०३१ ब्राह्मणगीतासु

भागसूचना

एकत्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा अम्बरीषकी गायी हुई आध्यात्मिक स्वराज्यविषयक गाथा

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयो वै रिपवो लोके नवधा गुणतः स्मृताः।
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दस्त्रयस्ते सात्त्विका गुणाः ॥ १ ॥
तृष्णा क्रोधोऽभिसंरम्भो राजसास्ते गुणाः स्मृताः।
श्रमस्तन्द्रा च मोहश्च त्रयस्ते तामसा गुणाः ॥ २ ॥

मूलम्

त्रयो वै रिपवो लोके नवधा गुणतः स्मृताः।
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दस्त्रयस्ते सात्त्विका गुणाः ॥ १ ॥
तृष्णा क्रोधोऽभिसंरम्भो राजसास्ते गुणाः स्मृताः।
श्रमस्तन्द्रा च मोहश्च त्रयस्ते तामसा गुणाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— देवि! इस संसारमें सत्त्व, रज और तम—ये तीन मेरे शत्रु हैं। ये वृत्तियोंके भेदसे नौ प्रकारके माने गये हैं। हर्ष, प्रीति और आनन्द—ये तीन सात्त्विक गुण हैं; तृष्णा, क्रोध और द्वेषभाव—से तीन राजस गुण हैं और थकावट, तन्द्रा तथा मोह—ये तीन तामस गुण हैं॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतान् निकृत्य धृतिमान् बाणसंघैरतन्द्रितः।
जेतुं परानुत्सहते प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः ॥ ३ ॥

मूलम्

एतान् निकृत्य धृतिमान् बाणसंघैरतन्द्रितः।
जेतुं परानुत्सहते प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शान्तचित्त, जितेन्द्रिय, आलस्यहीन और धैर्यवान् पुरुष शम-दम आदि बाण-समूहोंके द्वारा इन पूर्वोक्त गुणोंका उच्छेद करके दूसरोंको जीतनेका उत्साह करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गाथाः कीर्तयन्ति पुराकल्पविदो जनाः।
अम्बरीषेण या गीता राज्ञा पूर्वं प्रशाम्यता ॥ ४ ॥

मूलम्

अत्र गाथाः कीर्तयन्ति पुराकल्पविदो जनाः।
अम्बरीषेण या गीता राज्ञा पूर्वं प्रशाम्यता ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें पूर्वकालकी बातोंके जानकार लोग एक गाथा सुनाया करते हैं। पहले कभी शान्तिपरायण महाराज अम्बरीषने इस गाथाका गान किया था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुदीर्णेषु दोषेषु बाध्यमानेषु साधुषु।
जग्राह तरसा राज्यमम्बरीषो महायशाः ॥ ५ ॥

मूलम्

समुदीर्णेषु दोषेषु बाध्यमानेषु साधुषु।
जग्राह तरसा राज्यमम्बरीषो महायशाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहते हैं—जब दोषोंका बल बढ़ा और अच्छे गुण दबने लगे, उस समय महायशस्वी महाराज अम्बरीषने बलपूर्वक राज्यकी बागडोर अपने हाथमें ली॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निगृह्यात्मनो दोषान् साधून् समभिपूज्य च।
जगाम महतीं सिद्धिं गाथाश्चेमा जगाद ह ॥ ६ ॥

मूलम्

स निगृह्यात्मनो दोषान् साधून् समभिपूज्य च।
जगाम महतीं सिद्धिं गाथाश्चेमा जगाद ह ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अपने दोषोंको दबाया और उत्तम गुणोंका आदर किया। इससे उन्हें बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त हुई और उन्होंने यह गाथा गायी—॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयिष्ठं विजिता दोषा निहताः सर्वशत्रवः।
एको दोषो वरिष्ठश्च वध्यः स न हतो मया॥७॥

मूलम्

भूयिष्ठं विजिता दोषा निहताः सर्वशत्रवः।
एको दोषो वरिष्ठश्च वध्यः स न हतो मया॥७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने बहुत-से दोषोंपर विजय पायी और समस्त शत्रुओंका नाश कर डाला; किंतु एक सबसे बड़ा दोष रह गया है। यद्यपि वह नष्ट कर देने योग्य है तो भी अबतक मैं नाश न कर सका॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्प्रयुक्तो जन्तुरयं वैतृष्ण्यं नाधिगच्छति।
तृष्णार्त इह निम्नानि धावमानो न बुध्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

यत्प्रयुक्तो जन्तुरयं वैतृष्ण्यं नाधिगच्छति।
तृष्णार्त इह निम्नानि धावमानो न बुध्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसीकी प्रेरणासे इस प्राणीको वैराग्य नहीं होता। तृष्णाके वशमें पड़ा हुआ मनुष्य संसारमें नीच कर्मोंकी ओर दौड़ता है, सचेत नहीं होता॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकार्यमपि येनेह प्रयुक्तः सेवते नरः।
तं लोभमसिभिस्तीक्ष्णैर्निकृत्य सुखमेधते ॥ ९ ॥

मूलम्

अकार्यमपि येनेह प्रयुक्तः सेवते नरः।
तं लोभमसिभिस्तीक्ष्णैर्निकृत्य सुखमेधते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उससे प्रेरित होकर वह यहाँ नहीं करने-योग्य काम भी कर डालता है। उस दोषका नाम है लोभ। उसे ज्ञानरूपी तलवारसे काटकर मनुष्य सुखी होता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभाद्धि जायते तृष्णा ततश्चिन्ता प्रवर्तते।
स लिप्यमानो लभते भूयिष्ठं राजसान् गुणान्।
तदवाप्तौ तु लभते भूयिष्ठं तमसान् गुणान् ॥ १० ॥

मूलम्

लोभाद्धि जायते तृष्णा ततश्चिन्ता प्रवर्तते।
स लिप्यमानो लभते भूयिष्ठं राजसान् गुणान्।
तदवाप्तौ तु लभते भूयिष्ठं तमसान् गुणान् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोभसे तृष्णा और तृष्णासे चिन्ता पैदा होती है। लोभी मनुष्य पहले बहुत-से राजस गुणोंको पाता है और उनकी प्राप्ति हो जानेपर उसमें तामसिक गुण भी अधिक मात्रामें आ जाते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तैर्गुणैः संहतदेहबन्धनः
पुनः पुनर्जायति कर्म चेहते।
जन्मक्षये भिन्नविकीर्णदेहो
मृत्युं पुनर्गच्छति जन्मनैव ॥ ११ ॥

मूलम्

स तैर्गुणैः संहतदेहबन्धनः
पुनः पुनर्जायति कर्म चेहते।
जन्मक्षये भिन्नविकीर्णदेहो
मृत्युं पुनर्गच्छति जन्मनैव ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन गुणोंके द्वारा देह-बन्धनमें जकड़कर वह बारंबार जन्म लेता और तरह-तरहके कर्म करता रहता है। फिर जीवनका अन्त समय आनेपर उसके देहके तत्त्व विलग-विलग होकर बिखर जाते हैं और वह मृत्युको प्राप्त हो जाता है। इसके बाद फिर जन्म-मृत्युके बन्धनमें पड़ता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादेतं सम्यगवेक्ष्य लोभं
निगृह्य धृत्याऽऽत्मनि राज्यमिच्छेत् ।
एतद् राज्यं नान्यदस्तीह राज्य-
मात्मैव राजा विदितो यथावत् ॥ १२ ॥

मूलम्

तस्मादेतं सम्यगवेक्ष्य लोभं
निगृह्य धृत्याऽऽत्मनि राज्यमिच्छेत् ।
एतद् राज्यं नान्यदस्तीह राज्य-
मात्मैव राजा विदितो यथावत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये इस लोभके स्वरूपको अच्छी तरह समझकर इसे धैर्यपूर्वक दबाने और आत्मराज्यपर अधिकार पानेकी इच्छा करनी चाहिये। यही वास्तविक स्वराज्य है। यहाँ दूसरा कोई राज्य नहीं है। आत्माका यथार्थ ज्ञान हो जानेपर वही राजा है’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति राज्ञाम्बरीषेण गाथा गीता यशस्विना।
अधिराज्यं पुरस्कृत्य लोभमेकं निकृन्तता ॥ १३ ॥

मूलम्

इति राज्ञाम्बरीषेण गाथा गीता यशस्विना।
अधिराज्यं पुरस्कृत्य लोभमेकं निकृन्तता ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार यशस्वी अम्बरीषने आत्मराज्यको आगे रखकर एकमात्र प्रबल शत्रु लोभका उच्छेद करते हुए उपर्युक्त गाथाका गान किया था॥१३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीतासु एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें ब्राह्मणगीताविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१॥