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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

सूचना (हिन्दी)

श्रीमहाभारतम्

भागसूचना

आश्वमेधिकपर्व
अश्वमेधपर्व
प्रथमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका शोकमग्न होकर गिरना और धृतराष्ट्रका उन्हें समझाना

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥

मूलम्

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उनकी लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतोदकं तु राजानं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरः।
पुरस्कृत्य महाबाहुरुत्तताराकुलेन्द्रियः ॥ २ ॥

मूलम्

कृतोदकं तु राजानं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरः।
पुरस्कृत्य महाबाहुरुत्तताराकुलेन्द्रियः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब राजा धृतराष्ट्र भीष्मको जलांजलि दे चुके, तब महाबाहु युधिष्ठिर उन्हें आगे करके जलसे बाहर निकले। उस समय उनकी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ शोकसे व्याकुल हो रही थीं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तीर्य तु महाबाहुर्बाष्पव्याकुललोचनः ।
पपात तीरे गङ्गाया व्याधविद्ध इव द्विपः ॥ ३ ॥

मूलम्

उत्तीर्य तु महाबाहुर्बाष्पव्याकुललोचनः ।
पपात तीरे गङ्गाया व्याधविद्ध इव द्विपः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाहर निकलकर विशालबाहु युधिष्ठिर गंगाजीके तटपर व्याधके बाणोंसे बिंधे हुए गजराजके समान गिर पड़े। उस समय उनके दोनों नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बह रही थी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं सीदमानं जग्राह भीमः कृष्णेन चोदितः।
मैवमित्यब्रवीच्चैनं कृष्णः परबलार्दनः ॥ ४ ॥

मूलम्

तं सीदमानं जग्राह भीमः कृष्णेन चोदितः।
मैवमित्यब्रवीच्चैनं कृष्णः परबलार्दनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें शिथिल होते देख श्रीकृष्णकी प्रेरणासे भीमसेनने उन्हें पकड़ लिया। तत्पश्चात् शत्रुसेनाका संहार करनेवाले श्रीकृष्णने उनसे कहा—‘राजन्! आपको ऐसा अधीर नहीं होना चाहिये’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमार्तं पतितं भूमौ श्वसन्तं च पुनः पुनः।
ददृशुः पार्थिवा राजन् धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तमार्तं पतितं भूमौ श्वसन्तं च पुनः पुनः।
ददृशुः पार्थिवा राजन् धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वहाँ आये हुए समस्त भूपालोंने देखा कि धर्मपुत्र युधिष्ठिर शोकार्त होकर पृथ्वीपर पड़े हैं और बारंबार लंबी साँस खींच रहे हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा दीनमनसं गतसत्त्वं नरेश्वरम्।
भूयः शोकसमाविष्टाः पाण्डवाः समुपाविशन् ॥ ६ ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा दीनमनसं गतसत्त्वं नरेश्वरम्।
भूयः शोकसमाविष्टाः पाण्डवाः समुपाविशन् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको इतना दीनचित्त और हतोत्साह देखकर पाण्डव फिर शोकमें डूब गये और उन्हींके पास बैठ रहे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा तु धृतराष्ट्रश्च पुत्रशोकाभिपीडितः।
वाक्यमाह महाबुद्धिः प्रज्ञाचक्षुर्नरेश्वरम् ॥ ७ ॥

मूलम्

राजा तु धृतराष्ट्रश्च पुत्रशोकाभिपीडितः।
वाक्यमाह महाबुद्धिः प्रज्ञाचक्षुर्नरेश्वरम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय पुत्रशोकसे पीड़ित हुए परम बुद्धिमान् प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्रने महाराज युधिष्ठिरसे कहा—॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तिष्ठ कुरुशार्दूल कुरु कार्यमनन्तरम्।
क्षत्रधर्मेण कौन्तेय जितेयमवनी त्वया ॥ ८ ॥

मूलम्

उत्तिष्ठ कुरुशार्दूल कुरु कार्यमनन्तरम्।
क्षत्रधर्मेण कौन्तेय जितेयमवनी त्वया ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुवंशके सिंह! कुन्तीकुमार! उठो और इसके बाद जो कार्य प्राप्त है, उसे पूर्ण करो। तुमने क्षत्रियधर्मके अनुसार इस पृथ्वीपर विजय पायी है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुङ्‌क्ष्व भोगान् भ्रातृभिश्च सुहृद्भिश्च मनोऽनुगान्।
शोचितव्यं न पश्यामि त्वया धर्मभृतां वर ॥ ९ ॥

मूलम्

भुङ्‌क्ष्व भोगान् भ्रातृभिश्च सुहृद्भिश्च मनोऽनुगान्।
शोचितव्यं न पश्यामि त्वया धर्मभृतां वर ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! अब तुम अपने भाइयों और सुहृदोंके साथ मनोवांछित भोग भोगो। तुम्हारे लिये शोक करनेका कोई कारण मुझे नहीं दिखायी देता॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोचितव्यं मया चैव गान्धार्या च महीपते।
ययोः पुत्रशतं नष्टं स्वप्नलब्धं यथा धनम् ॥ १० ॥

मूलम्

शोचितव्यं मया चैव गान्धार्या च महीपते।
ययोः पुत्रशतं नष्टं स्वप्नलब्धं यथा धनम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पृथ्वीनाथ! शोक तो मुझको और गान्धारीको करना चाहिये, जिनके सौ पुत्र स्वप्नमें प्राप्त हुए धनकी भाँति नष्ट हो गये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्रुत्वा हितकामस्य विदुरस्य महात्मनः।
वाक्यानि सुमहार्थानि परितप्यामि दुर्मतिः ॥ ११ ॥

मूलम्

अश्रुत्वा हितकामस्य विदुरस्य महात्मनः।
वाक्यानि सुमहार्थानि परितप्यामि दुर्मतिः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने हितैषी महात्मा विदुरके महान् अर्थयुक्त वचनोंको अनसुना करके आज मैं दुर्बुद्धि धृतराष्ट्र अत्यन्त संतप्त हो रहा हूँ॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तवान् विदुरो यन्मां धर्मात्मा दिव्यदर्शनः।
दुर्योधनापराधेन कुलं ते विनशिष्यति ॥ १२ ॥
स्वस्ति चेदिच्छसे राजन् कुलस्य कुरु मे वचः।
वध्यतामेष दुष्टात्मा मन्दो राजा सुयोधनः ॥ १३ ॥

मूलम्

उक्तवान् विदुरो यन्मां धर्मात्मा दिव्यदर्शनः।
दुर्योधनापराधेन कुलं ते विनशिष्यति ॥ १२ ॥
स्वस्ति चेदिच्छसे राजन् कुलस्य कुरु मे वचः।
वध्यतामेष दुष्टात्मा मन्दो राजा सुयोधनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दिव्य दृष्टि रखनेवाले धर्मात्मा विदुरने मुझसे यह पहले ही कह दिया था कि ‘दुर्योधनके अपराधसे आपका सारा कुल नष्ट हो जायगा। यदि आप अपने कुलका कल्याण करना चाहते हैं तो मेरी बात मान लीजिये। इस मन्दबुद्धि दुष्टात्मा राजा दुर्योधनको मार डालिये॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णश्च शकुनिश्चैव नैनं पश्यतु कर्हिचित्।
द्यूतसंघातमप्येषामप्रमादेन वारय ॥ १४ ॥

मूलम्

कर्णश्च शकुनिश्चैव नैनं पश्यतु कर्हिचित्।
द्यूतसंघातमप्येषामप्रमादेन वारय ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“कर्ण और शकुनिको इससे कभी मिलने न दीजिये। आप पूर्ण सावधान रहकर इन सबके द्यूतविषयक संगठनको रोकिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिषेचय राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
स पालयिष्यति वशी धर्मेण पृथिवीमिमाम् ॥ १५ ॥

मूलम्

अभिषेचय राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
स पालयिष्यति वशी धर्मेण पृथिवीमिमाम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरको अपने राज्यपर अभिषिक्त कीजिये। ये मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले हैं, अतः धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका पालन करेंगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ नेच्छसि राजानं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
मेढीभूतः स्वयं राज्यं प्रतिगृह्णीष्व पार्थिव ॥ १६ ॥

मूलम्

अथ नेच्छसि राजानं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
मेढीभूतः स्वयं राज्यं प्रतिगृह्णीष्व पार्थिव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“नरेश्वर! यदि आप कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको राजा बनाना नहीं चाहते तो स्वयं ही मेठ बनकर सारे राज्यका भार स्वयं ही लिये रहिये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समं सर्वेषु भूतेषु वर्तमानं नराधिप।
अनुजीवन्तु सर्वे त्वां ज्ञातयो भ्रातृभिः सह ॥ १७ ॥

मूलम्

समं सर्वेषु भूतेषु वर्तमानं नराधिप।
अनुजीवन्तु सर्वे त्वां ज्ञातयो भ्रातृभिः सह ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“महाराज! आप सभी प्राणियोंके प्रति समान बर्ताव करें और सभी सजातीय मनुष्य अपने भाई-बन्धुओंके साथ आपके आश्रित रहकर जीवन-निर्वाह करें’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवति कौन्तेय विदुरे दीर्घदर्शिनि।
दुर्योधनमहं पापमन्ववर्तं वृथामतिः ॥ १८ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवति कौन्तेय विदुरे दीर्घदर्शिनि।
दुर्योधनमहं पापमन्ववर्तं वृथामतिः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! दूरदर्शी विदुरके ऐसा कहनेपर भी मैंने पापी दुर्योधनका ही अनुसरण किया। मेरी बुद्धि निरर्थक हो गयी थी॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्रुत्वा तस्य धीरस्य वाक्यानि मधुराण्यहम्।
फलं प्राप्य महद् दुःखं निमग्नः शोकसागरे ॥ १९ ॥

मूलम्

अश्रुत्वा तस्य धीरस्य वाक्यानि मधुराण्यहम्।
फलं प्राप्य महद् दुःखं निमग्नः शोकसागरे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धीर विदुरके मधुर वचनोंको अनसुना करके मुझे यह महान् दुःखरूपी फल प्राप्त हुआ है। मैं शोकके महान् समुद्रमें डूब गया हूँ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धौ हि तेऽद्य पितरौ पश्य नौ दुःखितौ नृप।
न शोचितव्यं भवता पश्यामीह जनाधिप ॥ २० ॥

मूलम्

वृद्धौ हि तेऽद्य पितरौ पश्य नौ दुःखितौ नृप।
न शोचितव्यं भवता पश्यामीह जनाधिप ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! दुःखमें डूबे हुए हम दोनों बूढ़े माता-पिताकी ओर देखो। तुम्हारे लिये शोक करनेका औचित्य मैं नहीं देख पाता हूँ’॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अश्वमेधपर्वणि प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अश्वमेधपर्वमें पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥