भागसूचना
चत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
महत्तत्त्वके नाम और परमात्मतत्त्वको जाननेकी महिमा
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तात् पूर्वमुत्पन्नो महानात्मा महामतिः।
आदिर्गुणानां सर्वेषां प्रथमः सर्ग उच्यते ॥ १ ॥
मूलम्
अव्यक्तात् पूर्वमुत्पन्नो महानात्मा महामतिः।
आदिर्गुणानां सर्वेषां प्रथमः सर्ग उच्यते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजी बोले— महर्षिगण! पहले अव्यक्त प्रकृतिसे महान् आत्मस्वरूप महाबुद्धितत्त्व उत्पन्न हुआ। यही सब गुणोंका आदि तत्त्व और प्रथम सर्ग कहा जाता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महानात्मा मतिर्विष्णुर्जिष्णुः शम्भुश्च वीर्यवान्।
बुद्धिः प्रज्ञोपलब्धिश्च तथा ख्यातिर्धृतिः स्मृतिः ॥ २ ॥
पर्यायवाचकैः शब्दैर्महानात्मा विभाव्यते ।
तं जानन् ब्राह्मणो विद्वान् प्रमोहं नाधिगच्छति ॥ ३ ॥
मूलम्
महानात्मा मतिर्विष्णुर्जिष्णुः शम्भुश्च वीर्यवान्।
बुद्धिः प्रज्ञोपलब्धिश्च तथा ख्यातिर्धृतिः स्मृतिः ॥ २ ॥
पर्यायवाचकैः शब्दैर्महानात्मा विभाव्यते ।
तं जानन् ब्राह्मणो विद्वान् प्रमोहं नाधिगच्छति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महान् आत्मा, मति, विष्णु, जिष्णु, शम्भु, वीर्यवान्, बुद्धि, प्रज्ञा, उपलब्धि, ख्याति, धृति, स्मृति—इन पर्यायवाची नामोंसे महान् आत्माकी पहचान होती है। उसके तत्त्वको जाननेवाला विद्वान् ब्राह्मण कभी मोहमें नहीं पड़ता॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वतःपाणिपादश्च सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः ।
सर्वतःश्रुतिमाल्ँलोके सर्वं व्याप्य स तिष्ठति ॥ ४ ॥
मूलम्
सर्वतःपाणिपादश्च सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः ।
सर्वतःश्रुतिमाल्ँलोके सर्वं व्याप्य स तिष्ठति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमात्मा सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर कानवाला है; क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाप्रभावः पुरुषः सर्वस्य हृदि निश्चितः।
अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्ययः ॥ ५ ॥
मूलम्
महाप्रभावः पुरुषः सर्वस्य हृदि निश्चितः।
अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्ययः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबके हृदयमें विराजमान परम पुरुष परमात्माका प्रभाव बहुत बड़ा है। अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि सिद्धियाँ उसीके स्वरूप हैं। वह सबका शासन करनेवाला, ज्योतिर्मय और अविनाशी है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र बुद्धिविदो लोकाः सद्भावनिरताश्च ये।
ध्यानिनो नित्ययोगाश्च सत्यसंधा जितेन्द्रियाः ॥ ६ ॥
ज्ञानवन्तश्च ये केचिदलुब्धा जितमन्यवः।
प्रसन्नमनसो धीरा निर्ममा निरहंकृताः ॥ ७ ॥
विमुक्ताः सर्व एवैते महत्त्वमुपयान्त्युत।
आत्मनो महतो वेद यः पुण्यां गतिमुत्तमाम् ॥ ८ ॥
मूलम्
तत्र बुद्धिविदो लोकाः सद्भावनिरताश्च ये।
ध्यानिनो नित्ययोगाश्च सत्यसंधा जितेन्द्रियाः ॥ ६ ॥
ज्ञानवन्तश्च ये केचिदलुब्धा जितमन्यवः।
प्रसन्नमनसो धीरा निर्ममा निरहंकृताः ॥ ७ ॥
विमुक्ताः सर्व एवैते महत्त्वमुपयान्त्युत।
आत्मनो महतो वेद यः पुण्यां गतिमुत्तमाम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें जो कोई भी मनुष्य बुद्धिमान्, सद्भाव-परायण, ध्यानी, नित्य योगी, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, ज्ञानवान् लोभहीन, क्रोधको जीतनेवाले, प्रसन्नचित्त, धीर तथा ममता और अहंकारसे रहित हैं, वे सब मुक्त होकर परमात्माको प्राप्त होते हैं। जो सर्वश्रेष्ठ परमात्माकी महिमाको जानता है, उसे पुण्यदायक उत्तम गति मिलती है॥६—८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहंकारात् प्रसूतानि महाभूतानि पञ्च वै।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् ॥ ९ ॥
मूलम्
अहंकारात् प्रसूतानि महाभूतानि पञ्च वै।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और पाँचवाँ तेज—ये पाँचों महाभूत अहंकारसे उत्पन्न होते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु भूतानि युज्यन्ते महाभूतेषु पञ्चसु।
ते शब्दस्पर्शरूपेषु रसगन्धक्रियासु च ॥ १० ॥
मूलम्
तेषु भूतानि युज्यन्ते महाभूतेषु पञ्चसु।
ते शब्दस्पर्शरूपेषु रसगन्धक्रियासु च ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन पाँचों महाभूतों तथा उनके कार्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदिसे सम्पूर्ण प्राणी युक्त हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभूतविनाशान्ते प्रलये प्रत्युपस्थिते ।
सर्वप्राणभृतां धीरा महदुत्पद्यते भयम् ॥ ११ ॥
स धीरः सर्वलोकेषु न मोहमधिगच्छति।
मूलम्
महाभूतविनाशान्ते प्रलये प्रत्युपस्थिते ।
सर्वप्राणभृतां धीरा महदुत्पद्यते भयम् ॥ ११ ॥
स धीरः सर्वलोकेषु न मोहमधिगच्छति।
अनुवाद (हिन्दी)
धैर्यशाली महर्षियो! जब पञ्चमहाभूतोंके विनाशके समय प्रलयकाल उपस्थित होता है, उस समय समस्त प्राणियोंको महान् भयका सामना करना पड़ता है। किंतु सम्पूर्ण लोगोंमें जो आत्मज्ञानी धीर पुरुष है, वह उस समय भी मोहित नहीं होता॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुरेवादिसर्गेषु स्वयम्भूर्भवति प्रभुः ॥ १२ ॥
एवं हि यो वेद गुहाशयं प्रभुं
परं पुराणं पुरुषं विश्वरूपम्।
हिरण्मयं बुद्धिमतां परां गतिं
स बुद्धिमान् बुद्धिमतीत्य तिष्ठति ॥ १३ ॥
मूलम्
विष्णुरेवादिसर्गेषु स्वयम्भूर्भवति प्रभुः ॥ १२ ॥
एवं हि यो वेद गुहाशयं प्रभुं
परं पुराणं पुरुषं विश्वरूपम्।
हिरण्मयं बुद्धिमतां परां गतिं
स बुद्धिमान् बुद्धिमतीत्य तिष्ठति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आदिसर्गमें सर्वसमर्थ स्वयम्भू विष्णु ही स्वयं अपनी इच्छासे प्रकट होते है। जो इस प्रकार बुद्धिरूपी गुहामें स्थित, विश्वरूप, पुराणपुरुष, हिरण्मय देव और ज्ञानियोंकी परम गतिरूप परम प्रभुको जानता है, वह बुद्धिमान् बुद्धिकी सीमाके पार पहुँच जाता है॥१२-१३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरु-शिष्य-संवादविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४०॥