भागसूचना
पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
देहरूपी कालचक्रका तथा गृहस्थ और ब्रह्मणके धर्मका कथन
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिसारं मनःस्तम्भमिन्द्रियग्रामबन्धनम् ।
महाभूतपरिस्कन्धं निवेशपरिवेशनम् ॥ १ ॥
जराशोकसमाविष्टं व्याधिव्यसनसम्भवम् ।
देशकालविचारीदं श्रमव्यायामनिःस्वनम् ॥ २ ॥
अहोरात्रपरिक्षेपं शीतोष्णपरिमण्डलम् ।
सुखदुःखान्तसंश्लेषं क्षुत्पिपासावकीलकम् ॥ ३ ॥
छायातपविलेखं च निमेषोन्मेषविह्वलम् ।
घोरमोहजलाकीर्णं वर्तमानमचेतनम् ॥ ४ ॥
मासार्धमासगणितं विषमं लोकसंचरम् ।
तमोनियमपङ्कं च रजोवेगप्रवर्तकम् ॥ ५ ॥
महाहंकारदीप्तं च गुणसंजातवर्तनम् ।
अरतिग्रहणानीकं शोकसंहारवर्तनम् ॥ ६ ॥
क्रियाकारणसंयुक्तं रागविस्तारमायतम् ।
लोभेप्सापरिविक्षोभं विचित्राज्ञानसम्भवम् ॥ ७ ॥
भयमोहपरीवारं भूतसम्मोहकारकम् ।
आनन्दप्रीतिचारं च कामक्रोधपरिग्रहम् ॥ ८ ॥
महदादिविशेषान्तमसक्तं प्रभवाव्ययम् ।
मनोजवं मनःकान्तं कालचक्रं प्रवर्तते ॥ ९ ॥
मूलम्
बुद्धिसारं मनःस्तम्भमिन्द्रियग्रामबन्धनम् ।
महाभूतपरिस्कन्धं निवेशपरिवेशनम् ॥ १ ॥
जराशोकसमाविष्टं व्याधिव्यसनसम्भवम् ।
देशकालविचारीदं श्रमव्यायामनिःस्वनम् ॥ २ ॥
अहोरात्रपरिक्षेपं शीतोष्णपरिमण्डलम् ।
सुखदुःखान्तसंश्लेषं क्षुत्पिपासावकीलकम् ॥ ३ ॥
छायातपविलेखं च निमेषोन्मेषविह्वलम् ।
घोरमोहजलाकीर्णं वर्तमानमचेतनम् ॥ ४ ॥
मासार्धमासगणितं विषमं लोकसंचरम् ।
तमोनियमपङ्कं च रजोवेगप्रवर्तकम् ॥ ५ ॥
महाहंकारदीप्तं च गुणसंजातवर्तनम् ।
अरतिग्रहणानीकं शोकसंहारवर्तनम् ॥ ६ ॥
क्रियाकारणसंयुक्तं रागविस्तारमायतम् ।
लोभेप्सापरिविक्षोभं विचित्राज्ञानसम्भवम् ॥ ७ ॥
भयमोहपरीवारं भूतसम्मोहकारकम् ।
आनन्दप्रीतिचारं च कामक्रोधपरिग्रहम् ॥ ८ ॥
महदादिविशेषान्तमसक्तं प्रभवाव्ययम् ।
मनोजवं मनःकान्तं कालचक्रं प्रवर्तते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— महर्षियो! मनके समान वेगवाला (देहरूपी) मनोरम कालचक्र निरन्तर चल रहा है। यह महत्तत्त्वसे लेकर स्थूल भूतोंतक चौबीस तत्त्वोंसे बना हुआ है। इसकी गति कहीं भी नहीं रुकती। यह संसार-बन्धनका अनिवार्य कारण है। बुढ़ापा और शोक इसे घेरे हुए हैं। यह रोग और दुर्व्यसनोंकी उत्पत्तिका स्थान है। यह देश और कालके अनुसार विचरण करता रहता है। बुद्धि इस काल-चक्रका सार, मन खम्भा और इन्द्रियसमुदाय बन्धन हैं। पञ्चमहाभूत इसका तना है। अज्ञान ही इसका आवरण है। श्रम तथा व्यायाम इसके शब्द हैं। रात और दिन इस चक्रका संचालन करते हैं। सर्दी और गर्मी इसका घेरा है। सुख और दुःख इसकी सन्धियाँ (जोड़) हैं। भूख और प्यास इसके कीलक तथा धूप और छाया इसकी रेखा हैं। आँखोंके खोलने और मीचनेसे इसकी व्याकुलता (चंचलता) प्रकट होती है। घोर मोहरूपी जल (शोकाश्रु)-से यह व्याप्त रहता है। यह सदा ही गतिशील और अचेतन है। मास और पक्ष आदिके द्वारा इसकी आयुकी गणना की जाती है। यह कभी भी एक-सी अवस्थामें नहीं रहता। ऊपर-नीचे और मध्यवर्ती लोकोंमें सदा चक्कर लगाता रहता है। तमोगुणके वशमें होनेपर इसकी पापपङ्कमें प्रवृत्ति होती है और रजोगुणका वेग इसे भिन्न-भिन्न कर्मोंमें लगाया करता है। यह महान् दर्पसे उद्दीप्त रहता है। तीनों गुणोंके अनुसार इसकी प्रवृत्ति देखी जाती है। मानसिक चिन्ता ही इस चक्रकी बन्धनपट्टिका है। यह सदा शोक और मृत्युके वशीभूत रहनेवाला तथा क्रिया और कारणसे युक्त है। आसक्ति ही उसका दीर्घ विस्तार (लंबाई-चौड़ाई) है। लोभ और तृष्णा ही इस चक्रको ऊँचे-नीचे स्थानोंमें गिरानेके हेतु हैं। अद्भुत अज्ञान (माया) इसकी उत्पत्तिका कारण है। भय और मोह इसे सब ओरसे घेरे हुए हैं। यह प्राणियोंको मोहमें डालनेवाला, आनन्द और प्रीतिके लिये विचरनेवाला तथा काम और क्रोधका संग्रह करनेवाला है॥१—९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् द्वन्द्वसमायुक्तं कालचक्रमचेतनम् ।
विसृजेत् संक्षिपेच्चापि बोधयेत् सामरं जगत् ॥ १० ॥
मूलम्
एतद् द्वन्द्वसमायुक्तं कालचक्रमचेतनम् ।
विसृजेत् संक्षिपेच्चापि बोधयेत् सामरं जगत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे युक्त जड देहरूपी कालचक्र ही देवताओंसहित सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि और संहारका कारण है। तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिका भी यही साधन है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालचक्रप्रवृत्तिं च निवृत्तिं चैव तत्त्वतः।
यस्तु वेद नरो नित्यं न स भूतेषु मुह्यति॥११॥
मूलम्
कालचक्रप्रवृत्तिं च निवृत्तिं चैव तत्त्वतः।
यस्तु वेद नरो नित्यं न स भूतेषु मुह्यति॥११॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य इस देहमय कालचक्रकी प्रवृत्ति और निवृत्तिको सदा अच्छी तरह जानता है, वह कभी मोहमें नहीं पड़ता॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुक्तः सर्वसंस्कारैः सर्वद्वन्द्वविवर्जितः ।
विमुक्तः सर्वपापेभ्यः प्राप्नोति परमां गतिम् ॥ १२ ॥
मूलम्
विमुक्तः सर्वसंस्कारैः सर्वद्वन्द्वविवर्जितः ।
विमुक्तः सर्वपापेभ्यः प्राप्नोति परमां गतिम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सम्पूर्ण वासनाओं, सब प्रकारके द्वन्द्वों और समस्त पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः।
चत्वार आश्रमाः प्रोक्ताः सर्वे गार्हस्थ्यमूलकाः ॥ १३ ॥
मूलम्
गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः।
चत्वार आश्रमाः प्रोक्ताः सर्वे गार्हस्थ्यमूलकाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास—ये चार आश्रम शास्त्रोंमें बताये गये हैं। गृहस्थ आश्रम ही इन सबका मूल है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः कश्चिदिह लोकेऽस्मिन्नागमः परिकीर्तितः।
तस्यान्तगमनं श्रेयः कीर्तिरेषा सनातनी ॥ १४ ॥
मूलम्
यः कश्चिदिह लोकेऽस्मिन्नागमः परिकीर्तितः।
तस्यान्तगमनं श्रेयः कीर्तिरेषा सनातनी ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें जो कोई भी विधि-निषेधरूप शास्त्र कहा गया है, उसमें पारंगत विद्वान् होना गृहस्थ द्विजोंके लिये उत्तम बात है। इसीसे सनातन यशकी प्राप्ति होती है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्कारैः संस्कृतः पूर्वं यथावच्चरितव्रतः।
जातौ गुणविशिष्टायां समावर्तेत तत्त्ववित् ॥ १५ ॥
मूलम्
संस्कारैः संस्कृतः पूर्वं यथावच्चरितव्रतः।
जातौ गुणविशिष्टायां समावर्तेत तत्त्ववित् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले सब प्रकारके संस्कारोंसे सम्पन्न होकर वेदोक्त विधिसे अध्ययन करते हुए ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करना चाहिये। तत्पश्चात् तत्त्ववेत्ताको उचित है कि वह समावर्तन-संस्कार करके उत्तम गुणोंसे युक्त कुलमें विवाह करे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वदारनिरतो नित्यं शिष्टाचारो जितेन्द्रियः।
पञ्चभिश्च महायज्ञैः श्रद्दधानो यजेदिह ॥ १६ ॥
मूलम्
स्वदारनिरतो नित्यं शिष्टाचारो जितेन्द्रियः।
पञ्चभिश्च महायज्ञैः श्रद्दधानो यजेदिह ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी ही स्त्रीपर प्रेम रखना, सदा सत्पुरुषोंके आचारका पालन करना और जितेन्द्रिय होना गृहस्थके लिये परम आवश्यक है। इस आश्रममें उसे श्रद्धापूर्वक पञ्चमहायज्ञोंके द्वारा देवता आदिका यजन करना चाहिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतातिथिशिष्टाशी निरतो वेदकर्मसु ।
इज्याप्रदानयुक्तश्च यथाशक्ति यथासुखम् ॥ १७ ॥
मूलम्
देवतातिथिशिष्टाशी निरतो वेदकर्मसु ।
इज्याप्रदानयुक्तश्च यथाशक्ति यथासुखम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थको उचित है कि वह देवता और अतिथियोंको भोजन करानेके बाद बचे हुए अन्नका स्वयं आहार करे। वेदोक्त कर्मोंके अनुष्ठानमें संलग्न रहे। अपनी शक्तिके अनुसार प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ करे और दान दे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलो मुनिः।
न च वागङ्गचपल इति शिष्टस्य गोचरः ॥ १८ ॥
मूलम्
न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलो मुनिः।
न च वागङ्गचपल इति शिष्टस्य गोचरः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मननशील गृहस्थको चाहिये कि हाथ, पैर, नेत्र, वाणी तथा शरीरके द्वारा होनेवाली चपलताका परित्याग करे अर्थात् इनके द्वारा कोई अनुचित कार्य न होने दे। यही सत्पुरुषोंका बर्ताव (शिष्टाचार) है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं यज्ञोपवीती स्याच्छुक्लवासाः शुचिव्रतः।
नियतो यमदानाभ्यां सदा शिष्टैश्च संविशेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
नित्यं यज्ञोपवीती स्याच्छुक्लवासाः शुचिव्रतः।
नियतो यमदानाभ्यां सदा शिष्टैश्च संविशेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा यज्ञोपवीत धारण किये रहे, स्वच्छ वस्त्र पहने, उत्तम व्रतका पालन करे, शौच-संतोष आदि नियमों और सत्य-अहिंसा आदि यमोंके पालनपूर्वक यथाशक्ति दान करता रहे तथा सदा शिष्ट पुरुषोंके साथ निवास करे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितशिश्नोदरो मैत्रः शिष्टाचारसमन्वितः ।
वैणवीं धारयेद् यष्टिं सोदकं च कमण्डलुम् ॥ २० ॥
मूलम्
जितशिश्नोदरो मैत्रः शिष्टाचारसमन्वितः ।
वैणवीं धारयेद् यष्टिं सोदकं च कमण्डलुम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिष्टाचारका पालन करते हुए जिह्वा और उपस्थको काबूमें रखे। सबके साथ मित्रताका बर्ताव करे। बाँसकी छड़ी और जलसे भरा हुआ कमण्डलु सदा साथ रखे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(त्रीणि धारयते नित्यं कमण्डलुमतन्द्रितः।
एकमाचमनार्थाय एकं वै पादधावनम्।
एकं शौचविधानार्थमित्येतत् त्रितयं तथा॥)
मूलम्
(त्रीणि धारयते नित्यं कमण्डलुमतन्द्रितः।
एकमाचमनार्थाय एकं वै पादधावनम्।
एकं शौचविधानार्थमित्येतत् त्रितयं तथा॥)
अनुवाद (हिन्दी)
वह आलस्य छोड़कर सदा तीन कमण्डलु धारण करे। एक आचमनके लिये, दूसरा पैर धोनेके लिये और तीसरा शौच-सम्पादनके लिये। इस प्रकार कमण्डलु धारणके ये तीन प्रयोजन हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीत्याध्यापनं कुर्यात् तथा यजनयाजने।
दानं प्रतिग्रहं वापि षड्गुणां वृत्तिमाचरेत् ॥ २१ ॥
मूलम्
अधीत्याध्यापनं कुर्यात् तथा यजनयाजने।
दानं प्रतिग्रहं वापि षड्गुणां वृत्तिमाचरेत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणको अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन और दान तथा प्रतिग्रह—इन छः वृत्तियोंका आश्रय लेना चाहिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रीणि कर्माणि जानीत ब्राह्मणानां तु जीविका।
याजनाध्यापने चोभे शुद्धाच्चापि प्रतिग्रहः ॥ २२ ॥
मूलम्
त्रीणि कर्माणि जानीत ब्राह्मणानां तु जीविका।
याजनाध्यापने चोभे शुद्धाच्चापि प्रतिग्रहः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनमेंसे तीन कर्म—याजन (यज्ञ कराना), अध्यापन (पढ़ाना) और श्रेष्ठ पुरुषोंसे दान लेना—ये ब्राह्मणकी जीविकाके साधन हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ शेषाणि चान्यानि त्रीणि कर्माणि यानि तु।
दानमध्ययनं यज्ञो धर्मयुक्तानि तानि तु ॥ २३ ॥
मूलम्
अथ शेषाणि चान्यानि त्रीणि कर्माणि यानि तु।
दानमध्ययनं यज्ञो धर्मयुक्तानि तानि तु ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शेष तीन कर्म—दान, अध्ययन तथा यज्ञानुष्ठान करना—ये धर्मोपार्जनके लिये हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेष्वप्रमादं कुर्वीत त्रिषु कर्मसु धर्मवित्।
दान्तो मैत्रः क्षमायुक्तः सर्वभूतसमो मुनिः ॥ २४ ॥
सर्वमेतद् यथाशक्ति विप्रो निर्वर्तयन् शुचिः।
एवं युक्तो जयेत् स्वर्गं गृहस्थः संशितव्रतः ॥ २५ ॥
मूलम्
तेष्वप्रमादं कुर्वीत त्रिषु कर्मसु धर्मवित्।
दान्तो मैत्रः क्षमायुक्तः सर्वभूतसमो मुनिः ॥ २४ ॥
सर्वमेतद् यथाशक्ति विप्रो निर्वर्तयन् शुचिः।
एवं युक्तो जयेत् स्वर्गं गृहस्थः संशितव्रतः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ ब्राह्मणको इनके पालनमें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। इन्द्रियसंयमी, मित्रभावसे युक्त, क्षमावान्, सब प्राणियोंके प्रति समानभाव रखनेवाला, मननशील, उत्तम व्रतका पालन करनेवाला और पवित्रतासे रहनेवाला गृहस्थ ब्राह्मण सदा सावधान रहकर अपनी शक्तिके अनुसार यदि उपर्युका नियमोंका पालन करता है तो वह स्वर्गलोकको जीत लेता है॥२४-२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरु-शिष्य-संवादविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४५॥