०१३ कृष्णधर्मसंवादे

भागसूचना

त्रयोदशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णद्वारा ममताके त्यागका महत्त्व, काम-गीताका उल्लेख और युधिष्ठिरको यज्ञके लिये प्रेरणा करना

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत।
शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति वा न वा ॥ १ ॥

मूलम्

न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत।
शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति वा न वा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— भारत! केवल राज्य आदि बाह्य पदार्थोंका त्याग करनेसे ही सिद्धि नहीं प्राप्त होती। शारीरिक द्रव्यका त्याग करके भी सिद्धि प्राप्त होती है अथवा नहीं भी होती है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह्यद्रव्यविमुक्तस्य शारीरेषु च गृद्ध्यतः।
यो धर्मो यत् सुखं चैव द्विषतामस्तु तत् तथा॥२॥

मूलम्

बाह्यद्रव्यविमुक्तस्य शारीरेषु च गृद्ध्यतः।
यो धर्मो यत् सुखं चैव द्विषतामस्तु तत् तथा॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाह्य पदार्थोंसे अलग होकर भी जो शारीरिक सुख-विलासमें आसक्त है, उसे जिस धर्म और सुखकी प्राप्ति होती है, वह तुम्हारे साथ द्वेष करनेवालोंको ही प्राप्त हो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम् ॥ ३ ॥

मूलम्

द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मम’ (मेरा) ये दो अक्षर ही मृत्युरूप हैं और ‘न मम’ (मेरा नहीं है) यह तीन अक्षरोंका पद सनातन ब्रह्मकी प्राप्तिका कारण है। ममता मृत्यु है और उसका त्याग सनातन अमृतत्व है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्ममृत्यू ततो राजन्नात्मन्येव व्यवस्थितौ।
अदृश्यमानौ भूतानि योधयेतामसंशयम् ॥ ४ ॥

मूलम्

ब्रह्ममृत्यू ततो राजन्नात्मन्येव व्यवस्थितौ।
अदृश्यमानौ भूतानि योधयेतामसंशयम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार मृत्यु और अमृत दोनों अपने भीतर ही स्थित हैं। ये दोनों अदृश्य रहकर प्राणियोंको लड़ाते हैं अर्थात् किसीको अपना मानना और किसीको अपना न मानना यह भाव ही युद्धका कारण है, इसमें संशय नहीं है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविनाशोऽस्य सत्त्वस्य नियतो यदि भारत।
भित्त्वा शरीरं भूतानामहिंसां प्रतिपद्यते ॥ ५ ॥

मूलम्

अविनाशोऽस्य सत्त्वस्य नियतो यदि भारत।
भित्त्वा शरीरं भूतानामहिंसां प्रतिपद्यते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! यदि इस जगत्‌की सत्ताका विनाश न होना ही निश्चित हो, तब तो प्राणियोंके शरीरका भेदन करके भी मनुष्य अहिंसाका ही फल प्राप्त करेगा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्ध्वा हि पृथ्वीं कृत्स्नां सहस्थावरजङ्गमाम्।
ममत्वं यस्य नैव स्यात् किं तया स करिष्यति॥६॥

मूलम्

लब्ध्वा हि पृथ्वीं कृत्स्नां सहस्थावरजङ्गमाम्।
ममत्वं यस्य नैव स्यात् किं तया स करिष्यति॥६॥

अनुवाद (हिन्दी)

चराचर प्राणियोंसहित समूची पृथ्वीको पाकर भी जिसकी उसमें ममता नहीं होती, वह उसको लेकर क्या करेगा अर्थात् उस सम्पत्तिसे उसका कोई अनर्थ नहीं हो सकता॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा वसतः पार्थ वने वन्येन जीवतः।
ममता यस्य द्रव्येषु मृत्योरास्ये स वर्तते ॥ ७ ॥

मूलम्

अथवा वसतः पार्थ वने वन्येन जीवतः।
ममता यस्य द्रव्येषु मृत्योरास्ये स वर्तते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु कुन्तीनन्दन! जो वनमें रहकर जंगली फल-मूलोंसे ही जीवन-निर्वाह करता है, उसकी भी यदि द्रव्योंमें ममता है तो वह मौतके मुखमें ही विद्यमान है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह्यान्तराणां शत्रूणां स्वभावं पश्य भारत।
यन्न पश्यति तद् भूतं मुच्यते स महाभयात् ॥ ८ ॥

मूलम्

बाह्यान्तराणां शत्रूणां स्वभावं पश्य भारत।
यन्न पश्यति तद् भूतं मुच्यते स महाभयात् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! बाहरी और भीतरी शत्रुओंके स्वभावको देखिये-समझिये (ये मायामय होनेके कारण मिथ्या हैं, ऐसा निश्चय कीजिये)। जो मायिक पदार्थोंको ममत्वकी दृष्टिसे नहीं देखता, वह महान् भयसे छुटकारा पा जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामात्मानं न प्रशंसन्ति लोके
नेहाकामा काचिदस्ति प्रवृत्तिः ।
सर्वे कामा मनसोऽङ्गप्रभूता
यान् पण्डितः संहरते विचिन्त्य ॥ ९ ॥

मूलम्

कामात्मानं न प्रशंसन्ति लोके
नेहाकामा काचिदस्ति प्रवृत्तिः ।
सर्वे कामा मनसोऽङ्गप्रभूता
यान् पण्डितः संहरते विचिन्त्य ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका मन कामनाओंमें आसक्त है, उसकी संसारके लोग प्रशंसा नहीं करते हैं। कोई भी प्रवृत्ति बिना कामनाके नहीं होती और समस्त कामनाएँ मनसे ही प्रकट होती हैं। विद्वान् पुरुष कामनाओंको दुःखका कारण मानकर उनका परित्याग कर देते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयो भूयोजन्मनोऽभ्यासयोगाद्
योगी योगं सारमार्गं विचिन्त्य।
दानं च वेदाध्ययनं तपश्च
काम्यानि कर्माणि च वैदिकानि ॥ १० ॥
व्रतं यज्ञान् नियमान् ध्यानयोगान्
कामेन यो नारभते विदित्वा।
यद् यच्चायं कामयते स धर्मो
न यो धर्मो नियमस्तस्य मूलम् ॥ ११ ॥

मूलम्

भूयो भूयोजन्मनोऽभ्यासयोगाद्
योगी योगं सारमार्गं विचिन्त्य।
दानं च वेदाध्ययनं तपश्च
काम्यानि कर्माणि च वैदिकानि ॥ १० ॥
व्रतं यज्ञान् नियमान् ध्यानयोगान्
कामेन यो नारभते विदित्वा।
यद् यच्चायं कामयते स धर्मो
न यो धर्मो नियमस्तस्य मूलम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगी पुरुष अनेक जन्मोंके अभ्याससे योगको ही मोक्षका मार्ग निश्चित करके कामनाओंका नाश कर डालता है। जो इस बातको जानता है, वह दान, वेदाध्ययन, तप, वेदोक्त कर्म, व्रत, यज्ञ, नियम और ध्यान-योगादिका कामनापूर्वक अनुष्ठान नहीं करता तथा जिस कर्मसे वह कुछ कामना रखता है, वह धर्म नहीं है। वास्तवमें कामनाओंका निग्रह ही धर्म है और वही मोक्षका मूल है॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गाथाः कामगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
शृणु संकीर्त्यमानास्ता अखिलेन युधिष्ठिर।
नाहं शक्योऽनुपायेन हन्तुं भूतेन केनचित् ॥ १२ ॥

मूलम्

अत्र गाथाः कामगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
शृणु संकीर्त्यमानास्ता अखिलेन युधिष्ठिर।
नाहं शक्योऽनुपायेन हन्तुं भूतेन केनचित् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इस विषयमें प्राचीन बातोंके जानकार विद्वान् एक पुरातन गाथाका वर्णन किया करते हैं, जो कामगीता कहलाती है। उसे मैं आपको सुनाता हूँ, सुनिये। कामका कहना है कि कोई भी प्राणी वास्तविक उपाय (निर्ममता और योगाभ्यास)-का आश्रय लिये बिना मेरा नाश नहीं कर सकता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मां प्रयतते हन्तुं ज्ञात्वा प्रहरणे बलम्।
तस्य तस्मिन् प्रहरणे पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १३ ॥

मूलम्

यो मां प्रयतते हन्तुं ज्ञात्वा प्रहरणे बलम्।
तस्य तस्मिन् प्रहरणे पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य अपनेमें अस्त्रबलकी अधिकताका अनुभव करके मुझे नष्ट करनेका प्रयत्न करता है, उसके उस अस्त्रबलमें मैं अभिमानरूपसे पुनः प्रकट हो जाता हूँ॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मां प्रयतते हन्तुं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
जङ्गमेष्विव धर्मात्मा पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १४ ॥

मूलम्

यो मां प्रयतते हन्तुं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
जङ्गमेष्विव धर्मात्मा पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो नाना प्रकारकी दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा मुझे मारनेका यत्न करता है, उसके चित्तमें मैं उसी प्रकार उत्पन्न होता हूँ, जैसे उत्तम जंगम योनियोंमें धर्मात्मा॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मां प्रयतते नित्यं वेदैर्वेदान्तसाधनैः।
स्थावरेष्विव भूतात्मा तस्य प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १५ ॥

मूलम्

यो मां प्रयतते नित्यं वेदैर्वेदान्तसाधनैः।
स्थावरेष्विव भूतात्मा तस्य प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेद और वेदान्तके स्वाध्यायरूप साधनोंके द्वारा मुझे मिटा देनेका सदा प्रयास करता है, उसके मनमें मैं स्थावर प्राणियोंमें जीवात्माकी भाँति प्रकट होता हूँ॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मां प्रयतते हन्तुं धृत्या सत्यपराक्रमः।
भावो भवामि तस्याहं स च मां नावबुध्यते ॥ १६ ॥

मूलम्

यो मां प्रयतते हन्तुं धृत्या सत्यपराक्रमः।
भावो भवामि तस्याहं स च मां नावबुध्यते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सत्यपराक्रमी पुरुष धैर्यके बलसे मुझे नष्ट करनेकी चेष्टा करता है, उसके मानसिक भावोंके साथ मैं इतना घुल-मिल जाता हूँ कि वह मुझे पहचान नहीं पाता॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मां प्रयतते हन्तुं तपसा संशितव्रतः।
ततस्तपसि तस्याथ पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १७ ॥

मूलम्

यो मां प्रयतते हन्तुं तपसा संशितव्रतः।
ततस्तपसि तस्याथ पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कठोर व्रतका पालन करनेवाला मनुष्य तपस्याके द्वारा मेरे अस्तित्वको मिटा डालनेका प्रयास करता है, उसकी तपस्यामें ही मैं प्रकट हो जाता हूँ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मां प्रयतते हन्तुं मोक्षमास्थाय पण्डितः।
तस्य मोक्षरतिस्थस्य नृत्यामि च हसामि च।
अवध्यः सर्वभूतानामहमेकः सनातनः ॥ १८ ॥

मूलम्

यो मां प्रयतते हन्तुं मोक्षमास्थाय पण्डितः।
तस्य मोक्षरतिस्थस्य नृत्यामि च हसामि च।
अवध्यः सर्वभूतानामहमेकः सनातनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विद्वान् पुरुष मोक्षका सहारा लेकर मेरे विनाशका प्रयत्न करता है, उसकी जो मोक्षविषयक आसक्ति है, उसीसे वह बँधा हुआ है। यह विचारकर मुझे उसपर हँसी आती है और मैं खुशीके मारे नाचने लगता हूँ। एकमात्र मैं ही समस्त प्राणियोंके लिये अवध्य एवं सदा रहनेवाला हूँ॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्त्वमपि तं कामं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
धर्मे कुरु महाराज तत्र ते स भविष्यति ॥ १९ ॥

मूलम्

तस्मात्त्वमपि तं कामं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
धर्मे कुरु महाराज तत्र ते स भविष्यति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः महाराज! आप भी नाना प्रकारकी दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा अपनी उस कामनाको धर्ममें लगा दीजिये। वहाँ आपकी वह कामना सफल होगी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजस्व वाजिमेधेन विधिवद् दक्षिणावता।
अन्यैश्च विविधैर्यज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः ॥ २० ॥
मा ते व्यथास्तु निहतान् बन्धून् वीक्ष्य पुनः पुनः।
न शक्यास्ते पुनर्द्रष्टुं ये हताऽस्मिन् रणाजिरे ॥ २१ ॥

मूलम्

यजस्व वाजिमेधेन विधिवद् दक्षिणावता।
अन्यैश्च विविधैर्यज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः ॥ २० ॥
मा ते व्यथास्तु निहतान् बन्धून् वीक्ष्य पुनः पुनः।
न शक्यास्ते पुनर्द्रष्टुं ये हताऽस्मिन् रणाजिरे ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधिपूर्वक दक्षिणा देकर आप अश्वमेधका तथा पर्याप्त दक्षिणावाले अन्यान्य समृद्धिशाली यज्ञोंका अनुष्ठान कीजिये। अपने मारे गये भाई-बन्धुओंको बारंबार याद करके आपके मनमें व्यथा नहीं होनी चाहिये। इस समरांगणमें जिनका वध हुआ है, उन्हें आप फिर नहीं देख सकते॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वमिष्ट्वा महायज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः।
कीर्तिं लोके परां प्राप्य गतिमग्र्यां गमिष्यसि ॥ २२ ॥

मूलम्

स त्वमिष्ट्वा महायज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः।
कीर्तिं लोके परां प्राप्य गतिमग्र्यां गमिष्यसि ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये आप पर्याप्त दक्षिणावाले समृद्धिशाली महायज्ञोंका अनुष्ठान करके इस लोकमें उत्तम कीर्ति और परलोकमें श्रेष्ठ गति प्राप्त करेंगे॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि कृष्णधर्मसंवादे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिरका संवादविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३॥