भागसूचना
एकविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दस होताओंसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञका वर्णन तथा मन और वाणीकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
निबोध दशहोतॄणां विधानमथ यादृशम् ॥ १ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
निबोध दशहोतॄणां विधानमथ यादृशम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण कहते हैं— प्रिये! इस विषयमें विद्वान् पुरुष इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। दस होता मिलकर जिस प्रकार यज्ञका अनुष्ठान करते हैं, वह सुनो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा नासिका चरणौ करौ।
उपस्थं वायुरिति वा होतॄणि दश भामिनि ॥ २ ॥
मूलम्
श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा नासिका चरणौ करौ।
उपस्थं वायुरिति वा होतॄणि दश भामिनि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भामिनि! कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा (वाक् और रसना), नासिका, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा—से दस होता हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दस्पर्शौ रूपरसौ गन्धो वाक्यं क्रिया गतिः।
रेतोमूत्रपुरीषाणां त्यागो दश हवींषि च ॥ ३ ॥
मूलम्
शब्दस्पर्शौ रूपरसौ गन्धो वाक्यं क्रिया गतिः।
रेतोमूत्रपुरीषाणां त्यागो दश हवींषि च ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, वाणी, क्रिया, गति, वीर्य, मूत्रका त्याग और मल-त्याग—ये दस विषय ही दस हविष्य हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिशो वायू रविश्चन्द्रः पृथ्व्यग्नी विष्णुरेव च।
इन्द्रः प्रजापतिर्मित्रमग्नयो दश भामिनि ॥ ४ ॥
मूलम्
दिशो वायू रविश्चन्द्रः पृथ्व्यग्नी विष्णुरेव च।
इन्द्रः प्रजापतिर्मित्रमग्नयो दश भामिनि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भामिनि! दिशा, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्नि, विष्णु, इन्द्र, प्रजापति और मित्र—ये दस देवता अग्नि हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशेन्द्रियाणि होतॄणि हवींषि दश भाविनि।
विषया नाम समिधो हूयन्ते तु दशाग्निषु ॥ ५ ॥
मूलम्
दशेन्द्रियाणि होतॄणि हवींषि दश भाविनि।
विषया नाम समिधो हूयन्ते तु दशाग्निषु ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाविनि! दस इन्द्रियरूपी होता दस देवतारूपी अग्निमें दस विषयरूपी हविष्य एवं समिधाओंका हवन करते हैं (इस प्रकार मेरे अन्तरमें निरन्तर यज्ञ हो रहा है; फिर मैं अकर्मण्य कैसे हूँ?)॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्तं स्रुवश्च वित्तं च पवित्रं ज्ञानमुत्तमम्।
सुविभक्तमिदं सर्वं जगदासीदिति श्रुतम् ॥ ६ ॥
मूलम्
चित्तं स्रुवश्च वित्तं च पवित्रं ज्ञानमुत्तमम्।
सुविभक्तमिदं सर्वं जगदासीदिति श्रुतम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस यज्ञमें चित्त ही स्रुवा तथा पवित्र एवं उत्तम ज्ञान ही धन है। यह सम्पूर्ण जगत् पहले भलीभाँति विभक्त था—ऐसा सुना गया है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमेवाथ विज्ञेयं चित्तं ज्ञानमवेक्षते।
रेतःशरीरभृत्काये विज्ञाता तु शरीरभृत् ॥ ७ ॥
मूलम्
सर्वमेवाथ विज्ञेयं चित्तं ज्ञानमवेक्षते।
रेतःशरीरभृत्काये विज्ञाता तु शरीरभृत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाननेमें आनेवाला यह सारा जगत् चित्तरूप ही है, वह ज्ञानकी अर्थात् प्रकाशककी अपेक्षा रखता है तथा वीर्यजनित शरीर-समुदायमें रहनेवाला शरीरधारी जीव उसको जाननेवाला है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरभृद् गार्हपत्यस्तस्मादन्यः प्रणीयते ।
मनश्चाहवनीयस्तु तस्मिन् प्रक्षिप्यते हविः ॥ ८ ॥
मूलम्
शरीरभृद् गार्हपत्यस्तस्मादन्यः प्रणीयते ।
मनश्चाहवनीयस्तु तस्मिन् प्रक्षिप्यते हविः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह शरीरका अभिमानी जीव गार्हपत्य अग्नि है। उससे जो दूसरा पावक प्रकट होता है, वह मन है। मन आहवनीय अग्नि है। उसीमें पूर्वोक्त हविष्यकी आहुति दी जाती है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वाचस्पतिर्जज्ञे तं मनः पर्यवेक्षते।
रूपं भवति वैवर्णं समनुद्रवते मनः ॥ ९ ॥
मूलम्
ततो वाचस्पतिर्जज्ञे तं मनः पर्यवेक्षते।
रूपं भवति वैवर्णं समनुद्रवते मनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे वाचस्पति (वेदवाणी)-का प्राकट्य होता है। उसे मन देखता है। मनके अनन्तर रूपका प्रादुर्भाव होता है, जो नील-पीत आदि वर्णोंसे रहित होता है। वह रूप मनकी ओर दौड़ता है॥९॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्माद् वागभवत् पूर्वं कस्मात् पश्चान्मनोऽभवत्।
मनसा चिन्तितं वाक्यं यदा समभिपद्यते ॥ १० ॥
मूलम्
कस्माद् वागभवत् पूर्वं कस्मात् पश्चान्मनोऽभवत्।
मनसा चिन्तितं वाक्यं यदा समभिपद्यते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणी बोली— प्रियतम! किस कारणसे वाक्की उत्पत्ति पहले हुई और क्यों मन पीछे हुआ? जब कि मनसे सोचे-विचारे वचनको ही व्यवहारमें लाया जाता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन विज्ञानयोगेन मतिश्चित्तं समास्थिता।
समुन्नीता नाध्यगच्छत् को वै तां प्रतिबाधते ॥ ११ ॥
मूलम्
केन विज्ञानयोगेन मतिश्चित्तं समास्थिता।
समुन्नीता नाध्यगच्छत् को वै तां प्रतिबाधते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किस विज्ञानके प्रभावसे मति चित्तके आश्रित होती है? वह ऊँचे उठायी जानेपर विषयोंकी ओर क्यों नहीं जाती? कौन उसके मार्गमें बाधा डालता है?॥११॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामपानः पतिर्भूत्वा तस्मात् प्रेषत्यपानताम्।
तां गतिं मनसः प्राहुर्मनस्तस्मादपेक्षते ॥ १२ ॥
मूलम्
तामपानः पतिर्भूत्वा तस्मात् प्रेषत्यपानताम्।
तां गतिं मनसः प्राहुर्मनस्तस्मादपेक्षते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— प्रिये! अपान पतिरूप होकर उस मतिको अपानभावकी ओर ले जाता है। वह अपानभावकी प्राप्ति मनकी गति बतायी गयी है, इसलिये मन उसकी अपेक्षा रखता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रश्नं तु वाङ्मनसोर्मां यस्मात् त्वमनुपृच्छसि।
तस्मात् ते वर्तयिष्यामि तयोरेव समाह्वयम् ॥ १३ ॥
मूलम्
प्रश्नं तु वाङ्मनसोर्मां यस्मात् त्वमनुपृच्छसि।
तस्मात् ते वर्तयिष्यामि तयोरेव समाह्वयम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु तुम मुझसे वाणी और मनके विषयमें ही प्रश्न करती हो, इसलिये मैं तुम्हें उन्हीं दोनोंका संवाद बताऊँगा॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभे वाङ्मनसी गत्वा भूतात्मानमपृच्छताम्।
आवयोः श्रेष्ठमाचश्व छिन्धि नौ संशयं विभो ॥ १४ ॥
मूलम्
उभे वाङ्मनसी गत्वा भूतात्मानमपृच्छताम्।
आवयोः श्रेष्ठमाचश्व छिन्धि नौ संशयं विभो ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन और वाणी दोनोंने जीवात्माके पास जाकर पूछा—‘प्रभो! हम दोनोंमें कौन श्रेष्ठ है? यह बताओ और हमारे संदेहका निवारण करो’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन इत्येव भगवांस्तदा प्राह सरस्वती।
अहं वै कामधुक् तुभ्यमिति तं प्राह वागथ ॥ १५ ॥
मूलम्
मन इत्येव भगवांस्तदा प्राह सरस्वती।
अहं वै कामधुक् तुभ्यमिति तं प्राह वागथ ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भगवान् आत्मदेवने कहा—‘मन ही श्रेष्ठ है।’ यह सुनकर सरस्वती बोलीं—‘मैं ही तुम्हारे लिये कामधेनु बनकर सब कुछ देती हूँ।’ इस प्रकार वाणीने स्वयं ही अपनी श्रेष्ठता बतायी॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थावरं जङ्गमं चैव विद्ध्युभे मनसी मम।
स्थावरं मत्सकाशे वै जङ्गमं विषये तव ॥ १६ ॥
मूलम्
स्थावरं जङ्गमं चैव विद्ध्युभे मनसी मम।
स्थावरं मत्सकाशे वै जङ्गमं विषये तव ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण देवता कहते हैं— प्रिये! स्थावर और जंगम ये दोनों मेरे मन हैं। स्थावर अर्थात् बाह्य इन्द्रियोंसे गृहीत होनेवाला जो यह जगत् है, वह मेरे समीप है और जंगम अर्थात् इन्द्रियातीत जो स्वर्ग आदि है, वह तुम्हारे अधिकारमें है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु तं विषयं गच्छेन्मन्त्रो वर्णः स्वरोऽपि वा।
तन्मनो जङ्गमो नाम तस्मादसि गरीयसी ॥ १७ ॥
मूलम्
यस्तु तं विषयं गच्छेन्मन्त्रो वर्णः स्वरोऽपि वा।
तन्मनो जङ्गमो नाम तस्मादसि गरीयसी ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मन्त्र, वर्ण अथवा स्वर उस अलौकिक विषयको प्रकाशित करता है, उसका अनुसरण करनेवाला मन भी यद्यपि जंगम नाम धारण करता है तथापि वाणीस्वरूपा तुम्हारे द्वारा ही मनका उस अतीन्द्रिय जगत्में प्रवेश होता है। इसलिये तुम मनसे भी श्रेष्ठ एवं गौरवशालिनी हो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मादपि समाधिस्ते स्वयमभ्येस्त शोभने।
तस्मादुच्छ्वासमासाद्य प्रवक्ष्यामि सरस्वति ॥ १८ ॥
मूलम्
यस्मादपि समाधिस्ते स्वयमभ्येस्त शोभने।
तस्मादुच्छ्वासमासाद्य प्रवक्ष्यामि सरस्वति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि शोभामयी सरस्वति! तुमने स्वयं ही पास आकर समाधान अर्थात् अपने पक्षकी पुष्टि की है। इससे मैं उच्छ्वास लेकर कुछ कहूँगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणापानान्तरे देवी वाग् वै नित्यं स्म तिष्ठति।
प्रेर्यमाणा महाभागे विना प्राणमपानती।
प्रजापतिमुपाधावत् प्रसीद भगवन्निति ॥ १९ ॥
मूलम्
प्राणापानान्तरे देवी वाग् वै नित्यं स्म तिष्ठति।
प्रेर्यमाणा महाभागे विना प्राणमपानती।
प्रजापतिमुपाधावत् प्रसीद भगवन्निति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभागे! प्राण और अपानके बीचमें देवी सरस्वती सदा विद्यमान रहती हैं। वह प्राणकी सहायताके बिना जब निम्नतम दशाको प्राप्त होने लगी, तब दौड़ी हुई प्रजापतिके पास गयी और बोली—‘भगवन्! प्रसन्न होइये’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्राणः प्रादुरभूद् वाचमाप्याययन् पुनः।
तस्मादुच्छ्वासमासाद्य न वाग् वदति कर्हिचित् ॥ २० ॥
मूलम्
ततः प्राणः प्रादुरभूद् वाचमाप्याययन् पुनः।
तस्मादुच्छ्वासमासाद्य न वाग् वदति कर्हिचित् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वाणीको पुष्ट-सा करता हुआ पुनः प्राण प्रकट हुआ। इसीलिये उच्छ्वास लेते समय वाणी कभी कोई शब्द नहीं बोलती है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घोषिणी जातनिर्घोषा नित्यमेव प्रवर्तते।
तयोरपि च घोषिण्या निर्घोषैव गरीयसी ॥ २१ ॥
मूलम्
घोषिणी जातनिर्घोषा नित्यमेव प्रवर्तते।
तयोरपि च घोषिण्या निर्घोषैव गरीयसी ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वाणी दो प्रकारकी होती है—एक घोषयुक्त (स्पष्ट सुनायी देनेवाली) और दूसरी घोषरहित, जो सदा सभी अवस्थाओंमें विद्यमान रहती है। इन दोनोंमें घोषयुक्त वाणीकी अपेक्षा घोषरहित ही श्रेष्ठतम है (क्योंकि घोषयुक्त वाणीको प्राणशक्तिकी अपेक्षा रहती है और घोषरहित उसकी अपेक्षाके बिना भी स्वभावतः उच्चरित होती रहती है)॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौरिव प्रसवत्यर्थान् रसमुत्तमशालिनी ।
सततं स्यन्दते ह्येषा शाश्वतं ब्रह्मवादिनी ॥ २२ ॥
दिव्यादिव्यप्रभावेण भारती गौः शुचिस्मिते।
एतयोरन्तरं पश्य सूक्ष्मयोः स्यन्दमानयोः ॥ २३ ॥
मूलम्
गौरिव प्रसवत्यर्थान् रसमुत्तमशालिनी ।
सततं स्यन्दते ह्येषा शाश्वतं ब्रह्मवादिनी ॥ २२ ॥
दिव्यादिव्यप्रभावेण भारती गौः शुचिस्मिते।
एतयोरन्तरं पश्य सूक्ष्मयोः स्यन्दमानयोः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुचिस्मिते! घोषयुक्त (वैदिक) वाणी भी उत्तम गुणोंसे सुशोभित होती है। वह दूध देनेवाली गायकी भाँति मनुष्योंके लिये सदा उत्तम रस झरती एवं मनोवांछित पदार्थ उत्पन्न करती है और ब्रह्मका प्रतिपादन करनेवाली उपनिषद्वाणी (शाश्वत ब्रह्म)-का बोध करानेवाली है। इस प्रकार वाणीरूपी गौ दिव्य और अदिव्य प्रभावसे युक्त है। दोनों ही सूक्ष्म हैं और अभीष्ट पदार्थका प्रस्रव करने-वाली हैं। इन दोनोंमें क्या अन्तर है, इसको स्वयं देखो॥२२-२३॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुत्पन्नेषु वाक्येषु चोद्यमाना विवक्षया।
किन्नु पूर्वं तदा देवी व्याजहार सरस्वती ॥ २४ ॥
मूलम्
अनुत्पन्नेषु वाक्येषु चोद्यमाना विवक्षया।
किन्नु पूर्वं तदा देवी व्याजहार सरस्वती ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणीने पूछा— नाथ! जब वाक्य उत्पन्न नहीं हुए थे, उस समय कुछ कहनेकी इच्छासे प्रेरित की हुई सरस्वती देवीने पहले क्या कहा था?॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणेन या सम्भवते शरीरे
प्राणादपानं प्रतिपद्यते च ।
उदानभूता च विसृज्य देहं
व्यानेन सर्वं दिवमावृणोति ॥ २५ ॥
ततः समाने प्रतितिष्ठतीह
इत्येव पूर्वं प्रजजल्प वाणी।
तस्मान्मनः स्थावरत्वाद् विशिष्टं
तथा देवी जङ्गमत्वाद् विशिष्टा ॥ २६ ॥
मूलम्
प्राणेन या सम्भवते शरीरे
प्राणादपानं प्रतिपद्यते च ।
उदानभूता च विसृज्य देहं
व्यानेन सर्वं दिवमावृणोति ॥ २५ ॥
ततः समाने प्रतितिष्ठतीह
इत्येव पूर्वं प्रजजल्प वाणी।
तस्मान्मनः स्थावरत्वाद् विशिष्टं
तथा देवी जङ्गमत्वाद् विशिष्टा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— प्रिये! वह वाक् प्राणके द्वारा शरीरमें प्रकट होती है, फिर प्राणसे अपानभावको प्राप्त होती है। तत्पश्चात् उदानस्वरूप होकर शरीरको छोड़कर व्यानरूपसे सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त कर लेती है। तदनन्तर समान वायुमें प्रतिष्ठित होती है। इस प्रकार वाणीने पहले अपनी उत्पत्तिका प्रकार बताया था।[^*] इसलिये स्थावर होनेके कारण मन श्रेष्ठ है और जंगम होनेके कारण वाग्देवी श्रेष्ठ हैं॥२५-२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीतासु एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें ब्राह्मण-गीताविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१॥