भागसूचना
चतुर्दशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ऋषियोंका अन्तर्धान होना, भीष्म आदिका श्राद्ध करके युधिष्ठिर आदिका हस्तिनापुरमें जाना तथा युधिष्ठिरके धर्मराज्यका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बहुविधैर्वाक्यैर्मुनिभिस्तैस्तपोधनैः ।
समाश्वस्यत राजर्षिर्हतबन्धुर्युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
सोऽनुनीतो भगवता विष्टरश्रवसा स्वयम्।
द्वैपायनेन कृष्णेन देवस्थानेन वा विभुः ॥ २ ॥
नारदेनाथ भीमेन नकुलेन च पार्थिव।
कृष्णया सहदेवेन विजयेन च धीमता ॥ ३ ॥
अन्यैश्च पुरुषव्याघ्रैर्ब्राह्मणैः शास्त्रदृष्टिभिः ।
व्यजहाच्छोकजं दुःखं संतापं चैव मानसम् ॥ ४ ॥
मूलम्
एवं बहुविधैर्वाक्यैर्मुनिभिस्तैस्तपोधनैः ।
समाश्वस्यत राजर्षिर्हतबन्धुर्युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
सोऽनुनीतो भगवता विष्टरश्रवसा स्वयम्।
द्वैपायनेन कृष्णेन देवस्थानेन वा विभुः ॥ २ ॥
नारदेनाथ भीमेन नकुलेन च पार्थिव।
कृष्णया सहदेवेन विजयेन च धीमता ॥ ३ ॥
अन्यैश्च पुरुषव्याघ्रैर्ब्राह्मणैः शास्त्रदृष्टिभिः ।
व्यजहाच्छोकजं दुःखं संतापं चैव मानसम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार साक्षात् विष्टरश्रवा (विस्तृत यशवाले) भगवान् श्रीकृष्ण, श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, देवस्थान, नारद, भीमसेन, नकुल, द्रौपदी, सहदेव, बुद्धिमान् अर्जुन तथा अन्यान्य श्रेष्ठ पुरुषों और शास्त्रदर्शी ब्राह्मणों एवं तपोधन मुनियोंके बहुविध वचनोंद्वारा समझाने-बुझानेपर जिनके भाई-बन्धु मारे गये थे, उन राजर्षि युधिष्ठिरका मन शान्त हुआ और उन्होंने शोकजनित दुःख तथा मानसिक संतापको त्याग दिया॥१—४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्चयामास देवांश्च ब्राह्मणांश्च युधिष्ठिरः।
कृत्वाथ प्रेतकार्याणि बन्धूनां स पुनर्नृपः ॥ ५ ॥
अन्वशासच्च धर्मात्मा पृथिवीं सागराम्बराम्।
मूलम्
अर्चयामास देवांश्च ब्राह्मणांश्च युधिष्ठिरः।
कृत्वाथ प्रेतकार्याणि बन्धूनां स पुनर्नृपः ॥ ५ ॥
अन्वशासच्च धर्मात्मा पृथिवीं सागराम्बराम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने देवताओं और ब्राह्मणोंका पूजन किया और मरे हुए बन्धु-बान्धवोंका श्राद्ध करके वे धर्मात्मा नरेश समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका शासन करने लगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रशान्तचेताः कौरव्यः स्वराज्यं प्राप्य केवलम्।
व्यासं च नारदं चैव तांश्चान्यानब्रवीन्नृपः ॥ ६ ॥
मूलम्
प्रशान्तचेताः कौरव्यः स्वराज्यं प्राप्य केवलम्।
व्यासं च नारदं चैव तांश्चान्यानब्रवीन्नृपः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चित्त शान्त होनेपर केवल अपना राज्य ग्रहण करके कुरुवंशी नरेश युधिष्ठिरने व्यास, नारद तथा अन्यान्य मुनिवरोंसे कहा—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्वासितोऽहं प्राग्वृद्धैर्भवद्भिर्मुनिपुङ्गवैः ।
न सूक्ष्ममपि मे किंचिद् व्यलीकमिह विद्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
आश्वासितोऽहं प्राग्वृद्धैर्भवद्भिर्मुनिपुङ्गवैः ।
न सूक्ष्ममपि मे किंचिद् व्यलीकमिह विद्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महानुभावो! आप सब लोग वृद्ध और मुनियोंमें श्रेष्ठ हैं। आपकी बातोंसे मुझे बड़ी सान्त्वना मिली है। अब मेरे मनमें तनिक भी दुःख नहीं है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थश्च सुमहान् प्राप्तो येन यक्ष्यामि देवताः।
पुरस्कृत्याद्य भवतः समानेष्यामहे मखम् ॥ ८ ॥
मूलम्
अर्थश्च सुमहान् प्राप्तो येन यक्ष्यामि देवताः।
पुरस्कृत्याद्य भवतः समानेष्यामहे मखम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इधर पर्याप्त धन भी मिल गया, जिससे मैं भलीभाँति देवताओंका यजन भी कर सकूँगा। अब आपलोगोंको आगे करके हमलोग उस धनको अपनी यज्ञशालामें ले आवेंगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिमवन्तं त्वया गुप्ता गमिष्यामः पितामह।
बह्वाश्चर्यो हि देशः स श्रूयते द्विजसत्तम ॥ ९ ॥
मूलम्
हिमवन्तं त्वया गुप्ता गमिष्यामः पितामह।
बह्वाश्चर्यो हि देशः स श्रूयते द्विजसत्तम ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजश्रेष्ठ पितामह! हमलोग आपसे ही सुरक्षित होकर हिमालय पर्वतकी यात्रा करेंगे। सुना जाता है, वह प्रदेश अनेक आश्चर्यजनक दृश्योंसे भरा हुआ है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा भगवता चित्रं कल्याणं बहुभाषितम्।
देवर्षिणा नारदेन देवस्थानेन चैव ह ॥ १० ॥
मूलम्
तथा भगवता चित्रं कल्याणं बहुभाषितम्।
देवर्षिणा नारदेन देवस्थानेन चैव ह ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपने, देवर्षि नारदने तथा मुनिवर देवस्थानने बहुत-सी अद्भुत बातें बतायी हैं, जो मेरा कल्याण करनेवाली हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभागधेयः पुरुषः कश्चिदेवंविधान् गुरून्।
लभते व्यसनं प्राप्य सुहृदः साधुसम्मतान् ॥ ११ ॥
मूलम्
नाभागधेयः पुरुषः कश्चिदेवंविधान् गुरून्।
लभते व्यसनं प्राप्य सुहृदः साधुसम्मतान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सौभाग्यशाली नहीं है, ऐसा कोई भी पुरुष संकटमें पड़नेपर आप-जैसे साधुसम्मानित हितैषी गुरुजनोंको नहीं पा सकता’॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तास्तु ते राज्ञा सर्व एव महर्षयः।
अभ्यनुज्ञाप्य राजानं तथोभौ कृष्णफाल्गुनौ ॥ १२ ॥
पश्यतामेव सर्वेषां तत्रैवादर्शनं ययुः।
ततो धर्मसुतो राजा तत्रैवोपाविशत् प्रभुः ॥ १३ ॥
मूलम्
एवमुक्तास्तु ते राज्ञा सर्व एव महर्षयः।
अभ्यनुज्ञाप्य राजानं तथोभौ कृष्णफाल्गुनौ ॥ १२ ॥
पश्यतामेव सर्वेषां तत्रैवादर्शनं ययुः।
ततो धर्मसुतो राजा तत्रैवोपाविशत् प्रभुः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरके इस प्रकार कृतज्ञता प्रकट करनेपर सभी महर्षि राजा युधिष्ठिर, श्रीकृष्ण तथा अर्जुनकी अनुमति ले सबके देखते-देखते वहाँसे अन्तर्धान हो गये। फिर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर उन्हें विदा करके वहीं बैठ गये॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं नातिमहान् कालः स तेषां संन्यवर्तत।
कुर्वतां शौचकार्याणि भीष्मस्य निधने तदा ॥ १४ ॥
मूलम्
एवं नातिमहान् कालः स तेषां संन्यवर्तत।
कुर्वतां शौचकार्याणि भीष्मस्य निधने तदा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मकी मृत्युके पश्चात् शौचकार्य सम्पन्न करते हुए पाण्डवोंका कुछ काल वहीं व्यतीत हुआ॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महादानानि विप्रेभ्यो ददतामौर्ध्वदेहिकम् ।
भीष्मकर्णपुरोगाणां कुरूणां कुरुसत्तम ॥ १५ ॥
सहितो धृतराष्ट्रेण स ददावौर्ध्वदेहिकम्।
मूलम्
महादानानि विप्रेभ्यो ददतामौर्ध्वदेहिकम् ।
भीष्मकर्णपुरोगाणां कुरूणां कुरुसत्तम ॥ १५ ॥
सहितो धृतराष्ट्रेण स ददावौर्ध्वदेहिकम्।
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! धृतराष्ट्रसहित उन्होंने भीष्म और कर्ण आदि कुरुवंशियोंके निमित्त और्ध्वदैहिक क्रिया (श्राद्ध)-में ब्राह्मणोंको बड़े-बड़े दान दिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दत्त्वा बहुधनं विप्रेभ्यः पाण्डवर्षभः ॥ १६ ॥
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य विवेश गजसाह्वयम्।
मूलम्
ततो दत्त्वा बहुधनं विप्रेभ्यः पाण्डवर्षभः ॥ १६ ॥
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य विवेश गजसाह्वयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको बहुत-सा धन देकर पाण्डवशिरोमणि युधिष्ठिरने धृतराष्ट्रको आगे करके हस्तिनापुरमें प्रवेश किया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स समाश्वास्य पितरं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम्।
अन्वशाद् वै स धर्मात्मा पृथिवीं भ्रातृभिः सह ॥ १७ ॥
मूलम्
स समाश्वास्य पितरं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम्।
अन्वशाद् वै स धर्मात्मा पृथिवीं भ्रातृभिः सह ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर प्रज्ञाचक्षु पितृव्य महाराज धृतराष्ट्रको सान्त्वना देकर भाइयोंके साथ पृथ्वीका राज्य करने लगे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(यथा मनुर्महाराजो रामो दाशरथिर्यथा।
तथा भरतसिंहोऽपि पालयामास मेदिनीम्॥
मूलम्
(यथा मनुर्महाराजो रामो दाशरथिर्यथा।
तथा भरतसिंहोऽपि पालयामास मेदिनीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे महाराज मनु तथा दशरथनन्दन श्रीरामने इस पृथ्वीका पालन किया था, उसी प्रकार भरतसिंह युधिष्ठिर भी भूमण्डलकी रक्षा करने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाधर्म्यमभवत् तत्र सर्वो धर्मरुचिर्जनः।
बभूव नरशार्दूल यथा कृतयुगे तथा॥
मूलम्
नाधर्म्यमभवत् तत्र सर्वो धर्मरुचिर्जनः।
बभूव नरशार्दूल यथा कृतयुगे तथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके राज्यमें कहीं कोई अधर्मयुक्त कार्य नहीं होता था। सब लोग धर्मविषयक रुचि रखते थे। पुरुषसिंह! जैसे सत्ययुगमें समस्त प्रजा धर्मपरायण रहती थी, उसी प्रकार उस समय द्वापरमें भी हो गयी थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलिमासन्नमाविष्टं निवास्य नृपनन्दनः ।
भ्रातृभिः सहितो धीमान् बभौ धर्मबलोद्धतः॥
मूलम्
कलिमासन्नमाविष्टं निवास्य नृपनन्दनः ।
भ्रातृभिः सहितो धीमान् बभौ धर्मबलोद्धतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कलियुगको समीप आया देख बुद्धिमान् नृपनन्दन युधिष्ठिरने उसको भी निवास दिया और भाइयोंके साथ वे धर्मबलसे अजेय होकर शोभा पाने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ववर्ष भगवान् देवः काले देशे यथेप्सितम्।
निरामयं जगदभूत् क्षुत्पिपासे न किंचन॥
मूलम्
ववर्ष भगवान् देवः काले देशे यथेप्सितम्।
निरामयं जगदभूत् क्षुत्पिपासे न किंचन॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् पर्जन्यदेव उनके राज्यके प्रत्येक देशमें यथेष्ट वर्षा करते थे। सारा जगत् रोग-शोकसे रहित हो गया था, किसीको भी भूख-प्यासका थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं रह गया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आधिर्नास्ति मनुष्याणां व्यसने नाभवन्मतिः।
ब्राह्मणप्रमुखा वर्णास्ते स्वधर्मोत्तराः शिवाः॥
धर्मः सत्यप्रधानश्च सत्यं सद्विषयान्वितम्।
मूलम्
आधिर्नास्ति मनुष्याणां व्यसने नाभवन्मतिः।
ब्राह्मणप्रमुखा वर्णास्ते स्वधर्मोत्तराः शिवाः॥
धर्मः सत्यप्रधानश्च सत्यं सद्विषयान्वितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्योंको मानसिक व्यथा नहीं सताती थी। किसीका मन दुर्व्यसनमें नहीं लगता था। ब्राह्मण आदि सभी वर्णोंके लोग स्वधर्मको ही उत्कृष्ट मानकर उसमें लगे रहते थे। सभी मंगलयुक्त थे। धर्ममें सत्यकी प्रधानता थी और सत्य उत्तम विषयोंसे युक्त होता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मासनस्थः सद्भिः स स्त्रीबालातुरवृद्धकान्॥
वर्णाश्रमान् पूर्वकृतान् सकलान् रक्षणोद्यतः।
मूलम्
धर्मासनस्थः सद्भिः स स्त्रीबालातुरवृद्धकान्॥
वर्णाश्रमान् पूर्वकृतान् सकलान् रक्षणोद्यतः।
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मके आसनपर बैठे हुए युधिष्ठिर सत्पुरुषों, स्त्रियों, बालकों, रोगियों, बड़े-बूढ़ों तथा पूर्वनिर्मित सम्पूर्ण वर्णाश्रम-धर्मोंकी रक्षाके लिये सदा उद्यत रहते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवृत्तिवृत्तिदानाद्यैर्यज्ञार्थैर्दीपितैरपि ।
आमुष्मिकं भयं नास्ति ऐहिकं कृतमेव तु।
स्वर्गलोकोपमो लोकस्तदा तस्मिन् प्रशासति॥
बभूव सुखमेकाग्रं तद्विशिष्टतरं परम्॥
मूलम्
अवृत्तिवृत्तिदानाद्यैर्यज्ञार्थैर्दीपितैरपि ।
आमुष्मिकं भयं नास्ति ऐहिकं कृतमेव तु।
स्वर्गलोकोपमो लोकस्तदा तस्मिन् प्रशासति॥
बभूव सुखमेकाग्रं तद्विशिष्टतरं परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जीविकाहीन मनुष्योंको जीविका प्रदान करते, यज्ञके लिये धन दिलाते तथा अन्यान्य उपायोंद्वारा प्रजाकी रक्षा करते थे। अतः इहलोकका सारा सुख तो सबको प्राप्त ही था, परलोकका भी भय नहीं रह गया था। उनके शासनकालमें सारा जगत् स्वर्गलोकके समान सुखद हो गया था। यहाँका एकाग्र सुख स्वर्गसे भी विशिष्ट एवं उत्तम था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नार्यः पतिव्रताः सर्वा रूपवत्यः स्वलंकृताः।
यथोक्तवृत्ताः स्वगुणैर्बभूवुः प्रीतिहेतवः ॥
मूलम्
नार्यः पतिव्रताः सर्वा रूपवत्यः स्वलंकृताः।
यथोक्तवृत्ताः स्वगुणैर्बभूवुः प्रीतिहेतवः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके राज्यकी सारी स्त्रियाँ पतिव्रता, रूपवती, आभूषणोंसे विभूषित और शास्त्रोक्त सदाचारसे सम्पन्न होती थीं। वे अपने उत्तम गुणोंद्वारा पतिकी प्रसन्नताको बढ़ानेमें कारण होती थीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुमांसः पुण्यशीलाढ्याः स्वं स्वं धर्ममनुव्रताः।
सुखिनः सूक्ष्ममप्येनो न कुर्वन्ति कदाचन॥
मूलम्
पुमांसः पुण्यशीलाढ्याः स्वं स्वं धर्ममनुव्रताः।
सुखिनः सूक्ष्ममप्येनो न कुर्वन्ति कदाचन॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष पुण्यशील, अपने-अपने धर्ममें अनुरक्त और सुखी थे। वे कभी सूक्ष्म-से-सूक्ष्म पाप भी नहीं करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे नराश्च नार्यश्च सततं प्रियवादिनः।
अजिह्ममनसः शुक्लाः बभूवुः श्रमवर्जिताः॥
मूलम्
सर्वे नराश्च नार्यश्च सततं प्रियवादिनः।
अजिह्ममनसः शुक्लाः बभूवुः श्रमवर्जिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी स्त्री-पुरुष सदा प्रिय वचन बोलते थे, मनमें कुटिलता नहीं आने देते थे, शुद्ध रहते थे और कभी थकावटका अनुभव नहीं करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूषिताः कुण्डलैर्हारैः कटकैः कटिसूत्रकैः।
सुवाससः सुगन्धाढ्याः प्रायशः पृथिवीतले॥
मूलम्
भूषिताः कुण्डलैर्हारैः कटकैः कटिसूत्रकैः।
सुवाससः सुगन्धाढ्याः प्रायशः पृथिवीतले॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों प्रायः भूतलके सभी मनुष्य कुण्डल, हार, कड़े और करधनीसे विभूषित थे। सुन्दर वस्त्र और सुन्दर गन्धसे सुशोभित होते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे ब्रह्मविदो विप्राः सर्वत्र परिनिष्ठिताः।
वलीपलितहीनास्तु सुखिनो दीर्घजीविनः ॥
मूलम्
सर्वे ब्रह्मविदो विप्राः सर्वत्र परिनिष्ठिताः।
वलीपलितहीनास्तु सुखिनो दीर्घजीविनः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी ब्राह्मण ब्रह्मवेत्ता और समस्त शास्त्रोंमें परिनिष्ठित थे। उनके शरीरमें झुर्रियाँ नहीं पड़ती थीं, उनके बाल सफेद नहीं होते थे और वे सुखी तथा दीर्घजीवी होते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छा न जायतेऽन्यत्र वर्णेषु च न संकरः।
मनुष्याणां महाराज मर्यादासु व्यवस्थितः॥
मूलम्
इच्छा न जायतेऽन्यत्र वर्णेषु च न संकरः।
मनुष्याणां महाराज मर्यादासु व्यवस्थितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मनुष्योंकी इच्छा परायी स्त्रियोंके लिये नहीं होती थी, वर्णोंमें कभी संकरता नहीं आती थी और सब लोग मर्यादामें स्थित रहते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिञ्छासति राजेन्द्रे मृगव्यालसरीसृपाः ।
अन्योन्यमपि चान्येषु न बाधन्ते कदाचन॥
मूलम्
तस्मिञ्छासति राजेन्द्रे मृगव्यालसरीसृपाः ।
अन्योन्यमपि चान्येषु न बाधन्ते कदाचन॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र युधिष्ठिरके शासनकालमें हिंसक पशु, सर्प और बिच्छू आदि न तो आपसमें और न दूसरोंको ही कभी बाधा पहुँचाते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावः सुक्षीरभूयिष्ठाः सुवालधिमुखोदराः ।
अपीडिताः कर्षकाद्यैर्हृतव्याधितवत्सकाः ॥
मूलम्
गावः सुक्षीरभूयिष्ठाः सुवालधिमुखोदराः ।
अपीडिताः कर्षकाद्यैर्हृतव्याधितवत्सकाः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौएँ बहुत दूध देती थीं, उनके मुख, पूँछ और उदर सुन्दर होते थे। किसान आदि उन्हें पीड़ा नहीं देते थे और उनके बछड़े भी नीरोग होते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवन्ध्यकाला मनुजाः पुरुषार्थेषु च क्रमात्।
विषयेष्वनिषिद्धेषु वेदशास्त्रेषु चोद्यताः ॥
मूलम्
अवन्ध्यकाला मनुजाः पुरुषार्थेषु च क्रमात्।
विषयेष्वनिषिद्धेषु वेदशास्त्रेषु चोद्यताः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समयके सभी मनुष्य अपने समयको व्यर्थ नहीं जाने देते थे। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन पुरुषार्थोंमें क्रमशः प्रवृत्त होते थे। शास्त्रमें जिनका निषेध नहीं किया गया है, उन्हीं विषयोंका सेवन करते और वेदशास्त्रोंके स्वाध्यायके लिये सदा उद्यत रहते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवृत्ता वृषभाः पुष्टाः सुस्वभावाः सुखोदयाः।
अतीव मधुरः शब्दः स्पर्शश्चातिसुखं रसम्।
रूपं दृष्टिक्षमं रम्यं मनोज्ञं गन्धवद् बभौ॥
मूलम्
सुवृत्ता वृषभाः पुष्टाः सुस्वभावाः सुखोदयाः।
अतीव मधुरः शब्दः स्पर्शश्चातिसुखं रसम्।
रूपं दृष्टिक्षमं रम्यं मनोज्ञं गन्धवद् बभौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समयके बैल अच्छी चाल-ढालवाले, हृष्ट-पुष्ट, अच्छे स्वभाववाले और सुखकी प्राप्ति करानेवाले होते थे। उन दिनों शब्द और स्पर्श नामक विषय अत्यन्त मधुर होते थे। रस बहुत ही सुखद जान पड़ता था, रूप दर्शनीय एवं रमणीय प्रतीत होता था और गन्ध नामक विषय भी मनोरम जान पड़ता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मार्थकामसंयुक्तं मोक्षाभ्युदयसाधनम् ।
प्रह्लादजननं पुण्यं सम्बभूवाथ मानसम्॥
मूलम्
धर्मार्थकामसंयुक्तं मोक्षाभ्युदयसाधनम् ।
प्रह्लादजननं पुण्यं सम्बभूवाथ मानसम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबका मन धर्म, अर्थ और काममें संलग्न, मोक्ष और अभ्युदयके साधनमें तत्पर, आनन्दजनक और पवित्र होता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थावरा बहुपुष्पाढ्याः फलच्छायावहास्तथा ।
सुस्पर्शा विषहीनाश्च सुपत्रत्वक्प्ररोहिणः ॥
मूलम्
स्थावरा बहुपुष्पाढ्याः फलच्छायावहास्तथा ।
सुस्पर्शा विषहीनाश्च सुपत्रत्वक्प्ररोहिणः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्थावर (वृक्ष) बहुत-से फूलोंसे सुशोभित तथा फल और छाया देनेवाले होते थे। उनका स्पर्श सुखद जान पड़ता था और वे विषसे हीन तथा सुन्दर पत्र, छाल और अंकुरसे युक्त होते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोऽनुकूलाः सर्वेषां चेष्टा भूस्तापवर्जिता।
यथा बभूव राजर्षिस्तद्वृत्तमभवद् भुवि॥
मूलम्
मनोऽनुकूलाः सर्वेषां चेष्टा भूस्तापवर्जिता।
यथा बभूव राजर्षिस्तद्वृत्तमभवद् भुवि॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबकी चेष्टाएँ मनके अनुकूल होती थीं। पृथ्वीपर किसी प्रकारका संताप नहीं होता था। राजर्षि युधिष्ठिर स्वयं जैसे आचार-विचारसे युक्त थे, उसीका भूतलपर प्रसार हुआ था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वलक्षणसम्पन्नाः पाण्डवा धर्मचारिणः ।
ज्येष्ठानुवर्तिनः सर्वे बभूवुः प्रियदर्शनाः॥
मूलम्
सर्वलक्षणसम्पन्नाः पाण्डवा धर्मचारिणः ।
ज्येष्ठानुवर्तिनः सर्वे बभूवुः प्रियदर्शनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त पाण्डव सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, धर्माचरण करनेवाले और बड़े भाईकी आज्ञाके अधीन रहनेवाले थे। उनका दर्शन सभीको प्रिय था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहोरस्का जितक्रोधास्तेजोबलसमन्विताः ।
आजानुबाहवः सर्वे दानशीला जितेन्द्रियाः॥
मूलम्
सिंहोरस्का जितक्रोधास्तेजोबलसमन्विताः ।
आजानुबाहवः सर्वे दानशीला जितेन्द्रियाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी छाती सिंहके समान चौड़ी थी। वे क्रोधपर विजय पानेवाले और तेज एवं बलसे सम्पन्न थे। उन सबकी भुजाएँ घुटनोंतक लंबी थीं। वे सभी दानशील एवं जितेन्द्रिय थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु शासत्सु धरणीमृतवः स्वगुणैर्बभुः।
सुखोदयाय वर्तन्ते ग्रहास्तारागणैः सह॥
मूलम्
तेषु शासत्सु धरणीमृतवः स्वगुणैर्बभुः।
सुखोदयाय वर्तन्ते ग्रहास्तारागणैः सह॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव जब इस पृथ्वीका शासन कर रहे थे, उस समय सभी ऋतुएँ अपने गुणोंसे सुशोभित होती थीं। ताराओंसहित समस्त ग्रह सबके लिये सुखद हो गये थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मही सस्यप्रबहुला सर्वरत्नगुणोदया ।
कामधुग्धेनुवद् भोगान् फलति स्म सहस्रधा॥
मूलम्
मही सस्यप्रबहुला सर्वरत्नगुणोदया ।
कामधुग्धेनुवद् भोगान् फलति स्म सहस्रधा॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपर खेतीकी उपज बढ़ गयी थी। सभी रत्न और गुण प्रकट हो गये थे। कामधेनुके समान वह सहस्रों प्रकारके भोगरूप फल देती थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्वादिभिः कृताः पूर्वं मर्यादा मानवेषु याः।
अनतिक्रम्य ताः सर्वाः कुलेषु समयानि च।
अन्वशासन्त राजानो धर्मपुत्रप्रियंकराः ॥
मूलम्
मन्वादिभिः कृताः पूर्वं मर्यादा मानवेषु याः।
अनतिक्रम्य ताः सर्वाः कुलेषु समयानि च।
अन्वशासन्त राजानो धर्मपुत्रप्रियंकराः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें मनु आदि राजर्षियोंने मनुष्योंमें जो मर्यादाएँ स्थापित की थीं, उन सबका तथा कुलोचित सदाचारोंका उल्लंघन न करते हुए भूमण्डलके सभी राजा अपने-अपने राज्यका शासन करते थे। इस प्रकार सभी भूपाल धर्मपुत्र युधिष्ठिरका प्रिय करनेवाले थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाकुलानि धर्मिष्ठा वर्धयन्तो विशेषतः।
मनुप्रणीतया कृत्या तेऽन्वशासन् वसुन्धराम्॥
मूलम्
महाकुलानि धर्मिष्ठा वर्धयन्तो विशेषतः।
मनुप्रणीतया कृत्या तेऽन्वशासन् वसुन्धराम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मिष्ठ राजा श्रेष्ठ कुलोंको विशेष प्रोत्साहन देते थे। वे मनुकी बनायी हुई राजनीतिके अनुसार इस वसुधाका शासन करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजवृत्तिर्हि सा शश्वद् धर्मिष्ठाभून्महीतले।
प्रायो लोकमतिस्तात राजवृत्तानुगामिनी ॥
मूलम्
राजवृत्तिर्हि सा शश्वद् धर्मिष्ठाभून्महीतले।
प्रायो लोकमतिस्तात राजवृत्तानुगामिनी ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! इस पृथ्वीपर राजाओंके बर्ताव सदा धर्मानुकूल होते थे। प्रायः लोगोंकी बुद्धि राजाके ही बर्तावका अनुसरण करनेवाली होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं भारतवर्षं स्वं राजा स्वर्गं सुरेन्द्रवत्।
शशास विष्णुना सार्धं गुप्तो गाण्डीवधन्वना॥)
मूलम्
एवं भारतवर्षं स्वं राजा स्वर्गं सुरेन्द्रवत्।
शशास विष्णुना सार्धं गुप्तो गाण्डीवधन्वना॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे इन्द्र स्वर्गका शासन करते हैं, उसी प्रकार गाण्डीवधारी अर्जुनसे सुरक्षित राजा युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्णके सहयोगसे अपने राज्य—भारतवर्षका शासन करते थे॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३० श्लोक मिलाकर कुल ४७ श्लोक हैं)