भागसूचना
एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धर्मका निर्णय जाननेके लिये ऋषियोंका प्रश्न
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
को वा स्विदिह धर्माणामनुष्ठेयतमो मतः।
व्याहतामिव पश्यामो धर्मस्य विविधां गतिम् ॥ १ ॥
मूलम्
को वा स्विदिह धर्माणामनुष्ठेयतमो मतः।
व्याहतामिव पश्यामो धर्मस्य विविधां गतिम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंने पूछा— ब्रह्मन्! इस जगत्में समस्त धर्मोंमें कौन-सा धर्म अनुष्ठान करनेके लिये सर्वोत्तम माना गया है, यह कहिये; क्योंकि हमें धर्मके विभिन्न मार्ग एक-दूसरेसे आहत हुए-से प्रतीत होते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वं देहाद् वदन्त्येके नैतदस्तीति चापरे।
केचित् संशयितं सर्वं निःसंशयमथापरे ॥ २ ॥
मूलम्
ऊर्ध्वं देहाद् वदन्त्येके नैतदस्तीति चापरे।
केचित् संशयितं सर्वं निःसंशयमथापरे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई तो कहते हैं कि देहका नाश होनेके बाद धर्मका फल मिलेगा। दूसरे कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है। कितने ही लोग सब धर्मोंको संशययुक्त बताते हैं और दूसरे संशयरहित कहते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनित्यं नित्यमित्येके नास्त्यस्तीत्यपि चापरे।
एकरूपं द्विधेत्येके व्यामिश्रमिति चापरे ॥ ३ ॥
मूलम्
अनित्यं नित्यमित्येके नास्त्यस्तीत्यपि चापरे।
एकरूपं द्विधेत्येके व्यामिश्रमिति चापरे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई कहते हैं कि धर्म अनित्य है और कोई उसे नित्य कहते हैं। दूसरे कहते हैं कि धर्म नामकी कोई वस्तु है ही नहीं। कोई कहते हैं कि अवश्य है। कोई कहते हैं कि एक ही धर्म दो प्रकारका है तथा कुछ लोग कहते हैं कि धर्म मिश्रित है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्यन्ते ब्राह्मणा एव ब्रह्मज्ञास्तत्त्वदर्शिनः।
एकमेके पृथक् चान्ये बहुत्वमिति चापरे ॥ ४ ॥
मूलम्
मन्यन्ते ब्राह्मणा एव ब्रह्मज्ञास्तत्त्वदर्शिनः।
एकमेके पृथक् चान्ये बहुत्वमिति चापरे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद-शास्त्रोंके ज्ञाता तत्त्वदर्शी ब्राह्मण लोग यह मानते हैं कि एक ब्रह्म ही है। अन्य कितने ही कहते हैं कि जीव और ईश्वर अलग-अलग हैं और दूसरे लोग सबकी सत्ता भिन्न और बहुत प्रकारसे मानते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देशकालावुभौ केचिन्नैतदस्तीति चापरे ।
जटाजिनधराश्चान्ये मुण्डाः केचिदसंवृताः ॥ ५ ॥
मूलम्
देशकालावुभौ केचिन्नैतदस्तीति चापरे ।
जटाजिनधराश्चान्ये मुण्डाः केचिदसंवृताः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही लोग देश और कालकी सत्ता मानते हैं। दूसरे लोग कहते हैं कि इनकी सत्ता नहीं है। कोई जटा और मृगचर्म धारण करनेवाले हैं, कोई सिर मुँडाते हैं और कोई दिगम्बर रहते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्नानं केचिदिच्छन्ति स्नानमप्यपरे जनाः।
मन्यन्ते ब्राह्मणा देवा ब्रह्मज्ञास्तत्त्वदर्शिनः ॥ ६ ॥
मूलम्
अस्नानं केचिदिच्छन्ति स्नानमप्यपरे जनाः।
मन्यन्ते ब्राह्मणा देवा ब्रह्मज्ञास्तत्त्वदर्शिनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही मनुष्य स्नान नहीं करना चाहते और दूसरे लोग जो शास्त्रज्ञ तत्त्वदर्शी ब्राह्मणदेवता हैं, वे स्नानको ही श्रेष्ठ मानते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहारं केचिदिच्छन्ति केचिच्चानशने रताः।
कर्म केचित् प्रशंसन्ति प्रशान्तिं चापरे जनाः ॥ ७ ॥
मूलम्
आहारं केचिदिच्छन्ति केचिच्चानशने रताः।
कर्म केचित् प्रशंसन्ति प्रशान्तिं चापरे जनाः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कई लोग भोजन करना अच्छा मानते हैं और कई भोजन न करनेमें अभिरत रहते हैं। कई कर्म करनेकी प्रशंसा करते हैं और दूसरे लोग परम शान्तिकी प्रशंसा करते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचिन्मोक्षं प्रशंसन्ति केचिद् भोगान् पृथग्विधान्।
धनानि केचिदिच्छन्ति निर्धनत्वमथापरे ।
उपास्यसाधनं त्वेके नैतदस्तीति चापरे ॥ ८ ॥
मूलम्
केचिन्मोक्षं प्रशंसन्ति केचिद् भोगान् पृथग्विधान्।
धनानि केचिदिच्छन्ति निर्धनत्वमथापरे ।
उपास्यसाधनं त्वेके नैतदस्तीति चापरे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही मोक्षकी प्रशंसा करते हैं और कितने ही नाना प्रकारके भोगोंकी प्रशंसा करते हैं। कुछ लोग बहुत-सा धन चाहते हैं और दूसरे निर्धनताको पसंद करते हैं। कितने ही मनुष्य अपने उपास्य इष्टदेवकी प्राप्तिकी साधना करते हैं और दूसरे कितने ही ऐसा कहते हैं कि ‘यह नहीं है’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसानिरताश्चान्ये केचिद् हिंसापरायणाः ।
पुण्येन यशसा चान्ये नैतदस्तीति चापरे ॥ ९ ॥
मूलम्
अहिंसानिरताश्चान्ये केचिद् हिंसापरायणाः ।
पुण्येन यशसा चान्ये नैतदस्तीति चापरे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्य कई लोग अहिंसा-धर्मका पालन करनेमें रुचि रखते हैं और कई लोग हिंसाके परायण हैं। दूसरे कई पुण्य और यशसे सम्पन्न हैं। इनसे भिन्न दूसरे कहते हैं कि ‘यह सब कुछ नहीं है’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्भावनिरताश्चान्ये केचित् संशयिते स्थिताः।
दुःखादन्ये सुखादन्ये ध्यानमित्यपरे जनाः ॥ १० ॥
मूलम्
सद्भावनिरताश्चान्ये केचित् संशयिते स्थिताः।
दुःखादन्ये सुखादन्ये ध्यानमित्यपरे जनाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्य कितने ही सद्भावमें रुचि रखते हैं। कितने ही लोग संशयमें पड़े रहते हैं। कितने ही साधक कष्ट सहन करते हुए ध्यान करते हैं और दूसरे कई सुखपूर्वक ध्यान करते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञमित्यपरे विप्राः प्रदानमिति चापरे।
तपस्त्वन्ये प्रशंसन्ति स्वाध्यायमपरे जनाः ॥ ११ ॥
मूलम्
यज्ञमित्यपरे विप्राः प्रदानमिति चापरे।
तपस्त्वन्ये प्रशंसन्ति स्वाध्यायमपरे जनाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्य ब्राह्मण यज्ञको श्रेष्ठ बताते हैं और दूसरे दानकी प्रशंसा करते हैं। अन्य कई तपकी प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे स्वाध्यायकी प्रशंसा करते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानं संन्यासमित्येके स्वभावं भूतचिन्तकाः।
सर्वमेके प्रशंसन्ति न सर्वमिति चापरे ॥ १२ ॥
मूलम्
ज्ञानं संन्यासमित्येके स्वभावं भूतचिन्तकाः।
सर्वमेके प्रशंसन्ति न सर्वमिति चापरे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कई लोग कहते हैं कि ज्ञान ही संन्यास है। भौतिक विचारवाले मनुष्य स्वभावकी प्रशंसा करते हैं। कितने ही सभीकी प्रशंसा करते हैं और दूसरे सबकी प्रशंसा नहीं करते॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं व्युत्थापिते धर्मे बहुधा विप्रबोधिते।
निश्चयं नाधिगच्छामः सम्मूढाः सुरसत्तम ॥ १३ ॥
मूलम्
एवं व्युत्थापिते धर्मे बहुधा विप्रबोधिते।
निश्चयं नाधिगच्छामः सम्मूढाः सुरसत्तम ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरश्रेष्ठ ब्रह्मन्! इस प्रकार धर्मकी व्यवस्था अनेक ढंगसे परस्पर विरुद्ध बतलायी जानेके कारण हमलोग धर्मके विषयमें मोहित हो रहे हैं; अतः किसी निश्चयपर नहीं पहुँच पाते॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं श्रेय इदं श्रेय इत्येवं व्युत्थितो जनः।
यो हि यस्मिन् रतो धर्मे स तं पूजयते सदा॥१४॥
मूलम्
इदं श्रेय इदं श्रेय इत्येवं व्युत्थितो जनः।
यो हि यस्मिन् रतो धर्मे स तं पूजयते सदा॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यही कल्याण-मार्ग है, यही कल्याण-मार्ग है’—इस प्रकारकी बातें सुनकर मनुष्य-समुदाय विचलित हो गया है। जो जिस धर्ममें रत है, वह उसीका सदा आदर करता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन नोऽविहिता प्रज्ञा मनश्च बहुलीकृतम्।
एतदाख्यातमिच्छामः श्रेयः किमिति सत्तम ॥ १५ ॥
मूलम्
तेन नोऽविहिता प्रज्ञा मनश्च बहुलीकृतम्।
एतदाख्यातमिच्छामः श्रेयः किमिति सत्तम ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस कारण हमलोगोंकी बुद्धि विचलित हो गयी है और मन भी बहुत-से संकल्प-विकल्पोंमें पड़कर चंचल हो गया है। श्रेष्ठ ब्रह्मन्! हम यह जानना चाहते हैं कि वास्तविक कल्याणका मार्ग क्या है?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः परं तु यद् गुह्यं तद् भवान् वक्तुमर्हति।
सत्त्वक्षेत्रज्ञयोश्चापि सम्बन्धः केन हेतुना ॥ १६ ॥
मूलम्
अतः परं तु यद् गुह्यं तद् भवान् वक्तुमर्हति।
सत्त्वक्षेत्रज्ञयोश्चापि सम्बन्धः केन हेतुना ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये जो परम गुह्य तत्त्व है, वह आपको हमें बतलाना चाहिये। साथ ही यह भी बतलाइये कि बुद्धि और क्षेत्रज्ञका सम्बन्ध किस कारणसे हुआ है?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स तैर्विप्रैर्भगवाल्ँलोकभावनः ।
तेभ्यः शशंस धर्मात्मा याथातथ्येन बुद्धिमान् ॥ १७ ॥
मूलम्
एवमुक्तः स तैर्विप्रैर्भगवाल्ँलोकभावनः ।
तेभ्यः शशंस धर्मात्मा याथातथ्येन बुद्धिमान् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकोंकी सृष्टि करनेवाले धर्मात्मा बुद्धिमान् भगवान् ब्रह्माजी उन ऋषियोंकी यह बात सुनकर उनसे उनके प्रश्नोंका यथार्थ रूपसे उत्तर देने लगे॥१७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरु-शिष्य-संवादविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४९॥