००५ संवर्तमरुत्तीये

भागसूचना

पञ्चमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

इन्द्रकी प्रेरणासे बृहस्पतिजीका मनुष्यको यज्ञ न करानेकी प्रतिज्ञा करना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथंवीर्यः समभवत् स राजा वदतां वर।
कथं च जातरूपेण समयुज्यत स द्विज ॥ १ ॥

मूलम्

कथंवीर्यः समभवत् स राजा वदतां वर।
कथं च जातरूपेण समयुज्यत स द्विज ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— वक्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे! राजा मरुत्तका पराक्रम कैसा था? तथा उन्हें सुवर्णकी प्राप्ति कैसे हुई?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व च तत् साम्प्रतं द्रव्यं भगवन्नवतिष्ठते।
कथं च शक्यमस्माभिस्तदवाप्तुं तपोधन ॥ २ ॥

मूलम्

क्व च तत् साम्प्रतं द्रव्यं भगवन्नवतिष्ठते।
कथं च शक्यमस्माभिस्तदवाप्तुं तपोधन ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! तपोधन! वह द्रव्य इस समय कहाँ है? और हम उसे किस तरह प्राप्त कर सकते हैं?॥२॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुराश्चैव देवाश्च दक्षस्यासन् प्रजापतेः।
अपत्यं बहुलं तात संस्पर्धन्त परस्परम् ॥ ३ ॥

मूलम्

असुराश्चैव देवाश्च दक्षस्यासन् प्रजापतेः।
अपत्यं बहुलं तात संस्पर्धन्त परस्परम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— तात! प्रजापति दक्षके देवता और असुर नामक बहुत-सी संतानें हैं, जो आपसमें स्पर्धा रखती हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैवाङ्गिरसः पुत्रौ व्रततुल्यौ बभूवतुः।
बृहस्पतिर्बृहत्तेजाः संवर्तश्च तपोधनः ॥ ४ ॥

मूलम्

तथैवाङ्गिरसः पुत्रौ व्रततुल्यौ बभूवतुः।
बृहस्पतिर्बृहत्तेजाः संवर्तश्च तपोधनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार महर्षि अंगिराके दो पुत्र हुए, जो व्रतका पालन करनेमें एक समान हैं। उनमेंसे एक हैं महातेजस्वी बृहस्पति और दूसरे हैं तपस्याके धनी संवर्त॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावतिस्पर्धिनौ राजन् पृथगास्तां परस्परम्।
बृहस्पतिः स संवर्तं बाधते स्म पुनः पुनः ॥ ५ ॥

मूलम्

तावतिस्पर्धिनौ राजन् पृथगास्तां परस्परम्।
बृहस्पतिः स संवर्तं बाधते स्म पुनः पुनः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वे दोनों भाई एक-दूसरेसे अलग रहते और आपसमें बड़ी स्पर्धा रखते थे। बृहस्पति अपने छोटे भाई संवर्तको बारंबार सताया करते थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स बाध्यमानः सततं भ्रात्रा ज्येष्ठेन भारत।
अर्थानुत्सृज्य दिग्वासा वनवासमरोचयत् ॥ ६ ॥

मूलम्

स बाध्यमानः सततं भ्रात्रा ज्येष्ठेन भारत।
अर्थानुत्सृज्य दिग्वासा वनवासमरोचयत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! अपने बड़े भाईके द्वारा सदा सताये जानेपर संवर्त धन-दौलतका मोह छोड़ घरसे निकल गये और दिगम्बर होकर वनमें रहने लगे। घरकी अपेक्षा वनवासमें ही उन्होंने सुख माना॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासवोऽप्यसुरान् सर्वान् विजित्य च निपात्य च।
इन्द्रत्वं प्राप्य लोकेषु ततो वव्रे पुरोहितम् ॥ ७ ॥
पुत्रमङ्गिरसो ज्येष्ठं विप्रज्येष्ठं बृहस्पतिम्।

मूलम्

वासवोऽप्यसुरान् सर्वान् विजित्य च निपात्य च।
इन्द्रत्वं प्राप्य लोकेषु ततो वव्रे पुरोहितम् ॥ ७ ॥
पुत्रमङ्गिरसो ज्येष्ठं विप्रज्येष्ठं बृहस्पतिम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय इन्द्रने समस्त असुरोंको जीतकर मार गिराया तथा त्रिभुवनका साम्राज्य प्राप्त कर लिया। तदनन्तर उन्होंने अंगिराके ज्येष्ठ पुत्र विप्रवर बृहस्पतिको अपना पुरोहित बनाया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याज्यस्त्वङ्गिरसः पूर्वमासीद् राजा करंधमः ॥ ८ ॥
वीर्येणाप्रतिमो लोके वृत्तेन च बलेन च।
शतक्रतुरिवौजस्वी धर्मात्मा संशितव्रतः ॥ ९ ॥

मूलम्

याज्यस्त्वङ्गिरसः पूर्वमासीद् राजा करंधमः ॥ ८ ॥
वीर्येणाप्रतिमो लोके वृत्तेन च बलेन च।
शतक्रतुरिवौजस्वी धर्मात्मा संशितव्रतः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके पहले अंगिराके यजमान राजा करन्धम थे। संसारमें बल, पराक्रम और सदाचारके द्वारा उनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं था। वे इन्द्रतुल्य तेजस्वी, धर्मात्मा और कठोर व्रतका पालन करनेवाले थे॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाहनं यस्य योधाश्च मित्राणि विविधानि च।
शयनानि च मुख्यानि महार्हाणि च सर्वशः ॥ १० ॥
ध्यानादेवाभवद् राजन् मुखवातेन सर्वशः।
स गुणैः पार्थिवान् सर्वान् वशे चक्रे नराधिपः ॥ ११ ॥

मूलम्

वाहनं यस्य योधाश्च मित्राणि विविधानि च।
शयनानि च मुख्यानि महार्हाणि च सर्वशः ॥ १० ॥
ध्यानादेवाभवद् राजन् मुखवातेन सर्वशः।
स गुणैः पार्थिवान् सर्वान् वशे चक्रे नराधिपः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उनके लिये वाहन, योद्धा, नाना प्रकारके मित्र तथा श्रेष्ठ और सब प्रकारकी बहुमूल्य शय्याएँ चिन्तन करनेसे और मुखजनित वायुसे ही प्रकट हो जाती थीं। राजा करन्धमने अपने गुणोंसे समस्त राजाओंको अपने वशमें कर लिया था॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजीव्य कालमिष्टं च सशरीरो दिवं गतः।
बभूव तस्य पुत्रस्तु ययातिरिव धर्मवित् ॥ १२ ॥
अविक्षिन्नाम शत्रुंजित्‌ स वशे कृतवान् महीम्।
विक्रमेण गुणैश्चैव पितेवासीत् स पार्थिवः ॥ १३ ॥

मूलम्

संजीव्य कालमिष्टं च सशरीरो दिवं गतः।
बभूव तस्य पुत्रस्तु ययातिरिव धर्मवित् ॥ १२ ॥
अविक्षिन्नाम शत्रुंजित्‌ स वशे कृतवान् महीम्।
विक्रमेण गुणैश्चैव पितेवासीत् स पार्थिवः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहते हैं राजा करन्धम अभीष्ट कालतक इस संसारमें जीवन धारण करके अन्तमें सशरीर स्वर्गलोकको चले गये थे। उनके पुत्र अविक्षित् ययातिके समान धर्मज्ञ थे। उन्होंने अपने पराक्रम और गुणोंके द्वारा शत्रुओंपर विजय पाकर सारी पृथ्वीको अपने वशमें कर लिया था। वे राजा अपनी प्रजाके लिये पिताके समान थे॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य वासवतुल्योऽभून्मरुत्तो नाम वीर्यवान्।
पुत्रस्तमनुरक्ताभूत् पृथिवी सागराम्बरा ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्य वासवतुल्योऽभून्मरुत्तो नाम वीर्यवान्।
पुत्रस्तमनुरक्ताभूत् पृथिवी सागराम्बरा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अविक्षित्‌के पुत्रका नाम मरुत्त था, जो इन्द्रके समान पराक्रमी थे। समुद्ररूपी वस्त्रसे आच्छादित हुई यह सारी पृथ्वी—समस्त भूमण्डलकी प्रजा उनमें अनुराग रखती थी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पर्धते स स्म सततं देवराजेन नित्यदा।
वासवोऽपि मरुत्तेन स्पर्धते पाण्डुनन्दन ॥ १५ ॥

मूलम्

स्पर्धते स स्म सततं देवराजेन नित्यदा।
वासवोऽपि मरुत्तेन स्पर्धते पाण्डुनन्दन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! राजा मरुत्त सदा देवराज इन्द्रसे स्पर्धा रखते थे और इन्द्र भी मरुत्तके साथ स्पर्धा रखते थे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुचिः स गुणवानासीन्मरुत्तः पृथिवीपतिः।
यतमानोऽपि यं शक्रो न विशेषयति स्म ह ॥ १६ ॥

मूलम्

शुचिः स गुणवानासीन्मरुत्तः पृथिवीपतिः।
यतमानोऽपि यं शक्रो न विशेषयति स्म ह ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीपति मरुत्त पवित्र एवं गुणवान् थे। इन्द्र उनसे बढ़नेके लिये सदा प्रयत्न करते थे तो भी कभी बढ़ नहीं पाते थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽशक्नुवन् विशेषाय समाहूय बृहस्पतिम्।
उवाचेदं वचो देवैः सहितो हरिवाहनः ॥ १७ ॥

मूलम्

सोऽशक्नुवन् विशेषाय समाहूय बृहस्पतिम्।
उवाचेदं वचो देवैः सहितो हरिवाहनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब देवताओंसहित इन्द्र किसी तरह बढ़ न सके, तब बृहस्पतिको बुलाकर उनसे इस प्रकार कहने लगे—॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बृहस्पते मरुत्तस्य मा स्म कार्षीः कथंचन।
दैवं कर्माथ पित्र्यं वा कर्तासि मम चेत् प्रियम्॥१८॥

मूलम्

बृहस्पते मरुत्तस्य मा स्म कार्षीः कथंचन।
दैवं कर्माथ पित्र्यं वा कर्तासि मम चेत् प्रियम्॥१८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बृहस्पतिजी! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो राजा मरुत्तका यज्ञ तथा श्राद्धकर्म किसी तरह न कराइयेगा॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं हि त्रिषु लोकेषु सुराणां च बृहस्पते।
इन्द्रत्वं प्राप्तवानेको मरुत्तस्तु महीपतिः ॥ १९ ॥

मूलम्

अहं हि त्रिषु लोकेषु सुराणां च बृहस्पते।
इन्द्रत्वं प्राप्तवानेको मरुत्तस्तु महीपतिः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बृहस्पते! एकमात्र मैं ही तीनों लोकोंका स्वामी और देवताओंका इन्द्र हूँ। मरुत्त तो केवल पृथ्वीके राजा हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं ह्यमर्त्यं ब्रह्मंस्त्वं याजयित्वा सुराधिपम्।
याजयेर्मृत्युसंयुक्तं मरुत्तमविशङ्कया ॥ २० ॥

मूलम्

कथं ह्यमर्त्यं ब्रह्मंस्त्वं याजयित्वा सुराधिपम्।
याजयेर्मृत्युसंयुक्तं मरुत्तमविशङ्कया ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! आप अमर देवराजका यज्ञ कराकर—देवेन्द्रके पुरोहित होकर मरणधर्मा मरुत्तका यज्ञ कैसे निःशंक होकर कराइयेगा?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां वा वृणीष्व भद्रं ते मरुत्तं वा महीपतिम्।
परित्यज्य मरुत्तं वा यथाजोषं भजस्व माम् ॥ २१ ॥

मूलम्

मां वा वृणीष्व भद्रं ते मरुत्तं वा महीपतिम्।
परित्यज्य मरुत्तं वा यथाजोषं भजस्व माम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपका कल्याण हो। आप मुझे अपना यजमान बनाइये अथवा पृथ्वीपति मरुत्तको। या तो मुझे छोड़िये या मरुत्तको छोड़कर चुपचाप मेरा आश्रय लीजिये’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स कौरव्य देवराज्ञा बृहस्पतिः।
मुहूर्तमिव संचिन्त्य देवराजानमब्रवीत् ॥ २२ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स कौरव्य देवराज्ञा बृहस्पतिः।
मुहूर्तमिव संचिन्त्य देवराजानमब्रवीत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! देवराज इन्द्रके ऐसा कहनेपर बृहस्पतिने दो घड़ीतक सोच-विचारकर उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया—॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं भूतानामधिपतिस्त्वयि लोकाः प्रतिष्ठिताः।
नमुचेर्विश्वरूपस्य निहन्ता त्वं बलस्य च ॥ २३ ॥

मूलम्

त्वं भूतानामधिपतिस्त्वयि लोकाः प्रतिष्ठिताः।
नमुचेर्विश्वरूपस्य निहन्ता त्वं बलस्य च ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवराज! तुम सम्पूर्ण जीवोंके स्वामी हो, तुम्हारे ही आधारपर समस्त लोक टिके हुए हैं। तुम नमुचि, विश्वरूप और बलासुरके विनाशक हो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमाजहर्थ देवानामेको वीरश्रियं पराम्।
त्वं बिभर्षि भुवं द्यां च सदैव बलसूदन ॥ २४ ॥

मूलम्

त्वमाजहर्थ देवानामेको वीरश्रियं पराम्।
त्वं बिभर्षि भुवं द्यां च सदैव बलसूदन ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बलसूदन! तुम अद्वितीय वीर हो। तुमने उत्तम सम्पत्ति प्राप्त की है। तुम पृथ्वी और स्वर्ग दोनोंका भरण-पोषण एवं संरक्षण करते हो॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौरोहित्यं कथं कृत्वा तव देवगणेश्वर।
याजयेयमहं मर्त्यं मरुत्तं पाकशासन ॥ २५ ॥

मूलम्

पौरोहित्यं कथं कृत्वा तव देवगणेश्वर।
याजयेयमहं मर्त्यं मरुत्तं पाकशासन ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवेश्वर! पाकशासन! तुम्हारी पुरोहिती करके मैं मरणधर्मा मरुत्तका यज्ञ कैसे करा सकता हूँ॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाश्वसिहि देवेन्द्र नाहं मर्त्यस्य कर्हिचित्।
ग्रहीष्यामि स्रुवं यज्ञे शृणु चेदं वचो मम ॥ २६ ॥

मूलम्

समाश्वसिहि देवेन्द्र नाहं मर्त्यस्य कर्हिचित्।
ग्रहीष्यामि स्रुवं यज्ञे शृणु चेदं वचो मम ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवेन्द्र! धैर्य धारण करो। अब मैं कभी किसी मनुष्यके यज्ञमें जाकर स्रुवा हाथमें नहीं लूँगा। इसके सिवा मेरी यह बात भी ध्यानसे सुन लो॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यरेता नोष्णः स्यात् परिवर्तेत मेदिनी।
भासं तु न रविः कुर्यान्न तु सत्यं चलेन्मयि॥२७॥

मूलम्

हिरण्यरेता नोष्णः स्यात् परिवर्तेत मेदिनी।
भासं तु न रविः कुर्यान्न तु सत्यं चलेन्मयि॥२७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आग चाहे ठण्डी हो जाय, पृथ्वी उलट जाय और सूर्यदेव प्रकाश करना छोड़ दें; किंतु मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा नहीं टल सकती’॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बृहस्पतिवचः श्रुत्वा शक्रो विगतमत्सरः।
प्रशस्यैनं विवेशाथ स्वमेव भवनं तदा ॥ २८ ॥

मूलम्

बृहस्पतिवचः श्रुत्वा शक्रो विगतमत्सरः।
प्रशस्यैनं विवेशाथ स्वमेव भवनं तदा ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! बृहस्पतिजीकी बात सुनकर इन्द्रका मात्सर्य दूर हो गया और तब वे उनकी प्रशंसा करके अपने घरमें चले गये॥२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि संवर्तमरुत्तीये पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें संवर्त और मरुत्तका उपाख्यानविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५॥