भागसूचना
तृतीयोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
व्यासजीका युधिष्ठिरको अश्वमेध यज्ञके लिये धनकी प्राप्तिका उपाय बताते हुए संवर्त और मरुत्तका प्रसंग उपस्थित करना
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिर तव प्रज्ञा न सम्यगिति मे मतिः।
न हि कश्चित्स्वयं मर्त्यः स्ववशः कुरुते क्रियाम् ॥ १ ॥
मूलम्
युधिष्ठिर तव प्रज्ञा न सम्यगिति मे मतिः।
न हि कश्चित्स्वयं मर्त्यः स्ववशः कुरुते क्रियाम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— युधिष्ठिर! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारी बुद्धि ठीक नहीं है। कोई भी मनुष्य स्वाधीन होकर अपने-आप कोई काम नहीं करता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईश्वरेण च युक्तोऽयं साध्वसाधु च मानवः।
करोति पुरुषः कर्म तत्र का परिदेवना ॥ २ ॥
मूलम्
ईश्वरेण च युक्तोऽयं साध्वसाधु च मानवः।
करोति पुरुषः कर्म तत्र का परिदेवना ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मनुष्य अथवा पुरुषसमुदाय ईश्वरसे प्रेरित होकर ही भले-बुरे काम करता है।1 अतः इसके लिये शोक करनेकी क्या आवश्यकता है?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानं मन्यसे चाथ पापकर्माणमन्ततः।
शृणु तत्र यथापापमपकृष्येत भारत ॥ ३ ॥
मूलम्
आत्मानं मन्यसे चाथ पापकर्माणमन्ततः।
शृणु तत्र यथापापमपकृष्येत भारत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! यदि तुम अन्ततोगत्वा अपने-आपको ही युद्धरूपी पापकर्मका प्रधान हेतु मानते हो तो वह पाप जिस प्रकार नष्ट हो सकता है, वह उपाय बताता हूँ, सुनो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपोभिः क्रतुभिश्चैव दानेन च युधिष्ठिर।
तरन्ति नित्यं पुरुषा ये स्म पापानि कुर्वते ॥ ४ ॥
मूलम्
तपोभिः क्रतुभिश्चैव दानेन च युधिष्ठिर।
तरन्ति नित्यं पुरुषा ये स्म पापानि कुर्वते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! जो लोग पाप करते हैं, वे तप, यज्ञ और दानके द्वारा ही सदा अपना उद्धार करते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञेन तपसा चैव दानेन च नराधिप।
पूयन्ते नरशार्दूल नरा दुष्कृतकारिणः ॥ ५ ॥
मूलम्
यज्ञेन तपसा चैव दानेन च नराधिप।
पूयन्ते नरशार्दूल नरा दुष्कृतकारिणः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! पुरुषसिंह! पापाचारी मनुष्य यज्ञ, दान और तपस्यासे ही पवित्र होते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असुराश्च सुराश्चैव पुण्यहेतोर्मखक्रियाम् ।
प्रयतन्ते महात्मानस्तस्माद् यज्ञाः परायणम् ॥ ६ ॥
मूलम्
असुराश्च सुराश्चैव पुण्यहेतोर्मखक्रियाम् ।
प्रयतन्ते महात्मानस्तस्माद् यज्ञाः परायणम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामना देवता और दैत्य पुण्यके लिये यज्ञ करनेका ही प्रयत्न करते हैं, अतः यज्ञ परम आश्रय है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञैरेव महात्मानो बभूवुरधिकाः सुराः।
ततो देवाः क्रियावन्तो दानवानभ्यधर्षयन् ॥ ७ ॥
मूलम्
यज्ञैरेव महात्मानो बभूवुरधिकाः सुराः।
ततो देवाः क्रियावन्तो दानवानभ्यधर्षयन् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञोंद्वारा ही महामनस्वी देवताओंका महत्त्व अधिक हुआ है और यज्ञोंसे ही क्रियानिष्ठ देवताओंने दानवोंको परास्त किया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजसूयाश्वमेधौ च सर्वमेधं च भारत।
नरमेधं च नृपते त्वमाहर युधिष्ठिर ॥ ८ ॥
मूलम्
राजसूयाश्वमेधौ च सर्वमेधं च भारत।
नरमेधं च नृपते त्वमाहर युधिष्ठिर ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशी नरेश युधिष्ठिर! तुम राजसूय, अश्वमेध, सर्वमेध और नरमेध यज्ञ करो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजस्व वाजिमेधेन विधिवद् दक्षिणावता।
बहुकामान्नवित्तेन रामो दाशरथिर्यथा ॥ ९ ॥
मूलम्
यजस्व वाजिमेधेन विधिवद् दक्षिणावता।
बहुकामान्नवित्तेन रामो दाशरथिर्यथा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विधिवत् दक्षिणा देकर बहुत-से मनोवांछित पदार्थ, अन्न और धनसे सम्पन्न अश्वमेध यज्ञके द्वारा दशरथनन्दन श्रीरामकी भाँति यजन करो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च भरतो राजा दौष्यन्तिः पृथिवीपतिः।
शाकुन्तलो महावीर्यस्तव पूर्वपितामहः ॥ १० ॥
मूलम्
यथा च भरतो राजा दौष्यन्तिः पृथिवीपतिः।
शाकुन्तलो महावीर्यस्तव पूर्वपितामहः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा तुम्हारे पूर्वपितामह महापराक्रमी दुष्यन्तकुमार शकुन्तलानन्दन पृथ्वीपति राजा भरतने जैसे यज्ञ किया था, उसी प्रकार तुम भी करो॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंशयं वाजिमेधः पावयेत् पृथिवीमपि।
अभिप्रायस्तु मे कश्चित् तं त्वं श्रोतुमिहार्हसि ॥ ११ ॥
मूलम्
असंशयं वाजिमेधः पावयेत् पृथिवीमपि।
अभिप्रायस्तु मे कश्चित् तं त्वं श्रोतुमिहार्हसि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— विप्रवर! इसमें संदेह नहीं कि अश्वमेध यज्ञ सारी पृथ्वीको भी पवित्र कर सकता है, किंतु इसके विषयमें मेरा एक अभिप्राय है, उसे आप यहाँ सुन लें॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमं ज्ञातिवधं कृत्वा सुमहान्तं द्विजोत्तम।
दानमल्पं न शक्नोमि दातुं वित्तं च नास्ति मे॥१२॥
मूलम्
इमं ज्ञातिवधं कृत्वा सुमहान्तं द्विजोत्तम।
दानमल्पं न शक्नोमि दातुं वित्तं च नास्ति मे॥१२॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! अपने जाति-भाइयोंका यह महान् संहार करके अब मुझमें थोड़ा-सा भी दान देनेकी शक्ति नहीं रह गयी है; क्योंकि मेरे पास धन नहीं है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु बालानिमान् दीनानुत्सहे वसु याचितुम्।
तथैवार्द्रव्रणान् कृच्छ्रे वर्तमानान् नृपात्मजान् ॥ १३ ॥
मूलम्
न तु बालानिमान् दीनानुत्सहे वसु याचितुम्।
तथैवार्द्रव्रणान् कृच्छ्रे वर्तमानान् नृपात्मजान् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ जो राजकुमार उपस्थित हैं, ये सब-के-सब बालक और दीन हैं, महान् संकटमें पड़े हुए हैं और इनके शरीरका घाव भी अभी सूखने नहीं पाया है; अतः इन सबसे मैं धनकी याचना नहीं कर सकता॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं विनाश्य पृथिवीं यज्ञार्थं द्विजसत्तम।
करमाहारयिष्यामि कथं शोकपरायणः ॥ १४ ॥
मूलम्
स्वयं विनाश्य पृथिवीं यज्ञार्थं द्विजसत्तम।
करमाहारयिष्यामि कथं शोकपरायणः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! स्वयं ही सारी पृथ्वीका विनाश कराकर शोकमग्न हुआ मैं इनसे यज्ञके लिये कर किस तरह वसूल करूँगा॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनापराधेन वसुधा वसुधाधिपाः ।
प्रणष्टा योजयित्वास्मानकीर्त्या मुनिसत्तम ॥ १५ ॥
मूलम्
दुर्योधनापराधेन वसुधा वसुधाधिपाः ।
प्रणष्टा योजयित्वास्मानकीर्त्या मुनिसत्तम ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिश्रेष्ठ! दुर्योधनके अपराधसे यह पृथ्वी और अधिकांश राजा हमलोगोंके माथे अपयशका टीका लगाकर नष्ट हो गये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनेन पृथिवी क्षयिता वित्तकारणात्।
कोशश्चापि विशीर्णोऽसौ धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ॥ १६ ॥
मूलम्
दुर्योधनेन पृथिवी क्षयिता वित्तकारणात्।
कोशश्चापि विशीर्णोऽसौ धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनने धनके लोभसे समस्त भूमण्डलका संहार कराया; किन्तु धन मिलना तो दूर रहा, उस दुर्बुद्धिका अपना खजाना भी खाली हो गया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवी दक्षिणा चात्र विधिः प्रथमकल्पितः।
विद्वद्भिः परिदृष्टोऽयं शिष्टो विधिविपर्ययः ॥ १७ ॥
मूलम्
पृथिवी दक्षिणा चात्र विधिः प्रथमकल्पितः।
विद्वद्भिः परिदृष्टोऽयं शिष्टो विधिविपर्ययः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वमेध यज्ञमें समूची पृथ्वीकी दक्षिणा देनी चाहिये। यही विद्वानोंने मुख्य कल्प माना है। इसके सिवा जो कुछ किया जाता है, वह विधिके विपरीत है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च प्रतिनिधिं कर्तुं चिकीर्षामि तपोधन।
अत्र मे भगवन् सम्यक् साचिव्यं कर्तुमर्हसि ॥ १८ ॥
मूलम्
न च प्रतिनिधिं कर्तुं चिकीर्षामि तपोधन।
अत्र मे भगवन् सम्यक् साचिव्यं कर्तुमर्हसि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपोधन! मुख्य वस्तुके अभावमें जो दूसरी कोई वस्तु दी जाती है, वह प्रतिनिधि दक्षिणा कहलाती है; किंतु प्रतिनिधि दक्षिणा देनेकी मेरी इच्छा नहीं होती; अतः भगवन्! इस विषयमें आप मुझे उचित सलाह देनेकी कृपा करें॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु पार्थेन कृष्णद्वैपायनस्तदा ।
मुहूर्तमनुसंचिन्त्य धर्मराजानमब्रवीत् ॥ १९ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु पार्थेन कृष्णद्वैपायनस्तदा ।
मुहूर्तमनुसंचिन्त्य धर्मराजानमब्रवीत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार युधिष्ठिरके इस प्रकार कहनेपर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासने दो घड़ीतक सोच-विचारकर धर्मराजसे कहा—॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोशश्चापि विशीर्णोऽयं परिपूर्णो भविष्यति।
विद्यते द्रविणं पार्थ गिरौ हिमवति स्थितम् ॥ २० ॥
उत्सृष्टं ब्राह्मणैर्यज्ञे मरुत्तस्य महात्मनः।
तदानयस्व कौन्तेय पर्याप्तं तद् भविष्यति ॥ २१ ॥
मूलम्
कोशश्चापि विशीर्णोऽयं परिपूर्णो भविष्यति।
विद्यते द्रविणं पार्थ गिरौ हिमवति स्थितम् ॥ २० ॥
उत्सृष्टं ब्राह्मणैर्यज्ञे मरुत्तस्य महात्मनः।
तदानयस्व कौन्तेय पर्याप्तं तद् भविष्यति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पार्थ! यद्यपि तुम्हारा खजाना इस समय खाली हो गया है तथापि वह बहुत शीघ्र भर जायगा। हिमालय पर्वतपर महात्मा मरुत्तके यज्ञमें ब्राह्मणोंने जो धन छोड़ दिया था, वह वहीं पड़ा हुआ है। कुन्तीकुमार! उसे ले आओ। वह तुम्हारे लिये पर्याप्त होगा’॥२०-२१॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं यज्ञे मरुत्तस्य द्रविणं तत् समाचितम्।
कस्मिंश्च काले स नृपो बभूव वदतां वर ॥ २२ ॥
मूलम्
कथं यज्ञे मरुत्तस्य द्रविणं तत् समाचितम्।
कस्मिंश्च काले स नृपो बभूव वदतां वर ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— वक्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे! मरुत्तके यज्ञमें इतने धनका संग्रह किस प्रकार किया गया था तथा वे महाराज मरुत्त किस समय इस पृथ्वीपर प्रकट हुए थे?॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि शुश्रूषसे पार्थ शृणु कारन्धमं नृपम्।
यस्मिन् काले महीवीर्यः स राजासीन्महाधनः ॥ २३ ॥
मूलम्
यदि शुश्रूषसे पार्थ शृणु कारन्धमं नृपम्।
यस्मिन् काले महीवीर्यः स राजासीन्महाधनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— पार्थ! यदि तुम सुनना चाहते हो तो करन्धमके पौत्र मरुत्तका वृत्तान्त सुनो। वे महाधनी और महापराक्रमी राजा किस कालमें इस पृथ्वीपर प्रकट हुए थे, यह बता रहा हूँ॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि संवर्तमरुत्तीये तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें संवर्त और मरुत्तका उपाख्यानविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥३॥
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यह कथन युधिष्ठिरको सान्त्वना देनेके लिये गौणरूपमें इस दृष्टिसे है कि मरनेवालोंकी मृत्यु उनके प्रारब्ध-कर्मानुसार अवश्यम्भावी थी; अतः यह जो कुछ हुआ है, ईश्वर प्रेरणाके ही अनुसार हुआ है। ↩︎