०४७ गुरुशिष्यसंवादे

भागसूचना

सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

मुक्तिके साधनोंका, देहरूपी वृक्षका तथा ज्ञान-खड्‌गसे उसे काटनेका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संन्यासं तप इत्याहुर्वृद्धा निश्चितवादिनः।
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ज्ञानं ब्रह्म परं विदुः ॥ १ ॥

मूलम्

संन्यासं तप इत्याहुर्वृद्धा निश्चितवादिनः।
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ज्ञानं ब्रह्म परं विदुः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— महर्षियो! निश्चित बात कहनेवाले और वेदोंके कारणरूप परमात्मामें स्थित वृद्ध ब्राह्मण संन्यासको तप कहते हैं और ज्ञानको ही परब्रह्मका स्वरूप मानते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिदूरात्मकं ब्रह्म वेदविद्याव्यपाश्रयम् ।
निर्द्वन्द्वं निर्गुणं नित्यमचित्त्यगुणमुत्तमम् ॥ २ ॥
ज्ञानेन तपसा चैव धीराः पश्यन्ति तत् परम्।

मूलम्

अतिदूरात्मकं ब्रह्म वेदविद्याव्यपाश्रयम् ।
निर्द्वन्द्वं निर्गुणं नित्यमचित्त्यगुणमुत्तमम् ॥ २ ॥
ज्ञानेन तपसा चैव धीराः पश्यन्ति तत् परम्।

अनुवाद (हिन्दी)

वह वेदविद्याका आधार ब्रह्म (अज्ञानियोंके लिये) अत्यन्त दूर है। वह निर्द्वन्द्व, निर्गुण, नित्य, अचिन्त्य गुणोंसे युक्त और सर्वश्रेष्ठ है। धीर पुरुष ज्ञान और तपस्याके द्वारा उस परमात्माका साक्षात्कार करते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्णिक्तमनसः पूता व्युत्क्रान्तरजसोऽमलाः ॥ ३ ॥
तपसा क्षेममध्वानं गच्छन्ति परमेश्वरम्।
संन्यासनिरता नित्यं ये च ब्रह्मविदो जनाः ॥ ४ ॥

मूलम्

निर्णिक्तमनसः पूता व्युत्क्रान्तरजसोऽमलाः ॥ ३ ॥
तपसा क्षेममध्वानं गच्छन्ति परमेश्वरम्।
संन्यासनिरता नित्यं ये च ब्रह्मविदो जनाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके मनकी मैल धुल गयी है, जो परम पवित्र हैं, जिन्होंने रजोगुणको त्याग दिया है, जिनका अन्तःकरण निर्मल है, जो नित्य संन्यासपरायण तथा ब्रह्मके ज्ञाता हैं, वे पुरुष तपस्याके द्वारा कल्याणमय पथका आश्रय लेकर परमेश्वरको प्राप्त होते हैं॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपः प्रदीप इत्याहुराचारो धर्मसाधकः।
ज्ञानं वै परमं विद्यात् संन्यासं तप उत्तमम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तपः प्रदीप इत्याहुराचारो धर्मसाधकः।
ज्ञानं वै परमं विद्यात् संन्यासं तप उत्तमम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानी पुरुषोंका कहना है कि तपस्या (परमात्म-तत्त्वको प्रकाशित करनेवाला) दीपक है, आचार धर्मका साधक है, ज्ञान परब्रह्मका स्वरूप है और संन्यास ही उत्तम तप है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु वेद निराधारं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयात्।
सर्वभूतस्थमात्मानं स सर्वगतिरिष्यते ॥ ६ ॥

मूलम्

यस्तु वेद निराधारं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयात्।
सर्वभूतस्थमात्मानं स सर्वगतिरिष्यते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो तत्त्वका पूर्ण निश्चय करके ज्ञानस्वरूप, निराधार और सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर रहनेवाले आत्माको जान लेता है, वह सर्वव्यापक हो जाता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो विद्वान् सहवासं च विवासं चैव पश्यति।
तथैवैकत्वनानात्वे स दुःखात् प्रतिमुच्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

यो विद्वान् सहवासं च विवासं चैव पश्यति।
तथैवैकत्वनानात्वे स दुःखात् प्रतिमुच्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विद्वान् संयोगको भी वियोगके रूपमें ही देखता है तथा वैसे ही नानात्वमें एकत्व देखता है, वह दुःखसे सर्वथा मुक्त हो जाता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो न कामयते किंचिन्न किंचिदवमन्यते।
इहलोकस्थ एवैष ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ८ ॥

मूलम्

यो न कामयते किंचिन्न किंचिदवमन्यते।
इहलोकस्थ एवैष ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो किसी वस्तुकी कामना तथा किसीकी अवहेलना नहीं करता, वह इस लोकमें रहकर भी ब्रह्मस्वरूप होनेमें समर्थ हो जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रधानगुणतत्त्वज्ञः सर्वभूतप्रधानवित् ।
निर्ममो निरहंकारो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ९ ॥

मूलम्

प्रधानगुणतत्त्वज्ञः सर्वभूतप्रधानवित् ।
निर्ममो निरहंकारो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सब भूतोंमें प्रधान—प्रकृतिको तथा उसके गुण एवं तत्त्वको भलीभाँति जानकर ममता और अहंकारसे रहित हो जाता है, उसके मुक्त होनेमें संदेह नहीं है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निःस्वधाकार एव च।
निर्गुणं नित्यमद्वन्द्वं प्रशमेनैव गच्छति ॥ १० ॥

मूलम्

निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निःस्वधाकार एव च।
निर्गुणं नित्यमद्वन्द्वं प्रशमेनैव गच्छति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो द्वन्द्वोंसे रहित, नमस्कारकी इच्छा न रखने-वाला और स्वधाकार (पितृ-कार्य) न करनेवाला संन्यासी है, वह अतिशय शान्तिके द्वारा ही निर्गुण, द्वन्द्वातीत, नित्यतत्त्वको प्राप्त कर लेता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हित्वा गुणमयं सर्वं कर्म जन्तुः शुभाशुभम्।
उभे सत्यानृते हित्वा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ११ ॥

मूलम्

हित्वा गुणमयं सर्वं कर्म जन्तुः शुभाशुभम्।
उभे सत्यानृते हित्वा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुभ और अशुभ समस्त त्रिगुणात्मक कर्मोंका तथा सत्य और असत्य—इन दोनोंका भी त्याग करके संन्यासी मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तयोनिप्रभवो बुद्धिस्कन्धमयो महान् ।
महाहंकारविटप इन्द्रियाङ््कुरकोटरः ॥ १२ ॥
महाभूतविशालश्च विशेषयति शाखिनः ।
सदापत्रः सदापुष्पः शुभाशुभफलोदयः ॥ १३ ॥
आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः।
एनं छित्त्वा च भित्त्वा च तत्त्वज्ञानासिना बुधः ॥ १४ ॥
हित्वा सङ्गमयान् पाशान् मृत्युजन्मजरोदयान्।
निर्ममो निरहङ्कारो मुच्यते नात्र संशयः ॥ १५ ॥

मूलम्

अव्यक्तयोनिप्रभवो बुद्धिस्कन्धमयो महान् ।
महाहंकारविटप इन्द्रियाङ््कुरकोटरः ॥ १२ ॥
महाभूतविशालश्च विशेषयति शाखिनः ।
सदापत्रः सदापुष्पः शुभाशुभफलोदयः ॥ १३ ॥
आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः।
एनं छित्त्वा च भित्त्वा च तत्त्वज्ञानासिना बुधः ॥ १४ ॥
हित्वा सङ्गमयान् पाशान् मृत्युजन्मजरोदयान्।
निर्ममो निरहङ्कारो मुच्यते नात्र संशयः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देह एक वृक्षके समान है। अज्ञान इसका मूल (जड़) है, बुद्धि स्कन्ध (तना) है, अहंकार शाखा है, इन्द्रियाँ अंकुर और खोखले हैं तथा पञ्चमहाभूत इसको विशाल बनानेवाले हैं और इस वृक्षकी शोभा बढ़ाते हैं। इसमें सदा ही संकल्परूपी पत्ते उगते और कर्मरूपी फूल खिलते रहते हैं। शुभाशुभ कर्मोंसे प्राप्त होनेवाले सुख-दुःखादि ही इसमें सदा लगे रहनेवाले फल हैं। इस प्रकार ब्रह्मरूपी बीजसे प्रकट होकर प्रवाहरूपसे सदा मौजूद रहनेवाला यह देहरूपी वृक्ष समस्त प्राणियोंके जीवनका आधार है। बुद्धिमान् पुरुष तत्त्वज्ञानरूपी खड्गसे इस वृक्षको छिन्न-भिन्न कर जब जन्म-मृत्यु और जरावस्थाके चक्करमें डालनेवाले आसक्तिरूप बन्धनोंको तोड़ डालता है तथा ममता और अहंकारसे रहित हो जाता है, उस समय उसे अवश्य मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वाविमौ पक्षिणौ नित्यौ संक्षेपौ चाप्यचेतनौ।
एताभ्यां तु परो योऽन्यश्चेतनावान् स उच्यते ॥ १६ ॥

मूलम्

द्वाविमौ पक्षिणौ नित्यौ संक्षेपौ चाप्यचेतनौ।
एताभ्यां तु परो योऽन्यश्चेतनावान् स उच्यते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस वृक्षपर रहनेवाले (मन-बुद्धिरूप) दो पक्षी हैं, जो नित्य क्रियाशील होनेपर भी अचेतन हैं। इन दोनोंसे श्रेष्ठ अन्य (आत्मा) है, वह ज्ञानसम्पन्न कहा जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचेतनः सत्त्वसंख्याविमुक्तः
सत्त्वात् परं चेतयतेऽन्तरात्मा ।
स क्षेत्रवित् सर्वसंख्यातबुद्धि-
र्गुणातिगो मुच्यते सर्वपापैः ॥ १७ ॥

मूलम्

अचेतनः सत्त्वसंख्याविमुक्तः
सत्त्वात् परं चेतयतेऽन्तरात्मा ।
स क्षेत्रवित् सर्वसंख्यातबुद्धि-
र्गुणातिगो मुच्यते सर्वपापैः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संख्यासे रहित जो सत्त्व अर्थात् मूलप्रकृति है, वह अचेतन है। उससे भिन्न जो जीवात्मा है, उसे अन्तर्यामी परमात्मा ज्ञानसम्पन्न करता है। वही क्षेत्रको जाननेवाला जब सम्पूर्ण तत्त्वोंको जान लेता है, तब गुणातीत होकर सब पापोंसे छूट जाता है॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरु-शिष्य-संवादविषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४७॥