०१८

भागसूचना

अष्टादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जीवके गर्भ-प्रवेश, आचार-धर्म, कर्म-फलकी अनिवार्यता तथा संसारसे तरनेके उपायका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभानामशुभानां च नेह नाशोऽस्ति कर्मणाम्।
प्राप्य प्राप्यानुपच्यन्ते क्षेत्रं क्षेत्रं तथा तथा ॥ १ ॥

मूलम्

शुभानामशुभानां च नेह नाशोऽस्ति कर्मणाम्।
प्राप्य प्राप्यानुपच्यन्ते क्षेत्रं क्षेत्रं तथा तथा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिद्ध ब्राह्मण बोले— काश्यप! इस लोकमें किये हुए शुभ और अशुभ कर्मोंका फल भोगे बिना नाश नहीं होता। वे कर्म वैसा-वैसा कर्मानुसार एकके बाद एक शरीर धारण कराकर अपना फल देते रहते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा प्रसूयमानस्तु फली दद्यात् फलं बहु।
तथा स्याद् विपुलं पुण्यं शुद्धेन मनसा कृतम् ॥ २ ॥

मूलम्

यथा प्रसूयमानस्तु फली दद्यात् फलं बहु।
तथा स्याद् विपुलं पुण्यं शुद्धेन मनसा कृतम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे फल देनेवाला वृक्ष फलनेका समय आनेपर बहुत-से फल प्रदान करता है, उसी प्रकार शुद्ध हृदयसे किये हुए पुण्यका फल अधिक होता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापं चापि तथैव स्यात् पापेन मनसा कृतम्।
पुरोधाय मनो हीदं कर्मण्यात्मा प्रवर्तते ॥ ३ ॥

मूलम्

पापं चापि तथैव स्यात् पापेन मनसा कृतम्।
पुरोधाय मनो हीदं कर्मण्यात्मा प्रवर्तते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह कलुषित चित्तसे किये हुए पापके फलमें भी वृद्धि होती है; क्योंकि जीवात्मा मनको आगे करके ही प्रत्येक कार्यमें प्रवृत्त होता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा कर्मसमाविष्टः काममन्युसमावृतः ।
नरो गर्भं प्रविशति तच्चापि शृणु चोत्तरम् ॥ ४ ॥

मूलम्

यथा कर्मसमाविष्टः काममन्युसमावृतः ।
नरो गर्भं प्रविशति तच्चापि शृणु चोत्तरम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काम-क्रोधसे घिरा हुआ मनुष्य जिस प्रकार कर्मजालमें आबद्ध होकर गर्भमें प्रवेश करता है, उसका भी उत्तर सुनो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्रं शोणितसंसृष्टं स्त्रिया गर्भाशयं गतम्।
क्षेत्रं कर्मजमाप्नोति शुभं वा यदि वाशुभम् ॥ ५ ॥

मूलम्

शुक्रं शोणितसंसृष्टं स्त्रिया गर्भाशयं गतम्।
क्षेत्रं कर्मजमाप्नोति शुभं वा यदि वाशुभम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीव पहले पुरुषके वीर्यमें प्रविष्ट होता है, फिर स्त्रीके गर्भाशयमें जाकर उसके रजमें मिल जाता है। तत्पश्चात् उसे कर्मानुसार शुभ या अशुभ शरीरकी प्राप्ति होती है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौक्ष्म्यादव्यक्तभावाच्च न च क्वचन सज्जति।
सम्प्राप्य ब्राह्मणः कामं तस्मात्‌ तद् ब्रह्म शाश्वतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

सौक्ष्म्यादव्यक्तभावाच्च न च क्वचन सज्जति।
सम्प्राप्य ब्राह्मणः कामं तस्मात्‌ तद् ब्रह्म शाश्वतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीव अपनी इच्छाके अनुसार उस शरीरमें प्रवेश करके सूक्ष्म और अव्यक्त होनेके कारण कहीं आसक्त नहीं होता है; क्योंकि वास्तवमें वह सनातन परब्रह्म-स्वरूप है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् बीजं सर्वभूतानां तेन जीवन्ति जन्तवः।
स जीवः सर्वगात्राणि गर्भस्याविश्य भागशः ॥ ७ ॥
दधाति चेतसा सद्यः प्राणस्थानेष्ववस्थितः।
ततः स्पन्दयतेऽङ्गानि स गर्भश्चेतनान्वितः ॥ ८ ॥

मूलम्

तद् बीजं सर्वभूतानां तेन जीवन्ति जन्तवः।
स जीवः सर्वगात्राणि गर्भस्याविश्य भागशः ॥ ७ ॥
दधाति चेतसा सद्यः प्राणस्थानेष्ववस्थितः।
ततः स्पन्दयतेऽङ्गानि स गर्भश्चेतनान्वितः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह जीवात्मा सम्पूर्ण भूतोंकी स्थितिका हेतु है, क्योंकि उसीके द्वारा सब प्राणी जीवित रहते हैं। वह जीव गर्भके समस्त अंगमें प्रविष्ट हो उसके प्रत्येक अंशमें तत्काल चेतनता ला देता है और वही प्राणोंके स्थान—वक्षःस्थलमें स्थित हो समस्त अंगोंका संचालन करता है। तभी वह गर्भ चेतनासे सम्पन्न होता है॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा लोहस्य निःस्यन्दो निषिक्तो बिम्बविग्रहम्।
उपैति तद् विजानीहि गर्भे जीवप्रवेशनम् ॥ ९ ॥

मूलम्

यथा लोहस्य निःस्यन्दो निषिक्तो बिम्बविग्रहम्।
उपैति तद् विजानीहि गर्भे जीवप्रवेशनम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे तपाये हुए लोहेका द्रव जैसे साँचेमें ढाला जाता है उसीका रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार गर्भमें जीवका प्रवेश होता है, ऐसा समझो (अर्थात् जीव जिस प्रकारकी योनिमें प्रविष्ट होता है, उसी रूपमें उसका शरीर बन जाता है)॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोहपिण्डं यथा वह्निः प्रविश्य ह्यतितापयेत्।
तथा त्वमपि जानीहि गर्भे जीवोपपादनम् ॥ १० ॥

मूलम्

लोहपिण्डं यथा वह्निः प्रविश्य ह्यतितापयेत्।
तथा त्वमपि जानीहि गर्भे जीवोपपादनम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आग लोहपिण्डमें प्रविष्ट होकर उसे बहुत तपा देती है, उसी प्रकार गर्भमें जीवका प्रवेश होता है और वह उसमें चेतनता ला देता है। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा च दीपः शरणे दीप्यमानः प्रकाशते।
एवमेव शरीराणि प्रकाशयति चेतना ॥ ११ ॥

मूलम्

यथा च दीपः शरणे दीप्यमानः प्रकाशते।
एवमेव शरीराणि प्रकाशयति चेतना ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार जलता हुआ दीपक समूचे घरमें प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार जीवकी चैतन्य शक्ति शरीरके सब अवयवोंको प्रकाशित करती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यच्च कुरुते कर्म शुभं वा यदि वाशुभम्।
पूर्वदेहकृतं सर्वमवश्यमुपभुज्यते ॥ १२ ॥

मूलम्

यद् यच्च कुरुते कर्म शुभं वा यदि वाशुभम्।
पूर्वदेहकृतं सर्वमवश्यमुपभुज्यते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य शुभ अथवा अशुभ जो-जो कर्म करता है, पूर्व-जन्मके शरीरसे किये गये उन सब कर्मोंका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु क्षीयते चैव पुनश्चान्यत् प्रचीयते।
यावत् तन्मोक्षयोगस्थं धर्मं नैवावबुध्यते ॥ १३ ॥

मूलम्

ततस्तु क्षीयते चैव पुनश्चान्यत् प्रचीयते।
यावत् तन्मोक्षयोगस्थं धर्मं नैवावबुध्यते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उपभोगसे प्राचीन कर्मका तो क्षय होता है और फिर दूसरे नये-नये कर्मोंका संचय बढ़ जाता है। जबतक मोक्षकी प्राप्तिमें सहायक धर्मका उसे ज्ञान नहीं होता, तबतक यह कर्मोंकी परम्परा नहीं टूटती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र कर्म प्रवक्ष्यामि सुखी भवति येन वै।
आवर्तमानो जातीषु यथान्योन्यासु सत्तम ॥ १४ ॥

मूलम्

तत्र कर्म प्रवक्ष्यामि सुखी भवति येन वै।
आवर्तमानो जातीषु यथान्योन्यासु सत्तम ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधुशिरोमणे! इस प्रकार भिन्न-भिन्न योनियोंमें भ्रमण करनेवाला जीव जिनके अनुष्ठानसे सुखी होता है, उन कर्मोंका वर्णन सुनो॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानं व्रतं ब्रह्मचर्यं यथोक्तं ब्रह्मधारणम्।
दमः प्रशान्तता चैव भूतानां चानुकम्पनम् ॥ १५ ॥
संयमाश्चानृशंस्यं च परस्वादानवर्जनम्
व्यलीकानामकरणं भूतानां मनसा भुवि ॥ १६ ॥
मातापित्रोश्च शुश्रूषा देवतातिथिपूजनम् ।
गुरुपूजा घृणा शौचं नित्यमिन्द्रियसंयमः ॥ १७ ॥
प्रवर्तनं शुभानां च तत् सतां वृत्तमुच्यते।
ततो धर्मः प्रभवति यः प्रजाः पाति शाश्वतीः ॥ १८ ॥

मूलम्

दानं व्रतं ब्रह्मचर्यं यथोक्तं ब्रह्मधारणम्।
दमः प्रशान्तता चैव भूतानां चानुकम्पनम् ॥ १५ ॥
संयमाश्चानृशंस्यं च परस्वादानवर्जनम्
व्यलीकानामकरणं भूतानां मनसा भुवि ॥ १६ ॥
मातापित्रोश्च शुश्रूषा देवतातिथिपूजनम् ।
गुरुपूजा घृणा शौचं नित्यमिन्द्रियसंयमः ॥ १७ ॥
प्रवर्तनं शुभानां च तत् सतां वृत्तमुच्यते।
ततो धर्मः प्रभवति यः प्रजाः पाति शाश्वतीः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दान, व्रत, ब्रह्मचर्य, शास्त्रोक्त रीतिसे वेदाध्ययन, इन्द्रियनिग्रह, शान्ति, समस्त प्राणियोंपर दया, चित्तका संयम, कोमलता, दूसरोंके धन लेनेकी इच्छाका त्याग, संसारके प्राणियोंका मनसे भी अहित न करना, माता-पिताकी सेवा, देवता, अतिथि और गुरुओंकी पूजा, दया, पवित्रता, इन्द्रियोंको सदा काबूमें रखना तथा शुभ कर्मोंका प्रचार करना—यह सब श्रेष्ठ पुरुषोंका बर्ताव कहलाता है। इनके अनुष्ठानसे धर्म होता है, जो सदा प्रजावर्गकी रक्षा करता है॥१५—१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सत्सु सदा पश्येत् तत्राप्येषा ध्रुवा स्थितिः।
आचारो धर्ममाचष्टे यस्मिन् शान्ता व्यवस्थिताः ॥ १९ ॥

मूलम्

एवं सत्सु सदा पश्येत् तत्राप्येषा ध्रुवा स्थितिः।
आचारो धर्ममाचष्टे यस्मिन् शान्ता व्यवस्थिताः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्पुरुषोंमें सदा ही इस प्रकारका धार्मिक आचरण देखा जाता है। उन्हींमें धर्मकी अटल स्थिति होती है। सदाचार ही धर्मका परिचय देता है। शान्तचित्त महात्मा पुरुष सदाचारमें ही स्थित रहते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषु तत् कर्म निक्षिप्तं यः स धर्मः सनातनः।
यस्तं समभिपद्येत न स दुर्गतिमाप्नुयात् ॥ २० ॥

मूलम्

तेषु तत् कर्म निक्षिप्तं यः स धर्मः सनातनः।
यस्तं समभिपद्येत न स दुर्गतिमाप्नुयात् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हींमें पूर्वोक्त दान आदि कर्मोंकी स्थिति है। वे ही कर्म सनातन धर्मके नामसे प्रसिद्ध हैं। जो उस सनातन धर्मका आश्रय लेता है, उसे कभी दुर्गति नहीं भोगनी पड़ती है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो नियम्यते लोकः प्रच्यवन् धर्मवर्त्मसु।
यश्च योगी च मुक्तश्च स एतेभ्यो विशिष्यते ॥ २१ ॥

मूलम्

अतो नियम्यते लोकः प्रच्यवन् धर्मवर्त्मसु।
यश्च योगी च मुक्तश्च स एतेभ्यो विशिष्यते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीलिये धर्ममार्गसे भ्रष्ट होनेवाले लोगोंका नियन्त्रण किया जाता है। जो योगी और मुक्त है, वह अन्य धर्मात्माओंकी अपेक्षा श्रेष्ठ होता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्तमानस्य धर्मेण शुभं यत्र यथा तथा।
संसारतारणं ह्यस्य कालेन महता भवेत् ॥ २२ ॥

मूलम्

वर्तमानस्य धर्मेण शुभं यत्र यथा तथा।
संसारतारणं ह्यस्य कालेन महता भवेत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धर्मके अनुसार बर्ताव करता है, वह जहाँ जिस अवस्थामें हो, वहाँ उसी स्थितिमें उसको अपने कर्मानुसार उत्तम फलकी प्राप्ति होती है और वह धीरे-धीरे अधिक काल बीतनेपर संसार-सागरसे तर जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पूर्वकृतं कर्म नित्यं जन्तुः प्रपद्यते।
सर्वं तत्कारणं येन विकृतोऽयमिहागतः ॥ २३ ॥

मूलम्

एवं पूर्वकृतं कर्म नित्यं जन्तुः प्रपद्यते।
सर्वं तत्कारणं येन विकृतोऽयमिहागतः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जीव सदा अपने पूर्वजन्मोंमें किये हुए कर्मोंका फल भोगता है। यह आत्मा निर्विकार ब्रह्म होनेपर भी विकृत होकर इस जगत्‌में जो जन्म धारण करता है, उसमें कर्म ही कारण है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरग्रहणं चास्य केन पूर्वं प्रकल्पितम्।
इत्येवं संशयो लोके तच्च वक्ष्याम्यतः परम् ॥ २४ ॥

मूलम्

शरीरग्रहणं चास्य केन पूर्वं प्रकल्पितम्।
इत्येवं संशयो लोके तच्च वक्ष्याम्यतः परम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आत्माके शरीर धारण करनेकी प्रथा सबसे पहले किसने चलायी है, इस प्रकारका संदेह प्रायः लोगोंके मनमें उठा करता है, अतः उसीका उत्तर दे रहा हूँ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरमात्मनः कृत्वा सर्वलोकपितामहः ।
त्रैलोक्यमसृजद् ब्रह्मा कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम् ॥ २५ ॥

मूलम्

शरीरमात्मनः कृत्वा सर्वलोकपितामहः ।
त्रैलोक्यमसृजद् ब्रह्मा कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण जगत्‌के पितामह ब्रह्माजीने सबसे पहले स्वयं ही शरीर धारण करके स्थावर-जंगमरूप समस्त त्रिलोकीकी (कर्मानुसार) रचना की॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रधानमसृजत् प्रकृतिं स शरीरिणाम्।
यया सर्वमिदं व्याप्तं यां लोके परमां विदुः ॥ २६ ॥

मूलम्

ततः प्रधानमसृजत् प्रकृतिं स शरीरिणाम्।
यया सर्वमिदं व्याप्तं यां लोके परमां विदुः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने प्रधान नामक तत्त्वकी उत्पत्ति की, जो देहधारी जीवोंकी प्रकृति कहलाती है। जिसने इस सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त कर रखा है तथा लोकमें जिसे मूल प्रकृतिके नामसे जानते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तत्क्षरमित्युक्तं परं त्वमृतमक्षरम्।
त्रयाणां मिथुनं सर्वमेकैकस्य पृथक् पृथक् ॥ २७ ॥

मूलम्

इदं तत्क्षरमित्युक्तं परं त्वमृतमक्षरम्।
त्रयाणां मिथुनं सर्वमेकैकस्य पृथक् पृथक् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह प्राकृत जगत् क्षर कहलाता है, इससे भिन्न अविनाशी जीवात्माको अक्षर कहते हैं। (इनसे विलक्षण शुद्ध परब्रह्म हैं)—इन तीनोंमेंसे जो दो तत्त्व—क्षर और अक्षर हैं, वे सब प्रत्येक जीवके लिये पृथक्-पृथक् होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असृजत् सर्वभूतानि पूर्वदृष्टः प्रजापतिः।
स्थावराणि च भूतानि इत्येषा पौर्विकी श्रुतिः ॥ २८ ॥

मूलम्

असृजत् सर्वभूतानि पूर्वदृष्टः प्रजापतिः।
स्थावराणि च भूतानि इत्येषा पौर्विकी श्रुतिः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रुतिमें जो सृष्टिके आरम्भमें सत्‌रूपसे निर्दिष्ट हुए हैं, उन प्रजापतिने समस्त स्थावर भूतों और जंगम प्राणियोंकी सृष्टि की है, यह पुरातन श्रुति है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य कालपरीमाणमकरोत् स पितामहः।
भूतेषु परिवृत्तिं च पुनरावृत्तिमेव च ॥ २९ ॥

मूलम्

तस्य कालपरीमाणमकरोत् स पितामहः।
भूतेषु परिवृत्तिं च पुनरावृत्तिमेव च ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामहने जीवके लिये नियत समयतक शरीर धारण किये रहनेकी, भिन्न-भिन्न योनियोंमें भ्रमण करनेकी और परलोकसे लौटकर फिर इस लोकमें जन्म लेने आदिकी भी व्यवस्था की है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथात्र कश्चिन्मेधावी दृष्टात्मा पूर्वजन्मनि।
यत् प्रवक्ष्यामि तत् सर्वं यथावदुपपद्यते ॥ ३० ॥

मूलम्

यथात्र कश्चिन्मेधावी दृष्टात्मा पूर्वजन्मनि।
यत् प्रवक्ष्यामि तत् सर्वं यथावदुपपद्यते ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने पूर्वजन्ममें अपने आत्माका साक्षात्कार कर लिया हो, ऐसा कोई मेधावी अधिकारी पुरुष संसारकी अनित्यताके विषयमें जैसी बात कह सकता है, वैसी ही मैं भी कहूँगा। मेरी कही हुई सारी बातें यथार्थ और संगत होंगी॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखदुःखे यथा सम्यगनित्ये यः प्रपश्यति।
कायं चामेध्यसंघातं विनाशं कर्मसंहितम् ॥ ३१ ॥
यच्च किंचित्सुखं तच्च दुःखं सर्वमिति स्मरन्।
संसारसागरं घोरं तरिष्यति सुदुस्तरम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

सुखदुःखे यथा सम्यगनित्ये यः प्रपश्यति।
कायं चामेध्यसंघातं विनाशं कर्मसंहितम् ॥ ३१ ॥
यच्च किंचित्सुखं तच्च दुःखं सर्वमिति स्मरन्।
संसारसागरं घोरं तरिष्यति सुदुस्तरम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य सुख और दुःख दोनोंको अनित्य समझता है, शरीरको अपवित्र वस्तुओंका समूह समझता है और मृत्युको कर्मका फल समझता है तथा सुखके रूपमें प्रतीत होनेवाला जो कुछ भी है वह सब दुःख-ही-दुःख है, ऐसा मानता है, वह घोर एवं दुस्तर संसार-सागरसे पार हो जायगा॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातीमरणरोगैश्च समाविष्टः प्रधानवित् ।
चेतनावत्सु चैतन्यं समं भूतेषु पश्यति ॥ ३३ ॥
निर्विद्यते ततः कृत्स्नं मार्गमाणः परं पदम्।
तस्योपदेशं वक्ष्यामि याथातथ्येन सत्तम ॥ ३४ ॥

मूलम्

जातीमरणरोगैश्च समाविष्टः प्रधानवित् ।
चेतनावत्सु चैतन्यं समं भूतेषु पश्यति ॥ ३३ ॥
निर्विद्यते ततः कृत्स्नं मार्गमाणः परं पदम्।
तस्योपदेशं वक्ष्यामि याथातथ्येन सत्तम ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जन्म, मृत्यु एवं रोगोंसे घिरा हुआ जो पुरुष प्रधान तत्त्व (प्रकृति)-को जानता है और समस्त चेतन प्राणियोंमें चैतन्यको समानरूपसे व्याप्त देखता है, वह पूर्ण परमपदके अनुसंधानमें संलग्न हो जगत्‌के भोगोंसे विरक्त हो जाता है। साधुशिरोमणे! उस वैराग्यवान् पुरुषके लिये जो हितकर उपदेश है, उसका मैं यथार्थरूपसे वर्णन करूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाश्वतस्याव्ययस्याथ यदस्य ज्ञानमुत्तमम् ।
प्रोच्यमानं मया विप्र निबोधेदमशेषतः ॥ ३५ ॥

मूलम्

शाश्वतस्याव्ययस्याथ यदस्य ज्ञानमुत्तमम् ।
प्रोच्यमानं मया विप्र निबोधेदमशेषतः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके लिये जो सनातन अविनाशी परमात्माका उत्तम ज्ञान अभीष्ट है, उसका मैं वर्णन करता हूँ। विप्रवर! तुम सारी बातोंको ध्यान देकर सुनो॥३५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें अट्ठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८॥