०२९ ब्राह्मणगीतासु

भागसूचना

एकोनत्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

परशुरामजीके द्वारा क्षत्रिय-कुलका संहार

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
कार्तवीर्यस्य संवादं समुद्रस्य च भाविनि ॥ १ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
कार्तवीर्यस्य संवादं समुद्रस्य च भाविनि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— भामिनि! इस विषयमें भी कार्तवीर्य और समुद्रके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।
येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही ॥ २ ॥

मूलम्

कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।
येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें कार्तवीर्य अर्जुनके नामसे प्रसिद्ध एक राजा था, जिसकी एक हजार भुजाएँ थीं। उसने केवल धनुष-बाणकी सहायतासे समुद्रपर्यन्त पृथ्वीको अपने अधिकारमें कर लिया था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कदाचित् समुद्रान्ते विचरन् बलदर्पितः।
अवाकिरन् शरशतैः समुद्रमिति नः श्रुतम् ॥ ३ ॥

मूलम्

स कदाचित् समुद्रान्ते विचरन् बलदर्पितः।
अवाकिरन् शरशतैः समुद्रमिति नः श्रुतम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुना जाता है, एक दिन राजा कार्तवीर्य समुद्रके किनारे विचर रहा था। वहाँ उसने अपने बलके घमण्डमें आकर सैकड़ों बाणोंकी वर्षासे समुद्रको आच्छादित कर दिया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं समुद्रो नमस्कृत्य कृताञ्जलिरुवाच ह।
मा मुञ्च वीर नाराचान् ब्रूहि किं करवाणि ते॥४॥
मदाश्रयाणि भूतानि त्वद्विसृष्टैर्महेषुभिः ।
वध्यन्ते राजशार्दूल तेभ्यो देह्यभयं विभो ॥ ५ ॥

मूलम्

तं समुद्रो नमस्कृत्य कृताञ्जलिरुवाच ह।
मा मुञ्च वीर नाराचान् ब्रूहि किं करवाणि ते॥४॥
मदाश्रयाणि भूतानि त्वद्विसृष्टैर्महेषुभिः ।
वध्यन्ते राजशार्दूल तेभ्यो देह्यभयं विभो ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब समुद्रने प्रकट होकर उसके आगे मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा—‘वीरवर! राजसिंह! मुझपर बाणोंकी वर्षा न करो। बोलो, तुम्हारी किस आज्ञाका पालन करूँ? शक्तिशाली नरेश्वर! तुम्हारे छोड़े हुए इन महान् बाणोंसे मेरे अन्दर रहनेवाले प्राणियोंकी हत्या हो रही है। उन्हें अभय दान करो’॥४-५॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्समो यदि संग्रामे शरासनधरः क्वचित्।
विद्यते तं समाचक्ष्व यः समासीत मां मृधे ॥ ६ ॥

मूलम्

मत्समो यदि संग्रामे शरासनधरः क्वचित्।
विद्यते तं समाचक्ष्व यः समासीत मां मृधे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कार्तवीर्य अर्जुन बोला— समुद्र! यदि कहीं मेरे समान धनुर्धर वीर मौजूद हो, जो युद्धमें मेरा मुकाबला कर सके तो उसका पता बता दो। फिर मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा॥६॥

मूलम् (वचनम्)

समुद्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

महर्षिर्जमदग्निस्ते यदि राजन् परिश्रुतः।
तस्य पुत्रस्तवातिथ्यं यथावत् कर्तुमर्हति ॥ ७ ॥

मूलम्

महर्षिर्जमदग्निस्ते यदि राजन् परिश्रुतः।
तस्य पुत्रस्तवातिथ्यं यथावत् कर्तुमर्हति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्रने कहा— राजन्! यदि तुमने महर्षि जमदग्निका नाम सुना हो तो उन्हींके आश्रमपर चले जाओ। उनके पुत्र परशुरामजी तुम्हारा अच्छी तरह सत्कार कर सकते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स राजा प्रययौ क्रोधेन महता वृतः।
स तमाश्रममागम्य राममेवान्वपद्यत ॥ ८ ॥
स रामप्रतिकूलानि चकार सह बन्धुभिः।
आयासं जनयामास रामस्य च महात्मनः ॥ ९ ॥
ततस्तेजः प्रजज्वाल रामस्यामिततेजसः ।
प्रदहन् रिपुसैन्यानि तदा कमललोचने ॥ १० ॥
ततः परशुमादाय स तं बाहुसहस्रिणम्।
चिच्छेद सहसा रामो बहुशाखमिव द्रुमम् ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः स राजा प्रययौ क्रोधेन महता वृतः।
स तमाश्रममागम्य राममेवान्वपद्यत ॥ ८ ॥
स रामप्रतिकूलानि चकार सह बन्धुभिः।
आयासं जनयामास रामस्य च महात्मनः ॥ ९ ॥
ततस्तेजः प्रजज्वाल रामस्यामिततेजसः ।
प्रदहन् रिपुसैन्यानि तदा कमललोचने ॥ १० ॥
ततः परशुमादाय स तं बाहुसहस्रिणम्।
चिच्छेद सहसा रामो बहुशाखमिव द्रुमम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ब्राह्मणने कहा—) कमलके समान नेत्रोंवाली देवि! तदनन्तर राजा कार्तवीर्य बड़े क्रोधमें भरकर महर्षि जमदग्निके आश्रमपर परशुरामजीके पास जा पहुँचा और अपने भाई-बन्धुओंके साथ उनके प्रतिकूल बर्ताव करने लगा। उसने अपने अपराधोंसे महात्मा परशुरामजीको उद्विग्न कर दिया। फिर तो शत्रु-सेनाको भस्म करनेवाला अमित तेजस्वी परशुरामजीका तेज प्रज्वलित हो उठा। उन्होंने अपना फरसा उठाया और हजार भुजाओंवाले उस राजाको अनेक शाखाओंसे युक्त वृक्षकी भाँति सहसा काट डाला॥८—११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं हतं पतितं दृष्ट्वा समेताः सर्वबान्धवाः।
असीनादाय शक्तीश्च भार्गवं पर्यधावयन् ॥ १२ ॥

मूलम्

तं हतं पतितं दृष्ट्वा समेताः सर्वबान्धवाः।
असीनादाय शक्तीश्च भार्गवं पर्यधावयन् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे मरकर जमीनपर पड़ा देख उसके सभी बन्धु-बान्धव एकत्र हो गये तथा हाथोंमें तलवार और शक्तियाँ लेकर परशुरामजीपर चारों ओरसे टूट पड़े॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामोऽपि धनुरादाय रथमारुह्य सत्वरः।
विसृजन् शरवर्षाणि व्यधमत् पार्थिवं बलम् ॥ १३ ॥

मूलम्

रामोऽपि धनुरादाय रथमारुह्य सत्वरः।
विसृजन् शरवर्षाणि व्यधमत् पार्थिवं बलम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर परशुरामजी भी धनुष लेकर तुरंत रथपर सवार हो गये और बाणोंकी वर्षा करते हुए राजाकी सेनाका संहार करने लगे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु क्षत्रियाः केचिज्जामदग्न्यभयार्दिताः ।
विविशुर्गिरिदुर्गाणि मृगाः सिंहार्दिता इव ॥ १४ ॥

मूलम्

ततस्तु क्षत्रियाः केचिज्जामदग्न्यभयार्दिताः ।
विविशुर्गिरिदुर्गाणि मृगाः सिंहार्दिता इव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय बहुत-से क्षत्रिय परशुरामजीके भयसे पीड़ित हो सिंहके सताये हुए मृगोंकी भाँति पर्वतोंकी गुफाओंमें घुस गये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां स्वविहितं कर्म तद्भयान्नानुतिष्ठताम्।
प्रजा वृषलतां प्राप्ता ब्राह्मणानामदर्शनात् ॥ १५ ॥

मूलम्

तेषां स्वविहितं कर्म तद्भयान्नानुतिष्ठताम्।
प्रजा वृषलतां प्राप्ता ब्राह्मणानामदर्शनात् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने उनके डरसे अपने क्षत्रियोचित कर्मोंका भी त्याग कर दिया। बहुत दिनोंतक ब्राह्मणोंका दर्शन न कर सकनेके कारण वे धीरे-धीरे अपने कर्म भूलकर शूद्र हो गये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते द्रविडाऽऽभीराः पुण्ड्राश्च शबरैः सह।
वृषलत्वं परिगता व्युत्थानात् क्षत्रधर्मिणः ॥ १६ ॥

मूलम्

एवं ते द्रविडाऽऽभीराः पुण्ड्राश्च शबरैः सह।
वृषलत्वं परिगता व्युत्थानात् क्षत्रधर्मिणः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार द्रविड, आभीर, पुण्ड्र और शबरोंके सहवासमें रहकर वे क्षत्रिय होते हुए भी धर्म-त्यागके कारण शूद्रकी अवस्थामें पहुँच गये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्च हतवीरासु क्षत्रियासु पुनः पुनः।
द्विजैरुत्पादितं क्षत्रं जामदग्न्यो न्यकृन्तत ॥ १७ ॥

मूलम्

ततश्च हतवीरासु क्षत्रियासु पुनः पुनः।
द्विजैरुत्पादितं क्षत्रं जामदग्न्यो न्यकृन्तत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् क्षत्रियवीरोंके मारे जानेपर ब्राह्मणोंने उनकी स्त्रियोंसे नियोगकी विधिके अनुसार पुत्र उत्पन्न किये, किंतु उन्हें भी बड़े होनेपर परशुरामजीने फरसेसे काट डाला॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकविंशतिमेधान्ते रामं वागशरीरिणी ।
दिव्या प्रोवाच मधुरा सर्वलोकपरिश्रुता ॥ १८ ॥

मूलम्

एकविंशतिमेधान्ते रामं वागशरीरिणी ।
दिव्या प्रोवाच मधुरा सर्वलोकपरिश्रुता ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार एक-एक करके जब इक्कीस बार क्षत्रियोंका संहार हो गया, तब परशुरामजीको दिव्य आकाशवाणीने मधुर स्वरमें सब लोगोंके सुनते हुए यह कहा—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम निवर्तस्व कं गुणं तात पश्यसि।
क्षत्रबन्धूनिमान् प्राणैर्विप्रयोज्य पुनः पुनः ॥ १९ ॥

मूलम्

राम राम निवर्तस्व कं गुणं तात पश्यसि।
क्षत्रबन्धूनिमान् प्राणैर्विप्रयोज्य पुनः पुनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा! परशुराम! इस हत्याके कामसे निवृत्त हो जाओ। परशुराम! भला बारंबार इन बेचारे क्षत्रियोंके प्राण लेनेमें तुम्हें कौन-सा लाभ दिखायी देता है?’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव तं महात्मानमृचीकप्रमुखास्तदा ।
पितामहा महाभाग निवर्तस्वेत्यथाब्रुवन् ॥ २० ॥

मूलम्

तथैव तं महात्मानमृचीकप्रमुखास्तदा ।
पितामहा महाभाग निवर्तस्वेत्यथाब्रुवन् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महात्मा परशुरामजीको उनके पितामह ऋचीक आदिने भी इसी प्रकार समझाते हुए कहा—‘महाभाग! यह काम छोड़ दो, क्षत्रियोंको न मारो’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितुर्वधममृष्यंस्तु रामः प्रोवाच तानृषीन्।
नार्हन्तीह भवन्तो मां निवारयितुमित्युत ॥ २१ ॥

मूलम्

पितुर्वधममृष्यंस्तु रामः प्रोवाच तानृषीन्।
नार्हन्तीह भवन्तो मां निवारयितुमित्युत ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताके वधको सहन न करते हुए परशुरामजीने उन ऋषियोंसे इस प्रकार कहा—‘आपलोगोंको मुझे इस कामसे निवारण नहीं करना चाहिये’॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

पितर ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

नार्हसे क्षत्रबन्धूंस्त्वं निहन्तुं जयतां वर।
नेह युक्तं त्वया हन्तुं ब्राह्मणेन सता नृपान् ॥ २२ ॥

मूलम्

नार्हसे क्षत्रबन्धूंस्त्वं निहन्तुं जयतां वर।
नेह युक्तं त्वया हन्तुं ब्राह्मणेन सता नृपान् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितर बोले— विजय पानेवालोंमें श्रेष्ठ परशुराम! बेचारे क्षत्रियोंको मारना तुम्हारे योग्य नहीं है; क्योंकि तुम ब्राह्मण हो, अतः तुम्हारे हाथसे राजाओंका वध होना उचित नहीं है॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीतासु एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें ब्राह्मणगीताविषयक उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९॥