भागसूचना
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासीके धर्मका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतेन मार्गेण पूर्वोक्तेन यथाविधि।
अधीतवान् यथाशक्ति तथैव ब्रह्मचर्यवान् ॥ १ ॥
स्वधर्मनिरतो विद्वान् सर्वेन्द्रिययतो मुनिः।
गुरोः प्रियहिते युक्तः सत्यधर्मपरः शुचिः ॥ २ ॥
मूलम्
एवमेतेन मार्गेण पूर्वोक्तेन यथाविधि।
अधीतवान् यथाशक्ति तथैव ब्रह्मचर्यवान् ॥ १ ॥
स्वधर्मनिरतो विद्वान् सर्वेन्द्रिययतो मुनिः।
गुरोः प्रियहिते युक्तः सत्यधर्मपरः शुचिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— महर्षिगण! इस प्रकार इस पूर्वोक्त मार्गके अनुसार गृहस्थको यथावत् आचरण करना चाहिये एवं यथाशक्ति अध्ययन करते हुए ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करनेवाले पुरुषको चाहिये कि वह अपने धर्ममें तत्पर रहे, विद्वान् बने, सम्पूर्ण इन्द्रियोंको अपने अधीन रखे, मुनि-व्रतका पालन करे, गुरुका प्रिय और हित करनेमें लगा रहे, सत्य बोले तथा धर्मपरायण एवं पवित्र रहे॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुणा समनुज्ञातो भुञ्जीतान्नमकुत्सयन् ।
हविष्यभैक्ष्यभुक् चापि स्थानासनविहारवान् ॥ ३ ॥
मूलम्
गुरुणा समनुज्ञातो भुञ्जीतान्नमकुत्सयन् ।
हविष्यभैक्ष्यभुक् चापि स्थानासनविहारवान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुकी आज्ञा लेकर भोजन करे। भोजनके समय अन्नकी निन्दा न करे। भिक्षाके अन्नको हविष्य मानकर ग्रहण करे। एक स्थानपर रहे। एक आसनसे बैठे और नियत समयमें भ्रमण करे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विकालमग्निं जुह्वानः शुचिर्भूत्वा समाहितः।
धारयीत सदा दण्डं बैल्वं पालाशमेव वा ॥ ४ ॥
मूलम्
द्विकालमग्निं जुह्वानः शुचिर्भूत्वा समाहितः।
धारयीत सदा दण्डं बैल्वं पालाशमेव वा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पवित्र और एकाग्रचित्त होकर दोनों समय अग्निमें हवन करे। सदा बेल या पलाशका दण्ड लिये रहे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षौमं कार्पासिकं चापि मृगाजिनमथापि वा।
सर्वं काषायरक्तं वा वासो वापि द्विजस्य ह ॥ ५ ॥
मूलम्
क्षौमं कार्पासिकं चापि मृगाजिनमथापि वा।
सर्वं काषायरक्तं वा वासो वापि द्विजस्य ह ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रेशमी अथवा सूती वस्त्र या मृगचर्म धारण करे। अथवा ब्राह्मणके लिये सारा वस्त्र गेरुए रंगका होना चाहिये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेखला च भवेन्मौञ्जी जटी नित्योदकस्तथा।
यज्ञोपवीती स्वाध्यायी अलुब्धो नियतव्रतः ॥ ६ ॥
मूलम्
मेखला च भवेन्मौञ्जी जटी नित्योदकस्तथा।
यज्ञोपवीती स्वाध्यायी अलुब्धो नियतव्रतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचारी मूँजकी मेखला पहने, जटा धारण करे, प्रतिदिन स्नान करे, यज्ञोपवीत पहने, वेदके स्वाध्यायमें लगा रहे तथा लोभहीन होकर नियमपूर्वक व्रतका पालन करे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूताभिश्च तथैवाद्भिः सदा दैवततर्पणम्।
भावेन नियतः कुर्वन् ब्रह्मचारी प्रशस्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
पूताभिश्च तथैवाद्भिः सदा दैवततर्पणम्।
भावेन नियतः कुर्वन् ब्रह्मचारी प्रशस्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्रह्मचारी सदा नियमपरायण होकर श्रद्धाके साथ शुद्ध जलसे नित्य देवताओंका तर्पण करता है, उसकी सर्वत्र प्रशंसा होती है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं युक्तो जयेल्लोकान् वानप्रस्थो जितेन्द्रियः।
न संसरति जातीषु परमं स्थानमाश्रितः ॥ ८ ॥
मूलम्
एवं युक्तो जयेल्लोकान् वानप्रस्थो जितेन्द्रियः।
न संसरति जातीषु परमं स्थानमाश्रितः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार आगे बतलाये जानेवाले उत्तम गुणोंसे युक्त जितेन्द्रिय वानप्रस्थी पुरुष भी उत्तम लोकोंपर विजय पाता है। वह उत्तम स्थानको पाकर फिर इस संसारमें जन्म धारण नहीं करता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्कृतः सर्वसंस्कारैस्तथैव ब्रह्मचर्यवान् ।
ग्रामान्निष्क्रम्य चारण्ये मुनिः प्रव्रजितो वसेत् ॥ ९ ॥
मूलम्
संस्कृतः सर्वसंस्कारैस्तथैव ब्रह्मचर्यवान् ।
ग्रामान्निष्क्रम्य चारण्ये मुनिः प्रव्रजितो वसेत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानप्रस्थ मुनिको सब प्रकारके संस्कारोंके द्वारा शुद्ध होकर ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए घरकी ममता त्यागकर गाँवसे बाहर निकलकर वनमें निवास करना चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चर्मवल्कलसंवासी सायं प्रातरुपस्पृशेत् ।
अरण्यगोचरो नित्यं न ग्रामं प्रविशेत् पुनः ॥ १० ॥
मूलम्
चर्मवल्कलसंवासी सायं प्रातरुपस्पृशेत् ।
अरण्यगोचरो नित्यं न ग्रामं प्रविशेत् पुनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मृगचर्म अथवा वल्कल-वस्त्र पहने। प्रातः और सायंकालके समय स्नान करे। सदा वनमें ही रहे। गाँवमें फिर कभी प्रवेश न करे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्चयन्नतिथीन् काले दद्याच्चापि प्रतिश्रयम्।
फलपत्रावरैर्मूलेः श्यामाकेन च वर्तयन् ॥ ११ ॥
मूलम्
अर्चयन्नतिथीन् काले दद्याच्चापि प्रतिश्रयम्।
फलपत्रावरैर्मूलेः श्यामाकेन च वर्तयन् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतिथिको आश्रय दे और समयपर उनका सत्कार करे। जंगली फल, मूल, पत्ता अथवा सावाँ खाकर जीवन-निर्वाह करे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तमुदकं वायुं सर्वं वानेयमाश्रयेत्।
प्राश्नीयादानुपूर्व्येण यथादीक्षमतन्द्रितः ॥ १२ ॥
मूलम्
प्रवृत्तमुदकं वायुं सर्वं वानेयमाश्रयेत्।
प्राश्नीयादानुपूर्व्येण यथादीक्षमतन्द्रितः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहते हुए जल, वायु आदि सब वनकी वस्तुओंका ही सेवन करे। अपने व्रतके अनुसार सदा सावधान रहकर क्रमशः उपर्युक्त वस्तुओंका आहार करे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समूलफलभिक्षाभिरर्चेदतिथिमागतम् ।
यद् भक्ष्यं स्यात् ततो दद्याद् भिक्षां नित्यमतन्द्रितः ॥ १३ ॥
मूलम्
समूलफलभिक्षाभिरर्चेदतिथिमागतम् ।
यद् भक्ष्यं स्यात् ततो दद्याद् भिक्षां नित्यमतन्द्रितः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई अतिथि आ जाय तो फल-मूलकी भिक्षा देकर उसका सत्कार करे। कभी आलस्य न करे। जो कुछ भोजन अपने पास उपस्थित हो, उसीमेंसे अतिथिको भिक्षा दे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतातिथिपूर्वं च सदा प्राश्नीत वाग्यतः।
अस्पर्धितमनाश्चैव लघ्वाशी देवताश्रयः ॥ १४ ॥
मूलम्
देवतातिथिपूर्वं च सदा प्राश्नीत वाग्यतः।
अस्पर्धितमनाश्चैव लघ्वाशी देवताश्रयः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्य प्रति पहले देवता और अतिथियोंको भोजन दे, उसके बाद मौन होकर स्वयं अन्न ग्रहण करे। मनमें किसीके साथ स्पर्धा न रखे, हलका भोजन करे, देवताओंका सहारा ले॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दान्तो मैत्रः क्षमायुक्तः केशान् श्मश्रु च धारयन्।
जुह्वन् स्वाध्यायशीलश्च सत्यधर्मपरायणः ॥ १५ ॥
मूलम्
दान्तो मैत्रः क्षमायुक्तः केशान् श्मश्रु च धारयन्।
जुह्वन् स्वाध्यायशीलश्च सत्यधर्मपरायणः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंका संयम करे, सबके साथ मित्रताका बर्ताव करे, क्षमाशील बने और दाढ़ी-मूँछ तथा सिरके बालोंको धारण किये रहे। समयपर अग्निहोत्र और वेदोंका स्वाध्याय करे तथा सत्य-धर्मका पालन करे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचिदेहः सदा दक्षो वननित्यः समाहितः।
एवं युक्तो जयेत् स्वर्गं वानप्रस्थो जितेन्द्रियः ॥ १६ ॥
मूलम्
शुचिदेहः सदा दक्षो वननित्यः समाहितः।
एवं युक्तो जयेत् स्वर्गं वानप्रस्थो जितेन्द्रियः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीरको सदा पवित्र रखे। धर्म-पालनमें कुशलता प्राप्त करे। सदा वनमें रहकर चित्तको एकाग्र किये रहे। इस प्रकार उत्तम धर्मोंको पालन करनेवाला जितेन्द्रिय वानप्रस्थी स्वर्गपर विजय पाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ वा पुनः।
य इच्छेन्मोक्षमास्थातुमुत्तमां वृत्तिमाश्रयेत् ॥ १७ ॥
मूलम्
गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ वा पुनः।
य इच्छेन्मोक्षमास्थातुमुत्तमां वृत्तिमाश्रयेत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचारी, गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ कोई भी क्यों न हो, जो मोक्ष पाना चाहता हो, उसे उत्तम वृत्तिका आश्रय लेना चाहिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत्।
सर्वभूतसुखो मैत्रः सर्वेन्द्रिययतो मुनिः ॥ १८ ॥
मूलम्
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत्।
सर्वभूतसुखो मैत्रः सर्वेन्द्रिययतो मुनिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वानप्रस्थकी अवधि पूरी करके) सम्पूर्ण भूतोंको अभय-दान देकर कर्म-त्यागरूप संन्यास-धर्मका पालन करे। सब प्राणियोंके सुखमें सुख माने। सबके साथ मित्रता रखे। समस्त इन्द्रियोंका संयम और मुनि-वृत्तिका पालन करे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयाचितमसंक्लृप्तमुपपन्नं यदृच्छया ।
कृत्वा प्राह्णे चरेद् भैक्ष्यं विधूमे भुक्तवज्जने ॥ १९ ॥
वृत्ते शरावसम्पाते भैक्ष्यं लिप्सेत मोक्षवित्।
मूलम्
अयाचितमसंक्लृप्तमुपपन्नं यदृच्छया ।
कृत्वा प्राह्णे चरेद् भैक्ष्यं विधूमे भुक्तवज्जने ॥ १९ ॥
वृत्ते शरावसम्पाते भैक्ष्यं लिप्सेत मोक्षवित्।
अनुवाद (हिन्दी)
बिना याचना किये, बिना संकल्पके दैवात् जो अन्न प्राप्त हो जाय, उस भिक्षासे ही जीवन-निर्वाह करे। प्रातःकालका नित्यकर्म करनेके बाद जब गृहस्थोंके यहाँ रसोई-घरसे धुआँ निकलना बंद हो जाय, घरके सब लोग खा-पी चुकें और बर्तन धो-माजकर रख दिये गये हों, उस समय मोक्षधर्मके ज्ञाता संन्यासीको भिक्षा लेनेकी इच्छा करनी चाहिये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाभेन च न हृष्येत नालाभे विमना भवेत्।
न चातिभिक्षां भिक्षेत केवलं प्राणयात्रिकः ॥ २० ॥
मूलम्
लाभेन च न हृष्येत नालाभे विमना भवेत्।
न चातिभिक्षां भिक्षेत केवलं प्राणयात्रिकः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भिक्षा मिल जानेपर हर्ष और न मिलनेपर विषाद न करे। (लोभवश) बहुत अधिक भिक्षाका संग्रह न करे। जितनेसे प्राण-यात्राका निर्वाह हो उतनी ही भिक्षा लेनी चाहिये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यात्रार्थी कालमाकाङ्क्षंश्चरेद् भैक्ष्यं समाहितः।
लाभं साधारणं नेच्छेन्न भुञ्जीताभिपूजितः ॥ २१ ॥
मूलम्
यात्रार्थी कालमाकाङ्क्षंश्चरेद् भैक्ष्यं समाहितः।
लाभं साधारणं नेच्छेन्न भुञ्जीताभिपूजितः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासी जीवन-निर्वाहके ही लिये भिक्षा माँगे। उचित समयतक उसके मिलनेकी बाट देखे। चित्तको एकाग्र किये रहे। साधारण वस्तुओंकी प्राप्तिकी भी इच्छा न करे। जहाँ अधिक सम्मान होता हो, वहाँ भोजन न करे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिपूजितलाभाद्धि विजुगुप्सेत भिक्षुकः ।
भुक्तान्यन्नानि तिक्तानि कषायकटुकानि च ॥ २२ ॥
मूलम्
अभिपूजितलाभाद्धि विजुगुप्सेत भिक्षुकः ।
भुक्तान्यन्नानि तिक्तानि कषायकटुकानि च ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मान-प्रतिष्ठाके लाभसे संन्यासीको घृणा करनी चाहिये। वह खाये हुए तिक्त, कसैले तथा कड़वे अन्नका स्वाद न ले॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्वादयीत भुञ्जानो रसांश्च मधुरांस्तथा।
यात्रामात्रं च भुञ्जीत केवलं प्राणधारणम् ॥ २३ ॥
मूलम्
नास्वादयीत भुञ्जानो रसांश्च मधुरांस्तथा।
यात्रामात्रं च भुञ्जीत केवलं प्राणधारणम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भोजन करते समय मधुर रसका भी आस्वादन न करे। केवल जीवन-निर्वाहके उद्देश्यसे प्राण-धारणमात्रके लिये उपयोगी अन्नका आहार करे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंरोधेन भूतानां वृत्तिं लिप्सेत मोक्षवित्।
न चान्यमन्नं लिप्सेत भिक्षमाणः कथंचन ॥ २४ ॥
मूलम्
असंरोधेन भूतानां वृत्तिं लिप्सेत मोक्षवित्।
न चान्यमन्नं लिप्सेत भिक्षमाणः कथंचन ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोक्षके तत्त्वको जाननेवाला संन्यासी दूसरे प्राणियोंकी जीविकामें बाधा पहुँचाये बिना ही यदि भिक्षा मिल जाती हो तभी उसे स्वीकार करे। भिक्षा माँगते समय दाताके द्वारा दिये जानेवाले अन्नके सिवा दूसरा अन्न लेनेकी कदापि इच्छा न करे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न संनिकाशयेद् धर्मं विविक्ते चारजाश्चरेत्।
शून्यागारमरण्यं वा वृक्षमूलं नदीं तथा ॥ २५ ॥
प्रतिश्रयार्थं सेवेत पार्वतीं वा पुनर्गुहाम्।
ग्रामैकरात्रिको ग्रीष्मे वर्षास्वेकत्र वा वसेत् ॥ २६ ॥
मूलम्
न संनिकाशयेद् धर्मं विविक्ते चारजाश्चरेत्।
शून्यागारमरण्यं वा वृक्षमूलं नदीं तथा ॥ २५ ॥
प्रतिश्रयार्थं सेवेत पार्वतीं वा पुनर्गुहाम्।
ग्रामैकरात्रिको ग्रीष्मे वर्षास्वेकत्र वा वसेत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे अपने धर्मका प्रदर्शन नहीं करना चाहिये। रजोगुणसे रहित होकर निर्जन स्थानमें विचरते रहना चाहिये। रातको सोनेके लिये सूने घर, जंगल, वृक्षकी जड़, नदीके किनारे अथवा पर्वतकी गुफाका आश्रय लेना चाहिये। ग्रीष्मकालमें गाँवमें एक रातसे अधिक नहीं रहना चाहिये, किंतु वर्षाकालमें किसी एक ही स्थानपर रहना उचित है॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्वा सूर्येण निर्दिष्टः कीटवच्च चरेन्महीम्।
दयार्थं चैव भूतानां समीक्ष्य पृथिवीं चरेत् ॥ २७ ॥
संचयांश्च न कुर्वीत स्नेहवासं च वर्जयेत्।
मूलम्
अध्वा सूर्येण निर्दिष्टः कीटवच्च चरेन्महीम्।
दयार्थं चैव भूतानां समीक्ष्य पृथिवीं चरेत् ॥ २७ ॥
संचयांश्च न कुर्वीत स्नेहवासं च वर्जयेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक सूर्यका प्रकाश रहे तभीतक संन्यासीके लिये रास्ता चलना उचित है। वह कीड़ेकी तरह धीरे-धीरे समूची पृथ्वीपर विचरता रहे और यात्राके समय जीवोंपर दया करके पृथ्वीको अच्छी तरह देख-भालकर आगे पाँव रखे। किसी प्रकारका संग्रह न करे और कहीं भी आसक्तिपूर्वक निवास न करे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूताभिरद्भिर्नित्यं वै कार्यं कुर्वीत मोक्षवित् ॥ २८ ॥
उपस्पृशेदुद्धृताभिरद्भिश्च पुरुषः सदा ।
मूलम्
पूताभिरद्भिर्नित्यं वै कार्यं कुर्वीत मोक्षवित् ॥ २८ ॥
उपस्पृशेदुद्धृताभिरद्भिश्च पुरुषः सदा ।
अनुवाद (हिन्दी)
मोक्ष-धर्मके ज्ञाता संन्यासीको उचित है कि सदा पवित्र जलसे काम ले। प्रतिदिन तुरंत निकाले हुए जलसे स्नान करे (बहुत पहलेके भरे हुए जलसे नहीं)॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च सत्यमार्जवमेव च ॥ २९ ॥
अक्रोधश्चानसूया च दमो नित्यमपैशुनम्।
अष्टस्वेतेषु युक्तः स्याद् व्रतेषु नियतेन्द्रियः ॥ ३० ॥
मूलम्
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च सत्यमार्जवमेव च ॥ २९ ॥
अक्रोधश्चानसूया च दमो नित्यमपैशुनम्।
अष्टस्वेतेषु युक्तः स्याद् व्रतेषु नियतेन्द्रियः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, सरलता, क्रोधका अभाव, दोष-दृष्टिका त्याग, इन्द्रियसंयम और चुगली न खाना—इन आठ व्रतोंका सदा सावधानीके साथ पालन करे। इन्द्रियोंको वशमें रखे॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपापमशठं वृत्तमजिह्मं नित्यमाचरेत् ।
जोषयेत सदा भोज्यं ग्रासमागतमस्पृहः ॥ ३१ ॥
मूलम्
अपापमशठं वृत्तमजिह्मं नित्यमाचरेत् ।
जोषयेत सदा भोज्यं ग्रासमागतमस्पृहः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे सदा पाप, शठता और कुटिलतासे रहित होकर बर्ताव करना चाहिये। नित्यप्रति जो अन्न अपने-आप प्राप्त हो जाय, उसको ग्रहण करना चाहिये, किंतु उसके लिये भी मनमें इच्छा नहीं रखनी चाहिये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यात्रामात्रं च भुञ्जीत केवलं प्राणयात्रिकम्।
धर्मलब्धमथाश्नीयान्न काममनुवर्तयेत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
यात्रामात्रं च भुञ्जीत केवलं प्राणयात्रिकम्।
धर्मलब्धमथाश्नीयान्न काममनुवर्तयेत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राणयात्राका निर्वाह करनेके लिये जितना अन्न आवश्यक है, उतना ही ग्रहण करे। धर्मतः प्राप्त हुए अन्नका ही आहार करे। मनमाना भोजन न करे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रासादाच्छादनादन्यन्न गृह्णीयात् कथंचन ।
यावदाहारयेत् तावत् प्रतिगृह्णीत नाधिकम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
ग्रासादाच्छादनादन्यन्न गृह्णीयात् कथंचन ।
यावदाहारयेत् तावत् प्रतिगृह्णीत नाधिकम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खानेके लिये अन्न और शरीर ढकनेके लिये वस्त्रके सिवा और किसी वस्तुका संग्रह न करे। भिक्षा भी, जितनी भोजनके लिये आवश्यक हो, उतनी ही ग्रहण करे, उससे अधिक नहीं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परेभ्यो न प्रतिग्राह्यं न च देयं कदाचन।
दैन्यभावाच्च भूतानां संविभज्य सदा बुधः ॥ ३४ ॥
मूलम्
परेभ्यो न प्रतिग्राह्यं न च देयं कदाचन।
दैन्यभावाच्च भूतानां संविभज्य सदा बुधः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् संन्यासीको चाहिये कि दूसरोंके लिये भिक्षा न माँगे तथा सब प्राणियोंके लिये दयाभावसे संविभागपूर्वक कभी कुछ देनेकी इच्छा भी न करे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाददीत परस्वानि न गृह्णीयादयाचितः।
न किंचिद् विषयं भुक्त्वा स्पृहयेत् तस्य वै पुनः॥३५॥
मूलम्
नाददीत परस्वानि न गृह्णीयादयाचितः।
न किंचिद् विषयं भुक्त्वा स्पृहयेत् तस्य वै पुनः॥३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंके अधिकारका अपहरण न करे। बिना प्रार्थनाके किसीकी कोई वस्तु स्वीकार न करे। किसी अच्छी वस्तुका उपभोग करके फिर उसके लिये लालायित न रहे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृदमापस्तथान्नानि पत्रपुष्पफलानि च ।
असंवृतानि गृह्णीयात् प्रवृत्तानि च कार्यवान् ॥ ३६ ॥
मूलम्
मृदमापस्तथान्नानि पत्रपुष्पफलानि च ।
असंवृतानि गृह्णीयात् प्रवृत्तानि च कार्यवान् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मिट्टी, जल, अन्न, पत्र, पुष्प और फल—ये वस्तुएँ यदि किसीके अधिकारमें न हों तो आवश्यकता पड़नेपर क्रियाशील संन्यासी इन्हें काममें ला सकता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शिल्पजीविकां जीवेद्धिरण्यं नोत कामयेत्।
न द्वेष्टा नोपदेष्टा च भवेच्च निरुपस्कृतः ॥ ३७ ॥
मूलम्
न शिल्पजीविकां जीवेद्धिरण्यं नोत कामयेत्।
न द्वेष्टा नोपदेष्टा च भवेच्च निरुपस्कृतः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह शिल्पकारी करके जीविका न चलावे, सुवर्णकी इच्छा न करे। किसीसे द्वेष न करे और उपदेशक न बने तथा संग्रहरहित रहे॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धापूतानि भुञ्जीत निमित्तानि च वर्जयेत्।
सुधावृत्तिरसक्तश्च सर्वभूतैरसंविदम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
श्रद्धापूतानि भुञ्जीत निमित्तानि च वर्जयेत्।
सुधावृत्तिरसक्तश्च सर्वभूतैरसंविदम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रद्धासे प्राप्त हुए पवित्र अन्नका आहार करे। मनमें कोई निमित्त न रखे। सबके साथ अमृतके समान मधुर बर्ताव करे, कहीं भी आसक्त न हो और किसी भी प्राणीके साथ परिचय न बढ़ावे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीर्युक्तानि सर्वाणि हिंसायुक्तानि यानि च।
लोकसंग्रहधर्मं च नैव कुर्यान्न कारयेत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
आशीर्युक्तानि सर्वाणि हिंसायुक्तानि यानि च।
लोकसंग्रहधर्मं च नैव कुर्यान्न कारयेत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जितने भी कामना और हिंसासे युक्त कर्म हैं, उन सबका एवं लौकिक कर्मोंका न स्वयं अनुष्ठान करे और न दूसरोंसे करावे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभावानतिक्रम्य लघुमात्रः परिव्रजेत् ।
समः सर्वेषु भूतेषु स्थावरेषु चरेषु च ॥ ४० ॥
मूलम्
सर्वभावानतिक्रम्य लघुमात्रः परिव्रजेत् ।
समः सर्वेषु भूतेषु स्थावरेषु चरेषु च ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब प्रकारके पदार्थोंकी आसक्तिका उल्लंघन करके थोड़ेमें संतुष्ट हो सब ओर विचरता रहे। स्थावर और जंगम सभी प्राणियोंके प्रति समान भाव रखे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परं नोद्वेजयेत् काचिन्न च कस्यचिदुद्विजेत्।
विश्वास्यः सर्वभूतानामग्र्यो मोक्षविदुच्यते ॥ ४१ ॥
मूलम्
परं नोद्वेजयेत् काचिन्न च कस्यचिदुद्विजेत्।
विश्वास्यः सर्वभूतानामग्र्यो मोक्षविदुच्यते ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी दूसरे प्राणीको उद्वेगमें न डाले और स्वयं भी किसीसे उद्विग्न न हो। जो सब प्राणियोंका विश्वासपात्र बन जाता है, वह सबसे श्रेष्ठ और मोक्ष-धर्मका ज्ञाता कहलाता है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनागतं च न ध्यायेन्नातीतमनुचिन्तयेत्।
वर्तमानमुपेक्षेत कालाकाङ्क्षी समाहितः ॥ ४२ ॥
मूलम्
अनागतं च न ध्यायेन्नातीतमनुचिन्तयेत्।
वर्तमानमुपेक्षेत कालाकाङ्क्षी समाहितः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासीको उचित है कि भविष्यके लिये विचार न करे, बीती हुई घटनाका चिन्तन न करे और वर्तमानकी भी उपेक्षा कर दे। केवल कालकी प्रतीक्षा करता हुआ चित्तवृत्तियोंका समाधान करता रहे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चक्षुषा न मनसा न वाचा दूषयेत् क्वचित्।
न प्रत्यक्षं परोक्षं वा किंचिद् दुष्टं समाचरेत् ॥ ४३ ॥
मूलम्
न चक्षुषा न मनसा न वाचा दूषयेत् क्वचित्।
न प्रत्यक्षं परोक्षं वा किंचिद् दुष्टं समाचरेत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नेत्रसे, मनसे और वाणीसे कहीं भी दोषदृष्टि न करे। सबके सामने या दूसरोंकी आँख बचाकर कोई बुराई न करे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाण्युपसंहृत्य कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
क्षीणेन्द्रियमनोबुद्धिर्निरीहः सर्वतत्त्ववित् ॥ ४४ ॥
मूलम्
इन्द्रियाण्युपसंहृत्य कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
क्षीणेन्द्रियमनोबुद्धिर्निरीहः सर्वतत्त्ववित् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कछुआ अपने अंगोंको सब ओरसे समेट लेता है, उसी प्रकर इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे हटा ले। इन्द्रिय, मन और बुद्धिको दुर्बल करके निश्चेष्ट हो जाय। सम्पूर्ण तत्त्वोंका ज्ञान प्राप्त करे॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निःस्वाहाकार एव च।
निर्ममो निरहंकारो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥
मूलम्
निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निःस्वाहाकार एव च।
निर्ममो निरहंकारो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वन्द्वोंसे प्रभावित न हो, किसीके सामने माथा न टेके। स्वाहाकार (अग्निहोत्र आदि)-का परित्याग करे। ममता और अहंकारसे रहित हो जाय, योगक्षेमकी चिन्ता न करे। मनपर विजय प्राप्त करे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निराशीर्निर्गुणः शान्तो निरासक्तो निराश्रयः।
आत्मसङ्गी च तत्त्वज्ञो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४६ ॥
मूलम्
निराशीर्निर्गुणः शान्तो निरासक्तो निराश्रयः।
आत्मसङ्गी च तत्त्वज्ञो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो निष्काम, निर्गुण, शान्त, अनासक्त, निराश्रय, आत्मपरायण और तत्त्वका ज्ञाता होता है, वह मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपादपाणिपृष्ठं तदशिरस्कमनूदरम् ।
प्रहीणगुणकर्माणं केवलं विमलं स्थिरम् ॥ ४७ ॥
अगन्धमरसस्पर्शमरूपाशब्दमेव च ।
अनुगम्यमनासक्तममांसमपि चैव यत् ॥ ४८ ॥
निश्चिन्तमव्ययं दिव्यं कूटस्थमपि सर्वदा।
सर्वभूतस्थमात्मानं ये पश्यन्ति न ते मृताः ॥ ४९ ॥
मूलम्
अपादपाणिपृष्ठं तदशिरस्कमनूदरम् ।
प्रहीणगुणकर्माणं केवलं विमलं स्थिरम् ॥ ४७ ॥
अगन्धमरसस्पर्शमरूपाशब्दमेव च ।
अनुगम्यमनासक्तममांसमपि चैव यत् ॥ ४८ ॥
निश्चिन्तमव्ययं दिव्यं कूटस्थमपि सर्वदा।
सर्वभूतस्थमात्मानं ये पश्यन्ति न ते मृताः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य आत्माको हाथ, पैर, पीठ, मस्तक और उदर आदि अंगोंसे रहित, गुण-कर्मोंसे हीन, केवल, निर्मल, स्थिर, रूप-रस-गन्ध-स्पर्श और शब्दसे रहित, ज्ञेय, अनासक्त, हाड़-मांसके शरीरसे रहित, निश्चिन्त, अविनाशी, दिव्य और सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित सदा एकरस रहनेवाला जानते हैं, उनकी कभी मृत्यु नहीं होती॥४७—४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्र क्रमते बुद्धिर्नेन्द्रियाणि न देवताः।
वेदा यज्ञाश्च लोकाश्च न तपो न व्रतानि च॥५०॥
यत्र ज्ञानवतां प्राप्तिरलिङ्गग्रहणा स्मृता।
तस्मादलिङ्गधर्मज्ञो धर्मतत्त्वमुपाचरेत् ॥ ५१ ॥
मूलम्
न तत्र क्रमते बुद्धिर्नेन्द्रियाणि न देवताः।
वेदा यज्ञाश्च लोकाश्च न तपो न व्रतानि च॥५०॥
यत्र ज्ञानवतां प्राप्तिरलिङ्गग्रहणा स्मृता।
तस्मादलिङ्गधर्मज्ञो धर्मतत्त्वमुपाचरेत् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस आत्मतत्त्वतक बुद्धि, इन्द्रिय और देवताओंकी भी पहुँच नहीं होती। जहाँ केवल ज्ञानवान् महात्माओंकी ही गति है, वहाँ वेद, यज्ञ, लोक, तप और व्रतका भी प्रवेश नहीं होता; क्योंकि वह बाह्य चिह्नसे रहित मानी गयी है। इसलिये बाह्य चिह्नोंसे रहित धर्मको जानकर उसका यथार्थरूपसे पालन करना चाहिये॥५०-५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गूढधर्माश्रितो विद्वान् विज्ञानचरितं चरेत्।
अमूढो मूढरूपेण चरेद् धर्ममदूषयन् ॥ ५२ ॥
मूलम्
गूढधर्माश्रितो विद्वान् विज्ञानचरितं चरेत्।
अमूढो मूढरूपेण चरेद् धर्ममदूषयन् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुह्य धर्ममें स्थित विद्वान् पुरुषको उचित है कि वह विज्ञानके अनुरूप आचरण करे। मूढ़ न होकर भी मूढ़के समान बर्ताव करे, किंतु अपने किसी व्यवहारसे धर्मको कलंकित न करे॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैनमवमन्येरन् परे सततमेव हि।
यथावृत्तश्चरेच्छान्तः सतां धर्मानकुत्सयन् ॥ ५३ ॥
य एवं वृत्तसम्पन्नः स मुनिः श्रेष्ठ उच्यते।
मूलम्
तथैनमवमन्येरन् परे सततमेव हि।
यथावृत्तश्चरेच्छान्तः सतां धर्मानकुत्सयन् ॥ ५३ ॥
य एवं वृत्तसम्पन्नः स मुनिः श्रेष्ठ उच्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
जिस कामके करनेसे समाजके दूसरे लोग अनादर करें, वैसा ही काम शान्त रहकर सदा करता रहे, किंतु सत्पुरुषोंके धर्मकी निन्दा न करे। जो इस प्रकारके बर्तावसे सम्पन्न है, वह श्रेष्ठ मुनि कहलाता है॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च महाभूतानि पञ्च च ॥ ५४ ॥
मनो बुद्धिरहंकारमव्यक्तं पुरुषं तथा।
एतत् सर्वं प्रसंख्याय यथावत् तत्त्वनिश्चयात् ॥ ५५ ॥
ततः स्वर्गमवाप्नोति विमुक्तः सर्वबन्धनैः।
मूलम्
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च महाभूतानि पञ्च च ॥ ५४ ॥
मनो बुद्धिरहंकारमव्यक्तं पुरुषं तथा।
एतत् सर्वं प्रसंख्याय यथावत् तत्त्वनिश्चयात् ॥ ५५ ॥
ततः स्वर्गमवाप्नोति विमुक्तः सर्वबन्धनैः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य इन्द्रिय, उनके विषय, पञ्चमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति और पुरुष—इन सबका विचार करके इनके तत्त्वका यथावत् निश्चय कर लेता है, वह सम्पूर्ण बन्धनोंसे मुक्त होकर स्वर्गको प्राप्त कर लेता है॥५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदन्तवेलायां परिसंख्याय तत्त्ववित् ॥ ५६ ॥
ध्यायेदेकान्तमास्थाय मुच्यतेऽथ निराश्रयः ।
निर्मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो वायुराकाशगो यथा ॥ ५७ ॥
क्षीणकोशो निरातङ्कस्तथेदं प्राप्नुयात् परम् ॥ ५८ ॥
मूलम्
एतावदन्तवेलायां परिसंख्याय तत्त्ववित् ॥ ५६ ॥
ध्यायेदेकान्तमास्थाय मुच्यतेऽथ निराश्रयः ।
निर्मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो वायुराकाशगो यथा ॥ ५७ ॥
क्षीणकोशो निरातङ्कस्तथेदं प्राप्नुयात् परम् ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तत्त्ववेत्ता अन्त समयमें इन तत्त्वोंका ज्ञान प्राप्त करके एकान्तमें बैठकर परमात्माका ध्यान करता है, वह आकाशमें विचरनेवाले वायुकी भाँति सब प्रकारकी आसक्तियोंसे छूटकर पञ्चकोशोंसे रहित, निर्भय तथा निराश्रय होकर मुक्त एवं परमात्माको प्राप्त हो जाता है॥५६—५८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरु-शिष्य-संवादविषयक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४६॥