०२४ ब्राह्मणगीतासु

भागसूचना

चतुर्विंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

देवर्षि नारद और देवमतका संवाद एवं उदानके उत्कृष्ट रूपका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदस्य च संवादमृषेर्देवमतस्य च ॥ १ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदस्य च संवादमृषेर्देवमतस्य च ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— प्रिये! इस विषयमें देवर्षि नारद और देवमतके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥१॥

मूलम् (वचनम्)

देवमत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्तोः संजायमानस्य किं नु पूर्वं प्रवर्तते।
प्राणोऽपानः समानो वा व्यानो वोदान एव च ॥ २ ॥

मूलम्

जन्तोः संजायमानस्य किं नु पूर्वं प्रवर्तते।
प्राणोऽपानः समानो वा व्यानो वोदान एव च ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवमतने पूछा— देवर्षे! जब जीव जन्म लेता है, उस समय सबसे पहले उसके शरीरमें किसकी प्रवृत्ति होती है? प्राण, अपान, समान, व्यान अथवा उदानकी?॥२॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

येनायं सृज्यते जन्तुस्ततोऽन्यः पूर्वमेति तम्।
प्राणद्वन्द्वं हि विज्ञेयं तिर्यगूर्ध्वमधश्च यत् ॥ ३ ॥

मूलम्

येनायं सृज्यते जन्तुस्ततोऽन्यः पूर्वमेति तम्।
प्राणद्वन्द्वं हि विज्ञेयं तिर्यगूर्ध्वमधश्च यत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा— मुने! जिस निमित्त कारणसे इस जीवकी उत्पत्ति होती है, उससे भिन्न दूसरा पदार्थ भी पहले कारण-रूपसे उपस्थित होता है। वह है प्राणोंका द्वन्द्व। जो ऊपर (देवलोक), तिर्यक् (मनुष्यलोक) और अधोलोक (पशु आदि)-में व्याप्त है, ऐसा समझना चाहिये॥३॥

मूलम् (वचनम्)

देवमत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनायं सृज्यते जन्तुः कश्चान्यः पूर्वमेति तम्।
प्राणद्वन्द्वं च मे ब्रूहि तिर्यगूर्ध्वमधश्च यत् ॥ ४ ॥

मूलम्

केनायं सृज्यते जन्तुः कश्चान्यः पूर्वमेति तम्।
प्राणद्वन्द्वं च मे ब्रूहि तिर्यगूर्ध्वमधश्च यत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवमतने पूछा— नारदजी! किस निमित्त कारणसे इस जीवकी सृष्टि होती है? दूसरा कौन पदार्थ पहले कारणरूपसे उपस्थित होता है तथा प्राणोंका द्वन्द्व क्या है, जो ऊपर, मध्यमें और नीचे व्याप्त है?॥४॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संकल्पाज्जायते हर्षः शब्दादपि च जायते।
रसात् संजायते चापि रूपादपि च जायते ॥ ५ ॥

मूलम्

संकल्पाज्जायते हर्षः शब्दादपि च जायते।
रसात् संजायते चापि रूपादपि च जायते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा— मुने! संकल्पसे हर्ष उत्पन्न होता है, मनोनुकूल शब्दसे, रससे और रूपसे भी हर्षकी उत्पत्ति होती है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्राच्छोणितसंसृष्टात् पूर्वं प्राणः प्रवर्तते।
प्राणेन विकृते शुक्रे ततोऽपानः प्रवर्तते ॥ ६ ॥

मूलम्

शुक्राच्छोणितसंसृष्टात् पूर्वं प्राणः प्रवर्तते।
प्राणेन विकृते शुक्रे ततोऽपानः प्रवर्तते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रजमें मिले हुए वीर्यसे पहले प्राण आकर उसमें कार्य आरम्भ करता है। उस प्राणसे वीर्यमें विकार उत्पन्न होनेपर फिर अपानकी प्रवृत्ति होती है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्रात् संजायते चापि रसादपि च जायते।
एतद् रूपमुदानस्य हर्षो मिथुनमन्तरा ॥ ७ ॥

मूलम्

शुक्रात् संजायते चापि रसादपि च जायते।
एतद् रूपमुदानस्य हर्षो मिथुनमन्तरा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्रसे और रससे भी हर्षकी उत्पत्ति होती है, यह हर्ष ही उदानका रूप है। उक्त कारण और कार्यरूप जो मिथुन है, उन दोनोंके बीचमें हर्ष व्याप्त होकर स्थित है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामात् संजायते शुक्रं शुक्रात् संजायते रजः।
समानव्यानजनिते सामान्ये शुक्रशोणिते ॥ ८ ॥

मूलम्

कामात् संजायते शुक्रं शुक्रात् संजायते रजः।
समानव्यानजनिते सामान्ये शुक्रशोणिते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रवृत्तिके मूलभूत कामसे वीर्य उत्पन्न होता है। उससे रजकी उत्पत्ति होती है। ये दोनों वीर्य और रज समान और व्यानसे उत्पन्न होते हैं। इसलिये सामान्य कहलाते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणापानाविदं द्वन्द्वमवाक् चोर्ध्वं च गच्छतः।
व्यानः समानश्चैवोभौ तिर्यग् द्वन्द्वत्वमुच्यते ॥ ९ ॥

मूलम्

प्राणापानाविदं द्वन्द्वमवाक् चोर्ध्वं च गच्छतः।
व्यानः समानश्चैवोभौ तिर्यग् द्वन्द्वत्वमुच्यते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राण और अपान—ये दोनों भी द्वन्द्व हैं। ये नीचे और ऊपरको जाते हैं। व्यान और समान—ये दोनों मध्यगामी द्वन्द्व कहे जाते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निर्वै देवताः सर्वा इति देवस्य शासनम्।
संजायते ब्राह्मणस्य ज्ञानं बुद्धिसमन्वितम् ॥ १० ॥

मूलम्

अग्निर्वै देवताः सर्वा इति देवस्य शासनम्।
संजायते ब्राह्मणस्य ज्ञानं बुद्धिसमन्वितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्नि अर्थात् परमात्मा ही सम्पूर्ण देवता हैं। यह वेद उन परमेश्वरकी आज्ञारूप है। उस वेदसे ही ब्राह्मणमें बुद्धियुक्त ज्ञान उत्पन्न होता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य धूमस्तमो रूपं रजो भस्मसु तेजसः।
सर्वं संजायते तस्य यत्र प्रक्षिप्यते हविः ॥ ११ ॥

मूलम्

तस्य धूमस्तमो रूपं रजो भस्मसु तेजसः।
सर्वं संजायते तस्य यत्र प्रक्षिप्यते हविः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अग्निका धुआँ तमोमय और भस्म रजोमय है। जिसके निमित्त हविष्यकी आहुति दी जाती है, उस अग्निसे (प्रकाशस्वरूप परमेश्वरसे) यह सारा जगत् उत्पन्न होता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वात् समानो व्यानश्च इति यज्ञविदो विदुः।
प्राणापानावाज्यभागौ तयोर्मध्ये हुताशनः ॥ १२ ॥
एतद् रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।
निर्द्वन्द्वमिति यत् त्वेतत् तन्मे निगदतः शृणु ॥ १३ ॥

मूलम्

सत्त्वात् समानो व्यानश्च इति यज्ञविदो विदुः।
प्राणापानावाज्यभागौ तयोर्मध्ये हुताशनः ॥ १२ ॥
एतद् रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।
निर्द्वन्द्वमिति यत् त्वेतत् तन्मे निगदतः शृणु ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञवेत्ता पुरुष यह जानते हैं कि सत्त्वगुणसे समान और व्यानकी उत्पत्ति होती है। प्राण और अपान आज्यभाग नामक दो आहुतियोंके समान हैं। उनके मध्यभागमें अग्निकी स्थिति है। यही उदानका उत्कृष्ट रूप है, जिसे ब्राह्मणलोग जानते हैं। जो निर्द्वन्द्व कहा गया है, उसे भी बताता हूँ, तुम मेरे मुखसे सुनो॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोरात्रमिदं द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।
एतद् रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः ॥ १४ ॥

मूलम्

अहोरात्रमिदं द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।
एतद् रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये दिन और रात द्वन्द्व हैं, इनके मध्यभागमें अग्नि हैं। ब्राह्मणलोग इसीको उदानका उत्कृष्ट रूप मानते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सच्चासच्चैव तद् द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।
एतद् रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः ॥ १५ ॥

मूलम्

सच्चासच्चैव तद् द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।
एतद् रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत् और असत्—ये दोनों द्वन्द्व हैं तथा इनके मध्यभागमें अग्नि हैं। ब्राह्मणलोग इसे उदानका परम उत्कृष्ट रूप मानते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वं समानो व्यानश्च व्यस्यते कर्म तेन तत्।
तृतीयं तु समानेन पुनरेव व्यवस्यते ॥ १६ ॥

मूलम्

ऊर्ध्वं समानो व्यानश्च व्यस्यते कर्म तेन तत्।
तृतीयं तु समानेन पुनरेव व्यवस्यते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऊर्ध्व अर्थात् ब्रह्म जिस संकल्प नामक हेतुसे समान और व्यानरूप होता है, उसीसे कर्मका विस्तार होता है। अतः संकल्पको रोकना चाहिये। जाग्रत् और स्वप्नके अतिरिक्त जो तीसरी अवस्था है, उससे उपलक्षित ब्रह्मका समानके द्वारा ही निश्चय होता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शान्त्यर्थं व्यानमेकं च शान्तिर्ब्रह्म सनातनम्।
एतद् रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः ॥ १७ ॥

मूलम्

शान्त्यर्थं व्यानमेकं च शान्तिर्ब्रह्म सनातनम्।
एतद् रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एकमात्र व्यान शान्तिके लिये है। शान्ति सनातन ब्रह्म है। ब्राह्मणलोग इसीको उदानका परम उत्कृष्ट रूप मानते हैं॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीतासु चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें ब्राह्मण-गीताविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४॥