भागसूचना
एकचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अहंकारकी उत्पत्ति और उसके स्वरूपका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
य उत्पन्नो महान् पूर्वमहंकारः स उच्यते।
अहमित्येव सम्भूतो द्वितीयः सर्ग उच्यते ॥ १ ॥
मूलम्
य उत्पन्नो महान् पूर्वमहंकारः स उच्यते।
अहमित्येव सम्भूतो द्वितीयः सर्ग उच्यते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— महर्षियो! जो पहले महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ था, वही अहंकार कहा जाता है। जब वह अहंरूपमें प्रादुर्भूत होता है, तब वह दूसरा सर्ग कहलाता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहंकारश्च भूतादिर्वैकारिक इति स्मृतः।
तेजसश्चेतना धातुः प्रजासर्गः प्रजापतिः ॥ २ ॥
मूलम्
अहंकारश्च भूतादिर्वैकारिक इति स्मृतः।
तेजसश्चेतना धातुः प्रजासर्गः प्रजापतिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह अहंकार भूतादि विकारोंका कारण है, इसलिये वैकारिक माना गया है। यह रजोगुणका स्वरूप है, इसलिये तैजस् है। इसका आधार चेतन आत्मा है। सारी प्रजाकी सृष्टि इसीसे होती है, इसलिये इसको प्रजापति कहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवानां प्रभवो देवो मनसश्च त्रिलोककृत्।
अहमित्येव तत्सर्वमभिमन्ता स उच्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
देवानां प्रभवो देवो मनसश्च त्रिलोककृत्।
अहमित्येव तत्सर्वमभिमन्ता स उच्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह श्रोत्रादि इन्द्रियरूप देवोंका और मनका उत्पत्ति-स्थान एवं स्वयं भी देवस्वरूप है, इसलिये इसे त्रिलोकीका कर्त्ता माना गया है। यह सम्पूर्ण जगत् अहंकारस्वरूप है, इसलिये यह अभिमन्ता कहा जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यात्मज्ञानतृप्तानां मुनीनां भावितात्मनाम् ।
स्वाध्यायक्रतुसिद्धानामेष लोकः सनातनः ॥ ४ ॥
मूलम्
अध्यात्मज्ञानतृप्तानां मुनीनां भावितात्मनाम् ।
स्वाध्यायक्रतुसिद्धानामेष लोकः सनातनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अध्यात्मज्ञानमें तृप्त, आत्माका चिन्तन करनेवाले और स्वाध्यायरूपी यज्ञमें सिद्ध हैं, उन मुनिजनोंको यह सनातन लोक प्राप्त होता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहंकारेणाहरतो गुणानिमान्
भूतादिरेवं सृजते स भूतकृत्।
वैकारिकः सर्वमिदं विचेष्टते
स्वतेजसा रञ्जयते जगत् तथा ॥ ५ ॥
मूलम्
अहंकारेणाहरतो गुणानिमान्
भूतादिरेवं सृजते स भूतकृत्।
वैकारिकः सर्वमिदं विचेष्टते
स्वतेजसा रञ्जयते जगत् तथा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त भूतोंका आदि और सबको उत्पन्न करनेवाला वह अहंकारका आधारभूत जीवात्मा अहंकारके द्वारा सम्पूर्ण गुणोंकी रचना करता है और उनका उपभोग करता है। यह जो कुछ भी चेष्टाशील जगत् है, वह विकारोंके कारणरूप अहंकारका ही स्वरूप है। वह अहंकार ही अपने तेजसे सारे जगत्को रजोमय (भोगोंका इच्छुक) बनाता है॥५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरु-शिष्य-संवादविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४१॥