००६ संवर्तमरुत्तीये

भागसूचना

षष्ठोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नारदजीकी आज्ञासे मरुत्तका उनकी बतायी हुई युक्तिके अनुसार संवर्तसे भेंट करना

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
बृहस्पतेश्च संवादं मरुत्तस्य च धीमतः ॥ १ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
बृहस्पतेश्च संवादं मरुत्तस्य च धीमतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— राजन्! इस प्रसंगमें बुद्धिमान् राजा मरुत्त और बृहस्पतिके इस पुरातन संवादविषयक इतिहासका उल्लेख किया जाता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवराजस्य समयं कृतमाङ्गिरसेन ह।
श्रुत्वा मरुत्तो नृपतिर्यज्ञमाहारयत् परम् ॥ २ ॥

मूलम्

देवराजस्य समयं कृतमाङ्गिरसेन ह।
श्रुत्वा मरुत्तो नृपतिर्यज्ञमाहारयत् परम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा मरुत्तने जब यह सुना कि अंगिराके पुत्र बृहस्पतिजीने मनुष्यके यज्ञ न करानेकी प्रतिज्ञा कर ली है, तब उन्होंने एक महान् यज्ञका आयोजन किया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संकल्प्य मनसा यज्ञं करन्धमसुतात्मजः।
बृहस्पतिमुपागम्य वाग्मी वचनमब्रवीत् ॥ ३ ॥

मूलम्

संकल्प्य मनसा यज्ञं करन्धमसुतात्मजः।
बृहस्पतिमुपागम्य वाग्मी वचनमब्रवीत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बातचीत करनेमें कुशल करन्धमपौत्र मरुत्तने मन-ही-मन यज्ञका संकल्प करके बृहस्पतिजीके पास जाकर उनसे इस प्रकार कहा—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् यन्मया पूर्वमभिगम्य तपोधन।
कृतोऽभिसंधिर्यज्ञस्य भवतो वचनाद् गुरो ॥ ४ ॥
तमहं यष्टुमिच्छामि सम्भाराः सम्भृताश्च मे।
याज्योऽस्मि भवतः साधो तत् प्राप्नुहि विधत्स्व च ॥ ५ ॥

मूलम्

भगवन् यन्मया पूर्वमभिगम्य तपोधन।
कृतोऽभिसंधिर्यज्ञस्य भवतो वचनाद् गुरो ॥ ४ ॥
तमहं यष्टुमिच्छामि सम्भाराः सम्भृताश्च मे।
याज्योऽस्मि भवतः साधो तत् प्राप्नुहि विधत्स्व च ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! तपोधन! गुरुदेव! मैंने पहले एक बार आकर जो आपसे यज्ञके विषयमें सलाह ली थी और आपने जिसके लिये मुझे आज्ञा दी थी, उस यज्ञको अब मैं प्रारम्भ करना चाहता हूँ। आपके कथनानुसार मैंने सब सामग्री एकत्र कर ली है। साधु पुरुष! मैं आपका पुराना यजमान भी हूँ। इसलिये चलिये, मेरा यज्ञ करा दीजिये’॥४-५॥

मूलम् (वचनम्)

बृहस्पतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कामये याजयितुं त्वामहं पृथिवीपते।
वृतोऽस्मि देवराजेन प्रतिज्ञातं च तस्य मे ॥ ६ ॥

मूलम्

न कामये याजयितुं त्वामहं पृथिवीपते।
वृतोऽस्मि देवराजेन प्रतिज्ञातं च तस्य मे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिजीने कहा— राजन्! अब मैं तुम्हारा यज्ञ कराना नहीं चाहता। देवराज इन्द्रने मुझे अपना पुरोहित बना लिया है और मैंने भी उनके सामने यह प्रतिज्ञा कर ली है॥६॥

मूलम् (वचनम्)

मरुत्त उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्र्यमस्मि तव क्षेत्रं बहु मन्ये च ते भृशम्।
तवास्मि याज्यतां प्राप्तो भजमानं भजस्व माम् ॥ ७ ॥

मूलम्

पित्र्यमस्मि तव क्षेत्रं बहु मन्ये च ते भृशम्।
तवास्मि याज्यतां प्राप्तो भजमानं भजस्व माम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मरुत्त बोले— विप्रवर! मैं आपके पिताके समयसे ही आपका यजमान हूँ तथा विशेष सम्मान करता हूँ। आपका शिष्य हूँ और आपकी सेवामें तत्पर रहता हूँ। अतः मुझे अपनाइये॥७॥

मूलम् (वचनम्)

बृहस्पतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमर्त्यं याजयित्वाहं याजयिष्ये कथं नरम्।
मरुत्त गच्छ वा मा वा निवृत्तोऽस्म्यद्य याजनात् ॥ ८ ॥

मूलम्

अमर्त्यं याजयित्वाहं याजयिष्ये कथं नरम्।
मरुत्त गच्छ वा मा वा निवृत्तोऽस्म्यद्य याजनात् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिजीने कहा— मरुत्त! अमरोंका यज्ञ करानेके बाद मैं मरणधर्मा मनुष्योंका यज्ञ कैसे कराऊँगा? तुम जाओ या रहो। अब मैं मनुष्योंका यज्ञकार्य करानेसे निवृत्त हो गया हूँ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वां याजयितास्म्यद्य वृणु यं त्वमिहेच्छसि।
उपाध्यायं महाबाहो यस्ते यज्ञं करिष्यति ॥ ९ ॥

मूलम्

न त्वां याजयितास्म्यद्य वृणु यं त्वमिहेच्छसि।
उपाध्यायं महाबाहो यस्ते यज्ञं करिष्यति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! मैं तुम्हारा यज्ञ नहीं कराऊँगा। तुम दूसरे जिसको चाहो उसीको अपना पुरोहित बना लो। जो तुम्हारा यज्ञ करायेगा॥९॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु नृपतिर्मरुत्तो व्रीडितोऽभवत् ।
प्रत्यागच्छन् सुसंविग्नो ददर्श पथि नारदम् ॥ १० ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु नृपतिर्मरुत्तो व्रीडितोऽभवत् ।
प्रत्यागच्छन् सुसंविग्नो ददर्श पथि नारदम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— राजन्! बृहस्पतिजीसे ऐसा उत्तर पाकर महाराज मरुत्तको बड़ा संकोच हुआ। वे बहुत खिन्न होकर लौटे जा रहे थे, उसी समय मार्गमें उन्हें देवर्षि नारदजीका दर्शन हुआ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवर्षिणा समागम्य नारदेन स पार्थिवः।
विधिवत् प्राञ्जलिस्तस्थावथैनं नारदोऽब्रवीत् ॥ ११ ॥

मूलम्

देवर्षिणा समागम्य नारदेन स पार्थिवः।
विधिवत् प्राञ्जलिस्तस्थावथैनं नारदोऽब्रवीत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि नारदके साथ समागम होनेपर राजा मरुत्त यथाविधि हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब नारदजीने उनसे कहा—॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजर्षे नातिहृष्टोऽसि कच्चित् क्षेमं तवानघ।
क्व गतोऽसि कुतश्चेदमप्रीतिस्थानमागतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

राजर्षे नातिहृष्टोऽसि कच्चित् क्षेमं तवानघ।
क्व गतोऽसि कुतश्चेदमप्रीतिस्थानमागतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजर्षे! तुम अधिक प्रसन्न नहीं दिखायी देते हो। निष्पाप नरेश! तुम्हारे यहाँ कुशल तो है न? कहाँ गये थे और किस कारण तुम्हें यह खेदका अवसर प्राप्त हुआ है?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोतव्यं चेन्मया राजन् ब्रूहि मे पार्थिवर्षभ।
व्यपनेष्यामि ते मन्युं सर्वयत्नैर्नराधिप ॥ १३ ॥

मूलम्

श्रोतव्यं चेन्मया राजन् ब्रूहि मे पार्थिवर्षभ।
व्यपनेष्यामि ते मन्युं सर्वयत्नैर्नराधिप ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! नृपश्रेष्ठ! यदि मेरे सुनने योग्य हो तो बताओ। नरेश्वर! मैं पूर्ण यत्न करके तुम्हारा दुःख दूर करूँगा’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो मरुत्तः स नारदेन महर्षिणा।
विप्रलम्भमुपाध्यायात् सर्वमेव न्यवेदयत् ॥ १४ ॥

मूलम्

एवमुक्तो मरुत्तः स नारदेन महर्षिणा।
विप्रलम्भमुपाध्यायात् सर्वमेव न्यवेदयत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि नारदके ऐसा कहनेपर राजा मरुत्तने उपाध्याय (पुरोहित)-से बिछोह होनेका सारा समाचार उन्हें कह सुनाया॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

मरुत्त उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतोऽस्म्यङ्गिरसः पुत्रं देवाचार्यं बृहस्पतिम्।
यज्ञार्थमृत्विजं द्रष्टुं स च मां नाभ्यनन्दत ॥ १५ ॥

मूलम्

गतोऽस्म्यङ्गिरसः पुत्रं देवाचार्यं बृहस्पतिम्।
यज्ञार्थमृत्विजं द्रष्टुं स च मां नाभ्यनन्दत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मरुत्तने कहा— नारदजी! मैं अंगिराके पुत्र देवगुरु बृहस्पतिके पास गया था। मेरी यात्राका उद्देश्य यह था कि उन्हें अपना यज्ञ करानेके लिये ऋत्विज्‌के रूपमें देखूँ; किंतु उन्होंने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्याख्यातश्च तेनाहं जीवितुं नाद्य कामये।
परित्यक्तश्च गुरुणा दूषितश्चास्मि नारद ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रत्याख्यातश्च तेनाहं जीवितुं नाद्य कामये।
परित्यक्तश्च गुरुणा दूषितश्चास्मि नारद ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी! मेरे गुरुने मुझपर मरणधर्मा मनुष्य होनेका दोष लगाकर मुझे त्याग दिया। उनके द्वारा इस प्रकार अस्वीकार किये जानेके कारण अब मैं जीवित रहना नहीं चाहता॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु राज्ञा स नारदः प्रत्युवाच ह।
आविक्षितं महाराज वाचा संजीवयन्निव ॥ १७ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु राज्ञा स नारदः प्रत्युवाच ह।
आविक्षितं महाराज वाचा संजीवयन्निव ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— महाराज! राजा मरुत्तके ऐसा कहनेपर देवर्षि नारदने अपनी अमृतमयी वाणीके द्वारा अविक्षित्‌कुमारको जीवन प्रदान करते हुए-से कहा॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन्नङ्गिरसः पुत्रः संवर्तो नाम धार्मिकः।
चङ्क्रमीति दिशः सर्वा दिग्वासा मोहयन् प्रजाः ॥ १८ ॥
तं गच्छ यदि याज्यं त्वां न वाञ्छति बृहस्पतिः।
प्रसन्नस्त्वां महातेजाः संवर्तो याजयिष्यति ॥ १९ ॥

मूलम्

राजन्नङ्गिरसः पुत्रः संवर्तो नाम धार्मिकः।
चङ्क्रमीति दिशः सर्वा दिग्वासा मोहयन् प्रजाः ॥ १८ ॥
तं गच्छ यदि याज्यं त्वां न वाञ्छति बृहस्पतिः।
प्रसन्नस्त्वां महातेजाः संवर्तो याजयिष्यति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी बोले— राजन्! अंगिराके दूसरे पुत्र संवर्त बड़े धार्मिक हैं। वे दिगम्बर होकर प्रजाको मोहमें डालते हुए अर्थात् सबसे छिपे रहकर सम्पूर्ण दिशाओंमें भ्रमण करते रहते हैं। यदि बृहस्पति तुम्हें अपना यजमान बनाना नहीं चाहते तो तुम संवर्तके ही पास चले जाओ। संवर्त बड़े तेजस्वी हैं, वे प्रसन्नतापूर्वक तुम्हारा यज्ञ करा देंगे॥१८-१९॥

मूलम् (वचनम्)

मरुत्त उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजीवितोऽहं भवता वाक्येनानेन नारद।
पश्येयं क्व नु संवर्तं शंस मे वदतां वर॥२०॥
कथं च तस्मै वर्तेयं कथं मां न परित्यजेत्।
प्रत्याख्यातश्च तेनापि नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ २१ ॥

मूलम्

संजीवितोऽहं भवता वाक्येनानेन नारद।
पश्येयं क्व नु संवर्तं शंस मे वदतां वर॥२०॥
कथं च तस्मै वर्तेयं कथं मां न परित्यजेत्।
प्रत्याख्यातश्च तेनापि नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मरुत्त बोले— वक्ताओंमें श्रेष्ठ नारदजी! आपने यह बात बताकर मुझे जिला दिया। अब यह बताइये कि मैं संवर्त मुनिका दर्शन कहाँ कर सकूँगा? मुझे उनके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये? मैं कैसा व्यवहार करूँ, जिससे वे मेरा परित्याग न करें। यदि उन्होंने भी मेरी प्रार्थना ठुकरा दी तब मैं जीवित नहीं रह सकूँगा॥२०-२१॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उन्मत्तवेषं बिभ्रत् स चङ्क्रमीति यथासुखम्।
वाराणस्यां महाराज दर्शनेप्सुर्महेश्वरम् ॥ २२ ॥

मूलम्

उन्मत्तवेषं बिभ्रत् स चङ्क्रमीति यथासुखम्।
वाराणस्यां महाराज दर्शनेप्सुर्महेश्वरम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा— महाराज! वे इस समय वाराणसीमें महेश्वर विश्वनाथके दर्शनकी इच्छासे पागलका-सा वेष धारण किये अपनी मौजसे घूम रहे हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या द्वारं समासाद्य न्यसेथाः कुणपं क्वचित्।
तं दृष्ट्वा यो निवर्तेत संवर्तः स महीपते ॥ २३ ॥

मूलम्

तस्या द्वारं समासाद्य न्यसेथाः कुणपं क्वचित्।
तं दृष्ट्वा यो निवर्तेत संवर्तः स महीपते ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं पृष्ठतोऽनुगच्छेथा यत्र गच्छेत् स वीर्यवान्।
तनेकान्ते समासाद्य प्राञ्जलिः शरणं व्रजेः ॥ २४ ॥

मूलम्

तं पृष्ठतोऽनुगच्छेथा यत्र गच्छेत् स वीर्यवान्।
तनेकान्ते समासाद्य प्राञ्जलिः शरणं व्रजेः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम उस पुरीके प्रवेश-द्वारपर पहुँचकर वहाँ कहींसे एक मुर्दा लाकर रख देना। पृथ्वीनाथ! जो उस मुर्देको देखकर सहसा पीछेकी ओर लौट पड़े, उसे ही संवर्त समझना और वे शक्तिशाली मुनि जहाँ कहीं जायँ उनके पीछे-पीछे चले जाना। जब वे किसी एकान्त स्थानमें पहुचें, तब हाथ जोड़कर शरणापन्न हो जाना॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृच्छेत् त्वां यदि केनाहं तवाख्यात इति स्म ह।
ब्रूयास्त्वं नारदेनेति संवर्त कथितोऽसि मे ॥ २५ ॥

मूलम्

पृच्छेत् त्वां यदि केनाहं तवाख्यात इति स्म ह।
ब्रूयास्त्वं नारदेनेति संवर्त कथितोऽसि मे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तुमसे पूछें कि किसने तुम्हें मेरा पता बताया है तो कह देना—‘संवर्तजी! नारदजीने मुझे आपका पता बताया है’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चेत् त्वामनुयुञ्जीत ममानुगमनेप्सया।
शंसेथा वह्निमारूढं मामपि त्वमशङ्कया ॥ २६ ॥

मूलम्

स चेत् त्वामनुयुञ्जीत ममानुगमनेप्सया।
शंसेथा वह्निमारूढं मामपि त्वमशङ्कया ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वे तुमसे मेरे पास आनेके लिये मेरा पता पूछें तो तुम निर्भीक होकर कह देना कि ‘नारदजी आगमें समा गये’॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथेति प्रतिश्रुत्य पूजयित्वा च नारदम्।
अभ्यनुज्ञाय राजर्षिर्ययौ वाराणसीं पुरीम् ॥ २७ ॥

मूलम्

स तथेति प्रतिश्रुत्य पूजयित्वा च नारदम्।
अभ्यनुज्ञाय राजर्षिर्ययौ वाराणसीं पुरीम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— राजन्! यह सुनकर राजर्षि मरुत्तने ‘बहुत अच्छा’ कहकर नारदजीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और उनसे जानेकी आज्ञा ले वे वाराणसीपुरीकी ओर चल दिये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र गत्वा यथोक्तं स पुर्या द्वारे महायशाः।
कुणपं स्थापयामास नारदस्य वचः स्मरन् ॥ २८ ॥

मूलम्

तत्र गत्वा यथोक्तं स पुर्या द्वारे महायशाः।
कुणपं स्थापयामास नारदस्य वचः स्मरन् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जाकर नारदजीके कथनका स्मरण करते हुए महायशस्वी नरेशने उनके बताये अनुसार काशीपुरीके द्वारपर एक मुर्दा लाकर रख दिया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यौगपद्येन विप्रश्च पुरीद्वारमथाविशत् ।
ततः स कुणपं दृष्ट्वा सहसा संन्यवर्तत ॥ २९ ॥

मूलम्

यौगपद्येन विप्रश्च पुरीद्वारमथाविशत् ।
ततः स कुणपं दृष्ट्वा सहसा संन्यवर्तत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय विप्रवर संवर्त भी पुरीके द्वारपर आये; किंतु उस मुर्देको देखकर वे सहसा पीछेकी ओर लौट पड़े॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं निवृत्तमालक्ष्य प्राञ्जलिः पृष्ठतोऽन्वगात्।
आविक्षितो महीपालः संवर्तमुपशिक्षितुम् ॥ ३० ॥

मूलम्

स तं निवृत्तमालक्ष्य प्राञ्जलिः पृष्ठतोऽन्वगात्।
आविक्षितो महीपालः संवर्तमुपशिक्षितुम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें लौटा देख राजा मरुत्त संवर्तसे शिक्षा लेनेके लिये हाथ जोड़े उनके पीछे-पीछे गये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च तं विजने दृष्ट्वा पांसुभिः कर्दमेन च।
श्लेष्मणा चैव राजानं ष्ठीवनैश्च समाकिरत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

स च तं विजने दृष्ट्वा पांसुभिः कर्दमेन च।
श्लेष्मणा चैव राजानं ष्ठीवनैश्च समाकिरत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एकान्तमें पहुँचनेपर राजाको अपने पीछे-पीछे आते देख संवर्तने उनपर धूल फेंकी, कीचड़ उछाला तथा थूक और खखार डाल दिये॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथा बाध्यमानो वै संवर्तेन महीपतिः।
अन्वगादेव तमृषिं प्राञ्जलिः सम्प्रसादयन् ॥ ३२ ॥

मूलम्

स तथा बाध्यमानो वै संवर्तेन महीपतिः।
अन्वगादेव तमृषिं प्राञ्जलिः सम्प्रसादयन् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार संवर्तके सतानेपर भी राजा मरुत्त हाथ जोड़ उन्हें प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे उन महर्षिके पीछे-पीछे चले ही गये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो निवर्त्य संवर्तः परिश्रान्त उपाविशत्।
शीतलच्छायमासाद्य न्यग्रोधं बहुशाखिनम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततो निवर्त्य संवर्तः परिश्रान्त उपाविशत्।
शीतलच्छायमासाद्य न्यग्रोधं बहुशाखिनम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब संवर्त मुनि लौटकर शीतल छायासे युक्त तथा अनेक शाखाओंसे सुशोभित एक बरगदके नीचे थककर बैठ गये॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि संवर्तमरुत्तीये षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें संवर्त और मरुत्तका उपाख्यानविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ॥६॥