००२

भागसूचना

द्वितीयोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्ण और व्यासजीका युधिष्ठिरको समझाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु राज्ञा स धृतराष्ट्रेण धीमता।
तूष्णीं बभूव मेधावी तमुवाचाथ केशवः ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु राज्ञा स धृतराष्ट्रेण धीमता।
तूष्णीं बभूव मेधावी तमुवाचाथ केशवः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रके ऐसा कहनेपर भी मेधावी युधिष्ठिर चुप ही रहे। तब भगवान् श्रीकृष्णने कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव मनसा शोकः क्रियमाणो जनाधिप।
संतापयति चैतस्य पूर्वप्रेतान् पितामहान् ॥ २ ॥

मूलम्

अतीव मनसा शोकः क्रियमाणो जनाधिप।
संतापयति चैतस्य पूर्वप्रेतान् पितामहान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनेश्वर! यदि मनुष्य मरे हुए प्राणीके लिये अपने मनमें अधिक शोक करता है तो उसका वह शोक उसके पहलेके मरे हुए पितामहोंको भारी संतापमें डाल देता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजस्व विविधैर्यज्ञैर्बहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः ।
देवांस्तर्पय सोमेन स्वधया च पितॄनपि ॥ ३ ॥

मूलम्

यजस्व विविधैर्यज्ञैर्बहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः ।
देवांस्तर्पय सोमेन स्वधया च पितॄनपि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये आप बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान कीजिये और सोमरसके द्वारा देवताओं तथा स्वधाद्वारा पितरोंको तृप्त कीजिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिथीनन्नपानेन कामैरन्यैरकिंचनान् ।
विदितं वेदितव्यं ते कर्तव्यमपि ते कृतम् ॥ ४ ॥

मूलम्

अतिथीनन्नपानेन कामैरन्यैरकिंचनान् ।
विदितं वेदितव्यं ते कर्तव्यमपि ते कृतम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतिथियोंको अन्न और जल देकर तथा अकिंचन मनुष्योंको दूसरी-दूसरी मनचाही वस्तुएँ देकर संतुष्ट कीजिये। आपने जाननेयोग्य तत्त्वको जान लिया है। करनेयोग्य कार्यको भी पूर्ण कर लिया है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुताश्च राजधर्मास्ते भीष्माद् भागीरथीसुतात्।
कृष्णद्वैपायनाच्चैव नारदाद् विदुरात् तथा ॥ ५ ॥

मूलम्

श्रुताश्च राजधर्मास्ते भीष्माद् भागीरथीसुतात्।
कृष्णद्वैपायनाच्चैव नारदाद् विदुरात् तथा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपने गंगानन्दन भीष्मसे राजधर्मोंका वर्णन सुना है। श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद और विदुरजीसे कर्तव्यका उपदेश श्रवण किया है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेमामर्हसि मूढानां वृत्तिं त्वमनुवर्तितुम्।
पितृपैतामहं वृत्तमास्थाय धुरमुद्वह ॥ ६ ॥

मूलम्

नेमामर्हसि मूढानां वृत्तिं त्वमनुवर्तितुम्।
पितृपैतामहं वृत्तमास्थाय धुरमुद्वह ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आपको मूढ़ पुरुषोंके इस बर्तावका अनुसरण नहीं करना चाहिये। पिता-पितामहोंके बर्तावका आश्रय लेकर राजकार्यका भार सँभालिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युक्तं हि यशसा क्षात्रं स्वर्गं प्राप्तुमसंशयम्।
न हि कश्चिद्धि शूराणां निहतोऽत्र पराङ्‌मुखः ॥ ७ ॥

मूलम्

युक्तं हि यशसा क्षात्रं स्वर्गं प्राप्तुमसंशयम्।
न हि कश्चिद्धि शूराणां निहतोऽत्र पराङ्‌मुखः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस युद्धमें वीरोचित सुयशसे युक्त हुआ सारा क्षत्रियसमुदाय स्वर्गलोक पानेका अधिकारी है, क्योंकि इन शूरवीरोंमेंसे कोई भी युद्धमें पीठ दिखाकर नहीं मारा गया है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यज शोकं महाराज भवितव्यं हि तत्तथा।
न शक्यास्ते पुनर्द्रष्टुं त्वया येऽस्मिन् रणे हताः ॥ ८ ॥

मूलम्

त्यज शोकं महाराज भवितव्यं हि तत्तथा।
न शक्यास्ते पुनर्द्रष्टुं त्वया येऽस्मिन् रणे हताः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! शोक त्याग दीजिये, क्योंकि जो कुछ हुआ है, वैसी ही होनहार थी। इस युद्धमें जो लोग मारे गये हैं, उन्हें आप फिर नहीं देख सकते’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावदुक्त्वा गोविन्दो धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
विरराम महातेजास्तमुवाच युधिष्ठिरः ॥ ९ ॥

मूलम्

एतावदुक्त्वा गोविन्दो धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
विरराम महातेजास्तमुवाच युधिष्ठिरः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराज युधिष्ठिरसे ऐसा कहकर महातेजस्वी भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो गये। तब युधिष्ठिरने उनसे कहा॥९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोविन्द मयि या प्रीतिस्तव सा विदिता मम।
सौहृदेन तथा प्रेम्णा सदा मय्यनुकम्पसे ॥ १० ॥

मूलम्

गोविन्द मयि या प्रीतिस्तव सा विदिता मम।
सौहृदेन तथा प्रेम्णा सदा मय्यनुकम्पसे ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— गोविन्द! आपका जो मेरे ऊपर प्रेम है, वह मुझे अच्छी तरह ज्ञात है। आप स्नेह और सौहार्दवश सदा ही मुझपर कृपा करते रहते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियं तु मे स्यात् सुमहत्कृतं चक्रगदाधर।
श्रीमन् प्रीतेन मनसा सर्वं यादवनन्दन ॥ ११ ॥
यदि मामनुजानीयाद् भवान् गन्तुं तपोवनम्।
(कृतकृत्यो भविष्यामि इति मे निश्चिता मतिः।)

मूलम्

प्रियं तु मे स्यात् सुमहत्कृतं चक्रगदाधर।
श्रीमन् प्रीतेन मनसा सर्वं यादवनन्दन ॥ ११ ॥
यदि मामनुजानीयाद् भवान् गन्तुं तपोवनम्।
(कृतकृत्यो भविष्यामि इति मे निश्चिता मतिः।)

अनुवाद (हिन्दी)

चक्र और गदा धारण करनेवाले श्रीमान् यादवनन्दन! यदि आप प्रसन्न मनसे मुझे तपोवनमें जानेकी आज्ञा दे दें तो मेरा सारा और महान् प्रिय कार्य सम्पन्न हो जाय। उस दशामें मैं कृतकार्य हो जाऊँगा, यह मेरा निश्चित विचार है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि शान्तिं प्रपश्यामि पातयित्वा पितामहम् ॥ १२ ॥
(नृशंसः पुरुषव्याघ्रं गुरुं वीर्यबलान्वितम्।)
कर्णं च पुरुषव्याघ्रं संग्रामेष्वपलायिनम्।

मूलम्

न हि शान्तिं प्रपश्यामि पातयित्वा पितामहम् ॥ १२ ॥
(नृशंसः पुरुषव्याघ्रं गुरुं वीर्यबलान्वितम्।)
कर्णं च पुरुषव्याघ्रं संग्रामेष्वपलायिनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं क्रूरतापूर्वक पितामह भीष्मको, बल-पराक्रमसे सम्पन्न पुरुषसिंह गुरुदेव द्रोणाचार्यको और युद्धसे कभी पीठ न दिखानेवाले नरश्रेष्ठ कर्णको मरवाकर कभी शान्ति नहीं पा सकता॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा येन मुच्येयमस्मात् क्रूरादरिंदम ॥ १३ ॥
कर्मणा तद् विधत्स्वेह येन शुध्यति मे मनः।

मूलम्

कर्मणा येन मुच्येयमस्मात् क्रूरादरिंदम ॥ १३ ॥
कर्मणा तद् विधत्स्वेह येन शुध्यति मे मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन श्रीकृष्ण! अब जिस कर्मके द्वारा मुझे अपने इस क्रूरतापूर्ण पापसे छुटकारा मिले तथा जिससे मेरा चित्त शुद्ध हो, वही कीजिये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवं वादिनं पार्थं व्यासः प्रोवाच धर्मवित् ॥ १४ ॥
सान्त्वयन् सुमहातेजाः शुभं वचनमर्थवत्।
अकृता ते मतिस्तात पुनर्बाल्येन मुह्यसे ॥ १५ ॥

मूलम्

तमेवं वादिनं पार्थं व्यासः प्रोवाच धर्मवित् ॥ १४ ॥
सान्त्वयन् सुमहातेजाः शुभं वचनमर्थवत्।
अकृता ते मतिस्तात पुनर्बाल्येन मुह्यसे ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको ऐसी बातें करते देख धर्मके तत्त्वको जाननेवाले महातेजस्वी व्यासजीने उन्हें सान्त्वना देते हुए यह शुभ एवं सार्थक वचन कहा—‘तात! तुम्हारी बुद्धि अभी शुद्ध नहीं हुई है। तुम पुनः बालकोचित अविवेकके कारण मोहमें पड़ गये॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमाकारा वयं तात प्रलपामो मुहुर्मुहुः।
विदिताः क्षत्रधर्मास्ते येषां युद्धेन जीविका ॥ १६ ॥

मूलम्

किमाकारा वयं तात प्रलपामो मुहुर्मुहुः।
विदिताः क्षत्रधर्मास्ते येषां युद्धेन जीविका ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! अब हमलोग किस लायक रह गये। हम बारंबार जो कुछ कहते या समझाते हैं वह सब व्यर्थका प्रलाप सिद्ध हो रहा है। युद्धसे ही जिनकी जीविका चलती है, उन क्षत्रियोंके धर्म भलीभाँति तुम्हें विदित हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथाप्रवृत्तो नृपतिर्नाधिबन्धेन युज्यसे ।
मोक्षधर्माश्च निखिला याथातथ्येन ते श्रुताः ॥ १७ ॥

मूलम्

तथाप्रवृत्तो नृपतिर्नाधिबन्धेन युज्यसे ।
मोक्षधर्माश्च निखिला याथातथ्येन ते श्रुताः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनके अनुसार बर्ताव करनेवाला राजा कभी मानसिक चिन्तासे ग्रस्त नहीं होता। तुमने सम्पूर्ण मोक्षधर्मोंको भी यथार्थरूपसे सुना है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(यथा वै कामजां मायां परित्यक्तुं त्वमर्हसि।
तथा तु कुर्वन् नृपतिर्नानुबन्धेन युज्यते॥)

मूलम्

(यथा वै कामजां मायां परित्यक्तुं त्वमर्हसि।
तथा तु कुर्वन् नृपतिर्नानुबन्धेन युज्यते॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हें कामजनित मायाका जिस प्रकार परित्याग करना चाहिये, उस प्रकार उसका त्याग करनेवाला नरेश कभी बन्धनमें नहीं पड़ता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असकृच्चापि संदेहाश्छिन्नास्ते कामजा मया।
अश्रद्दधानो दुर्मेधा लुप्तस्मृतिरसि ध्रुवम् ॥ १८ ॥

मूलम्

असकृच्चापि संदेहाश्छिन्नास्ते कामजा मया।
अश्रद्दधानो दुर्मेधा लुप्तस्मृतिरसि ध्रुवम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने अनेक बार तुम्हारे कामजनित संदेहोंका निवारण किया है; परंतु तुम दुर्बुद्धि होनेके कारण उसपर श्रद्धा नहीं करते। निश्चय इसीलिये तुम्हारी स्मरणशक्ति लुप्त हो गयी है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैवं भव न ते युक्तमिदमज्ञानमीदृशम्।
प्रायश्चित्तानि सर्वाणि विदितानि च तेऽनघ।
राजधर्माश्च ते सर्वे दानधर्माश्च ते श्रुताः ॥ १९ ॥

मूलम्

मैवं भव न ते युक्तमिदमज्ञानमीदृशम्।
प्रायश्चित्तानि सर्वाणि विदितानि च तेऽनघ।
राजधर्माश्च ते सर्वे दानधर्माश्च ते श्रुताः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम ऐसे न बनो, तुम्हारे लिये इस तरह अज्ञानका अवलम्बन उचित नहीं है। निष्पाप नरेश! तुम्हें सब प्रकारके प्रायश्चित्तोंका भी ज्ञान है। तुमने सब प्रकारके राजधर्म और दानधर्म भी सुने हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कथं सर्वधर्मज्ञः सर्वागमविशारदः।
परिमुह्यसि भूयस्त्वमज्ञानादिव भारत ॥ २० ॥

मूलम्

स कथं सर्वधर्मज्ञः सर्वागमविशारदः।
परिमुह्यसि भूयस्त्वमज्ञानादिव भारत ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! इस प्रकार सब धर्मोंके ज्ञाता और सम्पूर्ण शास्त्रोंके विद्वान् होकर भी तुम अज्ञानवश बारंबार मोहमें क्यों पड़ते हो?’॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २२ श्लोक हैं)