१६४ धर्मप्रशंसायाम्

भागसूचना

चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीष्मका शुभाशुभ कर्मोंको ही सुख-दुःखकी प्राप्तिमें कारण बताते हुए धर्मके अनुष्ठानपर जोर देना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्यते यच्च क्रियते सच्चासच्च कृताकृतम्।
तत्राश्वसीत सत्कृत्वा असत्कृत्वा न विश्वसेत् ॥ १ ॥

मूलम्

कार्यते यच्च क्रियते सच्चासच्च कृताकृतम्।
तत्राश्वसीत सत्कृत्वा असत्कृत्वा न विश्वसेत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— बेटा! मनुष्य जो शुभ और अशुभ कर्म करता या कराता है, उन दोनों प्रकारके कर्मोंमेंसे शुभ कर्मका अनुष्ठान करके उसे यह आश्वासन प्राप्त करना चाहिये कि इसका मुझे शुभ फल मिलेगा; किंतु अशुभ कर्म करनेपर उसे किसी अच्छा फल मिलनेका विश्वास नहीं करना चाहिये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काल एव सर्वकाले निग्रहानुग्रहौ ददत्।
बुद्धिमाविश्य भूतानां धर्माधर्मौ प्रवर्तते ॥ २ ॥

मूलम्

काल एव सर्वकाले निग्रहानुग्रहौ ददत्।
बुद्धिमाविश्य भूतानां धर्माधर्मौ प्रवर्तते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काल ही सदा निग्रह और अनुग्रह करता हुआ प्राणियोंकी बुद्धिमें प्रविष्ट हो धर्म और अधर्मका फल देता रहता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा त्वस्य भवेद् बुद्धिर्धर्मार्थस्य प्रदर्शनात्।
तदाश्वसीत धर्मात्मा दृढबुद्धिर्न विश्वसेत् ॥ ३ ॥

मूलम्

तदा त्वस्य भवेद् बुद्धिर्धर्मार्थस्य प्रदर्शनात्।
तदाश्वसीत धर्मात्मा दृढबुद्धिर्न विश्वसेत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब धर्मका फल देखकर मनुष्यकी बुद्धिमें धर्मकी श्रेष्ठताका निश्चय हो जाता है, तभी उसका धर्मके प्रति विश्वास बढ़ता है और तभी उसका मन धर्ममें लगता है। जबतक धर्ममें बुद्धि दृढ़ नहीं होती तबतक कोई उसपर विश्वास नहीं करता॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावन्मात्रमेतद्धि भूतानां प्राज्ञलक्षणम् ।
कालयुक्तोऽप्युभयविच्छेषं युक्तं समाचरेत् ॥ ४ ॥

मूलम्

एतावन्मात्रमेतद्धि भूतानां प्राज्ञलक्षणम् ।
कालयुक्तोऽप्युभयविच्छेषं युक्तं समाचरेत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणियोंकी बुद्धिमत्ताकी यही पहचान है कि वे धर्मके फलमें विश्वास करके उसके आचरणमें लग जायँ। जिसे कर्तव्य-अकर्तव्य दोनोंका ज्ञान है, उस पुरुषको चाहिये कि प्रतिकूल प्रारब्धसे युक्त होकर भी यथायोग्य धर्मका ही आचरण करे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ह्युपस्थितैश्वर्याः प्रजायन्ते न राजसाः।
एवमेवात्मनाऽऽत्मानं पूजयन्तीह धार्मिकाः ॥ ५ ॥

मूलम्

यथा ह्युपस्थितैश्वर्याः प्रजायन्ते न राजसाः।
एवमेवात्मनाऽऽत्मानं पूजयन्तीह धार्मिकाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अतुल ऐश्वर्यके स्वामी हैं, वे यह सोचकर कि कहीं रजोगुणी होकर पुनः जन्म-मृत्युके चक्करमें न पड़ जायँ, धर्मका अनुष्ठान करते हैं और इस प्रकार अपने ही प्रयत्नसे आत्माको महत् पदकी प्राप्ति कराते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यधर्मतयाधर्मं दद्यात् कालः कथंचन।
तस्माद् विशुद्धमात्मानं जानीयाद् धर्मचारिणम् ॥ ६ ॥

मूलम्

न ह्यधर्मतयाधर्मं दद्यात् कालः कथंचन।
तस्माद् विशुद्धमात्मानं जानीयाद् धर्मचारिणम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काल किसी तरह धर्मको अधर्म नहीं बना सकता अर्थात् धर्म करनेवालेको दुःख नहीं दे सकता। इसलिये धर्माचरण करनेवाले पुरुषको विशुद्ध आत्मा ही समझना चाहिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्प्रष्टुमप्यसमर्थो हि ज्वलन्तमिव पावकम्।
अधर्मः संततो धर्मं कालेन परिरक्षितम् ॥ ७ ॥

मूलम्

स्प्रष्टुमप्यसमर्थो हि ज्वलन्तमिव पावकम्।
अधर्मः संततो धर्मं कालेन परिरक्षितम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मका स्वरूप प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी है, काल उसकी सब ओरसे रक्षा करता है। अतः अधर्ममें इतनी शक्ति नहीं है कि वह फैलकर धर्मको छू भी सके॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्यावेतौ हि धर्मेण धर्मो हि विजयावहः।
त्रयाणामपि लोकानामालोकः कारणं भवेत् ॥ ८ ॥

मूलम्

कार्यावेतौ हि धर्मेण धर्मो हि विजयावहः।
त्रयाणामपि लोकानामालोकः कारणं भवेत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशुद्ध और पापके स्पर्शका अभाव—ये दोनों धर्मके कार्य हैं। धर्म विजयकी प्राप्ति करानेवाला और तीनों लोकोंमें प्रकाश फैलानेवाला है। वही इस लोककी रक्षाका कारण है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु कश्चिन्नयेत् प्राज्ञो गृहीत्वैव करे नरम्।
उच्यमानस्तु धर्मेण धर्मलोकभयच्छले ॥ ९ ॥

मूलम्

न तु कश्चिन्नयेत् प्राज्ञो गृहीत्वैव करे नरम्।
उच्यमानस्तु धर्मेण धर्मलोकभयच्छले ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो, वह किसी मनुष्यका हाथ पकड़कर उसे बलपूर्वक धर्ममें नहीं लगा सकता; किंतु न्यायानुसार धर्ममय तथा लोकभयका बहाना लेकर उस पुरुषको धर्मके लिये कह सकता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रोऽहं नाधिकारो मे चातुराश्रम्यसेवने।
इति विज्ञानमपरे नात्मन्युपदधत्युत ॥ १० ॥

मूलम्

शूद्रोऽहं नाधिकारो मे चातुराश्रम्यसेवने।
इति विज्ञानमपरे नात्मन्युपदधत्युत ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं शूद्र हूँ, अतः ब्रह्मचर्य आदि चारों आश्रमोंके सेवनका मुझे अधिकार नहीं है—शूद्र ऐसा सोचा करता है, परंतु साधु द्विजगण अपने भीतर छलको आश्रय नहीं देते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशेषेण च वक्ष्यामि चातुर्वर्ण्यस्य लिङ्गतः।
पञ्चभूतशरीराणां सर्वेषां सदृशात्मनाम् ॥ ११ ॥
लोकधर्मे च धर्मे च विशेषकरणं कृतम्।
यथैकत्वं पुनर्यान्ति प्राणिनस्तत्र विस्तरः ॥ १२ ॥

मूलम्

विशेषेण च वक्ष्यामि चातुर्वर्ण्यस्य लिङ्गतः।
पञ्चभूतशरीराणां सर्वेषां सदृशात्मनाम् ॥ ११ ॥
लोकधर्मे च धर्मे च विशेषकरणं कृतम्।
यथैकत्वं पुनर्यान्ति प्राणिनस्तत्र विस्तरः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं चारों वर्णोंका विशेषरूपसे लक्षण बता रहा हूँ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—इन चारों वर्णोंके शरीर पञ्च महाभूतोंसे ही बने हुए हैं और सबका आत्मा एक-सा ही है। फिर भी उनके लौकिक धर्म और विशेष धर्ममें विभिन्नता रखी गयी है। इसका उद्देश्य यही है कि सब लोग अपने-अपने धर्मका पालन करते हुए पुनः एकत्वको प्राप्त हों। इसका शास्त्रोंमें विस्तारपूर्वक वर्णन है॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्रुवो हि कथं लोकः स्मृतो धर्मः कथं ध्रुवः।
यत्र कालो ध्रुवस्तात तत्र धर्मः सनातनः ॥ १३ ॥

मूलम्

अध्रुवो हि कथं लोकः स्मृतो धर्मः कथं ध्रुवः।
यत्र कालो ध्रुवस्तात तत्र धर्मः सनातनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! यदि कहो, धर्म तो नित्य माना गया है, फिर उससे स्वर्ग आदि अनित्य लोकोंकी प्राप्ति कैसे होती है? और यदि होती है तो वह नित्य कैसे है? तो इसका उत्तर यह है कि जब धर्मका संकल्प नित्य होता है अर्थात् अनित्य कामनाओंका त्याग करके निष्कामभावसे धर्मका अनुष्ठान किया जाता है, उस समय किये हुए धर्मसे सनातन लोक (नित्य परमात्मा)-की ही प्राप्ति होती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषां तुल्यदेहानां सर्वेषां सदृशात्मनाम्।
कालो धर्मेण संयुक्तः शेष एव स्वयं गुरुः ॥ १४ ॥

मूलम्

सर्वेषां तुल्यदेहानां सर्वेषां सदृशात्मनाम्।
कालो धर्मेण संयुक्तः शेष एव स्वयं गुरुः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब मनुष्योंके शरीर एक-से होते हैं और सबका आत्मा भी समान ही है; किंतु धर्मयुक्त संकल्प ही यहाँ शेष रहता है, दूसरा नहीं। वह स्वयं ही गुरु है अर्थात् धर्मबलसे स्वयं ही उदित होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सति न दोषोऽस्ति भूतानां धर्मसेवने।
तिर्यग्योनावपि सतां लोक एव मतो गुरुः ॥ १५ ॥

मूलम्

एवं सति न दोषोऽस्ति भूतानां धर्मसेवने।
तिर्यग्योनावपि सतां लोक एव मतो गुरुः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी दशामें समस्त प्राणियोंके लिये पृथक्-पृथक् धर्म-सेवनमें कोई दोष नहीं है। तिर्यग्योनिमें पड़े हुए पशु-पक्षी आदि योनियोंके लिये भी यह लोक ही गुरु (कर्तव्याकर्तव्यका निर्देशक) है॥१५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि धर्मप्रशंसायां चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें धर्मकी प्रशंसाविषयक एक सौ चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६४॥