१६३ धर्मप्रशंसायाम्

भागसूचना

त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका विद्या, बल और बुद्धिकी अपेक्षा भाग्यकी प्रधानता बताना और भीष्मजीद्वारा उसका उत्तर

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाभागधेयः प्राप्नोति धनं सुबलवानपि।
भागधेयान्वितस्त्वर्थान् कृशो बालश्च विन्दति ॥ १ ॥

मूलम्

नाभागधेयः प्राप्नोति धनं सुबलवानपि।
भागधेयान्वितस्त्वर्थान् कृशो बालश्च विन्दति ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— पितामह! भाग्यहीन मनुष्य बलवान् हो तो भी उसे धन नहीं मिलता और जो भाग्यवान् है, वह बालक एवं दुर्बल होनेपर भी बहुत-सा धन प्राप्त कर लेता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नालाभकाले लभते प्रयत्नेऽपि कृते सति।
लाभकालेऽप्रयत्नेन लभते विपुलं धनम् ॥ २ ॥

मूलम्

नालाभकाले लभते प्रयत्नेऽपि कृते सति।
लाभकालेऽप्रयत्नेन लभते विपुलं धनम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक धनकी प्राप्तिका समय नहीं आता तबतक विशेष यत्न करनेपर भी कुछ हाथ नहीं लगता; किंतु लाभका समय आनेपर मनुष्य बिना यत्नके भी बहुत बड़ी सम्पत्ति पा लेता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतयत्नाफलाश्चैव दृश्यन्ते शतशो नराः।
अयत्नेनैधमानाश्च दृश्यन्ते बहवो जनाः ॥ ३ ॥

मूलम्

कृतयत्नाफलाश्चैव दृश्यन्ते शतशो नराः।
अयत्नेनैधमानाश्च दृश्यन्ते बहवो जनाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे सैकड़ों मनुष्य देखे जाते हैं, जो धनकी प्राप्तिके लिये यत्न करनेपर भी सफल न हो सके और बहुत-से ऐसे मनुष्य भी दृष्टिगोचर होते हैं, जिनका धन बिना यत्नके ही दिनों-दिन बढ़ रहा है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि यत्नो भवेन्मर्त्यः स सर्वं फलमाप्नुयात्।
नालभ्यं चोपलभ्येत नृणां भरतसत्तम ॥ ४ ॥

मूलम्

यदि यत्नो भवेन्मर्त्यः स सर्वं फलमाप्नुयात्।
नालभ्यं चोपलभ्येत नृणां भरतसत्तम ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! यदि प्रयत्न करनेपर सफलता मिलनी अनिवार्य होती तो मनुष्य सारा फल प्राप्त कर लेता; किंतु जो वस्तु प्रारब्धवश मनुष्यके लिये अलभ्य है, वह उद्योग करनेपर भी नहीं मिल सकती॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयत्नं कृतवन्तोऽपि दृश्यन्ते ह्यफला नराः।
मार्गत्यायशतैरर्थानमार्गश्चापरः सुखी ॥ ५ ॥

मूलम्

प्रयत्नं कृतवन्तोऽपि दृश्यन्ते ह्यफला नराः।
मार्गत्यायशतैरर्थानमार्गश्चापरः सुखी ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रयत्न करनेवाले मनुष्य भी असफल देखे जाते हैं। कोई सैकड़ों उपाय करके धनकी खोज करता रहता है और कोई कुमार्गपर ही चलकर धनकी दृष्टिसे सुखी दिखायी देता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकार्यमसकृत् कृत्वा दृश्यन्ते ह्यधना नराः।
धनयुक्ताः स्वकर्मस्था दृश्यन्ते चापरेऽधनाः ॥ ६ ॥

मूलम्

अकार्यमसकृत् कृत्वा दृश्यन्ते ह्यधना नराः।
धनयुक्ताः स्वकर्मस्था दृश्यन्ते चापरेऽधनाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने ही मनुष्य अनेक बार कुकर्म करके भी निर्धन ही देखे जाते हैं। कितने ही अपने धर्मानुकूल कर्तव्यका पालन करके धनवान् हो जाते और कोई निर्धन ही रह जाते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधीत्य नीतिशास्त्राणि नीतियुक्तो न दृश्यते।
अनभिज्ञश्च साचिव्यं गमितः केन हेतुना ॥ ७ ॥

मूलम्

अधीत्य नीतिशास्त्राणि नीतियुक्तो न दृश्यते।
अनभिज्ञश्च साचिव्यं गमितः केन हेतुना ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई मनुष्य नीतिशास्त्रका अध्ययन करके भी नीतियुक्त नहीं देखा जाता और कोई नीतिसे अनभिज्ञ होनेपर भी मन्त्रीके पदपर पहुँच जाता है। इसका क्या कारण है?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यायुक्तो ह्यविद्यश्च धनवान् दुर्मतिस्तथा।
यदि विद्यामुपाश्रित्य नरः सुखमवाप्नुयात् ॥ ८ ॥
न विद्वान् विद्यया हीनं वृत्त्यर्थमुपसंश्रयेत्।

मूलम्

विद्यायुक्तो ह्यविद्यश्च धनवान् दुर्मतिस्तथा।
यदि विद्यामुपाश्रित्य नरः सुखमवाप्नुयात् ॥ ८ ॥
न विद्वान् विद्यया हीनं वृत्त्यर्थमुपसंश्रयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

कभी-कभी विद्वान् और मूर्ख दोनों एक-जैसे धनी दिखायी देते हैं। कभी खोटी बुद्धिवाले मनुष्य तो धनवान् हो जाते हैं (और अच्छी बुद्धि रखनेवाले मनुष्यको थोड़ा-सा धन भी नहीं मिलता)। यदि विद्या पढ़कर मनुष्य अवश्य ही सुख पा लेता तो विद्वान्‌को जीविकाके लिये किसी मूर्ख धनीका आश्रय नहीं लेना पड़ता॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा पिपासां जयति पुरुषः प्राप्य वै जलम् ॥ ९ ॥
इष्टार्थो विद्यया ह्येव न विद्यां प्रजहेन्नरः।

मूलम्

यथा पिपासां जयति पुरुषः प्राप्य वै जलम् ॥ ९ ॥
इष्टार्थो विद्यया ह्येव न विद्यां प्रजहेन्नरः।

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार पानी पीनेसे मनुष्यकी प्यास अवश्य बुझ जाती है, उसी प्रकार यदि विद्यासे अभीष्ट वस्तुकी सिद्धि अनिवार्य होती तो कोई भी मनुष्य विद्याकी उपेक्षा नहीं करता॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाप्राप्तकालो म्रियते विद्धः शरशतैरपि।
तृणाग्रेणापि संस्पृष्टः प्राप्तकालो न जीवति ॥ १० ॥

मूलम्

नाप्राप्तकालो म्रियते विद्धः शरशतैरपि।
तृणाग्रेणापि संस्पृष्टः प्राप्तकालो न जीवति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी मृत्युका समय नहीं आया है, वह सैकड़ों बाणोंसे बिंधकर भी नहीं मरता; परंतु जिसका काल आ पहुँचा है, वह तिनकेके अग्रभागसे छू जानेपर भी प्राणोंका परित्याग कर देता है॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईहमानः समारम्भान् यदि नासादयेद् धनम्।
उग्रं तपः समारोहेन्न ह्यनुप्तं प्ररोहति ॥ ११ ॥

मूलम्

ईहमानः समारम्भान् यदि नासादयेद् धनम्।
उग्रं तपः समारोहेन्न ह्यनुप्तं प्ररोहति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— बेटा! यदि नाना प्रकारकी चेष्टा तथा अनेक उद्योग करनेपर भी मनुष्य धन न पा सके तो उसे उग्र तपस्या करनी चाहिये; क्योंकि बीज बोये बिना अंकुर नहीं पैदा होता॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानेन भोगी भवति मेधावी वृद्धसेवया।
अहिंसया च दीर्घायुरिति प्राहुर्मनीषिणः ॥ १२ ॥

मूलम्

दानेन भोगी भवति मेधावी वृद्धसेवया।
अहिंसया च दीर्घायुरिति प्राहुर्मनीषिणः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनीषी पुरुष कहते हैं कि मनुष्य दान देनेसे उपभोगकी सामग्री पाता है। बड़े-बूढ़ोंकी सेवासे उसको उत्तम बुद्धि प्राप्त होती है और अहिंसा धर्मके पालनसे वह दीर्घजीवी होता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् दद्यान्न याचेत पूजयेद् धार्मिकानपि।
सुभाषी प्रियकृच्छान्तः सर्वसत्त्वाविहिंसकः ॥ १३ ॥

मूलम्

तस्माद् दद्यान्न याचेत पूजयेद् धार्मिकानपि।
सुभाषी प्रियकृच्छान्तः सर्वसत्त्वाविहिंसकः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये स्वयं दान दे, दूसरोंसे याचना न करे, धर्मात्मा पुरुषोंकी पूजा करे, उत्तम वचन बोले, सबका भला करे, शान्तभावसे रहे और किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा प्रमाणं प्रसवः स्वभावश्च सुखासुखे।
दंशकीटपिपीलानां स्थिरो भव युधिष्ठिर ॥ १४ ॥

मूलम्

यदा प्रमाणं प्रसवः स्वभावश्च सुखासुखे।
दंशकीटपिपीलानां स्थिरो भव युधिष्ठिर ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! डाँस, कीड़े और चींटी आदि जीवोंको उन-उन योनियोंमें उत्पन्न करके उन्हें सुख-दुःखकी प्राप्ति करानेमें उनका अपने किये हुए कर्मानुसार बना हुआ स्वभाव ही कारण है। यह सोचकर स्थिर हो जाओ॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि धर्मप्रशंसायां त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें धर्मकी प्रशंसाविषयक एक सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६३॥