०१५

भागसूचना

पञ्चदशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णका अर्जुनसे द्वारका जानेका प्रस्ताव करना

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विजिते पाण्डवेयैस्तु प्रशान्ते च द्विजोत्तम।
राष्ट्रे किं चक्रतुर्वीरौ वासुदेवधनंजयौ ॥ १ ॥

मूलम्

विजिते पाण्डवेयैस्तु प्रशान्ते च द्विजोत्तम।
राष्ट्रे किं चक्रतुर्वीरौ वासुदेवधनंजयौ ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— द्विजश्रेष्ठ! जब पाण्डवोंने अपने राष्ट्रपर विजय पा ली और राज्यमें सब ओर शान्ति स्थापित हो गयी, उसके बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन इन दोनों वीरोंने क्या किया?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विजिते पाण्डवै राजन् प्रशान्ते च विशाम्पते।
राष्ट्रे बभूवतुर्हृष्टौ वासुदेवधनंजयौ ॥ २ ॥

मूलम्

विजिते पाण्डवै राजन् प्रशान्ते च विशाम्पते।
राष्ट्रे बभूवतुर्हृष्टौ वासुदेवधनंजयौ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— प्रजानाथ! नरेश्वर! जब पाण्डवोंने राष्ट्रपर विजय पा ली और सर्वत्र शान्ति स्थापित हो गयी, तब भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनको बड़ी प्रसन्नता हुई॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विजह्राते मुदा युक्तौ दिवि देवेश्वराविव।
तौ वनेषु विचित्रेषु पर्वतेषु ससानुषु ॥ ३ ॥

मूलम्

विजह्राते मुदा युक्तौ दिवि देवेश्वराविव।
तौ वनेषु विचित्रेषु पर्वतेषु ससानुषु ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गलोकमें विहार करनेवाले दो देवेश्वरोंकी भाँति वे दोनों मित्र आनन्दमग्न हो विचित्र-विचित्र वनोंमें और पर्वतोंके सुरम्य शिखरोंपर विचरने लगे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीर्थेषु चैव पुण्येषु पल्वलेषु नदीषु च।
चङ्‌क्रम्यमाणौ संहृष्टावश्विनाविव नन्दने ॥ ४ ॥

मूलम्

तीर्थेषु चैव पुण्येषु पल्वलेषु नदीषु च।
चङ्‌क्रम्यमाणौ संहृष्टावश्विनाविव नन्दने ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र तीर्थों, छोटे तालाबों और नदियोंके तटोंपर विचरण करते हुए वे दोनों नन्दन-वनमें विहार करनेवाले अश्विनीकुमारोंके समान हर्षका अनुभव करते थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रप्रस्थे महात्मानौ रेमतुः कृष्णपाण्डवौ।
प्रविश्य तां सभां रम्यां विजह्राते च भारत ॥ ५ ॥

मूलम्

इन्द्रप्रस्थे महात्मानौ रेमतुः कृष्णपाण्डवौ।
प्रविश्य तां सभां रम्यां विजह्राते च भारत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! फिर इन्द्रप्रस्थमें लौटकर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन मयनिर्मित रमणीय सभामें प्रवेश करके आनन्दपूर्वक मनोविनोद करने लगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र युद्धकथाश्चित्राः परिक्लेशांश्च पार्थिव।
कथायोगे कथायोगे कथयामासतुः सदा ॥ ६ ॥
ऋषीणां देवतानां च वंशांस्तावाहतुः सदा।
प्रीयमाणौ महात्मानौ पुराणावृषिसत्तमौ ॥ ७ ॥

मूलम्

तत्र युद्धकथाश्चित्राः परिक्लेशांश्च पार्थिव।
कथायोगे कथायोगे कथयामासतुः सदा ॥ ६ ॥
ऋषीणां देवतानां च वंशांस्तावाहतुः सदा।
प्रीयमाणौ महात्मानौ पुराणावृषिसत्तमौ ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! वे दोनों महात्मा पुरातन ऋषिप्रवर नर और नारायण थे तथा आपसमें बहुत प्रेम रखते थे। बातचीतके प्रसंगमें वे दोनों मित्र सदा देवताओं तथा ऋषियोंके वंशोंकी चर्चा करते थे और युद्धकी विचित्र कथाओं एवं क्लेशोंका वर्णन किया करते थे॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मधुरास्तु कथाश्चित्राश्चित्रार्थपदनिश्चयाः ।
निश्चयज्ञः स पार्थाय कथयामास केशवः ॥ ८ ॥

मूलम्

मधुरास्तु कथाश्चित्राश्चित्रार्थपदनिश्चयाः ।
निश्चयज्ञः स पार्थाय कथयामास केशवः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण सब प्रकारके सिद्धान्तोंको जाननेवाले थे। उन्होंने अर्जुनको विचित्र पद, अर्थ एवं सिद्धान्तोंसे युक्त बड़ी विलक्षण एवं मधुर कथाएँ सुनायीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रशोकाभिसंतप्तं ज्ञातीनां च सहस्रशः।
कथाभिः शमयामास पार्थं शौरिर्जनार्दनः ॥ ९ ॥

मूलम्

पुत्रशोकाभिसंतप्तं ज्ञातीनां च सहस्रशः।
कथाभिः शमयामास पार्थं शौरिर्जनार्दनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार अर्जुन पुत्रशोकसे संतप्त थे। सहस्रों भाई-बन्धुओंके मारे जानेका भी उनके मनमें बड़ा दुःख था। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णने अनेक प्रकारकी कथाएँ सुनाकर उस समय पार्थको शान्त किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तमाश्वास्य विधिवद् विज्ञानज्ञो महातपाः।
अपहृत्यात्मनो भारं विशश्रामेव सात्वतः ॥ १० ॥

मूलम्

स तमाश्वास्य विधिवद् विज्ञानज्ञो महातपाः।
अपहृत्यात्मनो भारं विशश्रामेव सात्वतः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातपस्वी विज्ञानवेत्ता श्रीकृष्णने विधिपूर्वक अर्जुनको सान्त्वना देकर अपना भार उतार दिया और वे सुखपूर्वक विश्राम-सा करने लगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कथान्ते गोविन्दो गुडाकेशमुवाच ह।
सान्त्वयन् श्लक्ष्णया वाचा हेतुयुक्तमिदं वचः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः कथान्ते गोविन्दो गुडाकेशमुवाच ह।
सान्त्वयन् श्लक्ष्णया वाचा हेतुयुक्तमिदं वचः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बातचीतके अन्तमें गोविन्दने गुडाकेश अर्जुनको अपनी मधुर वाणीद्वारा सान्त्वना प्रदान करते हुए उनसे यह युक्तियुक्त बात कही॥११॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विजितेयं धरा कृत्स्ना सव्यसाचिन् परंतप।
त्वद्बाहुबलमाश्रित्य राज्ञा धर्मसुतेन ह ॥ १२ ॥

मूलम्

विजितेयं धरा कृत्स्ना सव्यसाचिन् परंतप।
त्वद्बाहुबलमाश्रित्य राज्ञा धर्मसुतेन ह ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण बोले— शत्रुओंको संताप देनेवाले सव्यसाची अर्जुन! धर्मपुत्र युधिष्ठिरने तुम्हारे बाहुबलका सहारा लेकर इस समूची पृथ्वीपर विजय प्राप्त कर ली॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असपत्नां महीं भुङ्क्ते धर्मराजो युधिष्ठिरः।
भीमसेनानुभावेन यमयोश्च नरोत्तम ॥ १३ ॥

मूलम्

असपत्नां महीं भुङ्क्ते धर्मराजो युधिष्ठिरः।
भीमसेनानुभावेन यमयोश्च नरोत्तम ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! भीमसेन तथा नकुल-सहदेवके प्रभावसे धर्मराज युधिष्ठिर इस पृथ्वीका निष्कण्टक राज्य भोग रहे हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मेण राज्ञा धर्मज्ञ प्राप्तं राज्यमकण्टकम्।
धर्मेण निहतः संख्ये स च राजा सुयोधनः ॥ १४ ॥

मूलम्

धर्मेण राज्ञा धर्मज्ञ प्राप्तं राज्यमकण्टकम्।
धर्मेण निहतः संख्ये स च राजा सुयोधनः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मज्ञ! राजा युधिष्ठिरने यह निष्कण्टक राज्य धर्मके बलसे ही प्राप्त किया है। धर्मसे ही राजा दुर्योधन युद्धमें मारा गया है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मरुचयो लुब्धाः सदा चाप्रियवादिनः।
धार्तराष्ट्रा दुरात्मानः सानुबन्धा निपातिताः ॥ १५ ॥

मूलम्

अधर्मरुचयो लुब्धाः सदा चाप्रियवादिनः।
धार्तराष्ट्रा दुरात्मानः सानुबन्धा निपातिताः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रके पुत्र अधर्ममें रुचि रखनेवाले, लोभी, कटुवादी और दुरात्मा थे। इसलिये अपने सगे-सम्बन्धियोंसहित मार गिराये गये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशान्तामखिलां पार्थ पृथिवीं पृथिवीपतिः।
भुङ्क्ते धर्मसुतो राजा त्वया गुप्तः कुरूद्वह ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रशान्तामखिलां पार्थ पृथिवीं पृथिवीपतिः।
भुङ्क्ते धर्मसुतो राजा त्वया गुप्तः कुरूद्वह ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलतिलक कुन्तीकुमार! धर्मपुत्र पृथ्वीपति राजा युधिष्ठिर आज तुमसे सुरक्षित होकर सर्वथा शान्त हुई समूची पृथ्वीका राज्य भोगते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमे चाहं त्वया सार्धमरण्येष्वपि पाण्डव।
किमु यत्र जनोऽयं वै पृथा चामित्रकर्षण ॥ १७ ॥

मूलम्

रमे चाहं त्वया सार्धमरण्येष्वपि पाण्डव।
किमु यत्र जनोऽयं वै पृथा चामित्रकर्षण ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसूदन पाण्डुकुमार! तुम्हारे साथ रहनेपर निर्जन वनमें भी मुझे सुख और आनन्द मिल सकता है। फिर जहाँ इतने लोग और मेरी बुआ कुन्ती हों, वहाँकी तो बात ही क्या है?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र धर्मसुतो राजा यत्र भीमो महाबलः।
यत्र माद्रवतीपुत्रौ रतिस्तत्र परा मम ॥ १८ ॥

मूलम्

यत्र धर्मसुतो राजा यत्र भीमो महाबलः।
यत्र माद्रवतीपुत्रौ रतिस्तत्र परा मम ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, महाबली भीमसेन और माद्रीकुमार नकुल-सहदेव हों, वहाँ मुझे परम आनन्द प्राप्त हो सकता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव स्वर्गकल्पेषु सभोद्देशेषु कौरव।
रमणीयेषु पुण्येषु सहितस्य त्वयानघ ॥ १९ ॥
कालो महांस्त्वतीतो मे शूरसूनुमपश्यतः।
बलदेवं च कौरव्य तथान्यान् वृष्णिपुङ्गवान् ॥ २० ॥
सोऽहं गन्तुमभीप्सामि पुरीं द्वारावतीं प्रति।
रोचतां गमनं मह्यं तवापि पुरुषर्षभ ॥ २१ ॥

मूलम्

तथैव स्वर्गकल्पेषु सभोद्देशेषु कौरव।
रमणीयेषु पुण्येषु सहितस्य त्वयानघ ॥ १९ ॥
कालो महांस्त्वतीतो मे शूरसूनुमपश्यतः।
बलदेवं च कौरव्य तथान्यान् वृष्णिपुङ्गवान् ॥ २० ॥
सोऽहं गन्तुमभीप्सामि पुरीं द्वारावतीं प्रति।
रोचतां गमनं मह्यं तवापि पुरुषर्षभ ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप कुरुनन्दन! इस सभाभवनके रमणीय एवं पवित्र स्थान स्वर्गके समान सुखद हैं। यहाँ तुम्हारे साथ रहते हुए बहुत दिन बीत गये। इतने दिनोंतक मैं अपने पिता शूरसेनकुमार वसुदेवजीका दर्शन न कर सका। भैया बलदेव तथा अन्यान्य वृष्णिवंशके श्रेष्ठ पुरुषोंके भी दर्शनसे वंचित रहा। अतः अब मैं द्वारकापुरीको जाना चाहता हूँ। पुरुषप्रवर! तुम्हें भी मेरे इस यात्रासम्बन्धी प्रस्तावको सहर्ष स्वीकार करना चाहिये॥१९—२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तो बहुविधं राजा तत्र तत्र युधिष्ठिरः।
सह भीष्मेण यद् युक्तमस्माभिः शोककारिते ॥ २२ ॥

मूलम्

उक्तो बहुविधं राजा तत्र तत्र युधिष्ठिरः।
सह भीष्मेण यद् युक्तमस्माभिः शोककारिते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोकावस्थामें मनुष्यका दुःख दूर करनेके लिये उसे जो कुछ उपदेश देना उचित है, वह भीष्मसहित हमलोगोंने विभिन्न स्थानोंमें राजा युधिष्ठिरको दिया है। उन्हें अनेक प्रकारसे समझाया है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिष्टो युधिष्ठिरोऽस्माभिः शास्ता सन्नपि पाण्डवः।
तेन तत् तु वचः सम्यग् गृहीतं सुमहात्मना ॥ २३ ॥

मूलम्

शिष्टो युधिष्ठिरोऽस्माभिः शास्ता सन्नपि पाण्डवः।
तेन तत् तु वचः सम्यग् गृहीतं सुमहात्मना ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर हमारे शासक और शिक्षक हैं तो भी हमलोगोंने शिक्षा दी है और उन श्रेष्ठ महात्माने हमारी उन सभी बातोंको भलीभाँति स्वीकार किया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मपुत्रे हि धर्मज्ञे कृतज्ञे सत्यवादिनि।
सत्यं धर्मो मतिश्चाग्र्या स्थितिश्च सततं स्थिरा ॥ २४ ॥

मूलम्

धर्मपुत्रे हि धर्मज्ञे कृतज्ञे सत्यवादिनि।
सत्यं धर्मो मतिश्चाग्र्या स्थितिश्च सततं स्थिरा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर धर्मज्ञ, कृतज्ञ और सत्यवादी हैं। उनमें सत्य, धर्म, उत्तम बुद्धि तथा ऊँची स्थिति आदि गुण सदा स्थिरभावसे रहते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र गत्वा महात्मानं यदि ते रोचतेऽर्जुन।
अस्मद्‌गमनसंयुक्तं वचो ब्रूहि जनाधिपम् ॥ २५ ॥

मूलम्

तत्र गत्वा महात्मानं यदि ते रोचतेऽर्जुन।
अस्मद्‌गमनसंयुक्तं वचो ब्रूहि जनाधिपम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन! यदि तुम उचित समझो तो महात्मा राजा युधिष्ठिरके पास चलकर उनके समक्ष मेरे द्वारका जानेका प्रस्ताव उपस्थित करो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तस्याप्रियं कुर्यां प्राणत्यागेऽप्युपस्थिते।
कुतो गन्तुं महाबाहो पुरीं द्वारावतीं प्रति ॥ २६ ॥

मूलम्

न हि तस्याप्रियं कुर्यां प्राणत्यागेऽप्युपस्थिते।
कुतो गन्तुं महाबाहो पुरीं द्वारावतीं प्रति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! मेरे प्राणोंपर संकट आ जाय तब भी मैं धर्मराजका अप्रिय नहीं कर सकता; फिर द्वारका जानेके लिये उनका दिल दुखाऊँ, यह तो हो ही कैसे सकता है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वं त्विदमहं पार्थ त्वत्प्रीतिहितकाम्यया।
ब्रवीमि सत्यं कौरव्य न मिथ्यैतत् कथंचन ॥ २७ ॥

मूलम्

सर्वं त्विदमहं पार्थ त्वत्प्रीतिहितकाम्यया।
ब्रवीमि सत्यं कौरव्य न मिथ्यैतत् कथंचन ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! कुन्तीकुमार! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ, मैंने जो कुछ किया या कहा है, वह सब तुम्हारी प्रसन्नताके लिये और तुम्हारे ही हितकी दृष्टिसे किया है। यह किसी तरह मिथ्या नहीं है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयोजनं च निर्वृत्तमिह वासे ममार्जुन।
धार्तराष्ट्रो हतो राजा सबलः सपदानुगः ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रयोजनं च निर्वृत्तमिह वासे ममार्जुन।
धार्तराष्ट्रो हतो राजा सबलः सपदानुगः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन! यहाँ मेरे रहनेका जो प्रयोजन था, वह पूरा हो गया है। धृतराष्ट्रका पुत्र राजा दुर्योधन अपनी सेना और सेवकोंके साथ मारा गया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवी च वशे तात धर्मपुत्रस्य धीमतः।
स्थिता समुद्रवलया सशैलवनकानना ॥ २९ ॥
चिता रत्नैर्बहुविधैः कुरुराजस्य पाण्डव।

मूलम्

पृथिवी च वशे तात धर्मपुत्रस्य धीमतः।
स्थिता समुद्रवलया सशैलवनकानना ॥ २९ ॥
चिता रत्नैर्बहुविधैः कुरुराजस्य पाण्डव।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! पाण्डुनन्दन! नाना प्रकारके रत्नोंके संचयसे सम्पन्न, समुद्रसे घिरी हुई, पर्वत, वन और काननोंसहित यह सारी पृथ्वी भी बुद्धिमान् धर्मपुत्र कुरुराज युधिष्ठिरके अधीन हो गयी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मेण राजा धर्मज्ञः पातु सर्वां वसुन्धराम् ॥ ३० ॥
उपास्यमानो बहुभिः सिद्धैश्चापि महात्मभिः।
स्तूयमानश्च सततं वन्दिभिर्भरतर्षभ ॥ ३१ ॥

मूलम्

धर्मेण राजा धर्मज्ञः पातु सर्वां वसुन्धराम् ॥ ३० ॥
उपास्यमानो बहुभिः सिद्धैश्चापि महात्मभिः।
स्तूयमानश्च सततं वन्दिभिर्भरतर्षभ ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! बहुत-से सिद्ध महात्माओंके संगसे सुशोभित तथा वन्दीजनोंके द्वारा सदा ही प्रशंसित होते हुए धर्मज्ञ राजा युधिष्ठिर अब धर्मपूर्वक सारी पृथ्वीका पालन करें॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं मया सह गत्वाद्य राजानं कुरु वर्धनम्।
आपृच्छ कुरुशार्दूल गमनं द्वारकां प्रति ॥ ३२ ॥

मूलम्

तं मया सह गत्वाद्य राजानं कुरु वर्धनम्।
आपृच्छ कुरुशार्दूल गमनं द्वारकां प्रति ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! अब तुम मेरे साथ चलकर राजाको बधाई दो और मेरे द्वारका जानेके विषयमें उनसे पूछकर आज्ञा दिला दो॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं शरीरं वसु यच्च मे गृहे
निवेदितं पार्थ सदा युधिष्ठिरे।
प्रियश्च मान्यश्च हि मे युधिष्ठिरः
सदा कुरूणामधिपो महामतिः ॥ ३३ ॥

मूलम्

इदं शरीरं वसु यच्च मे गृहे
निवेदितं पार्थ सदा युधिष्ठिरे।
प्रियश्च मान्यश्च हि मे युधिष्ठिरः
सदा कुरूणामधिपो महामतिः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! मेरे घरमें जो कुछ धन-सम्पत्ति है, वह और मेरा यह शरीर सदा धर्मराज युधिष्ठिरकी सेवामें समर्पित है। परम बुद्धिमान् कुरुराज युधिष्ठिर सर्वदा मेरे प्रिय और माननीय हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयोजनं चापि निवासकारणे
न विद्यते मे त्वदृते नृपात्मज।
स्थिता हि पृथ्वी तव पार्थ शासने
गुरोः सुवृत्तस्य युधिष्ठिरस्य च ॥ ३४ ॥

मूलम्

प्रयोजनं चापि निवासकारणे
न विद्यते मे त्वदृते नृपात्मज।
स्थिता हि पृथ्वी तव पार्थ शासने
गुरोः सुवृत्तस्य युधिष्ठिरस्य च ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजकुमार! अब तुम्हारे साथ मन बहलानेके सिवा यहाँ मेरे रहनेका और कोई प्रयोजन नहीं रह गया है। पार्थ! यह सारी पृथ्वी तुम्हारे और सदाचारी गुरु युधिष्ठिरके शासनमें पूर्णतः स्थित है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीदमुक्तः स तदा महात्मना
जनार्दनेनामितविक्रमोऽर्जुनः ।
तथेति दुःखादिव वाक्यमैरय-
ज्जनार्दनं सम्प्रतिपूज्य पार्थिव ॥ ३५ ॥

मूलम्

इतीदमुक्तः स तदा महात्मना
जनार्दनेनामितविक्रमोऽर्जुनः ।
तथेति दुःखादिव वाक्यमैरय-
ज्जनार्दनं सम्प्रतिपूज्य पार्थिव ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! उस समय महात्मा भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर अमित पराक्रमी अर्जुनने उनकी बातका आदर करते हुए बड़े दुःखके साथ ‘तथास्तु’ कहकर उनके जानेका प्रस्ताव स्वीकार किया॥३५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५॥