०२६ ब्राह्मणगीतासु

भागसूचना

षड्‌विंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अन्तर्यामीकी प्रधानता

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता
यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि ।
तेनैव युक्तः प्रवणादिवोदकं
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि ॥ १ ॥

मूलम्

एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता
यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि ।
तेनैव युक्तः प्रवणादिवोदकं
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— प्रिये! जगत्‌का शासक एक ही है, दूसरा नहीं। जो हृदयके भीतर विराजमान है, उस परमात्माको ही मैं सबका शासक बतला रहा हूँ। जैसे पानी ढालू स्थानसे नीचेकी ओर प्रवाहित होता है, वैसे ही उस—परमात्माकी प्रेरणासे मैं जिस तरहके कार्यमें नियुक्त होता हूँ, उसीका पालन करता रहता हूँ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको गुरुर्नास्ति ततो द्वितीयो
यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि ।
तेनानुशिष्टा गुरुणा सदैव
पराभूता दानवाः सर्व एव ॥ २ ॥

मूलम्

एको गुरुर्नास्ति ततो द्वितीयो
यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि ।
तेनानुशिष्टा गुरुणा सदैव
पराभूता दानवाः सर्व एव ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ही गुरु है दूसरा नहीं। जो हृदयमें स्थित है, उस परमात्माको ही मैं गुरु बतला रहा हूँ। उसी गुरुके अनुशासनसे समस्त दानव हार गये हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको बन्धुर्नास्ति ततो द्वितीयो
यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि ।
तेनानुशिष्टा बान्धवा बन्धुमन्तः
सप्तर्षयश्चैव दिवि प्रभान्ति ॥ ३ ॥

मूलम्

एको बन्धुर्नास्ति ततो द्वितीयो
यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि ।
तेनानुशिष्टा बान्धवा बन्धुमन्तः
सप्तर्षयश्चैव दिवि प्रभान्ति ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ही बन्धु है, उससे भिन्न दूसरा कोई बन्धु नहीं है। जो हृदयमें स्थित है, उस परमात्माको ही मैं बन्धु कहता हूँ। उसीके उपदेशसे बान्धवगण बन्धुमान् होते हैं और सप्तर्षि लोग आकाशमें प्रकाशित होते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकः श्रोता नास्ति ततो द्वितीयो
यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि ।
तस्मिन् गुरौ गुरुवासं निरुष्य
शक्रो गतः सर्वलोकामरत्वम् ॥ ४ ॥

मूलम्

एकः श्रोता नास्ति ततो द्वितीयो
यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि ।
तस्मिन् गुरौ गुरुवासं निरुष्य
शक्रो गतः सर्वलोकामरत्वम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ही श्रोता है, दूसरा नहीं। जो हृदयमें स्थित परमात्मा है, उसीको मैं श्रोता कहता हूँ। इन्द्रने उसीको गुरु मानकर गुरुकुलवासका नियम पूरा किया अर्थात् शिष्यभावसे वे उस अन्तर्यामीकी ही शरणमें गये। इससे उन्हें सम्पूर्ण लोकोंका साम्राज्य और अमरत्व प्राप्त हुआ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको द्वेष्टा नास्ति ततो द्वितीयो
यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि ।
तेनानुशिष्टा गुरुणा सदैव
लोके द्विष्टाः पन्नगाः सर्व एव ॥ ५ ॥

मूलम्

एको द्वेष्टा नास्ति ततो द्वितीयो
यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि ।
तेनानुशिष्टा गुरुणा सदैव
लोके द्विष्टाः पन्नगाः सर्व एव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ही शत्रु है दूसरा नहीं। जो हृदयमें स्थित है, उस परमात्माको ही मैं गुरु बतला रहा हूँ। उसी गुरुकी प्रेरणासे जगत्‌के सारे साँप सदा द्वेषभावसे युक्त रहते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रजापतौ पन्नगानां देवर्षीणां च संविदम् ॥ ६ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रजापतौ पन्नगानां देवर्षीणां च संविदम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें सर्पों, देवताओं और ऋषियोंकी प्रजापतिके साथ जो बातचीत हुई थी, उस प्राचीन इतिहासके जानकार लोग उस विषयमें उदाहरण दिया करते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवर्षयश्च नागाश्चाप्यसुराश्च प्रजापतिम् ।
पर्यपृच्छन्नुपासीनाः श्रेयो नः प्रोच्यतामिति ॥ ७ ॥

मूलम्

देवर्षयश्च नागाश्चाप्यसुराश्च प्रजापतिम् ।
पर्यपृच्छन्नुपासीनाः श्रेयो नः प्रोच्यतामिति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार देवता, ऋषि, नाग और असुरोंने प्रजापतिके पास बैठकर पूछा—‘भगवन्! हमारे कल्याणका क्या उपाय है? यह बताइये’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां प्रोवाच भगवान् श्रेयः समनुपृच्छताम्।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ते श्रुत्वा प्राद्रवन् दिशः ॥ ८ ॥

मूलम्

तेषां प्रोवाच भगवान् श्रेयः समनुपृच्छताम्।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ते श्रुत्वा प्राद्रवन् दिशः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्याणकी बात पूछनेवाले उन महानुभावोंका प्रश्न सुनकर भगवान् प्रजापति ब्रह्माजीने एकाक्षर ब्रह्म—ॐकारका उच्चारण किया। उनका प्रणवनाद सुनकर सब लोग अपनी-अपनी दिशा (अपने-अपने स्थान)-की ओर भाग चले॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां प्रद्रवमाणानामुपदेशार्थमात्मनः ।
सर्पाणां दंशने भावः प्रवृत्तः पूर्वमेव तु ॥ ९ ॥
असुराणां प्रवृत्तस्तु दम्भभावः स्वभावजः।
दानं देवा व्यवसिता दममेव महर्षयः ॥ १० ॥

मूलम्

तेषां प्रद्रवमाणानामुपदेशार्थमात्मनः ।
सर्पाणां दंशने भावः प्रवृत्तः पूर्वमेव तु ॥ ९ ॥
असुराणां प्रवृत्तस्तु दम्भभावः स्वभावजः।
दानं देवा व्यवसिता दममेव महर्षयः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने उस उपदेशके अर्थपर जब विचार किया, तब सबसे पहले सर्पोंके मनमें दूसरोंके डँसनेका भाव पैदा हुआ, असुरोंमें स्वाभाविक दम्भका आविर्भाव हुआ तथा देवताओंने दानको और महर्षियोंने दमको ही अपनानेका निश्चय किया॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकं शास्तारमासाद्य शब्देनैकेन संस्कृताः।
नाना व्यवसिताः सर्वे सर्पदेवर्षिदानवाः ॥ ११ ॥

मूलम्

एकं शास्तारमासाद्य शब्देनैकेन संस्कृताः।
नाना व्यवसिताः सर्वे सर्पदेवर्षिदानवाः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सर्प, देवता, ऋषि और दानव—ये सब एक ही उपदेशक गुरुके पास गये थे और एक ही शब्दके उपदेशसे उनकी बुद्धिका संस्कार हुआ तो भी उनके मनमें भिन्न-भिन्न प्रकारके भाव उत्पन्न हो गये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणोत्ययं प्रोच्यमानं गृह्णाति च यथातथम्।
पृच्छातस्तदतो भूयो गुरुरन्यो न विद्यते ॥ १२ ॥

मूलम्

शृणोत्ययं प्रोच्यमानं गृह्णाति च यथातथम्।
पृच्छातस्तदतो भूयो गुरुरन्यो न विद्यते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रोता गुरुके कहे हुए उपदेशको सुनता है और उसको जैसे-तैसे (भिन्न-भिन्न रूपमें) ग्रहण करता है। अतः प्रश्न पूछनेवाले शिष्यके लिये अपने अन्तर्यामीसे बढ़कर दूसरा कोई गुरु नहीं है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य चानुमते कर्म ततः पश्चात् प्रवर्तते।
गुरुर्बोद्धा च श्रोता च द्वेष्टा च हृदि निःसृतः॥१३॥

मूलम्

तस्य चानुमते कर्म ततः पश्चात् प्रवर्तते।
गुरुर्बोद्धा च श्रोता च द्वेष्टा च हृदि निःसृतः॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले वह कर्मका अनुमोदन करता है, उसके बाद जीवकी उस कर्ममें प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार हृदयमें प्रकट होनेवाला परमात्मा ही गुरु, ज्ञानी, श्रोता और द्वेष्टा है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापेन विचरल्लोँके पापचारी भवत्ययम्।
शुभेन विचरल्लोँके शुभचारी भवत्युत ॥ १४ ॥

मूलम्

पापेन विचरल्लोँके पापचारी भवत्ययम्।
शुभेन विचरल्लोँके शुभचारी भवत्युत ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें जो पाप करते हुए विचरता है, वह पापाचारी और जो शुभ कर्मोंका आचरण करता है, वह शुभाचारी कहलाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामचारी तु कामेन य इन्द्रियसुखे रतः।
ब्रह्मचारी सदैवैष य इन्द्रियजये रतः ॥ १५ ॥

मूलम्

कामचारी तु कामेन य इन्द्रियसुखे रतः।
ब्रह्मचारी सदैवैष य इन्द्रियजये रतः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह कामनाओंके द्वारा इन्द्रियसुखमें परायण मनुष्य कामचारी और इन्द्रियसंयममें प्रवृत्त रहनेवाला पुरुष सदा ही ब्रह्मचारी है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपेतव्रतकर्मा तु केवलं ब्रह्मणि स्थितः।
ब्रह्मभूतश्चरल्लोँके ब्रह्मचारी भवत्ययम् ॥ १६ ॥

मूलम्

अपेतव्रतकर्मा तु केवलं ब्रह्मणि स्थितः।
ब्रह्मभूतश्चरल्लोँके ब्रह्मचारी भवत्ययम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो व्रत और कर्मोंका त्याग करके केवल ब्रह्ममें स्थित है, वह ब्रह्मस्वरूप होकर संसारमें विचरता रहता है, वही मुख्य ब्रह्मचारी है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मैव समिधस्तस्य ब्रह्माग्निर्ब्रह्मसम्भवः ।
आपो ब्रह्म गुरुर्ब्रह्म स ब्रह्मणि समाहितः ॥ १७ ॥

मूलम्

ब्रह्मैव समिधस्तस्य ब्रह्माग्निर्ब्रह्मसम्भवः ।
आपो ब्रह्म गुरुर्ब्रह्म स ब्रह्मणि समाहितः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्म ही उसकी समिधा है, ब्रह्म ही अग्नि है, ब्रह्मसे ही वह उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म ही उसका जल और ब्रह्म ही गुरु है। उसकी चित्तवृत्तियाँ सदा ब्रह्ममें ही लीन रहती हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदेवेदृशं सूक्ष्मं ब्रह्मचर्यं विदुर्बुधाः।
विदित्वा चान्वपद्यन्त क्षेत्रज्ञेनानुदर्शिताः ॥ १८ ॥

मूलम्

एतदेवेदृशं सूक्ष्मं ब्रह्मचर्यं विदुर्बुधाः।
विदित्वा चान्वपद्यन्त क्षेत्रज्ञेनानुदर्शिताः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वानोंने इसीको सूक्ष्म ब्रह्मचर्य बतलाया है। तत्त्वदर्शीका उपदेश पाकर प्रबुद्ध हुए आत्मज्ञानी पुरुष इस ब्रह्मचर्यके स्वरूपको जानकर सदा उसका पालन करते रहते हैं॥१८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीतासु षड्‌विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें ब्राह्मणगीताविषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६॥