०१७

भागसूचना

सप्तदशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

काश्यपके प्रश्नोंके उत्तरमें सिद्ध महात्माद्वारा जीवकी विविध गतियोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्योपसंगृह्य पादौ प्रश्नान् सुदुर्वचान्।
पप्रच्छ तांश्च धर्मान् स प्राह धर्मभृतां वरः ॥ १ ॥

मूलम्

ततस्तस्योपसंगृह्य पादौ प्रश्नान् सुदुर्वचान्।
पप्रच्छ तांश्च धर्मान् स प्राह धर्मभृतां वरः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— तदनन्तर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ काश्यपने उन सिद्ध महात्माके दोनों पैर पकड़कर जिनका उत्तर कठिनाईसे दिया जा सके, ऐसे बहुत-से धर्मयुक्त प्रश्न पूछे॥१॥

मूलम् (वचनम्)

काश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं शरीरं च्यवते कथं चैवोपपद्यते।
कथं कष्टाच्च संसारात् संसरन् परिमुच्यते ॥ २ ॥

मूलम्

कथं शरीरं च्यवते कथं चैवोपपद्यते।
कथं कष्टाच्च संसारात् संसरन् परिमुच्यते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काश्यपने पूछा— महात्मन्! यह शरीर किस प्रकार गिर जाता है? फिर दूसरा शरीर कैसे प्राप्त होता है? संसारी जीव किस तरह इस दुःखमय संसारसे मुक्त होता है?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मा च प्रकृतिं मुक्त्वा तच्छरीरं विमुञ्चति।
शरीरतश्च निर्मुक्तः कथमन्यत् प्रपद्यते ॥ ३ ॥

मूलम्

आत्मा च प्रकृतिं मुक्त्वा तच्छरीरं विमुञ्चति।
शरीरतश्च निर्मुक्तः कथमन्यत् प्रपद्यते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीवात्मा प्रकृति (मूल विद्या) और उससे उत्पन्न होनेवाले शरीरका कैसे त्याग करता है? और शरीरसे छूटकर दूसरेमें वह किस प्रकार प्रवेश करता है?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नरः।
उपभुङ्क्ते क्व वा कर्म विदेहस्यावतिष्ठते ॥ ४ ॥

मूलम्

कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नरः।
उपभुङ्क्ते क्व वा कर्म विदेहस्यावतिष्ठते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मोंका फल कैसे भोगता है और शरीर न रहनेपर उसके कर्म कहाँ रहते हैं?॥४॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संचोदितः सिद्धः प्रश्नांस्तान् प्रत्यभाषत।
आनुपूर्व्येण वार्ष्णेय तन्मे निगदतः शृणु ॥ ५ ॥

मूलम्

एवं संचोदितः सिद्धः प्रश्नांस्तान् प्रत्यभाषत।
आनुपूर्व्येण वार्ष्णेय तन्मे निगदतः शृणु ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण कहते हैं— वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! काश्यपके इस प्रकार पूछनेपर सिद्ध महात्माने उनके प्रश्नोंका क्रमशः उत्तर देना आरम्भ किया। वह मैं बता रहा हूँ, सुनिये॥५॥

मूलम् (वचनम्)

सिद्ध उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयुःकीर्तिकराणीह यानि कृत्यानि सेवते।
शरीरग्रहणे यस्मिंस्तेषु क्षीणेषु सर्वशः ॥ ६ ॥
आयुःक्षयपरीतात्मा विपरीतानि सेवते ।
बुद्धिर्व्यावर्तते चास्य विनाशे प्रत्युपस्थिते ॥ ७ ॥

मूलम्

आयुःकीर्तिकराणीह यानि कृत्यानि सेवते।
शरीरग्रहणे यस्मिंस्तेषु क्षीणेषु सर्वशः ॥ ६ ॥
आयुःक्षयपरीतात्मा विपरीतानि सेवते ।
बुद्धिर्व्यावर्तते चास्य विनाशे प्रत्युपस्थिते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिद्धने कहा— काश्यप! मनुष्य इस लोकमें आयु और कीर्तिको बढ़ानेवाले जिन कर्मोंका सेवन करता है, वे शरीर-प्राप्तिमें कारण होते हैं। शरीर-ग्रहणके अनन्तर जब वे सभी कर्म अपना फल देकर क्षीण हो जाते हैं, उस समय जीवकी आयुका भी क्षय हो जाता है। उस अवस्थामें वह विपरीत कर्मोंका सेवन करने लगता है और विनाशकाल निकट आनेपर उसकी बुद्धि उलटी हो जाती है॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वं बलं च कालं च विदित्वा चात्मनस्तथा।
अतिवेलमुपाश्नाति स्वविरुद्धान्यनात्मवान् ॥ ८ ॥

मूलम्

सत्त्वं बलं च कालं च विदित्वा चात्मनस्तथा।
अतिवेलमुपाश्नाति स्वविरुद्धान्यनात्मवान् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपने सत्त्व (धैर्य), बल और अनुकूल समयको जानकर भी मनपर अधिकार न होनेके कारण असमयमें तथा अपनी प्रकृतिके विरुद्ध भोजन करता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदायमतिकष्टानि सर्वाण्युपनिषेवते ।
अत्यर्थमपि वा भुङ्क्ते न वा भुङ्क्ते कदाचन ॥ ९ ॥

मूलम्

यदायमतिकष्टानि सर्वाण्युपनिषेवते ।
अत्यर्थमपि वा भुङ्क्ते न वा भुङ्क्ते कदाचन ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त हानि पहुँचानेवाली जितनी वस्तुएँ हैं, उन सबका वह सेवन करता है। कभी तो बहुत अधिक खा लेता है, कभी बिलकुल ही भोजन नहीं करता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्टान्नामिषपानं च यदन्योन्यविरोधि च।
गुरु चाप्यमितं भुङ्क्ते नातिजीर्णेऽपि वा पुनः ॥ १० ॥

मूलम्

दुष्टान्नामिषपानं च यदन्योन्यविरोधि च।
गुरु चाप्यमितं भुङ्क्ते नातिजीर्णेऽपि वा पुनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी दूषित खाद्य अन्न-पानको भी ग्रहण कर लेता है, कभी एक-दूसरेसे विरुद्ध गुणवाले पदार्थोंको एक साथ खा लेता है। किसी दिन गरिष्ठ अन्न और वह भी बहुत अधिक मात्रामें खा जाता है। कभी-कभी एक बारका खाया हुआ अन्न पचने भी नहीं पाता कि दुबारा भोजन कर लेता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यायाममतिमात्रं च व्यवायं चोपसेवते।
सततं कर्मलोभाद् वा प्राप्तं वेगं विधारयेत् ॥ ११ ॥

मूलम्

व्यायाममतिमात्रं च व्यवायं चोपसेवते।
सततं कर्मलोभाद् वा प्राप्तं वेगं विधारयेत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अधिक मात्रामें व्यायाम और स्त्री-सम्भोग करता है। सदा काम करनेके लोभसे मल-मूत्रके वेगको रोके रहता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसाभियुक्तमन्नं वा दिवा स्वप्नं च सेवते।
अपक्वानागते काले स्वयं दोषान् प्रकोपयेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

रसाभियुक्तमन्नं वा दिवा स्वप्नं च सेवते।
अपक्वानागते काले स्वयं दोषान् प्रकोपयेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रसीला अन्न खाता और दिनमें सोता है तथा कभी-कभी खाये हुए अन्नके पचनेके पहले असमयमें भोजन करके स्वयं ही अपने शरीरमें स्थित वात-पित्त आदि दोषोंको कुपित कर देता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वदोषकोपनाद् रोगं लभते मरणान्तिकम्।
अपि वोद्बन्धनादीनि परीतानि व्यवस्यति ॥ १३ ॥

मूलम्

स्वदोषकोपनाद् रोगं लभते मरणान्तिकम्।
अपि वोद्बन्धनादीनि परीतानि व्यवस्यति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोषोंके कुपित होनेसे वह अपने लिये प्राणनाशक रोगोंको बुला लेता है। अथवा फाँसी लगाने या जलमें डूबने आदि शास्त्रविरुद्ध उपायोंका आश्रय लेता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तैः कारणैर्जन्तोः शरीरं च्यवते तदा।
जीवितं प्रोच्यमानं तद् यथावदुपधारय ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्य तैः कारणैर्जन्तोः शरीरं च्यवते तदा।
जीवितं प्रोच्यमानं तद् यथावदुपधारय ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्हीं सब कारणोंसे जीवका शरीर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार जो जीवका जीवन बताया जाता है, उसे अच्छी तरह समझ लो॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः।
शरीरमनुपर्येत्य सर्वान् प्राणान् रुणद्धि वै ॥ १५ ॥

मूलम्

ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः।
शरीरमनुपर्येत्य सर्वान् प्राणान् रुणद्धि वै ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीरमें तीव्र वायुसे प्रेरित हो पित्तका प्रकोप बढ़ जाता है और वह शरीरमें फैलकर समस्त प्राणोंकी गतिको रोक देता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्यर्थं बलवानूष्मा शरीरे परिकोपितः।
भिनत्ति जीवस्थानानि मर्माणि विद्धि तत्त्वतः ॥ १६ ॥

मूलम्

अत्यर्थं बलवानूष्मा शरीरे परिकोपितः।
भिनत्ति जीवस्थानानि मर्माणि विद्धि तत्त्वतः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस शरीरमें कुपित होकर अत्यन्त प्रबल हुआ पित्त जीवके मर्मस्थानोंको विदीर्ण कर देता है। इस बातको ठीक समझो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सवेदनः सद्यो जीवः प्रच्यवते क्षरात्।
शरीरं त्यजते जन्तुश्छिद्यमानेषु मर्मसु ॥ १७ ॥

मूलम्

ततः सवेदनः सद्यो जीवः प्रच्यवते क्षरात्।
शरीरं त्यजते जन्तुश्छिद्यमानेषु मर्मसु ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मर्मस्थान छिन्न-भिन्न होने लगते हैं, तब वेदनासे व्यथित हुआ जीव तत्काल इस जड शरीरसे निकल जाता है। उस शरीरको सदाके लिये त्याग देता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदनाभिः परीतात्मा तद् विद्धि द्विजसत्तम।
जातीमरणसंविग्नाः सततं सर्वजन्तवः ॥ १८ ॥

मूलम्

वेदनाभिः परीतात्मा तद् विद्धि द्विजसत्तम।
जातीमरणसंविग्नाः सततं सर्वजन्तवः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! मृत्युकालमें जीवका तन-मन वेदनासे व्यथित होता है, इस बातको भलीभाँति जान लो। इस तरह संसारके सभी प्राणी सदा जन्म और मरणसे उद्विग्न रहते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृश्यन्ते संत्यजन्तश्च शरीराणि द्विजर्षभ।
गर्भसंक्रमणे चापि मर्मणामतिसर्पणे ॥ १९ ॥
तादृशीमेव लभते वेदनां मानवः पुनः।
भिन्नसंधिरथ क्लेदमद्भिः स लभते नरः ॥ २० ॥

मूलम्

दृश्यन्ते संत्यजन्तश्च शरीराणि द्विजर्षभ।
गर्भसंक्रमणे चापि मर्मणामतिसर्पणे ॥ १९ ॥
तादृशीमेव लभते वेदनां मानवः पुनः।
भिन्नसंधिरथ क्लेदमद्भिः स लभते नरः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! सभी जीव अपने शरीरोंका त्याग करते देखे जाते हैं। गर्भमें मनुष्य प्रवेश करते समय तथा गर्भसे नीचे गिरते समय भी वैसी ही वेदनाका अनुभव करता है। मृत्यु-कालमें जीवोंके शरीरकी सन्धियाँ टूटने लगती हैं और जन्मके समय वह गर्भस्थ जलसे भीगकर अत्यन्त व्याकुल हो उठता है॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा पञ्चसु भूतेषु सम्भूतत्वं नियच्छति।
शैत्यात् प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः ॥ २१ ॥
यः स पञ्चसु भूतेषु प्राणापाने व्यवस्थितः।
स गच्छत्यूर्ध्वगो वायुः कृच्छ्रान्मुक्त्वा शरीरिणः ॥ २२ ॥

मूलम्

यथा पञ्चसु भूतेषु सम्भूतत्वं नियच्छति।
शैत्यात् प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः ॥ २१ ॥
यः स पञ्चसु भूतेषु प्राणापाने व्यवस्थितः।
स गच्छत्यूर्ध्वगो वायुः कृच्छ्रान्मुक्त्वा शरीरिणः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्य प्रकारकी तीव्र वायुसे प्रेरित हो शरीरमें सर्दीसे कुपित हुई जो वायु पाँचों भूतोंमें प्राण और अपानके स्थानमें स्थित है, वही पञ्चभूतोंके संघातका नाश करती है तथा वह देहधारियोंको बड़े कष्टसे त्यागकर ऊर्ध्वलोकको चली जाती है॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरं च जहात्येवं निरुच्छ्‌वासश्च दृश्यते।
स निरूष्मा निरुच्छ्‌वासो निःश्रीको हतचेतनः ॥ २३ ॥
ब्रह्मणा सम्परित्यक्तो मृत इत्युच्यते नरैः।

मूलम्

शरीरं च जहात्येवं निरुच्छ्‌वासश्च दृश्यते।
स निरूष्मा निरुच्छ्‌वासो निःश्रीको हतचेतनः ॥ २३ ॥
ब्रह्मणा सम्परित्यक्तो मृत इत्युच्यते नरैः।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जब जीव शरीरका त्याग करता है, तब प्राणियोंका शरीर उच्छ्‌वासहीन दिखायी देता है। उसमें गर्मी, उच्छ्‌वास, शोभा और चेतना कुछ भी नहीं रह जाती। इस तरह जीवात्मासे परित्यक्त उस शरीरको लोग मृत (मरा हुआ) कहते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रोतोभिर्यैर्विजानाति इन्द्रियार्थान् शरीरभृत् ॥ २४ ॥
तैरेव न विजानाति प्राणानाहारसम्भवान्।
तत्रैव कुरुते काये यः स जीवः सनातनः ॥ २५ ॥

मूलम्

स्रोतोभिर्यैर्विजानाति इन्द्रियार्थान् शरीरभृत् ॥ २४ ॥
तैरेव न विजानाति प्राणानाहारसम्भवान्।
तत्रैव कुरुते काये यः स जीवः सनातनः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देहधारी जीव जिन इन्द्रियोंके द्वारा रूप, रस आदि विषयोंका अनुभव करता है, उनके द्वारा वह भोजनसे परिपुष्ट होनेवाले प्राणोंको नहीं जान पाता। इस शरीरके भीतर रहकर जो कार्य करता है, वह सनातन जीव है॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा यद्यद् भवेद् युक्तं संनिपाते क्वचित् क्वचित्।
तत्तन्मर्म विजानीहि शास्त्रदृष्टं हि तत् तथा ॥ २६ ॥

मूलम्

तथा यद्यद् भवेद् युक्तं संनिपाते क्वचित् क्वचित्।
तत्तन्मर्म विजानीहि शास्त्रदृष्टं हि तत् तथा ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं-कहीं संधिस्थानोंमें जो-जो अंग संयुक्त होता है, उस-उसको तुम मर्म समझो; क्योंकि शास्त्रमें मर्मस्थानका ऐसा ही लक्षण देखा गया है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषु मर्मसु भिन्नेषु ततः स समुदीरयन्।
आविश्य हृदयं जन्तोः सत्त्वं चाशु रुणद्धि वै ॥ २७ ॥

मूलम्

तेषु मर्मसु भिन्नेषु ततः स समुदीरयन्।
आविश्य हृदयं जन्तोः सत्त्वं चाशु रुणद्धि वै ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन मर्मस्थानों (संधियों)-के विलग होनेपर वायु ऊपरको उठती हुई प्राणीके हृदयमें प्रविष्ट हो शीघ्र ही उसकी बुद्धिको अवरुद्ध कर लेती है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सचेतनो जन्तुर्नाभिजानाति किंचन।
तमसा संवृतज्ञानः संवृतेष्वेव मर्मसु।
स जीवो निरधिष्ठानश्चाल्यते मातरिश्वना ॥ २८ ॥

मूलम्

ततः सचेतनो जन्तुर्नाभिजानाति किंचन।
तमसा संवृतज्ञानः संवृतेष्वेव मर्मसु।
स जीवो निरधिष्ठानश्चाल्यते मातरिश्वना ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अन्तकाल उपस्थित होनेपर प्राणी सचेतन होनेपर भी कुछ समझ नहीं पाता; क्योंकि तम (अविद्या)-के द्वारा उसकी ज्ञानशक्ति आवृत्त हो जाती है। मर्मस्थान भी अवरुद्ध हो जाते हैं। उस समय जीवके लिये कोई आधार नहीं रह जाता और वायु उसे अपने स्थानसे विचलित कर देती है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स तं महोच्छ्‌वासं भृशमुच्छ्‌वस्य दारुणम्।
निष्क्रामन् कम्पयत्याशु तच्छरीरमचेतनम् ॥ २९ ॥

मूलम्

ततः स तं महोच्छ्‌वासं भृशमुच्छ्‌वस्य दारुणम्।
निष्क्रामन् कम्पयत्याशु तच्छरीरमचेतनम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वह जीवात्मा बारंबार भयंकर एवं लंबी साँस छोड़कर बाहर निकलने लगता है। उस समय सहसा इस जड शरीरको कम्पित कर देता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स जीवः प्रच्युतः कायात् कर्मभिः स्वैः समावृतः।
अभितः स्वैः शुभैः पुण्यैः पापैर्वाप्युपपद्यते ॥ ३० ॥

मूलम्

स जीवः प्रच्युतः कायात् कर्मभिः स्वैः समावृतः।
अभितः स्वैः शुभैः पुण्यैः पापैर्वाप्युपपद्यते ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीरसे अलग होनेपर वह जीव अपने किये हुए शुभकार्य पुण्य अथवा अशुभ कार्य पापकर्मोंद्वारा सब ओरसे घिरा रहता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणा ज्ञानसम्पन्ना यथावच्छ्रुतनिश्चयाः ।
इतरं कृतपुण्यं वा तं विजानन्ति लक्षणैः ॥ ३१ ॥

मूलम्

ब्राह्मणा ज्ञानसम्पन्ना यथावच्छ्रुतनिश्चयाः ।
इतरं कृतपुण्यं वा तं विजानन्ति लक्षणैः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने वेद-शास्त्रोंके सिद्धान्तोंका यथावत् अध्ययन किया है, वे ज्ञानसम्पन्न ब्राह्मण लक्षणोंके द्वारा यह जान लेते हैं कि अमुक जीव पुण्यात्मा रहा है और अमुक जीव पापी॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथान्धकारे खद्योतं लीयमानं ततस्ततः।
चक्षुष्मन्तः प्रपश्यन्ति तथा च ज्ञानचक्षुषः ॥ ३२ ॥
पश्यन्त्येवंविधं सिद्धा जीवं दिव्येन चक्षुषा।
च्यवन्तं जायमानं च योनिं चानुप्रवेशितम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

यथान्धकारे खद्योतं लीयमानं ततस्ततः।
चक्षुष्मन्तः प्रपश्यन्ति तथा च ज्ञानचक्षुषः ॥ ३२ ॥
पश्यन्त्येवंविधं सिद्धा जीवं दिव्येन चक्षुषा।
च्यवन्तं जायमानं च योनिं चानुप्रवेशितम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस तरह आँखवाले मनुष्य अँधेरेमें इधर-उधर उगते-बुझते हुए खद्योतको देखते हैं, उसी प्रकार ज्ञान-नेत्रवाले सिद्ध पुरुष अपनी दिव्य दृष्टिसे जन्मते, मरते तथा गर्भमें प्रवेश करते हुए जीवको सदा देखते रहते हैं॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य स्थानानि दृष्टानि त्रिविधानीह शास्त्रतः।
कर्मभूमिरियं भूमिर्यत्र तिष्ठन्ति जन्तवः ॥ ३४ ॥

मूलम्

तस्य स्थानानि दृष्टानि त्रिविधानीह शास्त्रतः।
कर्मभूमिरियं भूमिर्यत्र तिष्ठन्ति जन्तवः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रके अनुसार जीवके तीन प्रकारके स्थान देखे गये हैं (मृत्युलोक, स्वर्गलोक और नरक)। यह मर्त्यलोककी भूमि जहाँ बहुत-से प्राणी रहते हैं, कर्मभूमि कहलाती है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शुभाशुभं कृत्वा लभन्ते सर्वदेहिनः।
इहैवोच्चावचान् भोगान् प्राप्नुवन्ति स्वकर्मभिः ॥ ३५ ॥

मूलम्

ततः शुभाशुभं कृत्वा लभन्ते सर्वदेहिनः।
इहैवोच्चावचान् भोगान् प्राप्नुवन्ति स्वकर्मभिः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः यहाँ शुभ और अशुभ कर्म करके सब मनुष्य उसके फलस्वरूप अपने कर्मोंके अनुसार अच्छे-बुरे भोग प्राप्त करते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहैवाशुभकर्माणः कर्मभिर्निरयं गताः ।
अवाग्गतिरियं कष्टा यत्र पच्यन्ति मानवाः।
तस्मात्‌ सुदुर्लभो मोक्षो रक्ष्यश्चात्मा ततो भृशम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

इहैवाशुभकर्माणः कर्मभिर्निरयं गताः ।
अवाग्गतिरियं कष्टा यत्र पच्यन्ति मानवाः।
तस्मात्‌ सुदुर्लभो मोक्षो रक्ष्यश्चात्मा ततो भृशम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं पाप करनेवाले मानव अपने कर्मोंके अनुसार नरकमें पड़ते हैं। यह जीवकी अधोगति है जो घोर कष्ट देनेवाली है। इसमें पड़कर पापी मनुष्य नरकाग्निमें पकाये जाते हैं। उससे छुटकारा मिलना बहुत कठिन है। अतः (पापकर्मसे दूर रहकर) अपनेको नरकसे बचाये रखनेका विशेष प्रयत्न करना चाहिये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वं तु जन्तवो गत्वा येषु स्थानेष्ववस्थिताः।
कीर्त्यमानानि तानीह तत्त्वतः संनिबोध मे ॥ ३७ ॥

मूलम्

ऊर्ध्वं तु जन्तवो गत्वा येषु स्थानेष्ववस्थिताः।
कीर्त्यमानानि तानीह तत्त्वतः संनिबोध मे ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्ग आदि ऊर्ध्वलोकोंमें जाकर प्राणी जिन स्थानोंमें निवास करते हैं, उनका यहाँ वर्णन किया जाता है, इस विषयको यथार्थरूपसे मुझसे सुनो॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नच्छ्रुत्वा नैष्ठिकीं बुद्धिं बुद्ध्येथाः कर्मनिश्चयम्।
तारारूपाणि सर्वाणि यत्रैतच्चन्द्रमण्डलम् ॥ ३८ ॥
यत्र विभ्राजते लोके स्वभासा सूर्यमण्डलम्।
स्थानान्येतानि जानीहि जनानां पुण्यकर्मणाम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

नच्छ्रुत्वा नैष्ठिकीं बुद्धिं बुद्ध्येथाः कर्मनिश्चयम्।
तारारूपाणि सर्वाणि यत्रैतच्चन्द्रमण्डलम् ॥ ३८ ॥
यत्र विभ्राजते लोके स्वभासा सूर्यमण्डलम्।
स्थानान्येतानि जानीहि जनानां पुण्यकर्मणाम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसको सुननेसे तुम्हें कर्मोंकी गतिका निश्चय हो जायगा और नैष्ठिकी बुद्धि प्राप्त होगी। जहाँ ये समस्त तारे हैं, जहाँ वह चन्द्रमण्डल प्रकाशित होता है और जहाँ सूर्यमण्डल जगत्‌में अपनी प्रभासे उद्भासित हो रहा है, ये सब-के-सब पुण्यकर्मा पुरुषोंके स्थान हैं, ऐसा जानो [पुण्यात्मा मुनष्य उन्हीं लोकोंमें जाकर अपने पुण्योंका फल भोगते हैं]॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मक्षयाच्च ते सर्वे च्यवन्ते वै पुनः पुनः।
तत्रापि च विशेषोऽस्ति दिवि नीचोच्चमध्यमः ॥ ४० ॥

मूलम्

कर्मक्षयाच्च ते सर्वे च्यवन्ते वै पुनः पुनः।
तत्रापि च विशेषोऽस्ति दिवि नीचोच्चमध्यमः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब जीवोंके पुण्यकर्मोंका भोग समाप्त हो जाता है, तब वे वहाँसे नीचे गिरते हैं। इस प्रकार बारंबार उनका आवागमन होता रहता है। स्वर्गमें भी उत्तम, मध्यम और अधमका भेद रहता है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च तत्रापि संतोषो दृष्ट्‌वा दीप्ततरां श्रियम्।
इत्येता गतयः सर्वाः पृथक्ते समुदीरिताः ॥ ४१ ॥

मूलम्

न च तत्रापि संतोषो दृष्ट्‌वा दीप्ततरां श्रियम्।
इत्येता गतयः सर्वाः पृथक्ते समुदीरिताः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ भी दूसरोंका अपनेसे बहुत अधिक दीप्तिमान् तेज एवं ऐश्वर्य देखकर मनमें संतोष नहीं होता है। इस प्रकार जीवकी इन सभी गतियोंका मैंने तुम्हारे समक्ष पृथक्-पृथक् वर्णन किया है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपपत्तिं तु वक्ष्यामि गर्भस्याहमतः परम्।
तथा तन्मे निगदतः शृणुष्वावहितो द्विज ॥ ४२ ॥

मूलम्

उपपत्तिं तु वक्ष्यामि गर्भस्याहमतः परम्।
तथा तन्मे निगदतः शृणुष्वावहितो द्विज ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं यह बतलाऊँगा कि जीव किस प्रकार गर्भमें आकर जन्म धारण करता है। ब्रह्मन्! तुम एकाग्रचित्त होकर मेरे मुखसे इस विषयका वर्णन सुनो॥४२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७॥