भागसूचना
एकादशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको इन्द्रद्वारा शरीरस्थ वृत्रासुरका संहार करनेका इतिहास सुनाकर समझाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ते नृपतौ तस्मिन् व्यासेनाद्भुतकर्मणा।
वासुदेवो महातेजास्ततो वचनमाददे ॥ १ ॥
मूलम्
इत्युक्ते नृपतौ तस्मिन् व्यासेनाद्भुतकर्मणा।
वासुदेवो महातेजास्ततो वचनमाददे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अद्भुत-कर्मा वेदव्यासजीने युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहा, तब महातेजस्वी भगवान् श्रीकृष्ण कुछ कहनेको उद्यत हुए॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं नृपं दीनमनसं निहतज्ञातिबान्धवम्।
उपप्लुतमिवादित्यं सधूममिव पावकम् ॥ २ ॥
निर्विण्णमनसं पार्थं ज्ञात्वा वृष्णिकुलोद्वहः।
आश्वासयन् धर्मसुतं प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ३ ॥
मूलम्
तं नृपं दीनमनसं निहतज्ञातिबान्धवम्।
उपप्लुतमिवादित्यं सधूममिव पावकम् ॥ २ ॥
निर्विण्णमनसं पार्थं ज्ञात्वा वृष्णिकुलोद्वहः।
आश्वासयन् धर्मसुतं प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाति-भाइयोंके मारे जानेसे युधिष्ठिरका मन शोकसे दीन एवं व्याकुल हो रहा था। वे राहुग्रस्त सूर्य और धूमयुक्त अग्निके समान निस्तेज हो गये थे। विशेषतः उनका मन राज्यकी ओरसे खिन्न एवं विरक्त हो गया था। यह सब जानकर वृष्णिवंशभूषण श्रीकृष्णने कुन्तीकुमार धर्मपुत्र युधिष्ठिरको आश्वासन देते हुए इस प्रकार कहना आरम्भ किया॥२-३॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं जिह्मं मृत्युपदमार्जवं ब्रह्मणः पदम्।
एतावान् ज्ञानविषयः किं प्रलापः करिष्यति ॥ ४ ॥
मूलम्
सर्वं जिह्मं मृत्युपदमार्जवं ब्रह्मणः पदम्।
एतावान् ज्ञानविषयः किं प्रलापः करिष्यति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— धर्मराज! कुटिलता मृत्युका स्थान है और सरलता ब्रह्मकी प्राप्तिका साधन है। इस बातको ठीक-ठीक समझ लेना ही ज्ञानका विषय है। इसके विपरीत जो कुछ कहा जाता है, वह प्रलाप है। भला वह किसीका क्या उपकार करेगा?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव ते निष्ठितं कर्म नैव ते शत्रवो जिताः।
कथं शत्रुं शरीरस्थमात्मनो नावबुध्यसे ॥ ५ ॥
मूलम्
नैव ते निष्ठितं कर्म नैव ते शत्रवो जिताः।
कथं शत्रुं शरीरस्थमात्मनो नावबुध्यसे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने अपने कर्तव्यकर्मको पूरा नहीं किया। आपने अभीतक शत्रुओंपर विजय भी नहीं पायी। आपका शत्रु तो आपके शरीरके भीतर ही बैठा हुआ है। आप अपने उस शत्रुको क्यों नहीं पहचानते हैं?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते वर्तयिष्यामि यथाधर्मं यथाश्रुतम्।
इन्द्रस्य सह वृत्रेण यथा युद्धमवर्तत ॥ ६ ॥
मूलम्
अत्र ते वर्तयिष्यामि यथाधर्मं यथाश्रुतम्।
इन्द्रस्य सह वृत्रेण यथा युद्धमवर्तत ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ मैं आपके समक्ष धर्मके अनुसार एक वृत्तान्त जैसा सुन रखा है, वैसा ही बता रहा हूँ। पूर्वकालमें वृत्रासुरके साथ इन्द्रका जैसा युद्ध हुआ था, वही प्रसंग सुना रहा हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृत्रेण पृथिवी व्याप्ता पुरा किल नराधिप।
दृष्ट्वा स पृथिवीं व्याप्तां गन्धस्य विषये हृते ॥ ७ ॥
धराहरणदुर्गन्धो विषयः समपद्यत ।
शतक्रतुश्चुकोपाथ गन्धस्य विषये हृते ॥ ८ ॥
मूलम्
वृत्रेण पृथिवी व्याप्ता पुरा किल नराधिप।
दृष्ट्वा स पृथिवीं व्याप्तां गन्धस्य विषये हृते ॥ ७ ॥
धराहरणदुर्गन्धो विषयः समपद्यत ।
शतक्रतुश्चुकोपाथ गन्धस्य विषये हृते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! कहते हैं, प्राचीन कालमें वृत्रासुरने समूची पृथ्वीपर अधिकार जमा लिया था। इन्द्रने देखा, वृत्रासुरने पृथ्वीपर अधिकार कर लिया और गन्धके विषयका भी अपहरण कर लिया और इस प्रकार पृथ्वीका अपहरण करनेसे सब ओर दुर्गन्धका प्रसार हो गया है। तब गन्धके विषयका अपहरण होनेसे शतक्रतु इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृत्रस्य स ततः क्रुद्धो घोरं वज्रमवासृजत्।
स वध्यमानो वज्रेण सुभृशं भूरितेजसा ॥ ९ ॥
विवेश सहसा तोयं जग्राह विषयं ततः।
मूलम्
वृत्रस्य स ततः क्रुद्धो घोरं वज्रमवासृजत्।
स वध्यमानो वज्रेण सुभृशं भूरितेजसा ॥ ९ ॥
विवेश सहसा तोयं जग्राह विषयं ततः।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उन्होंने कुपित हो वृत्रासुरके ऊपर घोर वज्रका प्रहार किया। महातेजस्वी वज्रसे अत्यन्त आहत हो वह असुर सहसा जलमें जा घुसा और उसके विषयभूत रसको ग्रहण करने लगा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्सु वृत्रगृहीतासु रसे च विषये हृते ॥ १० ॥
शतक्रतुरतिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत् ।
मूलम्
अप्सु वृत्रगृहीतासु रसे च विषये हृते ॥ १० ॥
शतक्रतुरतिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
जब जलपर भी वृत्रासुरका अधिकार तथा रसरूपी विषयका अपहरण हो गया, तब अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए इन्द्रने वहाँ भी उसपर वज्रका प्रहार किया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा ॥ ११ ॥
विवेश सहसा ज्योतिर्जग्राह विषयं ततः।
मूलम्
स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा ॥ ११ ॥
विवेश सहसा ज्योतिर्जग्राह विषयं ततः।
अनुवाद (हिन्दी)
जलमें अमिततेजस्वी वज्रकी मार खाकर वृत्रासुर सहसा तेजस्तत्त्वमें घुस गया और उसके विषयको ग्रहण करने लगा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्याप्ते ज्योतिषि वृत्रेण रूपेऽथ विषये हृते ॥ १२ ॥
शतक्रतुरतिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत् ।
मूलम्
व्याप्ते ज्योतिषि वृत्रेण रूपेऽथ विषये हृते ॥ १२ ॥
शतक्रतुरतिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
वृत्रासुरके द्वारा तेजपर भी अधिकार कर लिया गया और उसके रूप नामक विषयका अपहरण हो गया, यह जानकर शतक्रतुके क्रोधकी सीमा न रह गयी। उन्होंने वहाँ भी वृत्रासुरपर वज्रका प्रहार किया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा ॥ १३ ॥
विवेश सहसा वायुं जग्राह विषयं ततः।
मूलम्
स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा ॥ १३ ॥
विवेश सहसा वायुं जग्राह विषयं ततः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस तेजमें स्थित हुआ वृत्रासुर अमिततेजस्वी वज्रके प्रहारसे पीड़ित हो सहसा वायुमें समा गया और उसके स्पर्श नामक विषयको ग्रहण करने लगा॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्याप्ते वायौ तु वृत्रेण स्पर्शेऽथ विषये हृते ॥ १४ ॥
शतक्रतुरतिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत् ।
मूलम्
व्याप्ते वायौ तु वृत्रेण स्पर्शेऽथ विषये हृते ॥ १४ ॥
शतक्रतुरतिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
जब वृत्रासुरने वायुको भी व्याप्त करके उसके स्पर्श नामक विषयका अपहरण कर लिया, तब शतक्रतुने अत्यन्त कुपित होकर वहाँ उसके ऊपर अपना वज्र छोड़ दिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा ॥ १५ ॥
आकाशमभिदुद्राव जग्राह विषयं ततः।
मूलम्
स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा ॥ १५ ॥
आकाशमभिदुद्राव जग्राह विषयं ततः।
अनुवाद (हिन्दी)
वायुके भीतर अमित तेजस्वी वज्रसे पीड़ित हो वृत्रासुर भागकर आकाशमें जा छिपा और उसके विषयको ग्रहण करने लगा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाशे वृत्रभूतेऽथ शब्दे च विषये हृते ॥ १६ ॥
शतक्रतुरभिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत् ।
मूलम्
आकाशे वृत्रभूतेऽथ शब्दे च विषये हृते ॥ १६ ॥
शतक्रतुरभिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
जब आकाश वृत्रासुरमय हो गया और उसके शब्दरूपी विषयका अपहरण होने लगा, तब शतक्रतु इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने वहाँ भी उसपर वज्रका प्रहार किया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा ॥ १७ ॥
विवेश सहसा शक्रं जग्राह विषयं ततः।
मूलम्
स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा ॥ १७ ॥
विवेश सहसा शक्रं जग्राह विषयं ततः।
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशके भीतर अमित तेजस्वी वज्रसे पीड़ित हो वृत्रासुर सहसा इन्द्रमें समा गया और उनके विषयको ग्रहण करने लगा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य वृत्रगृहीतस्य मोहः समभवन्महान् ॥ १८ ॥
रथन्तरेण तं तात वसिष्ठः प्रत्यबोधयत्।
मूलम्
तस्य वृत्रगृहीतस्य मोहः समभवन्महान् ॥ १८ ॥
रथन्तरेण तं तात वसिष्ठः प्रत्यबोधयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
तात! वृत्रासुरसे गृहीत होनेपर इन्द्रके मनपर महान् मोह छा गया। तब महर्षि वसिष्ठने रथन्तर सामके द्वारा उन्हें सचेत किया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वृत्रं शरीरस्थं जघान भरतर्षभ।
शतक्रतुरदृश्येन वज्रेणेतीह नः श्रुतम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ततो वृत्रं शरीरस्थं जघान भरतर्षभ।
शतक्रतुरदृश्येन वज्रेणेतीह नः श्रुतम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् शतक्रतुने अपने शरीरके भीतर स्थित हुए वृत्रासुरको अदृश्य वज्रके द्वारा मार डाला ऐसा हमने सुना है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं धर्म्यं रहस्यं वै शक्रेणोक्तं महर्षिषु।
ऋषिभिश्च मम प्रोक्तं तन्निबोध जनाधिप ॥ २० ॥
मूलम्
इदं धर्म्यं रहस्यं वै शक्रेणोक्तं महर्षिषु।
ऋषिभिश्च मम प्रोक्तं तन्निबोध जनाधिप ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! यह धर्मसम्मत रहस्य इन्द्रने महर्षियोंको बताया और महर्षियोंने मुझसे कहा। वही रहस्य मैंने आपको सुनाया है। आप इसे अच्छी तरह समझें॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि कृष्णधर्मसंवादे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिरका संवादविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११॥