०२७ ब्राह्मणगीतासु

भागसूचना

सप्तविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अध्यात्मविषयक महान् वनका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संकल्पदंशमशकं शोकहर्षहिमातपम् ।
मोहान्धकारतिमिरं लोभव्याधिसरीसृपम् ॥ १ ॥
विषयैकात्ययाध्वानं कामक्रोधविरोधकम् ।
तदतीत्य महादुर्गं प्रविष्टोऽस्मि महद् वनम् ॥ २ ॥

मूलम्

संकल्पदंशमशकं शोकहर्षहिमातपम् ।
मोहान्धकारतिमिरं लोभव्याधिसरीसृपम् ॥ १ ॥
विषयैकात्ययाध्वानं कामक्रोधविरोधकम् ।
तदतीत्य महादुर्गं प्रविष्टोऽस्मि महद् वनम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— प्रिये! जहाँ संकल्परूपी डाँस और मच्छरोंकी अधिकता होती है। शोक और हर्षरूपी गर्मी, सर्दीका कष्ट रहता है, मोहरूपी अन्धकार फैला हुआ है, लोभ तथा व्याधिरूपी सर्प विचरा करते हैं। जहाँ विषयोंका ही मार्ग है, जिसे अकेले ही तै करना पड़ता है तथा जहाँ काम और क्रोधरूपी शत्रु डेरा डाले रहते हैं, उस संसाररूपी दुर्गम पथका उल्लंघन करके अब मैं ब्रह्मरूपी महान् वनमें प्रवेश कर चुका हूँ॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व तद् वनं महाप्राज्ञ के वृक्षाः सरितश्च काः।
गिरयः पर्वताश्चैव कियत्यध्वनि तद् वनम् ॥ ३ ॥

मूलम्

क्व तद् वनं महाप्राज्ञ के वृक्षाः सरितश्च काः।
गिरयः पर्वताश्चैव कियत्यध्वनि तद् वनम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणीने पूछा— महाप्राज्ञ! वह वन कहाँ है? उसमें कौन-कौनसे वृक्ष, गिरि, पर्वत और नदियाँ हैं तथा वह कितनी दूरीपर है॥३॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतदस्ति पृथग्भावः किंचिदन्यत् ततः सुखम्।
नैतदस्त्यपृथग्भावः किंचिद् दुःखतरं ततः ॥ ४ ॥

मूलम्

नैतदस्ति पृथग्भावः किंचिदन्यत् ततः सुखम्।
नैतदस्त्यपृथग्भावः किंचिद् दुःखतरं ततः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— प्रिये! उस वनमें न भेद है न अभेद, वह इन दोनोंसे अतीत है। वहाँ लौकिक सुख और दुःख दोनोंका अभाव है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् ह्रस्वतरं नास्ति न ततोऽस्ति महत्तरम्।
नास्ति तस्मात् सूक्ष्मतरं नास्त्यन्यत्‌ तत्समं सुखम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तस्माद् ह्रस्वतरं नास्ति न ततोऽस्ति महत्तरम्।
नास्ति तस्मात् सूक्ष्मतरं नास्त्यन्यत्‌ तत्समं सुखम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे अधिक छोटी, उससे अधिक बड़ी और उससे अधिक सूक्ष्म भी दूसरी कोई वस्तु नहीं है। उसके समान सुखरूप भी कोई नहीं है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तत्राविश्य शोचन्ति न प्रहृष्यन्ति च द्विजाः।
न च बिभ्यति केषांचित् तेभ्यो बिभ्यति केचन ॥ ६ ॥

मूलम्

न तत्राविश्य शोचन्ति न प्रहृष्यन्ति च द्विजाः।
न च बिभ्यति केषांचित् तेभ्यो बिभ्यति केचन ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस वनमें प्रवष्टि हो जानेपर द्विजातियोंको न हर्ष होता है, न शोक। न तो वे स्वयं किन्हीं प्राणियोंसे डरते हैं और न उन्हींसे दूसरे कोई प्राणी भय मानते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् वने सप्त महाद्रुमाश्च
फलानि सप्तातिथयश्च सप्त ।
सप्ताश्रमाः सप्त समाधयश्च
दीक्षाश्च सप्तैतदरण्यरूपम् ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्मिन् वने सप्त महाद्रुमाश्च
फलानि सप्तातिथयश्च सप्त ।
सप्ताश्रमाः सप्त समाधयश्च
दीक्षाश्च सप्तैतदरण्यरूपम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सात बड़े-बड़े वृक्ष हैं, सात उन वृक्षोंके फल हैं तथा सात ही उन फलोंके भोक्ता अतिथि हैं। सात आश्रम हैं। वहाँ सात प्रकारकी समाधि और सात प्रकारकी दीक्षाएँ हैं। यही उस वनका स्वरूप है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चवर्णानि दिव्यानि पुष्पाणि च फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद् वनम् ॥ ८ ॥

मूलम्

पञ्चवर्णानि दिव्यानि पुष्पाणि च फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद् वनम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँके वृक्ष पाँच प्रकारके रंगोंके दिव्य पुष्पों और फलोंकी सृष्टि करते हुए सब ओरसे वनको व्याप्त करके स्थित हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णानि द्विवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद् वनम् ॥ ९ ॥

मूलम्

सुवर्णानि द्विवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद् वनम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ दूसरे वृक्षोंने सुन्दर दो रंगवाले पुष्प और फल उत्पन्न करते हुए उस वनको सब ओरसे व्याप्त कर रखा है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरभीणि द्विवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद् वनम् ॥ १० ॥

मूलम्

सुरभीणि द्विवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद् वनम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीसरे वृक्ष वहाँ सुगन्धयुक्त दो रंगवाले पुष्प और फल प्रदान करते हुए उस वनको व्याप्त करके स्थित हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरभीण्येकवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद् वनम् ॥ ११ ॥

मूलम्

सुरभीण्येकवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च।
सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद् वनम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चौथे वृक्ष सुगन्धयुक्त केवल एक रंगवाले पुष्प और फलोंकी सृष्टि करते हुए उस वनके सब ओर फैले हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहून्यव्यक्तवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च।
विसृजन्तौ महावृक्षौ तद् वनं व्याप्य तिष्ठतः ॥ १२ ॥

मूलम्

बहून्यव्यक्तवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च।
विसृजन्तौ महावृक्षौ तद् वनं व्याप्य तिष्ठतः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ दो महावृक्ष बहुत-से अव्यक्त रंगवाले पुष्प और फलोंकी रचना करते हुए उस वनको व्याप्त करके स्थित हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको वह्निः सुमना ब्राह्मणोऽत्र
पञ्चेन्द्रियाणि समिधश्चात्र सन्ति ।
तेभ्यो मोक्षाः सप्त फलन्ति दीक्षा
गुणाः फलान्यतिथयः फलाशाः ॥ १३ ॥

मूलम्

एको वह्निः सुमना ब्राह्मणोऽत्र
पञ्चेन्द्रियाणि समिधश्चात्र सन्ति ।
तेभ्यो मोक्षाः सप्त फलन्ति दीक्षा
गुणाः फलान्यतिथयः फलाशाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस वनमें एक ही अग्नि है, जीव शुद्धचेता ब्राह्मण है, पाँच इन्द्रियाँ समिधाएँ हैं। उनसे जो मोक्ष प्राप्त होता है, वह सात प्रकारका है। इस यज्ञकी दीक्षाका फल अवश्य होता है। गुण ही फल है। सात अतिथि ही फलोंके भोक्ता हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आतिथ्यं प्रतिगृह्णन्ति तत्र तत्र महर्षयः।
अचितेषु प्रलीनेषु तेष्वन्यद् रोचते वनम् ॥ १४ ॥

मूलम्

आतिथ्यं प्रतिगृह्णन्ति तत्र तत्र महर्षयः।
अचितेषु प्रलीनेषु तेष्वन्यद् रोचते वनम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे महर्षिगण इस यज्ञमें आतिथ्य ग्रहण करते हैं और पूजा स्वीकार करते ही उनका लय हो जाता है। तत्पश्चात् वह ब्रह्मरूप वन विलक्षणरूपसे प्रकाशित होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञावृक्षं मोक्षफलं शान्तिच्छायासमन्वितम् ।
ज्ञानाश्रयं तृप्तितोयमन्तःक्षेत्रज्ञभास्करम् ॥ १५ ॥

मूलम्

प्रज्ञावृक्षं मोक्षफलं शान्तिच्छायासमन्वितम् ।
ज्ञानाश्रयं तृप्तितोयमन्तःक्षेत्रज्ञभास्करम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें प्रज्ञारूपी वृक्ष शोभा पाते हैं, मोक्षरूपी फल लगते हैं और शान्तिमयी छाया फैली रहती है। ज्ञान वहाँका आश्रयस्थान और तृप्ति जल है। उस वनके भीतर आत्मारूपी सूर्यका प्रकाश छाया रहता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येऽधिगच्छन्ति तं सन्तस्तेषां नास्ति भयं पुनः।
ऊर्ध्वं चाधश्च तिर्यक् च तस्य नान्तोऽधिगम्यते ॥ १६ ॥

मूलम्

येऽधिगच्छन्ति तं सन्तस्तेषां नास्ति भयं पुनः।
ऊर्ध्वं चाधश्च तिर्यक् च तस्य नान्तोऽधिगम्यते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्रेष्ठ पुरुष उस वनका आश्रय लेते हैं, उन्हें फिर कभी भय नहीं होता। वह वन ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर सब ओर व्याप्त है। उसका कहीं भी अन्त नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्त स्त्रियस्तत्र वसन्ति सद्य-
स्त्ववाङ्‌मुखा भानुमत्यो जनित्र्यः ।
ऊर्ध्वं रसानाददते प्रजाभ्यः
सर्वान् यथा सत्यमनित्यता च ॥ १७ ॥

मूलम्

सप्त स्त्रियस्तत्र वसन्ति सद्य-
स्त्ववाङ्‌मुखा भानुमत्यो जनित्र्यः ।
ऊर्ध्वं रसानाददते प्रजाभ्यः
सर्वान् यथा सत्यमनित्यता च ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सात स्त्रियाँ निवास करती हैं, जो लज्जाके मारे अपना मुँह नीचेकी ओर किये रहती हैं। वे चिन्मय ज्योतिसे प्रकाशित होती हैं। वे सबकी जननी हैं और वे उस वनमें रहनेवाली प्रजासे सब प्रकारके उत्तम रस उसी प्रकार ग्रहण करती हैं, जैसे अनित्यता सत्यको ग्रहण करती है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैव प्रतितिष्ठन्ति पुनस्तत्रोपयन्ति च।
सप्त सप्तर्षयः सिद्धा वसिष्ठप्रमुखैः सह ॥ १८ ॥

मूलम्

तत्रैव प्रतितिष्ठन्ति पुनस्तत्रोपयन्ति च।
सप्त सप्तर्षयः सिद्धा वसिष्ठप्रमुखैः सह ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात सिद्ध सप्तर्षि वसिष्ठ आदिके साथ उसी वनमें लीन होते और उसीसे उत्पन्न होते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशो वर्चो भगश्चैव विजयः सिद्धतेजसः।
एवमेवानुवर्तन्ते सप्त ज्योतींषि भास्करम् ॥ १९ ॥

मूलम्

यशो वर्चो भगश्चैव विजयः सिद्धतेजसः।
एवमेवानुवर्तन्ते सप्त ज्योतींषि भास्करम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यश, प्रभा, भग (ऐश्वर्य), विजय, सिद्धि (ओज) और तेज—ये सात ज्योतियाँ उपर्युक्त आत्मारूपी सूर्यका ही अनुसरण करती हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरयः पर्वताश्चैव सन्ति तत्र समासतः।
नद्यश्च सरितो वारि वहन्त्यो ब्रह्मसम्भवम् ॥ २० ॥

मूलम्

गिरयः पर्वताश्चैव सन्ति तत्र समासतः।
नद्यश्च सरितो वारि वहन्त्यो ब्रह्मसम्भवम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस ब्रह्मतत्त्वमें ही गिरि, पर्वत, झरनें, नदी और सरिताएँ स्थित हैं, जो ब्रह्मजनित जल बहाया करती हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदीनां सङ्गमश्चैव वैताने समुपह्वरे।
स्वात्मतृप्ता यतो यान्ति साक्षादेव पितामहम् ॥ २१ ॥

मूलम्

नदीनां सङ्गमश्चैव वैताने समुपह्वरे।
स्वात्मतृप्ता यतो यान्ति साक्षादेव पितामहम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नदियोंका संगम भी उसीके अत्यन्त गूढ़ हृदयाकाशमें संक्षेपसे होता है। जहाँ योगरूपी यज्ञका विस्तार होता रहता है। वही साक्षात् पितामहका स्वरूप है। आत्मज्ञानसे तृप्त पुरुष उसीको प्राप्त होते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृशाशाः सुव्रताशाश्च तपसा दग्धकिल्बिषाः।
आत्मन्यात्मानमाविश्य ब्रह्माणं समुपासते ॥ २२ ॥

मूलम्

कृशाशाः सुव्रताशाश्च तपसा दग्धकिल्बिषाः।
आत्मन्यात्मानमाविश्य ब्रह्माणं समुपासते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी आशा क्षीण हो गयी है, जो उत्तम व्रतके पालनकी इच्छा रखते हैं। तपस्यासे जिनके सारे पाप दग्ध हो गये हैं। वे ही पुरुष अपनी बुद्धिको आत्मनिष्ठ करके परब्रह्मकी उपासना करते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शममप्यत्र शंसन्ति विद्यारण्यविदो जनाः।
तदारण्यमभिप्रेत्य यथाधीरभिजायत ॥ २३ ॥

मूलम्

शममप्यत्र शंसन्ति विद्यारण्यविदो जनाः।
तदारण्यमभिप्रेत्य यथाधीरभिजायत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्या (ज्ञान)-के ही प्रभावसे ब्रह्मरूपी वनका स्वरूप समझमें आता है। इस बातको जाननेवाले मनुष्य इस वनमें प्रवेश करनेके उद्देश्यसे शम (मनोनिग्रह)-की ही प्रशंसा करते हैं, जिससे बुद्धि स्थिर होती है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदेवेदृशं पुण्यमरण्यं ब्राह्मणा विदुः।
विदित्वा चानुतिष्ठन्ति क्षेत्रज्ञेनानुदर्शिता ॥ २४ ॥

मूलम्

एतदेवेदृशं पुण्यमरण्यं ब्राह्मणा विदुः।
विदित्वा चानुतिष्ठन्ति क्षेत्रज्ञेनानुदर्शिता ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण ऐसे गुणवाले इस पवित्र वनको जानते हैं और तत्त्वदर्शीके उपदेशसे प्रबुद्ध हुए आत्मज्ञानी पुरुष उस ब्रह्मवनको शास्त्रतः जानकर शम आदि साधनोंके अनुष्ठानमें लग जाते हैं॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीतासु सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें ब्राह्मणगीतासम्बन्धी सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७॥