भागसूचना
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णके द्वारा अर्जुनसे मोक्ष-धर्मका वर्णन—गुरु और शिष्यके संवादमें ब्रह्मा और महर्षियोंके प्रश्नोत्तर
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्म यत्परमं ज्ञेयं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।
भवतो हि प्रसादेन सूक्ष्मे मे रमते मतिः ॥ १ ॥
मूलम्
ब्रह्म यत्परमं ज्ञेयं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।
भवतो हि प्रसादेन सूक्ष्मे मे रमते मतिः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— भगवन्! इस समय आपकी कृपासे सूक्ष्म विषयके श्रवणमें मेरी बुद्धि लग रही है, अतः जाननेयोग्य परब्रह्मके स्वरूपकी व्याख्या कीजिये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
संवादं मोक्षसंयुक्तं शिष्यस्य गुरुणा सह ॥ २ ॥
कश्चिद् ब्राह्मणमासीनमाचार्यं संशितव्रतम् ।
शिष्यः पप्रच्छ मेधावी किंस्विच्छ्रेयः परंतप ॥ ३ ॥
भगवन्तं प्रपन्नोऽहं निःश्रेयसपरायणः ।
याचे त्वां शिरसा विप्र यद् ब्रूयां ब्रूहि तन्मम॥४॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
संवादं मोक्षसंयुक्तं शिष्यस्य गुरुणा सह ॥ २ ॥
कश्चिद् ब्राह्मणमासीनमाचार्यं संशितव्रतम् ।
शिष्यः पप्रच्छ मेधावी किंस्विच्छ्रेयः परंतप ॥ ३ ॥
भगवन्तं प्रपन्नोऽहं निःश्रेयसपरायणः ।
याचे त्वां शिरसा विप्र यद् ब्रूयां ब्रूहि तन्मम॥४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— अर्जुन! इस विषयको लेकर गुरु और शिष्यमें जो मोक्षविषयक संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास बतलाया जा रहा है। एक दिन उत्तम व्रतका पालन करनेवाले एक ब्रह्मवेत्ता आचार्य अपने आसनपर विराजमान थे। परंतप! उस समय किसी बुद्धिमान् शिष्यने उनके पास जाकर निवेदन किया—‘भगवन्! मैं कल्याणमार्गमें प्रवृत्त होकर आपकी शरणमें आया हूँ और आपके चरणोंमें मस्तक झुकाकर याचना करता हूँ कि मैं जो कुछ पूछूँ; उसका उत्तर दीजिये। मैं जानना चाहता हूँ कि श्रेय क्या है?’॥२-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेवंवादिनं पार्थ शिष्यं गुरुरुवाच ह।
सर्वं तु ते प्रवक्ष्यामि यत्र वै संशयो द्विज॥५॥
मूलम्
तमेवंवादिनं पार्थ शिष्यं गुरुरुवाच ह।
सर्वं तु ते प्रवक्ष्यामि यत्र वै संशयो द्विज॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! इस प्रकार कहनेवाले उस शिष्यसे गुरु बोले—‘विप्र! तुम्हारा जिस विषयमें संशय है, वह सब मैं तुम्हें बताऊँगा’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स कुरुश्रेष्ठ गुरुणा गुरुवत्सलः।
प्राञ्जलिः परिपप्रच्छ यत्तच्छृणु महामते ॥ ६ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स कुरुश्रेष्ठ गुरुणा गुरुवत्सलः।
प्राञ्जलिः परिपप्रच्छ यत्तच्छृणु महामते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबुद्धिमान् कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! गुरुके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उस गुरुके प्यारे शिष्यने हाथ जोड़कर जो कुछ पूछा, उसे सुनो॥६॥
मूलम् (वचनम्)
शिष्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतश्चाहं कुतश्च त्वं तत्सत्यं ब्रूहि यत्परम्।
कुतो जातानि भूतानि स्थावराणि चराणि च ॥ ७ ॥
मूलम्
कुतश्चाहं कुतश्च त्वं तत्सत्यं ब्रूहि यत्परम्।
कुतो जातानि भूतानि स्थावराणि चराणि च ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिष्य बोला— विप्रवर! मैं कहाँसे आया हूँ और आप कहाँसे आये हैं? जगत्के चराचर जीव कहाँसे उत्पन्न हुए हैं? जो परमतत्त्व है, उसे आप यथार्थरूपसे बताइये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन जीवन्ति भूतानि तेषामायुश्च किं परम्।
किं सत्यं किं तपो विप्र के गुणाः सद्भिरीरिताः॥८॥
मूलम्
केन जीवन्ति भूतानि तेषामायुश्च किं परम्।
किं सत्यं किं तपो विप्र के गुणाः सद्भिरीरिताः॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! सम्पूर्ण जीव किससे जीवन धारण करते हैं? उनकी अधिक-से-अधिक आयु कितनी है? सत्य और तप क्या है? सत्पुरुषोंने किन गुणोंकी प्रशंसा की है?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
के पन्थानः शिवाश्च स्युः किं सुखं किं च दुष्कृतम्।
एतान् मे भगवन् प्रश्नान् याथातथ्येन सुव्रत ॥ ९ ॥
वक्तुमर्हसि विप्रर्षे यथावदिह तत्त्वतः।
त्वदन्यः कश्चन प्रश्नानेतान् वक्तुमिहार्हति ॥ १० ॥
ब्रूहि धर्मविदां श्रेष्ठ परं कौतूहलं मम।
मोक्षधर्मार्थकुशलो भवाल्ँलोकेषु गीयते ॥ ११ ॥
मूलम्
के पन्थानः शिवाश्च स्युः किं सुखं किं च दुष्कृतम्।
एतान् मे भगवन् प्रश्नान् याथातथ्येन सुव्रत ॥ ९ ॥
वक्तुमर्हसि विप्रर्षे यथावदिह तत्त्वतः।
त्वदन्यः कश्चन प्रश्नानेतान् वक्तुमिहार्हति ॥ १० ॥
ब्रूहि धर्मविदां श्रेष्ठ परं कौतूहलं मम।
मोक्षधर्मार्थकुशलो भवाल्ँलोकेषु गीयते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौन-कौन-से मार्ग कल्याण करनेवाले हैं? सर्वोत्तम सुख क्या है? और पाप किसे कहते हैं? श्रेष्ठ व्रतका आचरण करनेवाले गुरुदेव! मेरे इन प्रश्नोंका आप यथार्थरूपसे उत्तर देनेमें समर्थ हैं। धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ विप्रर्षे! यह सब जाननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है। इस विषयमें इन प्रश्नोंका तत्त्वतः यथार्थ उत्तर देनेमें आपसे अतिरिक्त दूसरा कोई समर्थ नहीं है। अतः आप ही बतलाइये; क्योंकि संसारमें मोक्षधर्मोंके तत्त्वके ज्ञानमें आप कुशल बताये गये हैं॥९—११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वसंशयरांच्छेत्ता त्वदन्यो न च विद्यते।
संसारभीरवश्चैव मोक्षकामास्तथा वयम् ॥ १२ ॥
मूलम्
सर्वसंशयरांच्छेत्ता त्वदन्यो न च विद्यते।
संसारभीरवश्चैव मोक्षकामास्तथा वयम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम संसारसे भयभीत और मोक्षके इच्छुक हैं। आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं, जो सब प्रकारकी शंकाओंका निवारण कर सके॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै सम्प्रतिपन्नाय यथावत् परिपृच्छते।
शिष्याय गुणयुक्ताय शान्ताय प्रियवर्तिने ॥ १३ ॥
छायाभूताय दान्ताय यतते ब्रह्मचारिणे।
तान् प्रश्नानब्रवीत् पार्थ मेधावी स धृतव्रतः।
गुरुः कुरुकुलश्रेष्ठ सम्यक् सर्वानरिंदम ॥ १४ ॥
मूलम्
तस्मै सम्प्रतिपन्नाय यथावत् परिपृच्छते।
शिष्याय गुणयुक्ताय शान्ताय प्रियवर्तिने ॥ १३ ॥
छायाभूताय दान्ताय यतते ब्रह्मचारिणे।
तान् प्रश्नानब्रवीत् पार्थ मेधावी स धृतव्रतः।
गुरुः कुरुकुलश्रेष्ठ सम्यक् सर्वानरिंदम ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— कुरुकुलश्रेष्ठ शत्रुदमन अर्जुन! वह शिष्य सब प्रकारसे गुरुकी शरणमें आया था। यथोचित रीतिसे प्रश्न करता था। गुणवान् और शान्त था। छायाकी भाँति साथ रहकर गुरुका प्रिय करता था तथा जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी था। उसके पूछनेपर मेधावी एवं व्रतधारी गुरुने पूर्वोक्त सभी प्रश्नोंका ठीक-ठीक उत्तर दिया॥१३-१४॥
मूलम् (वचनम्)
गुरुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मणोक्तमिदं सर्वमृषिप्रवरसेवितम् ।
वेदविद्यां समाश्रित्य तत्त्वभूतार्थभावनम् ॥ १५ ॥
मूलम्
ब्रह्मणोक्तमिदं सर्वमृषिप्रवरसेवितम् ।
वेदविद्यां समाश्रित्य तत्त्वभूतार्थभावनम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरु बोले— बेटा! ब्रह्माजीने वेद-विद्याका आश्रय लेकर तुम्हारे पूछे हुए इन सभी प्रश्नोंका उत्तर पहलेसे ही दे रखा है तथा प्रधान-प्रधान ऋषियोंने उसका सदा ही सेवन किया है। उन प्रश्नोंके उत्तरमें परमार्थविषयक विचार किया गया है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानं त्वेव परं विद्मः संन्यासं तप उत्तमम्।
यस्तु वेद निराबाधं ज्ञानतत्त्वं विनिश्चयात्।
सर्वभूतस्थमात्मानं स सर्वगतिरिष्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
ज्ञानं त्वेव परं विद्मः संन्यासं तप उत्तमम्।
यस्तु वेद निराबाधं ज्ञानतत्त्वं विनिश्चयात्।
सर्वभूतस्थमात्मानं स सर्वगतिरिष्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम ज्ञानको ही परब्रह्म और संन्यासको उत्तम तप जानते हैं। जो अबाधित ज्ञानतत्त्वको निश्चयपूर्वक जानकर अपनेको सब प्राणियोंके भीतर स्थित देखता है, वह सर्वगति (सर्वव्यापक) माना जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो विद्वान् सहसंवासं विवासं चैव पश्यति।
तथैवैकत्वनानात्वे स दुःखात् परिमुच्यते ॥ १७ ॥
मूलम्
यो विद्वान् सहसंवासं विवासं चैव पश्यति।
तथैवैकत्वनानात्वे स दुःखात् परिमुच्यते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विद्वान् संयोग और वियोगको तथा वैसे ही एकत्व और नानात्वको एक साथ तत्त्वतः जानता है, वह दुःखसे मुक्त हो जाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो न कामयते किंचिन्न किंचिदभिमन्यते।
इहलोकस्थ एवैष ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ १८ ॥
मूलम्
यो न कामयते किंचिन्न किंचिदभिमन्यते।
इहलोकस्थ एवैष ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो किसी वस्तुकी कामना नहीं करता तथा जिसके मनमें किसी बातका अभिमान नहीं होता, वह इस लोकमें रहता हुआ ही ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रधानगुणतत्त्वज्ञः सर्वभूतविधानवित् ।
निर्ममो निरहङ्कारो मुच्यते नात्र संशयः ॥ १९ ॥
मूलम्
प्रधानगुणतत्त्वज्ञः सर्वभूतविधानवित् ।
निर्ममो निरहङ्कारो मुच्यते नात्र संशयः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो माया और सत्त्वादि गुणोंके तत्त्वको जानता है, जिसे सब भूतोंके विधानका ज्ञान है और जो ममता तथा अहंकारसे रहित हो गया है, वह मुक्त हो जाता है—इसमें संदेह नहीं है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तबीजप्रभवो बुद्धिस्कन्धमयो महान् ।
महाहङ्कारविटप इन्द्रियाङ्कुरकोटरः ॥ २० ॥
महाभूतविशेषश्च विशेषप्रतिशाखवान् ।
सदापर्णः सदापुष्पः सदा शुभफलोदयः ॥ २१ ॥
अजीवः सर्वभूतानां ब्रह्मबीजः सनातनः।
एतज्ज्ञात्वा च तत्त्वानि ज्ञानेन परमासिना ॥ २२ ॥
छित्त्वा चामरतां प्राप्य जहाति मृत्युजन्मनी।
मूलम्
अव्यक्तबीजप्रभवो बुद्धिस्कन्धमयो महान् ।
महाहङ्कारविटप इन्द्रियाङ्कुरकोटरः ॥ २० ॥
महाभूतविशेषश्च विशेषप्रतिशाखवान् ।
सदापर्णः सदापुष्पः सदा शुभफलोदयः ॥ २१ ॥
अजीवः सर्वभूतानां ब्रह्मबीजः सनातनः।
एतज्ज्ञात्वा च तत्त्वानि ज्ञानेन परमासिना ॥ २२ ॥
छित्त्वा चामरतां प्राप्य जहाति मृत्युजन्मनी।
अनुवाद (हिन्दी)
यह देह एक वृक्षके समान है। अज्ञान इसका मूल अंकुर (जड़) है, बुद्धि स्कन्ध (तना) है, अहंकार शाखा है, इन्द्रियाँ खोखले हैं, पञ्च महाभूत उसके विशेष अवयव हैं और उन भूतोंके विशेष भेद उसकी टहनियाँ हैं। इसमें सदा ही संकल्परूपी पत्ते उगते और कर्मरूपी फूल खिलते रहते हैं। शुभाशुभ कर्मोंसे प्राप्त होनेवाले सुख-दुःखादि ही उसमें सदा लगे रहनेवाले फल हैं। इस प्रकार ब्रह्मरूपी बीजसे प्रकट होकर प्रवाहरूपसे सदा मौजूद रहनेवाला देहरूपी वृक्ष समस्त प्राणियोंके जीवनका आधार है। जो इसके तत्त्वको भलीभाँति जानकर ज्ञानरूपी उत्तम तलवारसे इसे काट डालता है, वह अमरत्वको प्राप्त होकर जन्म-मृत्युके बन्धनसे छुटकारा पा जाता है॥२०—२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतभव्यभविष्यादि धर्मकामार्थनिश्चयम् ।
सिद्धसंघपरिज्ञातं पुराकल्पं सनातनम् ॥ २३ ॥
प्रवक्ष्येऽहं महाप्राज्ञ पदमुत्तममद्य ते।
बुद्ध्वा यदिह संसिद्धा भवन्तीह मनीषिणः ॥ २४ ॥
मूलम्
भूतभव्यभविष्यादि धर्मकामार्थनिश्चयम् ।
सिद्धसंघपरिज्ञातं पुराकल्पं सनातनम् ॥ २३ ॥
प्रवक्ष्येऽहं महाप्राज्ञ पदमुत्तममद्य ते।
बुद्ध्वा यदिह संसिद्धा भवन्तीह मनीषिणः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाप्राज्ञ! जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य आदिके तथा धर्म, अर्थ और कामके स्वरूपका निश्चय किया गया है, जिसको सिद्धोंके समुदायने भलीभाँति जाना है, जिसका पूर्वकालमें निर्णय किया गया था और बुद्धिमान् पुरुष जिसे जानकर सिद्ध हो जाते हैं, उस परम उत्तम सनातन ज्ञानका अब मैं तुमसे वर्णन करता हूँ॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपगम्यर्षयः पूर्वं जिज्ञासन्तः परस्परम्।
प्रजापतिभरद्वाजौ गौतमो भार्गवस्तथा ॥ २५ ॥
वसिष्ठः कश्यपश्चैव विश्वामित्रोऽत्रिरेव च।
मार्गान् सर्वान् परिक्रम्य परिश्रान्ताः स्वकर्मभिः ॥ २६ ॥
ऋषिमाङ्गिरसं वृद्धं पुरस्कृत्य तु ते द्विजाः।
ददृशुर्ब्रह्मभवने ब्रह्माणं वीतकल्मषम् ॥ २७ ॥
तं प्रणम्य महात्मानं सुखासीनं महर्षयः।
पप्रच्छुर्विनयोपेता नैःश्रेयसमिदं परम् ॥ २८ ॥
मूलम्
उपगम्यर्षयः पूर्वं जिज्ञासन्तः परस्परम्।
प्रजापतिभरद्वाजौ गौतमो भार्गवस्तथा ॥ २५ ॥
वसिष्ठः कश्यपश्चैव विश्वामित्रोऽत्रिरेव च।
मार्गान् सर्वान् परिक्रम्य परिश्रान्ताः स्वकर्मभिः ॥ २६ ॥
ऋषिमाङ्गिरसं वृद्धं पुरस्कृत्य तु ते द्विजाः।
ददृशुर्ब्रह्मभवने ब्रह्माणं वीतकल्मषम् ॥ २७ ॥
तं प्रणम्य महात्मानं सुखासीनं महर्षयः।
पप्रच्छुर्विनयोपेता नैःश्रेयसमिदं परम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहलेकी बात है, प्रजापति दक्ष, भरद्वाज, गौतम, भृगुनन्दन शुक्र, वसिष्ठ, कश्यप, विश्वामित्र और अत्रि आदि महर्षि अपने कर्मोंद्वारा समस्त मार्गोंमें भटकते-भटकते जब बहुत थक गये, तब एकत्रित हो आपसमें जिज्ञासा करते हुए परम वृद्ध अंगिरा मुनिको आगे करके ब्रह्मलोकमें गये और वहाँ सुखपूर्वक बैठे हुए पापरहित महात्मा ब्रह्माजीका दर्शन करके उन महर्षि ब्राह्मणोंने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। फिर तुम्हारी ही तरह अपने परम कल्याणके विषयमें पूछा—॥२५—२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं कर्म क्रियात् साधु कथं मुच्येत किल्बिषात्।
के नो मार्गाः शिवाश्च स्युः किं सत्यं किं च दुष्कृतम्॥२९॥
मूलम्
कथं कर्म क्रियात् साधु कथं मुच्येत किल्बिषात्।
के नो मार्गाः शिवाश्च स्युः किं सत्यं किं च दुष्कृतम्॥२९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रेष्ठ कर्म किस प्रकार करना चाहिये? मनुष्य पापसे किस प्रकार छूटता है? कौन-से मार्ग हमारे लिये कल्याणकारक हैं? सत्य क्या है? और पाप क्या है?॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौ चोभौ कर्मणां मार्गौ प्राप्नुयुर्दक्षिणोत्तरौ।
प्रलयं चापवर्गं च भूतानां प्रभवाप्ययौ ॥ ३० ॥
मूलम्
कौ चोभौ कर्मणां मार्गौ प्राप्नुयुर्दक्षिणोत्तरौ।
प्रलयं चापवर्गं च भूतानां प्रभवाप्ययौ ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तथा कर्मोंके वे दो मार्ग कौन-से हैं, जिनसे मनुष्य दक्षिणायन और उत्तरायण गतिको प्राप्त होते हैं? प्रलय और मोक्ष क्या हैं? एवं प्राणियोंके जन्म और मरण क्या हैं?’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स मुनिश्रेष्ठैर्यदाह प्रपितामहः।
तत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि शृणु शिष्य यथागमम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स मुनिश्रेष्ठैर्यदाह प्रपितामहः।
तत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि शृणु शिष्य यथागमम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिष्य! उन मुनिश्रेष्ठ महर्षियोंके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उन प्रपितामह ब्रह्माजीने जो कुछ कहा, वह मैं तुम्हें शास्त्रानुसार पूर्णतया बताऊँगा, उसे सुनो॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्याद् भूतानि जातानि स्थावराणि चराणि च।
तपसा तानि जीवन्ति इति तद् वित्त सुव्रताः।
स्वां योनिं समतिक्रम्य वर्तन्ते स्वेन कर्मणा ॥ ३२ ॥
मूलम्
सत्याद् भूतानि जातानि स्थावराणि चराणि च।
तपसा तानि जीवन्ति इति तद् वित्त सुव्रताः।
स्वां योनिं समतिक्रम्य वर्तन्ते स्वेन कर्मणा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षियो! ऐसा जानो कि चराचर जीव सत्यस्वरूप परमात्मासे उत्पन्न हुए हैं और तपरूप कर्मसे जीवन धारण करते हैं। वे अपने कारणस्वरूप ब्रह्मको भूलकर अपने कर्मोंके अनुसार आवागमनके चक्रमें घूमते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं हि गुणसंयुक्तं नियतं पञ्चलक्षणम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
सत्यं हि गुणसंयुक्तं नियतं पञ्चलक्षणम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि गुणोंसे युक्त हुआ सत्य ही पाँच लक्षणोंवाला निश्चित किया गया है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्म सत्यं तपः सत्यं सत्यं चैव प्रजापतिः।
सत्याद् भूतानि जातानि सत्यं भूतमयं जगत् ॥ ३४ ॥
मूलम्
ब्रह्म सत्यं तपः सत्यं सत्यं चैव प्रजापतिः।
सत्याद् भूतानि जातानि सत्यं भूतमयं जगत् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्म सत्य है, तप सत्य है और प्रजापति भी सत्य है। सत्यसे ही सम्पूर्ण भूतोंका जन्म हुआ है। यह भौतिक जगत् सत्यरूप ही है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सत्यमया विप्रा नित्यं योगपरायणाः।
अतीतक्रोधसंतापा नियता धर्मसेविनः ॥ ३५ ॥
मूलम्
तस्मात् सत्यमया विप्रा नित्यं योगपरायणाः।
अतीतक्रोधसंतापा नियता धर्मसेविनः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये सदा योगमें लगे रहनेवाले, क्रोध और संतापसे दूर रहनेवाले तथा नियमोंका पालन करनेवाले धर्मसेवी ब्राह्मण सत्यका आश्रय लेते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यनियतान् वैद्यान् धर्मसेतुप्रवर्तकान् ।
तानहं सम्प्रवक्ष्यामि शाश्वताल्लोँकभावनान् ॥ ३६ ॥
मूलम्
अन्योन्यनियतान् वैद्यान् धर्मसेतुप्रवर्तकान् ।
तानहं सम्प्रवक्ष्यामि शाश्वताल्लोँकभावनान् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो परस्पर एक-दूसरेको नियमके अंदर रखनेवाले, धर्म-मर्यादाके प्रवर्तक और विद्वान् हैं, उन ब्राह्मणोंके प्रति मैं लोक-कल्याणकारी सनातन धर्मोंका उपदेश करूँगा॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुर्विद्यं तथा वर्णाश्चातुराश्रमिकान् पृथक्।
धर्ममेकं चतुष्पादं नित्यमाहुर्मनीषिणः ॥ ३७ ॥
मूलम्
चातुर्विद्यं तथा वर्णाश्चातुराश्रमिकान् पृथक्।
धर्ममेकं चतुष्पादं नित्यमाहुर्मनीषिणः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैसे ही प्रत्येक वर्ण और आश्रमके लिये पृथक्-पृथक् चार विद्याओंका वर्णन करूँगा। मनीषी विद्वान् चार चरणोंवाले एक धर्मको नित्य बतलाते हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पन्थानं वः प्रवक्ष्यामि शिवं क्षेमकरं द्विजाः।
नियतं ब्रह्मभावाय गतं पूर्वं मनीषिभिः ॥ ३८ ॥
मूलम्
पन्थानं वः प्रवक्ष्यामि शिवं क्षेमकरं द्विजाः।
नियतं ब्रह्मभावाय गतं पूर्वं मनीषिभिः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजवरो! पूर्व कालमें मनीषी पुरुष जिसका सहारा ले चुके हैं और जो ब्रह्मभावकी प्राप्तिका सुनिश्चित साधन है, उस परम मंगलकारी कल्याणमय मार्गका तुमलोगोंके प्रति उपदेश करता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गदन्तस्तं मयाद्येह पन्थानं दुर्विदं परम्।
निबोधत महाभागा निखिलेन परं पदम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
गदन्तस्तं मयाद्येह पन्थानं दुर्विदं परम्।
निबोधत महाभागा निखिलेन परं पदम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौभाग्यशाली प्रवक्तागण! उस अत्यन्त दुर्विज्ञेय मार्गको, जो कि पूर्णतया परमपदस्वरूप है, यहाँ अब मुझसे सुनो॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचारिकमेवाहुराश्रमं प्रथमं पदम् ।
गार्हस्थ्यं तु द्वितीयं स्याद् वानप्रस्थमतः परम्।
ततः परं तु विज्ञेयमध्यात्मं परमं पदम् ॥ ४० ॥
मूलम्
ब्रह्मचारिकमेवाहुराश्रमं प्रथमं पदम् ।
गार्हस्थ्यं तु द्वितीयं स्याद् वानप्रस्थमतः परम्।
ततः परं तु विज्ञेयमध्यात्मं परमं पदम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आश्रमोंमें ब्रह्मचर्यको प्रथम आश्रम बताया गया है। गार्हस्थ्य दूसरा और वानप्रस्थ तीसरा आश्रम है, उसके बाद संन्यास आश्रम है। इसमें आत्मज्ञानकी प्रधानता होती है, अतः इसे परमपदस्वरूप समझना चाहिये॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्योतिराकाशमादित्यो वायुरिन्द्रः प्रजापतिः ।
नोपैति यावदध्यात्मं तावदेतान् न पश्यति ॥ ४१ ॥
मूलम्
ज्योतिराकाशमादित्यो वायुरिन्द्रः प्रजापतिः ।
नोपैति यावदध्यात्मं तावदेतान् न पश्यति ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक अध्यात्मज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक मनुष्य इन ज्योति, आकाश, वायु, सूर्य, इन्द्र और प्रजापति आदिके यथार्थ तत्त्वको नहीं जानता (आत्मज्ञान होनेपर इनका यथार्थ ज्ञान हो जाता है)॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्योपायं प्रवक्ष्यामि पुरस्तात् तं निबोधत।
फलमूलानिलभुजां मुनीनां वसतां वने ॥ ४२ ॥
वानप्रस्थं द्विजातीनां त्रयाणामुपदिश्यते ।
सर्वेषामेव वर्णानां गार्हस्थ्यं तद् विधीयते ॥ ४३ ॥
मूलम्
तस्योपायं प्रवक्ष्यामि पुरस्तात् तं निबोधत।
फलमूलानिलभुजां मुनीनां वसतां वने ॥ ४२ ॥
वानप्रस्थं द्विजातीनां त्रयाणामुपदिश्यते ।
सर्वेषामेव वर्णानां गार्हस्थ्यं तद् विधीयते ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः पहले उस आत्मज्ञानका उपाय बतलाता हूँ, सब लोग सुनिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—इन तीन द्विजातियोंके लिये वानप्रस्थ आश्रमका विधान है। वनमें रहकर मुनिवृत्तिका सेवन करते हुए फल-मूल और वायुके आहारपर जीवन-निर्वाह करनेसे वानप्रस्थ-धर्मका पालन होता है। गृहस्थ-आश्रमका विधान सभी वर्णोंके लिये है॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धालक्षणमित्येवं धर्मं धीराः प्रचक्षते।
इत्येवं देवयाना वः पन्थानः परिकीर्तिताः।
सद्भिरध्यासिता धीरैः कर्मभिर्धर्मसेतवः ॥ ४४ ॥
मूलम्
श्रद्धालक्षणमित्येवं धर्मं धीराः प्रचक्षते।
इत्येवं देवयाना वः पन्थानः परिकीर्तिताः।
सद्भिरध्यासिता धीरैः कर्मभिर्धर्मसेतवः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वानोंने श्रद्धाको ही धर्मका मुख्य लक्षण बतलाया है। इस प्रकार आपलोगोंके प्रति देवयान मार्गोंका वर्णन किया गया है। धैर्यवान् संत-महात्मा अपने कर्मोंसे धर्म-मर्यादाका पालन करते हैं॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेषां पृथगध्यास्ते यो धर्मं संशितव्रतः।
कालात् पश्यति भूतानां सदैव प्रभवाप्ययौ ॥ ४५ ॥
मूलम्
एतेषां पृथगध्यास्ते यो धर्मं संशितव्रतः।
कालात् पश्यति भूतानां सदैव प्रभवाप्ययौ ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य उत्तम व्रतका आश्रय लेकर उपर्युक्त धर्मोंमेंसे किसीका भी दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं, वे कालक्रमसे सम्पूर्ण प्राणियोंके जन्म और मरणको सदा ही प्रत्यक्ष देखते हैं॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्तत्त्वानि वक्ष्यामि याथातथ्येन हेतुना।
विषयस्थानि सर्वाणि वर्तमानानि भागशः ॥ ४६ ॥
मूलम्
अतस्तत्त्वानि वक्ष्यामि याथातथ्येन हेतुना।
विषयस्थानि सर्वाणि वर्तमानानि भागशः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं यथार्थ युक्तिके द्वारा पदार्थोंमें विभागपूर्वक रहनेवाले सम्पूर्ण तत्त्वोंका वर्णन करता हूँ॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महानात्मा तथाव्यक्तमहंकारस्तथैव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च महाभूतानि पञ्च च ॥ ४७ ॥
विशेषाः पञ्चभूतानामिति सर्गः सनातनः।
चतुर्विंशतिरेका च तत्त्वसंख्या प्रकीर्तिता ॥ ४८ ॥
मूलम्
महानात्मा तथाव्यक्तमहंकारस्तथैव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च महाभूतानि पञ्च च ॥ ४७ ॥
विशेषाः पञ्चभूतानामिति सर्गः सनातनः।
चतुर्विंशतिरेका च तत्त्वसंख्या प्रकीर्तिता ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अव्यक्त प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, दस इन्द्रियाँ, एक मन, पञ्च महाभूत और उनके शब्द आदि विशेष गुण—यह चौबीस तत्त्वोंका सनातन सर्ग है। तथा एक जीवात्मा-इस प्रकार तत्त्वोंकी संख्या पचीस बतलायी गयी है॥४७-४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वानामथ यो वेद सर्वेषां प्रभवाप्ययौ।
स धीरः सर्वभूतेषु न मोहमधिगच्छति ॥ ४९ ॥
मूलम्
तत्त्वानामथ यो वेद सर्वेषां प्रभवाप्ययौ।
स धीरः सर्वभूतेषु न मोहमधिगच्छति ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इन सब तत्त्वोंकी उत्पत्ति और लयको ठीक-ठीक जानता है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें धीर है और वह कभी मोहमें नहीं पड़ता॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वानि यो वेदयते यथातथं
गुणांश्च सर्वानखिलांश्च देवताः ।
विधूतपाप्मा प्रविमुच्य बन्धनं
स सर्वलोकानमलान् समश्नुते ॥ ५० ॥
मूलम्
तत्त्वानि यो वेदयते यथातथं
गुणांश्च सर्वानखिलांश्च देवताः ।
विधूतपाप्मा प्रविमुच्य बन्धनं
स सर्वलोकानमलान् समश्नुते ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण तत्त्वों, गुणों तथा समस्त देवताओंको यथार्थरूपसे जानता है, उसके पाप धुल जाते हैं और वह बन्धनसे मुक्त होकर सम्पूर्ण दिव्यलोकोंके सुखका अनुभव करता है॥५०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरु-शिष्य-संवादविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३५॥