भागसूचना
चतुस्त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा ब्राह्मण, ब्राह्मणी और क्षेत्रज्ञका रहस्य बतलाते हुए ब्राह्मणगीताका उपसंहार
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेदमल्पात्मना शक्यं वेदितुं नाकृतात्मना।
बहु चाल्पं च संक्षिप्तं विप्लुतं च मतं मम॥१॥
मूलम्
नेदमल्पात्मना शक्यं वेदितुं नाकृतात्मना।
बहु चाल्पं च संक्षिप्तं विप्लुतं च मतं मम॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणी बोली— नाथ! मेरी बुद्धि थोड़ी और अन्तःकरण अशुद्ध है, अतः आपने संक्षेपमें जिस महान् ज्ञानका उपदेश किया है, उस बिखरे हुए उपदेशको समझना मेरे लिये कठिन है। मैं तो उसे सुनकर भी धारण न कर सकी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपायं तं मम ब्रूहि येनैषा लभ्यते मतिः।
तन्मन्ये कारणं त्वत्तो यत एषा प्रवर्तते ॥ २ ॥
मूलम्
उपायं तं मम ब्रूहि येनैषा लभ्यते मतिः।
तन्मन्ये कारणं त्वत्तो यत एषा प्रवर्तते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः आप कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे मुझे भी यह बुद्धि प्राप्त हो। मेरा विश्वास है कि वह उपाय आपहीसे ज्ञात हो सकता है॥२॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरणीं ब्राह्मणीं विद्धि गुरुरस्योत्तरारणिः।
तपःश्रुतेऽभिमथ्नीतो ज्ञानाग्निर्जायते ततः ॥ ३ ॥
मूलम्
अरणीं ब्राह्मणीं विद्धि गुरुरस्योत्तरारणिः।
तपःश्रुतेऽभिमथ्नीतो ज्ञानाग्निर्जायते ततः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— देवि! तुम बुद्धिको नीचेकी अरणी और गुरुको ऊपरकी अरणी समझो। तपस्या और वेद-वेदान्तके श्रवण-मननद्वारा मन्थन करनेपर उन अरणियोंसे ज्ञानरूप अग्नि प्रकट होती है॥३॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं ब्राह्मणो लिङ्गं क्षेत्रज्ञ इति संज्ञितम्।
ग्रहीतुं येन यच्छक्यं लक्षणं तस्य तत् क्व नु॥४॥
मूलम्
यदिदं ब्राह्मणो लिङ्गं क्षेत्रज्ञ इति संज्ञितम्।
ग्रहीतुं येन यच्छक्यं लक्षणं तस्य तत् क्व नु॥४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणीने पूछा— नाथ! क्षेत्रज्ञ नामसे प्रसिद्ध शरीरान्तर्वर्ती जीवात्माको जो ब्रह्मका स्वरूप बताया जाता है, यह बात कैसे सम्भव है? क्योंकि जीवात्मा ब्रह्मके नियन्त्रणमें रहता है और जो जिसके नियन्त्रणमें रहता है, वह उसका स्वरूप हो, ऐसा कभी नहीं देखा गया॥४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलिङ्गो निर्गुणश्चैव कारणं नास्य लक्ष्यते।
उपायमेव वक्ष्यामि येन गृह्येत वा न वा ॥ ५ ॥
मूलम्
अलिङ्गो निर्गुणश्चैव कारणं नास्य लक्ष्यते।
उपायमेव वक्ष्यामि येन गृह्येत वा न वा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— देवि! क्षेत्रज्ञ वास्तवमें देह-सम्बन्धसे रहित और निर्गुण है; क्योंकि उसके सगुण और साकार होनेका कोई कारण नहीं दिखायी देता। अतः मैं वह उपाय बताता हूँ जिससे वह ग्रहण किया जा सकता है अथवा नहीं भी किया जा सकता॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यगुपायो दृष्टश्च भ्रमरैरिव लक्ष्यते।
कर्मबुद्धिरबुद्धित्वाज्ज्ञानलिङ्गैरिवाश्रितम् ॥ ६ ॥
मूलम्
सम्यगुपायो दृष्टश्च भ्रमरैरिव लक्ष्यते।
कर्मबुद्धिरबुद्धित्वाज्ज्ञानलिङ्गैरिवाश्रितम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस क्षेत्रका साक्षात्कार करनेके लिये पूर्ण उपाय देखा गया है। वह यह है कि उसे देखनेकी क्रियाका त्याग कर देनेसे भौंरोंके द्वारा गन्धकी भाँति वह अपने-आप जाना जाता है। किंतु कर्मविषयक बुद्धि वास्तवमें बुद्धि न होनेके कारण ज्ञानके सदृश प्रतीत होती है तो भी वह ज्ञान नहीं है। (अतः क्रियाद्वारा उसका साक्षात्कार नहीं हो सकता)॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं कार्यमिदं नेति न मोक्षेषूपदिश्यते।
पश्यतः शृण्वतो बुद्धिरात्मनो येषु जायते ॥ ७ ॥
मूलम्
इदं कार्यमिदं नेति न मोक्षेषूपदिश्यते।
पश्यतः शृण्वतो बुद्धिरात्मनो येषु जायते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कर्तव्य है, यह कर्तव्य नहीं है—यह बात मोक्षके साधनोंमें नहीं कही जाती। जिन साधनोंमें देखने और सुननेवालेकी बुद्धि आत्माके स्वरूपमें निश्चित होती है, वही यथार्थ साधन है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावन्त इह शक्येरंस्तावन्तोंऽशान् प्रकल्पयेत्।
अव्यक्तान् व्यक्तरूपांश्च शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ८ ॥
मूलम्
यावन्त इह शक्येरंस्तावन्तोंऽशान् प्रकल्पयेत्।
अव्यक्तान् व्यक्तरूपांश्च शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ जितनी कल्पनाएँ की जा सकती हैं, उतने ही सैकड़ों और हजारों अव्यक्त और व्यक्तरूप अंशोंकी कल्पना कर लें॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वान्ननार्थयुक्तांश्च सर्वान् प्रत्यक्षहेतुकान् ।
यतः परं न विद्येत ततोऽभ्यासे भविष्यति ॥ ९ ॥
मूलम्
सर्वान्ननार्थयुक्तांश्च सर्वान् प्रत्यक्षहेतुकान् ।
यतः परं न विद्येत ततोऽभ्यासे भविष्यति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सभी प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाले पदार्थ वास्तविक अर्थयुक्त नहीं हो सकते। जिससे पर कुछ भी नहीं है, उसका साक्षात्कार तो ‘नेति-नेति’ अर्थात् यह भी नहीं, यह भी नहीं—इस अभ्यासके अन्तमें ही होगा॥९॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु तस्या ब्राह्मण्या मतिः क्षेत्रज्ञसंक्षये।
क्षेत्रज्ञानेन परतः क्षेत्रज्ञेभ्यः प्रवर्तते ॥ १० ॥
मूलम्
ततस्तु तस्या ब्राह्मण्या मतिः क्षेत्रज्ञसंक्षये।
क्षेत्रज्ञानेन परतः क्षेत्रज्ञेभ्यः प्रवर्तते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— पार्थ! उसके बाद उस ब्राह्मणीकी बुद्धि, जो क्षेत्रज्ञके संशयसे युक्त थी, क्षेत्रके ज्ञानसे अतीत क्षेत्रज्ञोंसे युक्त हुई॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व नु सा ब्राह्मणी कृष्ण क्व चासौ ब्राह्मणर्षभः।
याभ्यां सिद्धिरियं प्राप्ता तावुभौ वद मेऽच्युत ॥ ११ ॥
मूलम्
क्व नु सा ब्राह्मणी कृष्ण क्व चासौ ब्राह्मणर्षभः।
याभ्यां सिद्धिरियं प्राप्ता तावुभौ वद मेऽच्युत ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने पूछा— श्रीकृष्ण! वह ब्राह्मणी कौन थी और वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कौन था? अच्युत! जिन दोनोंके द्वारा यह सिद्धि प्राप्त की गयी, उन दोनोंका परिचय मुझे बताइये॥११॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनो मे ब्राह्मणं विद्धि बुद्धिं मे विद्धि ब्राह्मणीम्।
क्षेत्रज्ञ इति यश्चोक्तः सोऽहमेव धनंजय ॥ १२ ॥
मूलम्
मनो मे ब्राह्मणं विद्धि बुद्धिं मे विद्धि ब्राह्मणीम्।
क्षेत्रज्ञ इति यश्चोक्तः सोऽहमेव धनंजय ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण बोले— अर्जुन! मेरे मनको तो तुम ब्राह्मण समझो और मेरी बुद्धिको ब्राह्मणी समझो एवं जिसको क्षेत्रज्ञ—ऐसा कहा गया है, वह मैं ही हूँ॥१२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीतासु चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें ब्राह्मणगीताविषयक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३४॥