत्तवत्।
एवं द्वादशविस्तारं तेजसो रूपमुच्यते ॥ ४७ ॥
विज्ञेयं ब्राह्मणैर्वृद्धैर्धर्मज्ञैः सत्यवादिभिः ।

मूलम्

शुक्लं कृष्णं तथा रक्तं नीलं पीतारुणं तथा ॥ ४६ ॥
ह्रस्वं दीर्घं कृशं स्थूलं चतुरस्रं तु वृत्तवत्।
एवं द्वादशविस्तारं तेजसो रूपमुच्यते ॥ ४७ ॥
विज्ञेयं ब्राह्मणैर्वृद्धैर्धर्मज्ञैः सत्यवादिभिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्रल, कृष्ण, रक्त, नील, पीत, अरुण, छोटा, बड़ा, मोटा, दुबला, चौकोना और गोल—इस प्रकार तैजस् रूपका बारह प्रकारसे विस्तार सत्यवादी धर्मज्ञ वृद्ध ब्राह्मणोंके द्वारा जानने योग्य कहा जाता है॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दस्पर्शौ च विज्ञेयौ द्विगुणो वायुरुच्यते ॥ ४८ ॥
वायोश्चापि गुणः स्पर्शः स्पर्शश्च बहुधा स्मृतः।

मूलम्

शब्दस्पर्शौ च विज्ञेयौ द्विगुणो वायुरुच्यते ॥ ४८ ॥
वायोश्चापि गुणः स्पर्शः स्पर्शश्च बहुधा स्मृतः।

अनुवाद (हिन्दी)

शब्द और स्पर्श—ये वायुके दो गुण जानने योग्य कहे जाते हैं। इनमें भी स्पर्श ही वायुका प्रधान गुण है। स्पर्श भी कई प्रकारका माना गया है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूक्षः शीतस्तथैवोष्णः स्निग्धो विशद एव च ॥ ४९ ॥
कठिनश्चिक्कणः श्लक्ष्णः पिच्छिलो दारुणो मृदुः।
एवं द्वादशविस्तारो वायव्यो गुण उच्यते ॥ ५० ॥
विधिवद् ब्राह्मणैः सिद्धैर्धर्मज्ञैस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ५१ ॥

मूलम्

रूक्षः शीतस्तथैवोष्णः स्निग्धो विशद एव च ॥ ४९ ॥
कठिनश्चिक्कणः श्लक्ष्णः पिच्छिलो दारुणो मृदुः।
एवं द्वादशविस्तारो वायव्यो गुण उच्यते ॥ ५० ॥
विधिवद् ब्राह्मणैः सिद्धैर्धर्मज्ञैस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रूखा, ठंडा, गरम, स्निग्ध, विशद, कठिन, चिकना, श्लक्ष्ण (हलका), पिच्छिल, कठोर और कोमल—इन बारह प्रकारोंसे वायुके गुण स्पर्शका विस्तार तत्त्वदर्शी धर्मज्ञ सिद्ध ब्राह्मणोंद्वारा विधिवत् बतलाया गया है॥४९—५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैकगुणमाकाशं शब्द इत्येव च स्मृतः।

मूलम्

तत्रैकगुणमाकाशं शब्द इत्येव च स्मृतः।

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशका शब्दमात्र एक ही गुण माना गया है। उस शब्दके बहुत-से गुण हैं। उनका विस्तारके साथ वर्णन करता हूँ॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य शब्दस्य वक्ष्यामि विस्तरेण बहून् गुणान् ॥ ५२ ॥
षडजर्षभः स गान्धारो मध्यमः पञ्चमस्तथा।
अतः परं तु विज्ञेयो निषादो धैवतस्तथा।
इष्टश्चानिष्टशब्दश्च संहतः प्रविभागवान् ॥ ५३ ॥
एवं दशविधो ज्ञेयः शब्द आकाशसम्भवः।

मूलम्

तस्य शब्दस्य वक्ष्यामि विस्तरेण बहून् गुणान् ॥ ५२ ॥
षडजर्षभः स गान्धारो मध्यमः पञ्चमस्तथा।
अतः परं तु विज्ञेयो निषादो धैवतस्तथा।
इष्टश्चानिष्टशब्दश्च संहतः प्रविभागवान् ॥ ५३ ॥
एवं दशविधो ज्ञेयः शब्द आकाशसम्भवः।

अनुवाद (हिन्दी)

षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, निषाद, धैवत, इष्ट (प्रिय), अनिष्ट (अप्रिय) और संहत (श्लिष्ट)—इस प्रकार विभागवाले आकाशजनित शब्दके दस भेद हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकाशमुत्तमं भूतमहंकारस्ततः परः ॥ ५४ ॥
अहंकारात् परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा ततः परः।
तस्मात् तु परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः ॥ ५५ ॥

मूलम्

आकाशमुत्तमं भूतमहंकारस्ततः परः ॥ ५४ ॥
अहंकारात् परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा ततः परः।
तस्मात् तु परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाश सब भूतोंमें श्रेष्ठ है। उससे श्रेष्ठ अहंकार, अहंकारसे श्रेष्ठ बुद्धि, उस बुद्धिसे श्रेष्ठ आत्मा, उससे श्रेष्ठ अव्यक्त प्रकृति और प्रकृतिसे श्रेष्ठ पुरुष है॥५४-५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परापरज्ञो भूतानां विधिज्ञः सर्वकर्मणाम्।
सर्वभूतात्मभूतात्मा गच्छत्यात्मानमव्ययम् ॥ ५६ ॥

मूलम्

परापरज्ञो भूतानां विधिज्ञः सर्वकर्मणाम्।
सर्वभूतात्मभूतात्मा गच्छत्यात्मानमव्ययम् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य सम्पूर्ण भूतोंकी श्रेष्ठता और न्यूनताका ज्ञाता, समस्त कर्मोंकी विधिका जानकार और सब प्राणियोंको आत्मभावसे देखनेवाला है, वह अविनाशी परमात्माको प्राप्त होता है॥५६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरु-शिष्यसंवादविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५०॥