०२३ ब्राह्मणगीतासु

भागसूचना

त्रयोविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

प्राण, अपान आदिका संवाद और ब्रह्माजीका सबकी श्रेष्ठता बतलाना

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
सुभगे पञ्चहोतॄणां विधानमिह यादृशम् ॥ १ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
सुभगे पञ्चहोतॄणां विधानमिह यादृशम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— प्रिये! अब पञ्चहोताओंके यज्ञका जैसा विधान है, उसके विषयमें एक प्राचीन दृष्टान्त बतलाया जाता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणापानावुदानश्च समानो व्यान एव च।
पञ्चहोतॄंस्तथैतान् वै परं भावं विदुर्बुधाः ॥ २ ॥

मूलम्

प्राणापानावुदानश्च समानो व्यान एव च।
पञ्चहोतॄंस्तथैतान् वै परं भावं विदुर्बुधाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान—ये पाँचों प्राण पाँच होता हैं। विद्वान् पुरुष इन्हें सबसे श्रेष्ठ मानते हैं॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वभावात् सप्तहोतार इति मे पूर्विका मतिः।
यथा वै पञ्चहोतारः परो भावस्तदुच्यताम् ॥ ३ ॥

मूलम्

स्वभावात् सप्तहोतार इति मे पूर्विका मतिः।
यथा वै पञ्चहोतारः परो भावस्तदुच्यताम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणी बोली— नाथ! पहले तो मैं समझती थी कि स्वभावतः सात होता हैं; किंतु अब आपके मुँहसे पाँच होताओंकी बात मालूम हुई। अतः ये पाँचों होता किस प्रकार हैं? आप इनकी श्रेष्ठताका वर्णन कीजिये॥३॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणेन सम्भृतो वायुरपानो जायते ततः।
अपाने सम्भृतो वायुस्ततो व्यानः प्रवर्तते ॥ ४ ॥
व्यानेन सम्भृतो वायुस्ततोदानः प्रवर्तते।
उदाने सम्भृतो वायुः समानो नाम जायते ॥ ५ ॥
तेऽपृच्छन्त पुरा सन्तः पूर्वजातं पितामहम्।
यो नः श्रेष्ठस्तमाचक्ष्व स नः श्रेष्ठो भविष्यति ॥ ६ ॥

मूलम्

प्राणेन सम्भृतो वायुरपानो जायते ततः।
अपाने सम्भृतो वायुस्ततो व्यानः प्रवर्तते ॥ ४ ॥
व्यानेन सम्भृतो वायुस्ततोदानः प्रवर्तते।
उदाने सम्भृतो वायुः समानो नाम जायते ॥ ५ ॥
तेऽपृच्छन्त पुरा सन्तः पूर्वजातं पितामहम्।
यो नः श्रेष्ठस्तमाचक्ष्व स नः श्रेष्ठो भविष्यति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— प्रिये! वायु प्राणके द्वारा पुष्ट होकर अपानरूप, अपानके द्वारा पुष्ट होकर व्यानरूप, व्यानसे पुष्ट होकर उदानरूप, उदानसे परिपुष्ट होकर समानरूप होता है। एक बार इन पाँचों वायुओंने सबके पूर्वज पितामह ब्रह्माजीसे प्रश्न किया—‘भगवन्! हममें जो श्रेष्ठ हो उसका नाम बता दीजिये, वही हमलोगोंमें प्रधान होगा’॥४—६॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन् प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
यस्मिन् प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
स वै श्रेष्ठो गच्छत यत्र कामः ॥ ७ ॥

मूलम्

यस्मिन् प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
यस्मिन् प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
स वै श्रेष्ठो गच्छत यत्र कामः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— प्राणधारियोंके शरीरमें स्थित हुए तुमलोगोंमेंसे जिसका लय हो जानेपर सभी प्राण लीन हो जायँ और जिसके संचरित होनेपर सब-के-सब संचार करने लगें, वही श्रेष्ठ है। अब तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, जाओ॥७॥

मूलम् (वचनम्)

प्राण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् ॥ ८ ॥

मूलम्

मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर प्राणवायुने अपान आदिसे कहा— मेरे लीन होनेपर प्राणियोंके शरीरमें स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होनेपर सब-के-सब संचार करने लगते हैं, इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायगा)॥८॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणः प्रालीयत ततः पुनश्च प्रचचार ह।
समानश्चाप्युदानश्च वचोऽब्रूतां पुनः शुभे ॥ ९ ॥

मूलम्

प्राणः प्रालीयत ततः पुनश्च प्रचचार ह।
समानश्चाप्युदानश्च वचोऽब्रूतां पुनः शुभे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण कहते हैं— शुभे! यों कहकर प्राणवायु थोड़ी देरके लिये छिप गया और उसके बाद फिर चलने लगा। तब समान और उदानवायु उससे पुनः बोले—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वं सर्वमिदं व्याप्य तिष्ठसीह यथा वयम्।
न त्वं श्रेष्ठो हि नः प्राण अपानो हि वशे तव।
प्रचचार पुनः प्राणस्तमपानोऽभ्यभाषत ॥ १० ॥

मूलम्

न त्वं सर्वमिदं व्याप्य तिष्ठसीह यथा वयम्।
न त्वं श्रेष्ठो हि नः प्राण अपानो हि वशे तव।
प्रचचार पुनः प्राणस्तमपानोऽभ्यभाषत ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राण! जैसे हमलोग इस शरीरमें व्याप्त हैं, उस तरह तुम इस शरीरमें व्याप्त होकर नहीं रहते। इसलिये तुम हमलोगोंसे श्रेष्ठ नहीं हो। केवल अपान तुम्हारे वशमें है [अतः तुम्हारे लय होनेसे हमारी कोई हानि नहीं हो सकती]।’ तब प्राण पुनः पूर्ववत् चलने लगा। तदनन्तर अपान बोला॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

अपान उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् ॥ ११ ॥

मूलम्

मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपानने कहा— मेरे लीन होनेपर प्राणियोंके शरीरमें स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होनेपर सब-के-सब संचार करने लगते हैं। इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायगा)॥११॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यानश्च तमुदानश्च भाषमाणमथोचतुः ।
अपान न त्वं श्रेष्ठोऽसि प्राणो हि वशगस्तव ॥ १२ ॥

मूलम्

व्यानश्च तमुदानश्च भाषमाणमथोचतुः ।
अपान न त्वं श्रेष्ठोऽसि प्राणो हि वशगस्तव ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण कहते हैं— तब व्यान और उदानने पूर्वोक्त बात कहनेवाले अपानसे कहा—‘अपान! केवल प्राण तुम्हारे अधीन है, इसलिये तुम हमसे श्रेष्ठ नहीं हो सकते’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपानः प्रचचाराथ व्यानस्तं पुनरब्रवीत्।
श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां येन हेतुना ॥ १३ ॥

मूलम्

अपानः प्रचचाराथ व्यानस्तं पुनरब्रवीत्।
श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां येन हेतुना ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर अपान भी पूर्ववत् चलने लगा। तब व्यानने उससे फिर कहा—‘मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। मेरी श्रेष्ठताका कारण क्या है। वह सुनो॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् ॥ १४ ॥

मूलम्

मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे लीन होनेपर प्राणियोंके शरीरमें स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होनेपर सब-के-सब संचार करने लगते हैं। इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायगा)’॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रालीयत ततो व्यानः पुनश्च प्रचचार ह।
प्राणापानावुदानश्च समानश्च तमब्रुवन् ।
न त्वं श्रेष्ठोऽसि नो व्यान समानस्तु वशे तव॥१५॥

मूलम्

प्रालीयत ततो व्यानः पुनश्च प्रचचार ह।
प्राणापानावुदानश्च समानश्च तमब्रुवन् ।
न त्वं श्रेष्ठोऽसि नो व्यान समानस्तु वशे तव॥१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण कहते हैं— तब व्यान कुछ देरके लिये लीन हो गया, फिर चलने लगा। उस समय प्राण, अपान, उदान और समानने उससे कहा—‘व्यान! तुम हमसे श्रेष्ठ नहीं हो, केवल समान वायु तुम्हारे वशमें है’॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रचचार पुनर्व्यानः समानः पुनरब्रवीत्।
श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां येन हेतुना ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रचचार पुनर्व्यानः समानः पुनरब्रवीत्।
श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां येन हेतुना ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर व्यान पूर्ववत् चलने लगा। तब समानने पुनः कहा—‘मैं जिस कारणसे सबमें श्रेष्ठ हूँ, वह बताता हूँ सुनो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् ॥ १७ ॥

मूलम्

मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे लीन होनेपर प्राणियोंके शरीरमें स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होनेपर सब-के-सब संचार करने लगते हैं। इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायगा)’॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

(ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समानः प्रालिल्ये पुनश्च प्रचचार ह।
प्राणापानाबुदानश्च व्यानश्चैव तमब्रुवन् ॥
न त्वं समान श्रेष्ठोऽसि व्यान एव वशे तव।)

मूलम्

ततः समानः प्रालिल्ये पुनश्च प्रचचार ह।
प्राणापानाबुदानश्च व्यानश्चैव तमब्रुवन् ॥
न त्वं समान श्रेष्ठोऽसि व्यान एव वशे तव।)

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण कहते हैं— यह कहकर समान कुछ देरके लिये लीन हो गया और पुनः पूर्ववत् चलने लगा। उस समस प्राण, अपान, व्यान और उदानने उससे कहा—‘समान! तुम हमलोगोंसे श्रेष्ठ नहीं हो, केवल व्यान ही तुम्हारे वशमें है’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समानः प्रचचाराथ उदानस्तमुवाच ह।
श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां येन हेतुना ॥ १८ ॥

मूलम्

समानः प्रचचाराथ उदानस्तमुवाच ह।
श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां येन हेतुना ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर समान पूर्ववत् चलने लगा। तब उदानने उससे कहा—‘मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ, इसका क्या कारण है? यह सुनो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् ॥ १९ ॥

मूलम्

मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति
सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे।
मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति
श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे लीन होनेपर प्राणियोंके शरीरमें स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होनेपर सब-के-सब संचार करने लगते हैं। इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायगा)’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रालीयतोदानः पुनश्च प्रचचार ह।
प्राणापानौ समानश्च व्यानश्चैव तमब्रुवन्।
उदान न त्वं श्रेष्ठोऽसि व्यान एव वशे तव॥२०॥

मूलम्

ततः प्रालीयतोदानः पुनश्च प्रचचार ह।
प्राणापानौ समानश्च व्यानश्चैव तमब्रुवन्।
उदान न त्वं श्रेष्ठोऽसि व्यान एव वशे तव॥२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर उदान कुछ देरके लिये लीन हो गया और पुनः चलने लगा। तब प्राण, अपान, समान और व्यानने उससे कहा—‘उदान! तुम हमलोगोंसे श्रेष्ठ नहीं हो। केवल व्यान ही तुम्हारे वशमें है’॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तानब्रवीद् ब्रह्मा समवेतान् प्रजापतिः।
सर्वे श्रेष्ठा न वा श्रेष्ठाः सर्वे चान्योन्यधर्मिणः ॥ २१ ॥

मूलम्

ततस्तानब्रवीद् ब्रह्मा समवेतान् प्रजापतिः।
सर्वे श्रेष्ठा न वा श्रेष्ठाः सर्वे चान्योन्यधर्मिणः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण कहते हैं— तदनन्तर वे सभी प्राण ब्रह्माजीके पास एकत्र हुए। उस समय उन सबसे प्रजापति ब्रह्माने कहा—‘वायुगण! तुम सभी श्रेष्ठ हो। अथवा तुममेंसे कोई भी श्रेष्ठ नहीं है। तुम सबका धारणरूप धर्म एक-दूसरेपर अवलम्बित है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे स्वविषये श्रेष्ठाः सर्वे चान्योन्यधर्मिणः।
इति तानब्रवीत् सर्वान् समवेतान् प्रजापतिः ॥ २२ ॥

मूलम्

सर्वे स्वविषये श्रेष्ठाः सर्वे चान्योन्यधर्मिणः।
इति तानब्रवीत् सर्वान् समवेतान् प्रजापतिः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सभी अपने-अपने स्थानपर श्रेष्ठ हो और सबका धर्म एक-दूसरेपर अवलम्बित है।’ इस प्रकार वहाँ एकत्र हुए सब प्राणोंसे प्रजापतिने फिर कहा—॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकः स्थिरश्चास्थिरश्च विशेषात् पञ्च वायवः।
एक एव ममैवात्मा बहुधाप्युपचीयते ॥ २३ ॥

मूलम्

एकः स्थिरश्चास्थिरश्च विशेषात् पञ्च वायवः।
एक एव ममैवात्मा बहुधाप्युपचीयते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक ही वायु स्थिर और अस्थिररूपसे विराजमान है। उसीके विशेष भेदसे पाँच वायु होते हैं। इस तरह एक ही मेरा आत्मा अनेक रूपोंमें वृद्धिको प्राप्त होता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्परस्य सुहृदो भावयन्तः परस्परम्।
स्वस्ति व्रजत भद्रं वो धारयध्वं परस्परम् ॥ २४ ॥

मूलम्

परस्परस्य सुहृदो भावयन्तः परस्परम्।
स्वस्ति व्रजत भद्रं वो धारयध्वं परस्परम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारा कल्याण हो। तुम कुशलपूर्वक जाओ और एक-दूसरेके हितैषी रहकर परस्परकी उन्नतिमें सहायता पहुँचाते हुए एक-दूसरेको धारण किये रहो’॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीतासु त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें ब्राह्मण-गीताविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं)