भागसूचना
द्वादशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको मनपर विजय करनेके लिये आदेश
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विविधो जायते व्याधिः शारीरो मानसस्तथा।
परस्परं तयोर्जन्म निर्द्वन्द्वं नोपपद्यते ॥ १ ॥
मूलम्
द्विविधो जायते व्याधिः शारीरो मानसस्तथा।
परस्परं तयोर्जन्म निर्द्वन्द्वं नोपपद्यते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— कुन्तीनन्दन! दो प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं—एक शरीरिक दूसरा मानसिक। इन दोनोंका जन्म एक-दूसरेके सहयोगसे होता है। दोनोंके पारस्परिक सहयोगके बिना इनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरे जायते व्याधिः शारीरः स निगद्यते।
मानसे जायते व्याधिर्मानसस्तु निगद्यते ॥ २ ॥
मूलम्
शरीरे जायते व्याधिः शारीरः स निगद्यते।
मानसे जायते व्याधिर्मानसस्तु निगद्यते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीरमें जो रोग उत्पन्न होता है, उसे शारीरिक रोग कहते हैं और मनमें जो व्याधि होती है, वह मानसिक रोग कहलाती है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीतोष्णे चैव वायुश्च गुणा राजन् शरीरजाः।
तेषां गुणानां साम्यं चेत् तदाहुः स्वस्थलक्षणम् ॥ ३ ॥
मूलम्
शीतोष्णे चैव वायुश्च गुणा राजन् शरीरजाः।
तेषां गुणानां साम्यं चेत् तदाहुः स्वस्थलक्षणम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! शीत, उष्ण और वायु—ये तीन शरीरके गुण हैं। यदि शरीरमें इन तीनों गुणोंकी समानता हो तो यह स्वस्थ पुरुषका लक्षण है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उष्णेन बाध्यते शीतं शीतेनोष्णं च बाध्यते।
सत्त्वं रजस्तमश्चेति त्रय आत्मगुणाः स्मृताः ॥ ४ ॥
मूलम्
उष्णेन बाध्यते शीतं शीतेनोष्णं च बाध्यते।
सत्त्वं रजस्तमश्चेति त्रय आत्मगुणाः स्मृताः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उष्ण शीतका निवारण करता और शीत उष्णका निवारण करता है। सत्त्व, रज और तम—ये तीन अन्तःकरणके गुण माने गये हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां गुणानां साम्यं चेत् तदाहुः स्वस्थलक्षणम्।
तेषामन्यतमोत्सेके विधानमुपदिश्यते ॥ ५ ॥
मूलम्
तेषां गुणानां साम्यं चेत् तदाहुः स्वस्थलक्षणम्।
तेषामन्यतमोत्सेके विधानमुपदिश्यते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन गुणोंकी समानता हो तो यह मानसिक स्वास्थ्यका लक्षण है। इनमेंसे किसी एककी वृद्धि होनेपर उसके निवारणका उपाय बताया जाता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हर्षेण बाध्यते शोको हर्षः शोकेन बाध्यते।
कश्चिद् दुःखे वर्तमानः सुखस्य स्मर्तुमिच्छति।
कश्चित् सुखे वर्तमानो दुःखस्य स्मर्तुमिच्छति ॥ ६ ॥
मूलम्
हर्षेण बाध्यते शोको हर्षः शोकेन बाध्यते।
कश्चिद् दुःखे वर्तमानः सुखस्य स्मर्तुमिच्छति।
कश्चित् सुखे वर्तमानो दुःखस्य स्मर्तुमिच्छति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हर्षसे शोक बाधित होता है और शोकसे हर्ष। कोई दुःखमें पड़कर सुखकी याद करना चाहता है और कोई सुखी होकर दुःखकी याद करना चाहता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं न दुःखी दुःखस्य न सुखी सुसुखस्य च।
स्मर्तुमिच्छसि कौन्तेय किमन्यद् दुःखविभ्रमात् ॥ ७ ॥
मूलम्
स त्वं न दुःखी दुःखस्य न सुखी सुसुखस्य च।
स्मर्तुमिच्छसि कौन्तेय किमन्यद् दुःखविभ्रमात् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! आप न तो दुखी होकर दुःखकी और न सुखी होकर उत्तम सुखकी याद करना चाहते हैं। यह दुःखविभ्रमके सिवा और क्या है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा ते स्वभावोऽयं येन पार्थावकृष्यसे।
दृष्ट्वा सभागतां कृष्णामेकवस्त्रां रजस्वलाम्।
मिषतां पाण्डवेयानां न तस्य स्मर्तुमिच्छसि ॥ ८ ॥
मूलम्
अथवा ते स्वभावोऽयं येन पार्थावकृष्यसे।
दृष्ट्वा सभागतां कृष्णामेकवस्त्रां रजस्वलाम्।
मिषतां पाण्डवेयानां न तस्य स्मर्तुमिच्छसि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा पार्थ! आपका यह स्वभाव ही है, जिससे आप आकृष्ट होते हैं। पाण्डवोंके देखते-देखते एकवस्त्रधारिणी रजस्वला कृष्णा सभामें घसीट लायी गयी। आप उसे उस अवस्थामें देखकर भी अब उसकी याद करना नहीं चाहते॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रव्राजनं च नगरादजिनैश्च विवासनम्।
महारण्यनिवासश्च न तस्य स्मर्तुमिच्छसि ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रव्राजनं च नगरादजिनैश्च विवासनम्।
महारण्यनिवासश्च न तस्य स्मर्तुमिच्छसि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपलोगोंको नगरसे निकाला गया, मृगछाला पहनाकर वनवास दिया गया और बड़े-बड़े घोर जंगलोंमें रहना पड़ा। इन सब बातोंको आप कभी याद करना नहीं चाहते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटासुरात् परिक्लेशश्चित्रसेनेन चाहवः ।
सैन्धवाच्च परिक्लेशो न तस्य स्मर्तुमिच्छसि ॥ १० ॥
मूलम्
जटासुरात् परिक्लेशश्चित्रसेनेन चाहवः ।
सैन्धवाच्च परिक्लेशो न तस्य स्मर्तुमिच्छसि ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जटासुरसे जो क्लेश उठाना पड़ा, चित्रसेनके साथ जूझना पड़ा और सिन्धुराज जयद्रथसे जो अपमान और कष्ट प्राप्त हुआ, उसका स्मरण करनेकी इच्छा आपको नहीं होती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरज्ञातचर्यायां कीचकेन पदा वधः।
याज्ञसेन्यास्तथा पार्थ न तस्य स्मर्तुमिच्छसि ॥ ११ ॥
मूलम्
पुनरज्ञातचर्यायां कीचकेन पदा वधः।
याज्ञसेन्यास्तथा पार्थ न तस्य स्मर्तुमिच्छसि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! अज्ञातवासके दिनों कीचकने जो द्रौपदीको लात मारी थी, उसे भी आप नहीं याद करना चाहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च ते द्रोणभीष्माभ्यां युद्धमासीदरिंदम।
मनसैकेन योद्धव्यं तत् ते युद्धमुपस्थितम् ॥ १२ ॥
मूलम्
यच्च ते द्रोणभीष्माभ्यां युद्धमासीदरिंदम।
मनसैकेन योद्धव्यं तत् ते युद्धमुपस्थितम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन! द्रोणाचार्य और भीष्मके साथ जो युद्ध हुआ था, वही युद्ध आपके सामने उपस्थित है। इस समय आपको अकेले अपने मनके साथ युद्ध करना होगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादभ्युपगन्तव्यं युद्धाय भरतर्षभ ।
परमव्यक्तरूपस्य पारं युक्त्या स्वकर्मभिः ॥ १३ ॥
मूलम्
तस्मादभ्युपगन्तव्यं युद्धाय भरतर्षभ ।
परमव्यक्तरूपस्य पारं युक्त्या स्वकर्मभिः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतभूषण! अतः उस युद्धके लिये आपको तैयार हो जाना चाहिये। अपने कर्तव्यका पालन करते हुए योगके द्वारा मनको वशीभूत करके आप मायासे परे परब्रह्मको प्राप्त कीजिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र नैव शरैः कार्यं न भृत्यैर्न च बन्धुभिः।
आत्मनैकेन योद्धव्यं तत् ते युद्धमुपस्थितम् ॥ १४ ॥
मूलम्
यत्र नैव शरैः कार्यं न भृत्यैर्न च बन्धुभिः।
आत्मनैकेन योद्धव्यं तत् ते युद्धमुपस्थितम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनके साथ होनेवाले इस युद्धमें न तो बाणोंका काम है और न सेवकों तथा बन्धु-बान्धवोंका ही। इस समय इसमें आपको अकेले ही युद्ध करना है और वह युद्ध सामने उपस्थित है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्ननिर्जिते युद्धे कामवस्थां गमिष्यसि।
एतज्ज्ञात्वा तु कौन्तेय कृतकृत्यो भविष्यसि ॥ १५ ॥
मूलम्
तस्मिन्ननिर्जिते युद्धे कामवस्थां गमिष्यसि।
एतज्ज्ञात्वा तु कौन्तेय कृतकृत्यो भविष्यसि ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि इस युद्धमें आप मनको न जीत सके तो पता नहीं आपकी क्या दशा होगी। कुन्तीनन्दन! इस बातको अच्छी तरह समझ लेनेपर आप कृतकृत्य हो जायँगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतां बुद्धिं विनिश्चित्य भूतानामागतिं गतिम्।
पितृपैतामहे वृत्ते शाधि राज्यं यथोचितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
एतां बुद्धिं विनिश्चित्य भूतानामागतिं गतिम्।
पितृपैतामहे वृत्ते शाधि राज्यं यथोचितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंका यों ही आवागमन होता रहता है। बुद्धिसे ऐसा निश्चय करके आप अपने बाप-दादोंके बर्तावका पालन करते हुए उचित रीतिसे राज्यका शासन कीजिये॥१६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि कृष्णधर्मसंवादे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें श्रीकृष्ण और युधिष्ठिरका संवादविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२॥