भागसूचना
एकोनविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गुरु-शिष्यके संवादमें मोक्षप्राप्तिके उपायका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स्यादेकायने लीनस्तूष्णीं किंचिदचिन्तयन्।
पूर्वं पूर्वं परित्यज्य स तीर्णो बन्धनाद् भवेत् ॥ १ ॥
मूलम्
यः स्यादेकायने लीनस्तूष्णीं किंचिदचिन्तयन्।
पूर्वं पूर्वं परित्यज्य स तीर्णो बन्धनाद् भवेत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिद्ध ब्राह्मणने कहा— काश्यप! जो मनुष्य (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरोंमेंसे क्रमशः) पूर्व-पूर्वका अभिमान त्यागकर कुछ भी चिन्तन नहीं करता और मौनभावसे रहकर सबके एकमात्र अधिष्ठान—परब्रह्म परमात्मामें लीन रहता है, वही संसार-वन्धनसे मुक्त होता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमित्रः सर्वंसहः शमे रक्तो जितेन्द्रियः।
व्यपेतभयमन्युश्च आत्मवान् मुच्यते नरः ॥ २ ॥
मूलम्
सर्वमित्रः सर्वंसहः शमे रक्तो जितेन्द्रियः।
व्यपेतभयमन्युश्च आत्मवान् मुच्यते नरः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सबका मित्र, सब कुछ सहनेवाला, मनोनिग्रहमें तत्पर, जितेन्द्रिय, भय और क्रोधसे रहित तथा आत्मवान् है, वह मनुष्य बन्धनसे मुक्त हो जाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मवत् सर्वभूतेषु यश्चरेन्नियतः शुचिः।
अमानी निरभीमानः सर्वतो मुक्त एव सः ॥ ३ ॥
मूलम्
आत्मवत् सर्वभूतेषु यश्चरेन्नियतः शुचिः।
अमानी निरभीमानः सर्वतो मुक्त एव सः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो नियमपरायण और पवित्र रहकर सब प्राणियोंके प्रति अपने-जैसा बर्ताव करता है, जिसके भीतर सम्मान पानेकी इच्छा नहीं है तथा जो अभिमानसे दूर रहता है, वह सर्वथा मुक्त ही है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवितं मरणं चोभे सुखदुःखे तथैव च।
लाभालाभे प्रियद्वेष्ये यः समः स च मुच्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
जीवितं मरणं चोभे सुखदुःखे तथैव च।
लाभालाभे प्रियद्वेष्ये यः समः स च मुच्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ-हानि तथा प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्वोंको समभावसे देखता है, वह मुक्त हो जाता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कस्यचित् स्पृहयते नावजानाति किंचन।
निर्द्वन्द्वो वीतरागात्मा सर्वथा मुक्त एव सः ॥ ५ ॥
मूलम्
न कस्यचित् स्पृहयते नावजानाति किंचन।
निर्द्वन्द्वो वीतरागात्मा सर्वथा मुक्त एव सः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो किसीके द्रव्यका लोभ नहीं रखता, किसीकी अवहेलना नहीं करता, जिसके मनपर द्वन्द्वोंका प्रभाव नहीं पड़ता और जिसके चित्तकी आसक्ति दूर हो गयी है, वह सर्वथा मुक्त ही है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनमित्रश्च निर्बन्धुरनपत्यश्च यः क्वचित्।
त्यक्तधर्मार्थकामश्च निराकाङ्क्षी च मुच्यते ॥ ६ ॥
मूलम्
अनमित्रश्च निर्बन्धुरनपत्यश्च यः क्वचित्।
त्यक्तधर्मार्थकामश्च निराकाङ्क्षी च मुच्यते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो किसीको अपना मित्र, बन्धु या संतान नहीं मानता, जिसने सकाम धर्म, अर्थ और कामका त्याग कर दिया है तथा जो सब प्रकारकी आकांक्षाओंसे रहित है, वह मुक्त हो जाता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव धर्मी न चाधर्मी पूर्वोपचितहायकः।
धातुक्षयप्रशान्तात्मा निर्द्वन्द्वः स विमुच्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
नैव धर्मी न चाधर्मी पूर्वोपचितहायकः।
धातुक्षयप्रशान्तात्मा निर्द्वन्द्वः स विमुच्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी न धर्ममें आसक्ति है न अधर्ममें, जो पूर्वसंचित कर्मोंको त्याग चुका है, वासनाओंका क्षय हो जानेसे जिसका चित्त शान्त हो गया है तथा जो सब प्रकारके द्वन्द्वोंसे रहित है, वह मुक्त हो जाता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकर्मवान् विकाङ्क्षश्च पश्येज्जगदशाश्वतम् ।
अश्वत्थसदृशं नित्यं जन्ममृत्युजरायुतम् ॥ ८ ॥
वैराग्यबुद्धिः सततमात्मदोषव्यपेक्षकः ।
आत्मबन्धविनिर्मोक्षं स करोत्यचिरादिव ॥ ९ ॥
मूलम्
अकर्मवान् विकाङ्क्षश्च पश्येज्जगदशाश्वतम् ।
अश्वत्थसदृशं नित्यं जन्ममृत्युजरायुतम् ॥ ८ ॥
वैराग्यबुद्धिः सततमात्मदोषव्यपेक्षकः ।
आत्मबन्धविनिर्मोक्षं स करोत्यचिरादिव ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो किसी भी कर्मका कर्ता नहीं बनता, जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जो इस जगत्को अश्वत्थके समान अनित्य—कलतक न टिक सकनेवाला समझता है तथा जो सदा इसे जन्म, मृत्यु और जरासे युक्त जानता है, जिसकी बुद्धि वैराग्यमें लगी रहती है और जो निरन्तर अपने दोषोंपर दृष्टि रखता है, वह शीघ्र ही अपने बन्धनका नाश कर देता है॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगन्धमरसस्पर्शमशब्दमपरिग्रहम् ।
अरूपमनभिज्ञेयं दृष्ट्वाऽऽत्मानं विमुच्यते ॥ १० ॥
मूलम्
अगन्धमरसस्पर्शमशब्दमपरिग्रहम् ।
अरूपमनभिज्ञेयं दृष्ट्वाऽऽत्मानं विमुच्यते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आत्माको गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, परिग्रह, रूपसे रहित तथा अज्ञेय मानता है, वह मुक्त हो जाता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चभूतगुणैर्हीनममूर्तिमदहेतुकम् ।
अगुणं गुणभोक्तारं यः पश्यति स मुच्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
पञ्चभूतगुणैर्हीनममूर्तिमदहेतुकम् ।
अगुणं गुणभोक्तारं यः पश्यति स मुच्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी दृष्टिमें आत्मा पाञ्चभौतिक गुणोंसे हीन, निराकार, कारणरहित तथा निर्गुण होते हुए भी (मायाके सम्बन्धसे) गुणोंका भोक्ता है, वह मुक्त हो जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विहाय सर्वसंकल्पान् बुद्ध्या शारीरमानसान्।
शनैर्निर्वाणमाप्नोति निरिन्धन इवानलः ॥ १२ ॥
मूलम्
विहाय सर्वसंकल्पान् बुद्ध्या शारीरमानसान्।
शनैर्निर्वाणमाप्नोति निरिन्धन इवानलः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बुद्धिसे विचार करके शारीरिक और मानसिक सब संकल्पोंका त्याग कर देता है, वह बिना ईंधनकी आगके समान धीरे-धीरे शान्तिको प्राप्त हो जाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वसंस्कारनिर्मुक्तो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ।
तपसा इन्द्रियग्रामं यश्चरेन्मुक्त एव सः ॥ १३ ॥
मूलम्
सर्वसंस्कारनिर्मुक्तो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ।
तपसा इन्द्रियग्रामं यश्चरेन्मुक्त एव सः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सब प्रकारके संस्कारोंसे रहित, द्वन्द्व और परिग्रहसे रहित हो गया है तथा जो तपस्याके द्वारा इन्द्रिय-समूहको अपने वशमें करके (अनासक्त) भावसे विचरता है, वह मुक्त ही है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुक्तः सर्वसंस्कारैस्ततो ब्रह्म सनातनम्।
परमाप्नोति संशान्तमचलं नित्यमक्षरम् ॥ १४ ॥
मूलम्
विमुक्तः सर्वसंस्कारैस्ततो ब्रह्म सनातनम्।
परमाप्नोति संशान्तमचलं नित्यमक्षरम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सब प्रकारके संस्कारोंसे मुक्त होता है, वह मनुष्य शान्त, अचल, नित्य, अविनाशी एवं सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः परं प्रवक्ष्यामि योगशास्त्रमनुत्तमम्।
युञ्जन्तः सिद्धमात्मानं यथा पश्यन्ति योगिनः ॥ १५ ॥
मूलम्
अतः परं प्रवक्ष्यामि योगशास्त्रमनुत्तमम्।
युञ्जन्तः सिद्धमात्मानं यथा पश्यन्ति योगिनः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं उस परम उत्तम योगशास्त्रका वर्णन करूँगा, जिसके अनुसार योग-साधन करनेवाले योगी पुरुष अपने आत्माका साक्षात्कार कर लेते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्योपदेशं वक्ष्यामि यथावत् तन्निबोध मे।
यैर्द्वारैश्चारयन्नित्यं पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १६ ॥
मूलम्
तस्योपदेशं वक्ष्यामि यथावत् तन्निबोध मे।
यैर्द्वारैश्चारयन्नित्यं पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं उसका यथावत् उपदेश करता हूँ। मनोनिग्रहके जिन उपायोंद्वारा चित्तको इस शरीरके भीतर ही वशीभूत एवं अन्तर्मुख करके योगी अपने नित्य आत्माका दर्शन करता है, उन्हें मुझसे श्रवण करो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि तु संहृत्य मन आत्मनि धारयेत्।
तीव्रं तप्त्वा तपः पूर्वं मोक्षयोगं समाचरेत् ॥ १७ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणि तु संहृत्य मन आत्मनि धारयेत्।
तीव्रं तप्त्वा तपः पूर्वं मोक्षयोगं समाचरेत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे हटाकर मनमें और मनको आत्मामें स्थापित करे। इस प्रकार पहले तीव्र तपस्या करके फिर मोक्षोपयोगी उपायका अवलम्बन करना चाहिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्वी सततं युक्तो योगशास्त्रमथाचरेत्।
मनीषी मनसा विप्रः पश्यन्नात्मानमात्मनि ॥ १८ ॥
मूलम्
तपस्वी सततं युक्तो योगशास्त्रमथाचरेत्।
मनीषी मनसा विप्रः पश्यन्नात्मानमात्मनि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनीषी ब्राह्मणको चाहिये कि वह सदा तपस्यामें प्रवृत्त एवं यत्नशील होकर योगशास्त्रोक्त उपायका अनुष्ठान करे। इससे वह मनके द्वारा अन्तःकरणमें आत्माका साक्षात्कार करता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेच्छक्नोत्ययं साधुर्योक्तुमात्मानमात्मनि ।
तत एकान्तशीलः स पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १९ ॥
मूलम्
स चेच्छक्नोत्ययं साधुर्योक्तुमात्मानमात्मनि ।
तत एकान्तशीलः स पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एकान्तमें रहनेवाला साधक पुरुष यदि अपने मनको आत्मामें लगाये रखनेमें सफल हो जाता है तो वह अवश्य ही अपनेमें आत्माका दर्शन करता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संयतः सततं युक्त आत्मवान् विजितेन्द्रियः।
तथा य आत्मनाऽऽत्मानं सम्प्रयुक्तः प्रपश्यति ॥ २० ॥
मूलम्
संयतः सततं युक्त आत्मवान् विजितेन्द्रियः।
तथा य आत्मनाऽऽत्मानं सम्प्रयुक्तः प्रपश्यति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो साधक सदा संयमपरायण, योगयुक्त, मनको वशमें करनेवाला और जितेन्द्रिय है, वही आत्मासे प्रेरित होकर बुद्धिके द्वारा उसका साक्षात्कार कर सकता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि पुरुषः स्वप्ने दृष्ट्वा पश्यत्यसाविति।
तथा रूपमिवात्मानं साधुयुक्तः प्रपश्यति ॥ २१ ॥
मूलम्
यथा हि पुरुषः स्वप्ने दृष्ट्वा पश्यत्यसाविति।
तथा रूपमिवात्मानं साधुयुक्तः प्रपश्यति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मनुष्य सपनेमें किसी अपरिचित पुरुषको देखकर जब पुनः उसे जाग्रत् अवस्थामें देखता है, तब तुरंत पहचान लेता है कि ‘यह वही है।’ उसी प्रकार साधन-परायण योगी समाधि-अवस्थामें आत्माको जिस रूपमें देखता है, उसी रूपमें उसके बाद भी देखता रहता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इषीकां च यथा मुञ्जात् कश्चिन्निष्कृष्य दर्शयेत्।
योगी निष्कृष्य चात्मानं तथा पश्यति देहतः ॥ २२ ॥
मूलम्
इषीकां च यथा मुञ्जात् कश्चिन्निष्कृष्य दर्शयेत्।
योगी निष्कृष्य चात्मानं तथा पश्यति देहतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई मनुष्य मूँजसे सींकको अलग करके दिखा दे, वैसे ही योगी पुरुष आत्माको इस देहसे पृथक् करके देखता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुञ्जं शरीरमित्याहुरिषीकामात्मनि श्रिताम् ।
एतन्निदर्शनं प्रोक्तं योगविद्भिरनुत्तमम् ॥ २३ ॥
मूलम्
मुञ्जं शरीरमित्याहुरिषीकामात्मनि श्रिताम् ।
एतन्निदर्शनं प्रोक्तं योगविद्भिरनुत्तमम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ शरीरको मूँज कहा गया है और आत्माको सींक। योगवेत्ताओंने देह और आत्माके पार्थक्यको समझनेके लिये यह बहुत उत्तम दृष्टान्त दिया है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा हि युक्तमात्मानं सम्यक् पश्यति देहभृत्।
न तस्येहेश्वरः कश्चित् त्रैलोक्यस्यापि यः प्रभुः ॥ २४ ॥
मूलम्
यदा हि युक्तमात्मानं सम्यक् पश्यति देहभृत्।
न तस्येहेश्वरः कश्चित् त्रैलोक्यस्यापि यः प्रभुः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देहधारी जीव जब योगके द्वारा आत्माका यथार्थ-रूपसे दर्शन कर लेता है, उस समय उसके ऊपर त्रिभुवनके अधीश्वरका भी आधिपत्य नहीं रहता॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यान्याश्चैव तनवो यथेष्टं प्रतिपद्यते।
विनिवृत्य जरां मृत्युं न शोचति न हृष्यति ॥ २५ ॥
मूलम्
अन्यान्याश्चैव तनवो यथेष्टं प्रतिपद्यते।
विनिवृत्य जरां मृत्युं न शोचति न हृष्यति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह योगी अपनी इच्छाके अनुसार विभिन्न प्रकारके शरीर धारण कर सकता है, बुढ़ापा और मृत्युको भी भगा देता है, वह न कभी शोक करता है न हर्ष॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवानामपि देवत्वं युक्तः कारयते वशी।
ब्रह्म चाव्ययमाप्नोति हित्वा देहमशाश्वतम् ॥ २६ ॥
मूलम्
देवानामपि देवत्वं युक्तः कारयते वशी।
ब्रह्म चाव्ययमाप्नोति हित्वा देहमशाश्वतम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला योगी पुरुष देवताओंका भी देवता हो सकता है। वह इस अनित्य शरीरका त्याग करके अविनाशी ब्रह्मको प्राप्त होता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनश्यत्सु च भूतेषु न भयं तस्य जायते।
क्लिश्यमानेषु भूतेषु न स क्लिश्यति केनचित् ॥ २७ ॥
मूलम्
विनश्यत्सु च भूतेषु न भयं तस्य जायते।
क्लिश्यमानेषु भूतेषु न स क्लिश्यति केनचित् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण प्राणियोंका विनाश होनेपर भी उसे भय नहीं होता। सबके क्लेश उठानेपर भी उसको किसीसे क्लेश नहीं पहुँचता॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखशोकमयैर्घोरैः सङ्गस्नेहसमुद्भवैः ।
न विचाल्यति युक्तात्मा निःस्पृहः शान्तमानसः ॥ २८ ॥
मूलम्
दुःखशोकमयैर्घोरैः सङ्गस्नेहसमुद्भवैः ।
न विचाल्यति युक्तात्मा निःस्पृहः शान्तमानसः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शान्ताचित्त एवं निःस्पृह योगी आसक्ति और स्नेहसे प्राप्त होनेवाले भयंकर दुःख-शोक तथा भयसे विचलित नहीं होता॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैनं शस्त्राणि विध्यन्ते न मृत्युश्चास्य विद्यते।
नातः सुखतरं किंचिल्लोके क्वचन दृश्यते ॥ २९ ॥
मूलम्
नैनं शस्त्राणि विध्यन्ते न मृत्युश्चास्य विद्यते।
नातः सुखतरं किंचिल्लोके क्वचन दृश्यते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे शस्त्र नहीं बींध सकते, मृत्यु उसके पास नहीं पहुँच पाती, संसारमें उससे बढ़कर सुखी कहीं कोई नहीं दिखायी देता॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यग्युक्त्वा स आत्मानमात्मन्येव प्रतिष्ठते।
विनिवृत्तजरादुःखः सुखं स्वपिति चापि सः ॥ ३० ॥
मूलम्
सम्यग्युक्त्वा स आत्मानमात्मन्येव प्रतिष्ठते।
विनिवृत्तजरादुःखः सुखं स्वपिति चापि सः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मनको आत्मामें लीन करके उसीमें स्थित हो जाता है तथा बुढ़ापाके दुःखोंसे छुटकारा पाकर सुखसे सोता—अक्षय आनन्दका अनुभव करता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहान्यथेष्टमभ्येति हित्वेमां मानुषीं तनुम्।
निर्वेदस्तु न कर्तव्यो भुञ्जानेन कथंचन ॥ ३१ ॥
मूलम्
देहान्यथेष्टमभ्येति हित्वेमां मानुषीं तनुम्।
निर्वेदस्तु न कर्तव्यो भुञ्जानेन कथंचन ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह इस मानव-शरीरका त्याग करके इच्छानुसार दूसरे बहुत-से शरीर धारण करता है। योगजनित ऐश्वर्यका उपभोग करनेवाले योगीको योगसे किसी तरह विरक्त नहीं होना चाहिये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यग्युक्तो यदाऽऽत्मानमात्मन्येव प्रपश्यति ।
तदैव न स्पृहयते साक्षादपि शतक्रतोः ॥ ३२ ॥
मूलम्
सम्यग्युक्तो यदाऽऽत्मानमात्मन्येव प्रपश्यति ।
तदैव न स्पृहयते साक्षादपि शतक्रतोः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छी तरह योगका अभ्यास करके जब योगी अपनेमें ही आत्माका साक्षात्कार करने लगता है, उस समय वह साक्षात् इन्द्रके पदको भी पानेकी इच्छा नहीं करता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगमेकान्तशीलस्तु यथा विन्दति तच्छृणु।
दृष्टपूर्वां दिशं चिन्त्य यस्मिन् संनिवसेत् पुरे ॥ ३३ ॥
पुरस्याभ्यन्तरे तस्य मनः स्थाप्यं न बाह्यतः।
मूलम्
योगमेकान्तशीलस्तु यथा विन्दति तच्छृणु।
दृष्टपूर्वां दिशं चिन्त्य यस्मिन् संनिवसेत् पुरे ॥ ३३ ॥
पुरस्याभ्यन्तरे तस्य मनः स्थाप्यं न बाह्यतः।
अनुवाद (हिन्दी)
एकान्तमें ध्यान करनेवाले पुरुषको जिस प्रकार योगकी प्राप्ति होती है, वह सुनो—जो उपदेश पहले श्रुतिमें देखा गया है, उसका चिन्तन करके जिस भागमें जीवका निवास माना गया है, उसीमें मनको भी स्थापित करे। उसके बाहर कदापि न जाने दे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरस्याभ्यन्तरे तिष्ठन् यस्मिन्नावसथे वसेत्।
तस्मिन्नावसथे धार्यं सबाह्याभ्यन्तरं मनः ॥ ३४ ॥
मूलम्
पुरस्याभ्यन्तरे तिष्ठन् यस्मिन्नावसथे वसेत्।
तस्मिन्नावसथे धार्यं सबाह्याभ्यन्तरं मनः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीरके भीतर रहते हुए वह आत्मा जिस आश्रयमें स्थित होता है, उसीमें बाह्य और आभ्यन्तर विषयोंसहित मनको धारण करे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रचिन्त्यावसथे कृत्स्नं यस्मिन् काले स पश्यति।
तस्मिन् काले मनश्चास्य न च किंचन बाह्यतः ॥ ३५ ॥
मूलम्
प्रचिन्त्यावसथे कृत्स्नं यस्मिन् काले स पश्यति।
तस्मिन् काले मनश्चास्य न च किंचन बाह्यतः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूलाधार आदि किसी आश्रयमें चिन्तन करके जब वह सर्वस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार करता है, उस समय उसका मन प्रत्यक्स्वरूप आत्मासे भिन्न कोई ‘बाह्य’ वस्तु नहीं रह जाता॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संनियम्येन्द्रियग्रामं निर्घोषं निर्जने वने।
कायमभ्यन्तरं कृत्स्नमेकाग्रः परिचिन्तयेत् ॥ ३६ ॥
मूलम्
संनियम्येन्द्रियग्रामं निर्घोषं निर्जने वने।
कायमभ्यन्तरं कृत्स्नमेकाग्रः परिचिन्तयेत् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्जन वनमें इन्द्रिय-समुदायको वशमें करके एकाग्रचित्त हो शब्दशून्य अपने शरीरके बाहर और भीतर प्रत्येक अंगमें परिपूर्ण परब्रह्म परमात्माका चिन्तन करे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दन्तांस्तालु च जिह्वां च गलं ग्रीवां तथैव च।
हृदयं चिन्तयेच्चापि तथा हृदयबन्धनम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
दन्तांस्तालु च जिह्वां च गलं ग्रीवां तथैव च।
हृदयं चिन्तयेच्चापि तथा हृदयबन्धनम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दन्त, तालु, जिह्वा, गला, ग्रीवा, हृदय तथा हृदय-बन्धन (नाड़ीमार्ग)-को भी परमात्मरूपसे चिन्तन करे॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स मया शिष्यो मेधावी मधुसूदन।
पप्रच्छ पुनरेवेमं मोक्षधर्मं सुदुर्वचम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स मया शिष्यो मेधावी मधुसूदन।
पप्रच्छ पुनरेवेमं मोक्षधर्मं सुदुर्वचम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधुसूदन! मेरे ऐसा कहनेपर उस मेधावी शिष्यने पुनः जिसका निरूपण करना अत्यन्त कठिन है, उस मोक्षधर्मके विषयमें पूछा—॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुक्तं भुक्तमिदं कोष्ठे कथमन्नं विपच्यते।
कथं रसत्वं व्रजति शोणितत्वं कथं पुनः ॥ ३९ ॥
मूलम्
भुक्तं भुक्तमिदं कोष्ठे कथमन्नं विपच्यते।
कथं रसत्वं व्रजति शोणितत्वं कथं पुनः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह बारंबार खाया हुआ अन्न उदरमें पहुँचकर कैसे पचता है? किस तरह उसका रस बनता है और किस प्रकार वह रक्तके रूपमें परिणत हो जाता है?॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा मांसं च मेदश्च स्नाय्वस्थीनि च योषिति।
कथमेतानि सर्वाणि शरीराणि शरीरिणाम् ॥ ४० ॥
वर्धते वर्धमानस्य वर्धते च कथं बलम्।
निरोधानां निर्गमनं मलानां च पृथक् पृथक् ॥ ४१ ॥
मूलम्
तथा मांसं च मेदश्च स्नाय्वस्थीनि च योषिति।
कथमेतानि सर्वाणि शरीराणि शरीरिणाम् ॥ ४० ॥
वर्धते वर्धमानस्य वर्धते च कथं बलम्।
निरोधानां निर्गमनं मलानां च पृथक् पृथक् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्त्री-शरीरमें मांस, मेदा, स्नायु और हड्डियाँ कैसे होती हैं? देहधारियोंके ये समस्त शरीर कैसे बढ़ते हैं? बढ़ते हुए शरीरका बल कैसे बढ़ता है? जिनका सब ओरसे अवरोध है, उन मलोंका पृथक्-पृथक् निःसारण कैसे होता है?॥४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतो वायं प्रश्वसिति उच्छ्वसित्यपि वा पुनः।
कं च देशमधिष्ठाय तिष्ठत्यात्मायमात्मनि ॥ ४२ ॥
मूलम्
कुतो वायं प्रश्वसिति उच्छ्वसित्यपि वा पुनः।
कं च देशमधिष्ठाय तिष्ठत्यात्मायमात्मनि ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह जीव कैसे साँस लेता, कैसे उच्छ्वास खींचता और किस स्थानमें रहकर इस शरीरमें सदा विद्यमान रहता है?॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवः कथं वहति च चेष्टमानः कलेवरम्।
किं वर्णं कीदृशं चैव निवेशयति वै पुनः ॥ ४३ ॥
याथातथ्येन भगवन् वक्तुमर्हसि मेऽनघ।
मूलम्
जीवः कथं वहति च चेष्टमानः कलेवरम्।
किं वर्णं कीदृशं चैव निवेशयति वै पुनः ॥ ४३ ॥
याथातथ्येन भगवन् वक्तुमर्हसि मेऽनघ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘चेष्टाशील जीवात्मा इस शरीरका भार कैसे वहन करता है? फिर कैसे और किस रंगके शरीरको धारण करता है। निष्पाप भगवन्! यह सब मुझे यथार्थरूपसे बताइये’॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सम्परिपृष्टोऽहं तेन विप्रेण माधव ॥ ४४ ॥
प्रत्यब्रुवं महाबाहो यथाश्रुतमरिंदम ।
मूलम्
इति सम्परिपृष्टोऽहं तेन विप्रेण माधव ॥ ४४ ॥
प्रत्यब्रुवं महाबाहो यथाश्रुतमरिंदम ।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन महाबाहु माधव! उस ब्राह्मणके इस प्रकार पूछनेपर मैंने जैसा सुना था वैसा ही उसे बताया॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा स्वकोष्ठे प्रक्षिप्य भाण्डं भाण्डमना भवेत् ॥ ४५ ॥
तथा स्वकाये प्रक्षिप्य मनो द्वारैरनिश्चलैः।
आत्मानं तत्र मार्गेत प्रमादं परिवर्जयेत् ॥ ४६ ॥
मूलम्
यथा स्वकोष्ठे प्रक्षिप्य भाण्डं भाण्डमना भवेत् ॥ ४५ ॥
तथा स्वकाये प्रक्षिप्य मनो द्वारैरनिश्चलैः।
आत्मानं तत्र मार्गेत प्रमादं परिवर्जयेत् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे घरका सामान अपने कोटेमें डालकर भी मनुष्य उन्हींके चिन्तनमें मन लगाये रहता है, उसी प्रकार इन्द्रियरूपी चंचल द्वारोंसे विचरनेवाले मनको अपनी कायामें ही स्थापित करके वहीं आत्माका अनुसंधान करे और प्रमादको त्याग दे॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सततमुद्युक्तः प्रीतात्मा नचिरादिव।
आसादयति तद् ब्रह्म यद् दृष्ट्वा स्यात् प्रधानवित् ॥ ४७ ॥
मूलम्
एवं सततमुद्युक्तः प्रीतात्मा नचिरादिव।
आसादयति तद् ब्रह्म यद् दृष्ट्वा स्यात् प्रधानवित् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सदा ध्यानके लिये प्रयत्न करनेवाले पुरुषका चित्त शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता है और वह उस परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है, जिसका साक्षात्कार करके मनुष्य प्रकृति एवं उसके विकारोंको स्वतः जान लेता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वसौ चक्षुषा ग्राह्यो न च सर्वैरपीन्द्रियैः।
मनसैव प्रदीपेन महानात्मा प्रदृश्यते ॥ ४८ ॥
मूलम्
न त्वसौ चक्षुषा ग्राह्यो न च सर्वैरपीन्द्रियैः।
मनसैव प्रदीपेन महानात्मा प्रदृश्यते ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस परमात्माका इन चर्म-चक्षुओंसे दर्शन नहीं हो सकता, सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे भी उसको ग्रहण नहीं किया जा सकता; केवल बुद्धिरूपी दीपककी सहायतासे ही उस महान् आत्माका दर्शन होता है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वतःपाणिपादान्तः सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः ।
सर्वतः श्रुतिमाल्ँलोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ ४९ ॥
मूलम्
सर्वतःपाणिपादान्तः सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः ।
सर्वतः श्रुतिमाल्ँलोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर कानवाला है; क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवो निष्क्रान्तमात्मानं शरीरात् सम्प्रपश्यति।
स तमुत्सृज्य देहे स्वं धारयन् ब्रह्म केवलम् ॥ ५० ॥
आत्मानमालोकयति मनसा प्रहसन्निव ।
तदेवमाश्रयं कृत्वा मोक्षं याति ततो मयि ॥ ५१ ॥
मूलम्
जीवो निष्क्रान्तमात्मानं शरीरात् सम्प्रपश्यति।
स तमुत्सृज्य देहे स्वं धारयन् ब्रह्म केवलम् ॥ ५० ॥
आत्मानमालोकयति मनसा प्रहसन्निव ।
तदेवमाश्रयं कृत्वा मोक्षं याति ततो मयि ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्त्वज्ञ जीव अपने-आपको शरीरसे पृथक् देखता है। वह शरीरके भीतर रहकर भी उसका त्याग करे—उसकी पृथक्ताका अनुभव करके अपने स्वरूपभूत केवल परब्रह्म परमात्माका चिन्तन करता हुआ बुद्धिके सहयोगसे आत्माका साक्षात्कार करता है। उस समय वह यह सोचकर हँसता-सा रहता है कि अहो! मृगतृष्णामें प्रतीत होनेवाले जलकी भाँति मुझमें ही प्रतीत होनेवाले इस संसारने मुझे अबतक व्यर्थ ही भ्रममें डाल रखा था। जो इस प्रकार परमात्माका दर्शन करता है, वह उसीका आश्रय लेकर अन्तमें मुझमें ही मुक्त हो जाता है (अर्थात् अपने-आपमें ही परमात्माका अनुभव करने लगता है)॥५०-५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं सर्वरहस्यं ते मया प्रोक्तं द्विजोत्तम।
आपृच्छे साधयिष्यामि गच्छ विप्र यथासुखम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
इदं सर्वरहस्यं ते मया प्रोक्तं द्विजोत्तम।
आपृच्छे साधयिष्यामि गच्छ विप्र यथासुखम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। अब मैं जानेकी अनुमति चाहता हूँ। विप्रवर! तुम भी सुखपूर्वक अपने स्थानको लौट जाओ॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स तदा कृष्ण मया शिष्यो महातपाः।
अगच्छत यथाकामं ब्राह्मणः संशितव्रतः ॥ ५३ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स तदा कृष्ण मया शिष्यो महातपाः।
अगच्छत यथाकामं ब्राह्मणः संशितव्रतः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! मेरे इस प्रकार कहनेपर वह कठोर व्रतका पालन करनेवाला मेरा महातपस्वी शिष्य ब्राह्मण काश्यप इच्छानुसार अपने अभीष्ट स्थानको चला गया॥५३॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा स तदा वाक्यं मां पार्थ द्विजसत्तमः।
मोक्षधर्माश्रितः सम्यक् तत्रैवान्तरधीयत ॥ ५४ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा स तदा वाक्यं मां पार्थ द्विजसत्तमः।
मोक्षधर्माश्रितः सम्यक् तत्रैवान्तरधीयत ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— अर्जुन! मोक्षधर्मका आश्रय लेनेवाले वे सिद्धमहात्मा श्रेष्ठ ब्राह्मण मुझसे यह प्रसंग सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिदेतत् त्वया पार्थ श्रुतमेकाग्रचेतसा।
तदापि हि रथस्थस्त्वं श्रुतवानेतदेव हि ॥ ५५ ॥
मूलम्
कच्चिदेतत् त्वया पार्थ श्रुतमेकाग्रचेतसा।
तदापि हि रथस्थस्त्वं श्रुतवानेतदेव हि ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! क्या तुमने मेरे बताये हुए इस उपदेशको एकाग्रचित्त होकर सुना है? उस युद्धके समय भी तुमने रथपर बैठे-बैठे इसी तत्त्वको सुना था॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतत् पार्थ सुविज्ञेयं व्यामिश्रेणेति मे मतिः।
नरेणाकृतसंज्ञेन विशुद्धेनान्तरात्मना ॥ ५६ ॥
मूलम्
नैतत् पार्थ सुविज्ञेयं व्यामिश्रेणेति मे मतिः।
नरेणाकृतसंज्ञेन विशुद्धेनान्तरात्मना ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि जिसका चित्त व्यग्र है, जिसे ज्ञानका उपदेश नहीं प्राप्त है, वह मनुष्य इस विषयको सुगमतापूर्वक नहीं समझ सकता। जिसका अन्तःकरण शुद्ध है, वही इसे जान सकता है॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरहस्यमिदं प्रोक्तं देवानां भरतर्षभ।
कच्चिन्नेदं श्रुतं पार्थ मनुष्येणेह कर्हिचित् ॥ ५७ ॥
मूलम्
सुरहस्यमिदं प्रोक्तं देवानां भरतर्षभ।
कच्चिन्नेदं श्रुतं पार्थ मनुष्येणेह कर्हिचित् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! यह मैंने देवताओंका परम गोपनीय रहस्य बताया है। पार्थ! इस जगत्में कभी किसी भी मनुष्यने इस रहस्यका श्रवण नहीं किया है॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्येतच्छ्रोतुमर्होऽन्यो मनुष्यस्त्वामृतेऽनघ ।
नैतदद्य सुविज्ञेयं व्यामिश्रेणान्तरात्मना ॥ ५८ ॥
मूलम्
न ह्येतच्छ्रोतुमर्होऽन्यो मनुष्यस्त्वामृतेऽनघ ।
नैतदद्य सुविज्ञेयं व्यामिश्रेणान्तरात्मना ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघ! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मनुष्य इसे सुननेका अधिकारी भी नहीं है। जिसका चित्त दुविधेमें पड़ा हुआ है, वह इस समय इसे अच्छी तरह नहीं समझ सकता॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियावद्भिर्हि कौन्तेय देवलोकः समावृतः।
न चैतदिष्टं देवानां मर्त्यरूपनिवर्तनम् ॥ ५९ ॥
मूलम्
क्रियावद्भिर्हि कौन्तेय देवलोकः समावृतः।
न चैतदिष्टं देवानां मर्त्यरूपनिवर्तनम् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार! क्रियावान् पुरुषोंसे देवलोक भरा पड़ा है। देवताओंको यह अभीष्ट नहीं है कि मनुष्यके मर्त्यरूपकी निवृत्ति हो॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परा हि सा गतिः पार्थ यत् तद् ब्रह्म सनातनम्।
यत्रामृतत्वं प्राप्नोति त्यक्त्वा देहं सदा सुखी ॥ ६० ॥
मूलम्
परा हि सा गतिः पार्थ यत् तद् ब्रह्म सनातनम्।
यत्रामृतत्वं प्राप्नोति त्यक्त्वा देहं सदा सुखी ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! जो सनातन ब्रह्म है, वही जीवकी परम-गति है। ज्ञानी मनुष्य देहको त्यागकर उस ब्रह्ममें ही अमृतत्त्वको प्राप्त होता है और सदाके लिये सुखी हो जाता है॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमं धर्मं समास्थाय येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
इमं धर्मं समास्थाय येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस आत्मदर्शनरूप धर्मका आश्रय लेकर स्त्री, वैश्य और शूद्र तथा जो पापयोनिके मनुष्य हैं, वे भी परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं पुनर्ब्राह्मणाः पार्थ क्षत्रिया वा बहुश्रुताः।
स्वधर्मरतयो नित्यं ब्रह्मलोकपरायणाः ॥ ६२ ॥
मूलम्
किं पुनर्ब्राह्मणाः पार्थ क्षत्रिया वा बहुश्रुताः।
स्वधर्मरतयो नित्यं ब्रह्मलोकपरायणाः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! फिर जो अपने धर्ममें प्रेम रखते और सदा ब्रह्मलोककी प्राप्तिके साधनमें लगे रहते हैं, उन बहुश्रुत ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी तो बात ही क्या है॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हेतुमच्चैतदुद्दिष्टमुपायाश्चास्य साधने ।
सिद्धिं फलं च मोक्षश्च दुःखस्य च विनिर्णयः ॥ ६३ ॥
मूलम्
हेतुमच्चैतदुद्दिष्टमुपायाश्चास्य साधने ।
सिद्धिं फलं च मोक्षश्च दुःखस्य च विनिर्णयः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मैंने तुम्हें मोक्षधर्मका युक्तियुक्त उपदेश किया है। उसके साधनके उपाय भी बतलाये हैं और सिद्धि, फल, मोक्ष तथा दुःखके स्वरूपका भी निर्णय किया है॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातः परं सुखं त्वन्यत् किंचित् स्याद् भरतर्षभ।
बुद्धिमान् श्रद्दधानश्च पराक्रान्तश्च पाण्डव ॥ ६४ ॥
यः परित्यज्यते मर्त्यो लोकसारमसारवत्।
एतैरुपायैः स क्षिप्रं परां गतिमवाप्नुते ॥ ६५ ॥
मूलम्
नातः परं सुखं त्वन्यत् किंचित् स्याद् भरतर्षभ।
बुद्धिमान् श्रद्दधानश्च पराक्रान्तश्च पाण्डव ॥ ६४ ॥
यः परित्यज्यते मर्त्यो लोकसारमसारवत्।
एतैरुपायैः स क्षिप्रं परां गतिमवाप्नुते ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इससे बढ़कर दूसरा कोई सुखदायक धर्म नहीं है। पाण्डुनन्दन! जो कोई बुद्धिमान्, श्रद्धालु और पराक्रमी मनुष्य लौकिक सुखको सारहीन समझकर उसे त्याग देता है, वह उपर्युक्त इन उपायोंके द्वारा बहुत शीघ्र परम गतिको प्राप्त कर लेता है॥६४-६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदेव वक्तव्यं नातो भूयोऽस्ति किंचन।
षण्मासान् नित्ययुक्तस्य योगः पार्थ प्रवर्तते ॥ ६६ ॥
मूलम्
एतावदेव वक्तव्यं नातो भूयोऽस्ति किंचन।
षण्मासान् नित्ययुक्तस्य योगः पार्थ प्रवर्तते ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! इतना ही कहनेयोग्य विषय है। इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है। जो छः महीनेतक निरन्तर योगका अभ्यास करता है, उसका योग अवश्य सिद्ध हो जाता है॥६६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९॥