भागसूचना
एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सत्त्व आदि गुणोंका और प्रकृतिके नामोंका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव शक्या गुणा वक्तुं पृथक्त्वेनैव सर्वशः।
अविच्छिन्नानि दृश्यन्ते रजः सत्त्वं तमस्तथा ॥ १ ॥
मूलम्
नैव शक्या गुणा वक्तुं पृथक्त्वेनैव सर्वशः।
अविच्छिन्नानि दृश्यन्ते रजः सत्त्वं तमस्तथा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— महर्षियो! सत्त्व, रज और तम—इन गुणोंका सर्वथा पृथक्रूपसे वर्णन करना असम्भव है; क्योंकि ये तीनों गुण अविच्छिन्न (मिले हुए) देखे जाते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यमथ रज्यन्ते ह्यन्योन्यं चार्थजीविनः।
अन्योन्यमाश्रयाः सर्वे तथान्योन्यानुवर्तिनः ॥ २ ॥
मूलम्
अन्योन्यमथ रज्यन्ते ह्यन्योन्यं चार्थजीविनः।
अन्योन्यमाश्रयाः सर्वे तथान्योन्यानुवर्तिनः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सभी परस्पर रँगे हुए, एक-दूसरेसे अनुप्राणित, अन्योन्याश्रित तथा एक-दूसरेका अनुसरण करनेवाले हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावत्सत्त्वं रजस्तावद् वर्तते नात्र संशयः।
यावत्तमश्च सत्त्वं च रजस्तावदिहोच्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
यावत्सत्त्वं रजस्तावद् वर्तते नात्र संशयः।
यावत्तमश्च सत्त्वं च रजस्तावदिहोच्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें संदेह नहीं कि इस जगत्में जबतक सत्त्वगुण रहता है, तबतक रजोगुण भी रहता है एवं जबतक तमोगुण रहता है, तबतक सत्त्वगुण और रजोगुणकी भी सत्ता रहती है, ऐसा कहते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संहत्य कुर्वते यात्रां सहिताः संघचारिणः।
संघातवृत्तयो ह्येते वर्तन्ते हेत्वहेतुभिः ॥ ४ ॥
मूलम्
संहत्य कुर्वते यात्रां सहिताः संघचारिणः।
संघातवृत्तयो ह्येते वर्तन्ते हेत्वहेतुभिः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये गुण किसी निमित्तसे अथवा बिना निमित्तके भी सदा साथ रहते हैं, साथ-ही-साथ विचरते हैं, समूह बनाकर यात्रा करते हैं और संघात (शरीर)-में मौजूद रहते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्रेकव्यतिरिक्तानां तेषामन्योन्यवर्तिनाम् ।
वक्ष्यते तद् यथा न्यूनं व्यतिरिक्तं च सर्वशः ॥ ५ ॥
मूलम्
उद्रेकव्यतिरिक्तानां तेषामन्योन्यवर्तिनाम् ।
वक्ष्यते तद् यथा न्यूनं व्यतिरिक्तं च सर्वशः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा होनेपर भी कहीं तो इन उन्नति और अवनतिके स्वभाववाले तथा एक-दूसरेका अनुसरण करनेवाले गुणोंमेंसे किसीकी न्यूनता देखी जाती है और कहीं अधिकता। सो किस प्रकार? यह बताया जाता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यतिरिक्तं तमो यत्र तिर्यग् भावगतं भवेत्।
अल्पं तत्र रजो ज्ञेयं सत्त्वमल्पतरं तथा ॥ ६ ॥
मूलम्
व्यतिरिक्तं तमो यत्र तिर्यग् भावगतं भवेत्।
अल्पं तत्र रजो ज्ञेयं सत्त्वमल्पतरं तथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तिर्यग् योनियोंमें जहाँ तमोगुणकी अधिकता होती है, वहाँ थोड़ा रजोगुण और बहुत थोड़ा सत्त्वगुण समझना चाहिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्रिक्तं च रजो यत्र मध्यस्रोतोगतं भवेत्।
अल्पं तत्र तमो ज्ञेयं सत्त्वमल्पतरं तथा ॥ ७ ॥
मूलम्
उद्रिक्तं च रजो यत्र मध्यस्रोतोगतं भवेत्।
अल्पं तत्र तमो ज्ञेयं सत्त्वमल्पतरं तथा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मध्यस्रोता अर्थात् मनुष्ययोनिमें, जहाँ रजोगुणकी मात्रा अधिक होती है, वहाँ थोड़ा तमोगुण और बहुत थोड़ा सत्त्वगुण समझना चाहिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्रिक्तं च यदा सत्त्वमूर्ध्वस्रोतोगतं भवेत्।
अल्पं तत्र तमो ज्ञेयं रजश्चाल्पतरं तथा ॥ ८ ॥
मूलम्
उद्रिक्तं च यदा सत्त्वमूर्ध्वस्रोतोगतं भवेत्।
अल्पं तत्र तमो ज्ञेयं रजश्चाल्पतरं तथा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार ऊर्ध्वस्रोता यानी देवयोनियोंमें जहाँ सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है, वहाँ तमोगुण अल्प और रजोगुण अल्पतर जानना चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं वैकारिकी योनिरिन्द्रियाणां प्रकाशिका।
न हि सत्त्वात् परो धर्मः कश्चिदन्यो विधीयते ॥ ९ ॥
मूलम्
सत्त्वं वैकारिकी योनिरिन्द्रियाणां प्रकाशिका।
न हि सत्त्वात् परो धर्मः कश्चिदन्यो विधीयते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्वगुण इन्द्रियोंकी उत्पत्तिका कारण है, उसे वैकारिक हेतु मानते हैं। वह इन्द्रियों और उनके विषयोंको प्रकाशित करनेवाला है। सत्त्वगुणसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं बताया गया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणसंयुक्ता यान्त्यधस्तामसा जनाः ॥ १० ॥
मूलम्
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणसंयुक्ता यान्त्यधस्तामसा जनाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्वगुणमें स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकोंको जाते हैं, रजोगुणमें स्थित पुरुष मध्यमें अर्थात् मनुष्यलोकमें ही रहते हैं और तमोगुणके कार्यरूप निद्रा, प्रमाद एवं आलस्य आदिमें स्थित हुए तामस मनुष्य अधोगतिको प्राप्त होते—नीच योनियों अथवा नरकोंमें पड़ते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमः शूद्रे रजः क्षत्रे ब्राह्मणे सत्त्वमुत्तमम्।
इत्येवं त्रिषु वर्णेषु विवर्तन्ते गुणास्त्रयः ॥ ११ ॥
मूलम्
तमः शूद्रे रजः क्षत्रे ब्राह्मणे सत्त्वमुत्तमम्।
इत्येवं त्रिषु वर्णेषु विवर्तन्ते गुणास्त्रयः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्रमें तमोगुणकी, क्षत्रियमें रजोगुणकी और ब्राह्मणमें सत्त्वगुणकी प्रधानता होती है। इस प्रकार इन तीन वर्णोंमें मुख्यतासे ये तीन गुण रहते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूरादपि हि दृश्यन्ते सहिताः संघचारिणः।
तमः सत्त्वं रजश्चैव पृथक्त्वे नानुशुश्रुम ॥ १२ ॥
मूलम्
दूरादपि हि दृश्यन्ते सहिताः संघचारिणः।
तमः सत्त्वं रजश्चैव पृथक्त्वे नानुशुश्रुम ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक साथ चलनेवाले ये गुण दूरसे भी मिले हुए ही दिखायी पड़ते हैं। तमोगुण, सत्त्वगुण और रजोगुण—ये सर्वथा पृथक्-पृथक् हों, ऐसा कभी नहीं सुना॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा त्वादित्यमुद्यन्तं कुचराणां भयं भवेत्।
अध्वगाः परितप्येयुरुष्णतो दुःखभागिनः ॥ १३ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा त्वादित्यमुद्यन्तं कुचराणां भयं भवेत्।
अध्वगाः परितप्येयुरुष्णतो दुःखभागिनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यको उदित हुआ देखकर दुराचारी मनुष्योंको भय होता है और धूपसे दुःखित राहगीर संतप्त होते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्यः सत्त्वमुद्रिक्तं कुचरास्तु तथा तमः।
परितापोऽध्वगानां च रजसो गुण उच्यते ॥ १४ ॥
मूलम्
आदित्यः सत्त्वमुद्रिक्तं कुचरास्तु तथा तमः।
परितापोऽध्वगानां च रजसो गुण उच्यते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि सूर्य सत्त्वगुण प्रधान हैं, दुराचारी मनुष्य तमोगुण प्रधान हैं एवं राहगीरोंको होनेवाला संताप रजोगुण प्रधान कहा गया है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राकाश्यं सत्त्वमादित्यः संतापो रजसो गुणः।
उपप्लवस्तु विज्ञेयस्तामसस्तस्य पर्वसु ॥ १५ ॥
मूलम्
प्राकाश्यं सत्त्वमादित्यः संतापो रजसो गुणः।
उपप्लवस्तु विज्ञेयस्तामसस्तस्य पर्वसु ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यका प्रकाश सत्त्वगुण है, उनका ताप रजोगुण है और अमावास्याके दिन जो उनपर ग्रहण लगता है, वह तमोगुणका कार्य है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ज्योतिष्षु सर्वेषु निवर्तन्ते गुणास्त्रयः।
पर्यायेण च वर्तन्ते तत्र तत्र तथा तथा ॥ १६ ॥
मूलम्
एवं ज्योतिष्षु सर्वेषु निवर्तन्ते गुणास्त्रयः।
पर्यायेण च वर्तन्ते तत्र तत्र तथा तथा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सभी ज्योतियोंमें तीनों गुण क्रमशः वहाँ-वहाँ उस-उस प्रकारसे प्रकट होते और विलीन होते रहते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थावरेषु तु भावेषु तिर्यग्भावगतं तमः।
राजसास्तु विवर्तन्ते स्नेहभावस्तु सात्त्विकः ॥ १७ ॥
मूलम्
स्थावरेषु तु भावेषु तिर्यग्भावगतं तमः।
राजसास्तु विवर्तन्ते स्नेहभावस्तु सात्त्विकः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्थावर प्राणियोंमें तमोगुण अधिक होता है, उनमें जो बढ़नेकी क्रिया है वह राजस है और जो चिकनापन है, वह सात्त्विक है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहस्त्रिधा तु विज्ञेयं त्रिधा रात्रिर्विधीयते।
मासार्धमासवर्षाणि ऋतवः संधयस्तथा ॥ १८ ॥
मूलम्
अहस्त्रिधा तु विज्ञेयं त्रिधा रात्रिर्विधीयते।
मासार्धमासवर्षाणि ऋतवः संधयस्तथा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुणोंके भेदसे दिनको भी तीन प्रकारका समझना चाहिये। रात भी तीन प्रकारकी होती है तथा मास, पक्ष, वर्ष, ऋतु और संध्याके भी तीन-तीन भेद होते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिधा दानानि दीयन्ते त्रिधा यज्ञः प्रवर्तते।
त्रिधा लोकास्त्रिधा देवास्त्रिधा विद्यास्त्रिधा गतिः ॥ १९ ॥
मूलम्
त्रिधा दानानि दीयन्ते त्रिधा यज्ञः प्रवर्तते।
त्रिधा लोकास्त्रिधा देवास्त्रिधा विद्यास्त्रिधा गतिः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुणोंके भेदसे तीन प्रकारसे दान दिये जाते हैं। तीन प्रकारका यज्ञानुष्ठान होता है। लोक, देव, विद्या और गति भी तीन-तीन प्रकारकी होती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतं भव्यं भविष्यं च धर्मोऽर्थः काम एव च।
प्राणापानावुदानश्चाप्येत एव त्रयो गुणाः ॥ २० ॥
मूलम्
भूतं भव्यं भविष्यं च धर्मोऽर्थः काम एव च।
प्राणापानावुदानश्चाप्येत एव त्रयो गुणाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूत, वर्तमान, भविष्य, धर्म, अर्थ, काम, प्राण, अपान और उदान—ये सब त्रिगुणात्मक ही हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्यायेण प्रवर्तन्ते तत्र तत्र तथा तथा।
यत्किंचिदिह लोकेऽस्मिन् सर्वमेते त्रयो गुणाः ॥ २१ ॥
मूलम्
पर्यायेण प्रवर्तन्ते तत्र तत्र तथा तथा।
यत्किंचिदिह लोकेऽस्मिन् सर्वमेते त्रयो गुणाः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में जो कोई भी वस्तु भिन्न-भिन्न स्थानोंमें भिन्न-भिन्न प्रकारसे उपलब्ध होती है, वह सब त्रिगुणमय है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयो गुणाः प्रवर्तन्ते ह्यव्यक्ता नित्यमेव तु।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव गुणसर्गः सनातनः ॥ २२ ॥
मूलम्
त्रयो गुणाः प्रवर्तन्ते ह्यव्यक्ता नित्यमेव तु।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव गुणसर्गः सनातनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वत्र तीनों गुणोंकी ही सत्ता है। ये तीनों अव्यक्त और प्रवाहरूपसे नित्य भी हैं। सत्त्व, रज और तम—इन गुणोंकी सृष्टि सनातन है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमो व्यक्तं शिवं धाम रजो योनिः सनातनः।
प्रकृतिर्विकारः प्रलयः प्रधानं प्रभवाप्ययौ ॥ २३ ॥
अनुद्रिक्तमनूनं वाप्यकम्पमचलं ध्रुवम् ।
सदसच्चैव तत् सर्वमव्यक्तं त्रिगुणा स्मृतम्।
ज्ञेयानि नामधेयानि नरैरध्यात्मचिन्तकैः ॥ २४ ॥
मूलम्
तमो व्यक्तं शिवं धाम रजो योनिः सनातनः।
प्रकृतिर्विकारः प्रलयः प्रधानं प्रभवाप्ययौ ॥ २३ ॥
अनुद्रिक्तमनूनं वाप्यकम्पमचलं ध्रुवम् ।
सदसच्चैव तत् सर्वमव्यक्तं त्रिगुणा स्मृतम्।
ज्ञेयानि नामधेयानि नरैरध्यात्मचिन्तकैः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृतिको तम, व्यकत, शिव, धाम, रज, योनि, सनातन, प्रकृति, विकार, प्रलय, प्रधान प्रभव, अप्यय, अनुद्रिक्त, अनून, अकम्प, अचल, ध्रुव, सत्, असत्, अव्यक्त और त्रिगुणात्मक कहते हैं। अध्यात्मतत्त्वका चिन्तन करनेवाले लोगोंको इन नामोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तनामानि गुणांश्च तत्त्वतो
यो वेद सर्वाणि गतीश्च केवलाः।
विमुक्तदेहः प्रविभागतत्त्ववित्
स मुच्यते सर्वगुणैर्निरामयः ॥ २५ ॥
मूलम्
अव्यक्तनामानि गुणांश्च तत्त्वतो
यो वेद सर्वाणि गतीश्च केवलाः।
विमुक्तदेहः प्रविभागतत्त्ववित्
स मुच्यते सर्वगुणैर्निरामयः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य प्रकृतिके इन नामों, सत्त्वादि गुणों और सम्पूर्ण विशुद्ध गतियोंको ठीक-ठीक जानता है, वह गुण-विभागके तत्त्वका ज्ञाता है। उसके ऊपर सांसारिक दुःखोंका प्रभाव नहीं पड़ता। वह देह-त्यागके पश्चात् सम्पूर्ण गुणोंके बन्धनसे छुटकारा पा जाता है॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरु-शिष्य-संवादविषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३९॥