भागसूचना
द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धर्मके विषयमें आगम-प्रमाणकी श्रेष्ठता, धर्माधर्मके फल, साधु-असाधुके लक्षण तथा शिष्टाचारका निरूपण
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तवति वाक्यं तु कृष्णे देवकिनन्दने।
भीष्मं शान्तनवं भूयः पर्यपृच्छद् युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
मूलम्
इत्युक्तवति वाक्यं तु कृष्णे देवकिनन्दने।
भीष्मं शान्तनवं भूयः पर्यपृच्छद् युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके इस प्रकार उपदेश देनेपर युधिष्ठिरने शान्तनुनन्दन भीष्मसे पुनः प्रश्न किया—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्णये वा महाबुद्धे सर्वधर्मविदां वर।
प्रत्यक्षमागमो वेति किं तयोः कारणं भवेत् ॥ २ ॥
मूलम्
निर्णये वा महाबुद्धे सर्वधर्मविदां वर।
प्रत्यक्षमागमो वेति किं तयोः कारणं भवेत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ महाबुद्धिमान् पितामह! धार्मिक विषयका निर्णय करनेके लिये प्रत्यक्ष प्रमाणका आश्रय लेना चाहिये या आगमका। इन दोनोंमेंसे कौन-सा प्रमाण सिद्धान्त-निर्णयमें मुख्य कारण होता है?’॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्त्यत्र संशयः कश्चिदिति मे वर्तते मतिः।
शृणु वक्ष्यामि ते प्राज्ञ सम्यक् त्वं मेऽनुपृच्छसि ॥ ३ ॥
मूलम्
नास्त्यत्र संशयः कश्चिदिति मे वर्तते मतिः।
शृणु वक्ष्यामि ते प्राज्ञ सम्यक् त्वं मेऽनुपृच्छसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बुद्धिमान् नरेश! तुमने ठीक प्रश्न किया है। इसका उत्तर देता हूँ, सुनो। मेरा तो ऐसा विचार है कि इस विषयमें कहीं कोई संशय है ही नहीं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संशयः सुगमस्तत्र दुर्गमस्तस्य निर्णयः।
दृष्टं श्रुतमनन्तं हि यत्र संशयदर्शनम् ॥ ४ ॥
मूलम्
संशयः सुगमस्तत्र दुर्गमस्तस्य निर्णयः।
दृष्टं श्रुतमनन्तं हि यत्र संशयदर्शनम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धार्मिक विषयोंमें संदेह उपस्थित करना सुगम है, किंतु उसका निर्णय करना बहुत कठिन होता है। प्रत्यक्ष और आगम दोनोंका ही कोई अन्त नहीं है। दोनोंमें ही संदेह खड़े होते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं कारणं दृष्ट्वा हैतुकाः प्राज्ञमानिनः।
नास्तीत्येवं व्यवस्यन्ति सत्यं संशयमेव च ॥ ५ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षं कारणं दृष्ट्वा हैतुकाः प्राज्ञमानिनः।
नास्तीत्येवं व्यवस्यन्ति सत्यं संशयमेव च ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनेको बुद्धिमान् माननेवाले हेतुवादी तार्किक प्रत्यक्ष कारणकी ओर ही दृष्टि रखकर परोक्षवस्तुका अभाव मानते हैं। सत्य होनेपर भी उसके अस्तित्वमें संदेह करते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदयुक्तं व्यवस्यन्ति बालाः पण्डितमानिनः।
अथ चेन्मन्यसे चैकं कारणं किं भवेदिति ॥ ६ ॥
शक्यं दीर्घेण कालेन युक्तेनातन्द्रितेन च।
प्राणयात्रामनेकां च कल्पमानेन भारत ॥ ७ ॥
तत्परेणैव नान्येन शक्यं ह्येतस्य दर्शनम्।
मूलम्
तदयुक्तं व्यवस्यन्ति बालाः पण्डितमानिनः।
अथ चेन्मन्यसे चैकं कारणं किं भवेदिति ॥ ६ ॥
शक्यं दीर्घेण कालेन युक्तेनातन्द्रितेन च।
प्राणयात्रामनेकां च कल्पमानेन भारत ॥ ७ ॥
तत्परेणैव नान्येन शक्यं ह्येतस्य दर्शनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु वे बालक हैं। अहंकारवश अपनेको पण्डित मानते हैं। अतः वे जो पूर्वोक्त निश्चय करते हैं, वह असंगत है। (आकाशमें नीलिमा प्रत्यक्ष दिखायी देनेपर ही वह मिथ्या ही है, अतः केवल प्रत्यक्षके बलसे सत्यका निर्णय नहीं किया जा सकता। धर्म, ईश्वर और परलोक आदिके विषयमें शास्त्र-प्रमाण ही श्रेष्ठ है; क्योंकि अन्य प्रमाणोंकी वहाँतक पहुँच नहीं हो सकती) यदि कहो कि एकमात्र ब्रह्म जगत्का कारण कैसे हो सकता है तो इसका उत्तर यह है कि मनुष्य आलस्य छोड़कर दीर्घकालतक योगका अभ्यास करे और तत्त्वका साक्षात्कार करनेके लिये निरन्तर प्रयत्नशील बना रहे। अपने जीवनका अनेक उपायसे निर्वाह करे। इस तरह सदा यत्नशील रहनेवाला पुरुष ही इस तत्त्वका दर्शन कर सकता है, दूसरा कोई नहीं॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हेतूनामन्तमासाद्य विपुलं ज्ञानमुत्तमम् ॥ ८ ॥
ज्योतिः सर्वस्य लोकस्य विपुलं प्रतिपद्यते।
न त्वेव गमनं राजन् हेतुतो गमनं तथा।
अग्राह्यमनिबद्धं च वाचा सम्परिवर्जयेत् ॥ ९ ॥
मूलम्
हेतूनामन्तमासाद्य विपुलं ज्ञानमुत्तमम् ॥ ८ ॥
ज्योतिः सर्वस्य लोकस्य विपुलं प्रतिपद्यते।
न त्वेव गमनं राजन् हेतुतो गमनं तथा।
अग्राह्यमनिबद्धं च वाचा सम्परिवर्जयेत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब सारे तर्क समाप्त हो जाते हैं तभी उत्तम ज्ञानकी प्राप्ति होती है। वह ज्ञान ही सम्पूर्ण जगत्के लिये उत्तम ज्योति है। राजन्! कोरे तर्कसे जो ज्ञान होता है, वह वास्तवमें ज्ञान नहीं है; अतः उसको प्रामाणिक नहीं मानना चाहिये। जिसका वेदके द्वारा प्रतिपादन नहीं किया गया हो, उस ज्ञानका परित्याग कर देना ही उचित है॥८-९॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं लोकतः सिद्धिर्लोकश्चागमपूर्वकः ।
शिष्टाचारो बहुविधस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १० ॥
मूलम्
प्रत्यक्षं लोकतः सिद्धिर्लोकश्चागमपूर्वकः ।
शिष्टाचारो बहुविधस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! प्रत्यक्ष प्रमाण, जो लोकमें प्रसिद्ध है; अनुमान, आगम और भाँति-भाँतिके शिष्टाचार ये बहुत-से प्रमाण उपलब्ध होते हैं। इनमें कौन-सा प्रबल है, यह बतानेकी कृपा कीजिये॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मस्य ह्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः ।
संस्था यत्नैरपि कृता कालेन प्रतिभिद्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
धर्मस्य ह्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः ।
संस्था यत्नैरपि कृता कालेन प्रतिभिद्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! जब बलवान् पुरुष दुराचारी होकर धर्मको हानि पहुँचाने लगते हैं, तब साधारण मनुष्योंद्वारा यत्नपूर्वक की हुई रक्षाकी व्यवस्था भी कुछ समयमें भंग हो जाती है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मो धर्मरूपेण तृणैः कूप इवावृतः।
ततस्तैर्भिद्यते वृत्तं शृणु चैव युधिष्ठिर ॥ १२ ॥
मूलम्
अधर्मो धर्मरूपेण तृणैः कूप इवावृतः।
ततस्तैर्भिद्यते वृत्तं शृणु चैव युधिष्ठिर ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो घास-फूससे ढके हुए कूएँकी भाँति अधर्म ही धर्मका चोला पहनकर सामने आता है। युधिष्ठिर! उस अवस्थामें वे दुराचारी मनुष्य शिष्टाचारकी मर्यादा तोड़ डालते हैं। तुम इस विषयको ध्यान देकर सुनो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवृत्ता ये तु भिन्दन्ति श्रुतित्यागपरायणाः।
धर्मविद्वेषिणो मन्दा इत्युक्तस्तेषु संशयः ॥ १३ ॥
मूलम्
अवृत्ता ये तु भिन्दन्ति श्रुतित्यागपरायणाः।
धर्मविद्वेषिणो मन्दा इत्युक्तस्तेषु संशयः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आचारहीन हैं, वेद-शास्त्रोंका त्याग करनेवाले हैं, वे धर्मद्रोही मन्दबुद्धि मानव सज्जनोंद्वारा स्थापित धर्म और आचारकी मर्यादा भंग कर देते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और शिष्टाचार—इन तीनोंमें संदेह बताया गया है (अतः वे अविश्वसनीय हैं)॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतृप्यन्तस्तु साधूनां य एवागमबुद्धयः।
परमित्येव संतुष्टास्तानुपास्व च पृच्छ च ॥ १४ ॥
कामार्थौ पृष्ठतः कृत्वा लोभमोहानुसारिणौ।
धर्म इत्येव सम्बुद्धास्तानुपास्व च पृच्छ च ॥ १५ ॥
मूलम्
अतृप्यन्तस्तु साधूनां य एवागमबुद्धयः।
परमित्येव संतुष्टास्तानुपास्व च पृच्छ च ॥ १४ ॥
कामार्थौ पृष्ठतः कृत्वा लोभमोहानुसारिणौ।
धर्म इत्येव सम्बुद्धास्तानुपास्व च पृच्छ च ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी स्थितिमें जो साधुसंगके लिये नित्य उत्कण्ठित रहते हों—उससे कभी तृप्त न होते हों, जिनकी बुद्धि आगम प्रमाणको ही श्रेष्ठ मानती हो, जो सदा संतुष्ट रहते तथा लोभ-मोहका अनुसरण करनेवाले अर्थ और कामकी उपेक्षा करके धर्मको ही उत्तम समझते हों, ऐसे महापुरुषोंकी सेवामें रहो और उनसे अपना संदेह पूछो॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तेषां भिद्यते वृत्तं यज्ञाः स्वाध्यायकर्म च।
आचारः कारणं चैव धर्मश्चैकस्त्रयं पुनः ॥ १६ ॥
मूलम्
न तेषां भिद्यते वृत्तं यज्ञाः स्वाध्यायकर्म च।
आचारः कारणं चैव धर्मश्चैकस्त्रयं पुनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन संतोंके सदाचार, यज्ञ और स्वाध्याय आदि शुभ-कर्मोंके अनुष्ठानमें कभी बाधा नहीं पड़ती। उनमें आचार, उसको बतानेवाले वेद-शास्त्र तथा धर्म—इन तीनोंकी एकता होती है॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरेव हि मे बुद्धिः संशये परिमुह्यति।
अपारे मार्गमाणस्य परं तीरमपश्यतः ॥ १७ ॥
मूलम्
पुनरेव हि मे बुद्धिः संशये परिमुह्यति।
अपारे मार्गमाणस्य परं तीरमपश्यतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! मेरी बुद्धि संशयके अपार समुद्रमें डूब रही है। मैं इसके पार जाना चाहता हूँ, किंतु ढूँढ़नेपर भी मुझे इसका कोई किनारा नहीं दिखायी देता॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदः प्रत्यक्षमाचारः प्रमाणं तत्त्रयं यदि।
पृथक्त्वं लभ्यते चैषां धर्मश्चैकस्त्रयं कथम् ॥ १८ ॥
मूलम्
वेदः प्रत्यक्षमाचारः प्रमाणं तत्त्रयं यदि।
पृथक्त्वं लभ्यते चैषां धर्मश्चैकस्त्रयं कथम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि प्रत्यक्ष, आगम और शिष्टाचार—ये तीनों ही प्रमाण हैं तो इनकी तो पृथक्-पृथक् उपलब्धि हो रही है और धर्म एक है; फिर ये तीनों कैसे धर्म हो सकते हैं?॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मस्य ह्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः ।
यद्येवं मन्यसे राजंस्त्रिधा धर्मविचारणा ॥ १९ ॥
मूलम्
धर्मस्य ह्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः ।
यद्येवं मन्यसे राजंस्त्रिधा धर्मविचारणा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! प्रबल दुरात्माओंद्वारा जिसे हानि पहुँचायी जाती है, उस धर्मका स्वरूप यदि तुम इस तरह प्रमाण-भेदसे तीन प्रकारका मानते हो तो तुम्हारा यह विचार ठीक नहीं है। वास्तवमें धर्म एक ही है, जिसपर तीन प्रकारसे विचार किया जाता है—तीनों प्रमाणोंद्वारा उसकी समीक्षा की जाती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एवेति जानीहि त्रिधा धर्मस्य दर्शनम्।
पृथक्त्वे च न मे बुद्धिस्त्रयाणामपि वै तथा ॥ २० ॥
मूलम्
एक एवेति जानीहि त्रिधा धर्मस्य दर्शनम्।
पृथक्त्वे च न मे बुद्धिस्त्रयाणामपि वै तथा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह निश्चय समझो कि धर्म एक ही है। तीनों प्रमाणोंद्वारा एक ही धर्मका दर्शन होता है। मैं यह नहीं मानता कि ये तीनों प्रमाण भिन्न-भिन्न धर्मका प्रतिपादन करते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तो मार्गस्त्रयाणां च तत्तथैव समाचर।
जिज्ञासा न तु कर्तव्या धर्मस्य परितर्कणात् ॥ २१ ॥
मूलम्
उक्तो मार्गस्त्रयाणां च तत्तथैव समाचर।
जिज्ञासा न तु कर्तव्या धर्मस्य परितर्कणात् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उक्त तीनों प्रमाणोंके द्वारा जो धर्ममय मार्ग बताया गया है, उसीपर चलते रहो। तर्कका सहारा लेकर धर्मकी जिज्ञासा करना कदापि उचित नहीं है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदैव भरतश्रेष्ठ मा तेऽभूदत्र संशयः।
अन्धो जड इवाशङ्की यद् ब्रवीमि तदाचर ॥ २२ ॥
मूलम्
सदैव भरतश्रेष्ठ मा तेऽभूदत्र संशयः।
अन्धो जड इवाशङ्की यद् ब्रवीमि तदाचर ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! मेरी इस बातमें तुम्हें कभी संदेह नहीं होना चाहिये। मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे अन्धों और गूँगोंकी तरह बिना किसी शंकाके मानकर उसके अनुसार आचरण करो॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा सत्यमक्रोधो दानमेतच्चतुष्टयम् ।
अजातशत्रो सेवस्व धर्म एष सनातनः ॥ २३ ॥
मूलम्
अहिंसा सत्यमक्रोधो दानमेतच्चतुष्टयम् ।
अजातशत्रो सेवस्व धर्म एष सनातनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अजातशत्रो! अंहिसा, सत्य, अक्रोध और दान—इन चारोंका सदा सेवन करो। यह सनातन धर्म है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणेषु च वृत्तिर्या पितृपैतामहोचिता।
तामन्वेहि महाबाहो धर्मस्यैते हि देशिकाः ॥ २४ ॥
मूलम्
ब्राह्मणेषु च वृत्तिर्या पितृपैतामहोचिता।
तामन्वेहि महाबाहो धर्मस्यैते हि देशिकाः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! तुम्हारे पिता-पितामह आदिने ब्राह्मणोंके साथ जैसा बर्ताव किया है, उसीका तुम भी अनुसरण करो; क्योंकि ब्राह्मण धर्मके उपदेशक हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमाणमप्रमाणं वै यः कुर्यादबुधो जनः।
न स प्रमाणतामर्हो विवादजननो हि सः ॥ २५ ॥
मूलम्
प्रमाणमप्रमाणं वै यः कुर्यादबुधो जनः।
न स प्रमाणतामर्हो विवादजननो हि सः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मूर्ख मनुष्य प्रमाणको भी अप्रमाण बनाता है, उसकी बातको प्रामाणिक नहीं मानना चाहिये; क्योंकि वह केवल विवाद करनेवाला है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानेव सेवस्व सत्कृत्य बहुमन्य च।
एतेष्वेव त्विमे लोकाः कृत्स्ना इति निबोध तान् ॥ २६ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानेव सेवस्व सत्कृत्य बहुमन्य च।
एतेष्वेव त्विमे लोकाः कृत्स्ना इति निबोध तान् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम ब्राह्मणोंका ही विशेष आदर-सत्कार करके उनकी सेवामें लगे रहो और यह जान लो कि ये सम्पूर्ण लोक ब्राह्मणोंके ही आधारपर टिके हुए हैं॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च धर्ममसूयन्ते ये चैनं पर्युपासते।
ब्रवीतु मे भवानेतत् क्व ते गच्छन्ति तादृशाः ॥ २७ ॥
मूलम्
ये च धर्ममसूयन्ते ये चैनं पर्युपासते।
ब्रवीतु मे भवानेतत् क्व ते गच्छन्ति तादृशाः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो मनुष्य धर्मकी निन्दा करते हैं और जो धर्मका आचरण करते हैं, वे किन लोकोंमें जाते हैं? आप इस विषयका वर्णन कीजिये॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजसा तमसा चैव समवस्तीर्णचेतसः।
नरकं प्रतिपद्यन्ते धर्मविद्वेषिणो जनाः ॥ २८ ॥
मूलम्
रजसा तमसा चैव समवस्तीर्णचेतसः।
नरकं प्रतिपद्यन्ते धर्मविद्वेषिणो जनाः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! जो मनुष्य रजोगुण और तमोगुणसे मलिन चित्त होनेके कारण धर्मसे द्रोह करते हैं, वे नरकमें पड़ते हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये तु धर्मं महाराज सततं पर्युपासते।
सत्यार्जवपराः सन्तस्ते वै स्वर्गभुजो नराः ॥ २९ ॥
मूलम्
ये तु धर्मं महाराज सततं पर्युपासते।
सत्यार्जवपराः सन्तस्ते वै स्वर्गभुजो नराः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जो सत्य और सरलतामें तत्पर होकर सदा धर्मका पालन करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकका सुख भोगते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म एव गतिस्तेषामाचार्योपासनाद् भवेत्।
देवलोकं प्रपद्यन्ते ये धर्मं पर्युपासते ॥ ३० ॥
मूलम्
धर्म एव गतिस्तेषामाचार्योपासनाद् भवेत्।
देवलोकं प्रपद्यन्ते ये धर्मं पर्युपासते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आचार्यकी सेवा करनेसे मनुष्योंको एकमात्र धर्मका ही सहारा रहता है और जो धर्मकी उपासना करते हैं, वे देवलोकमें जाते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनुष्या यदि वा देवाः शरीरमुपताप्य वै।
धर्मिणः सुखमेधन्ते लोभद्वेषविवर्जिताः ॥ ३१ ॥
मूलम्
मनुष्या यदि वा देवाः शरीरमुपताप्य वै।
धर्मिणः सुखमेधन्ते लोभद्वेषविवर्जिताः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य हों या देवता, जो शरीरको कष्ट देकर भी धर्माचरणमें लगे रहते हैं तथा लोभ और द्वेषका त्याग कर देते हैं, वे सुखी होते हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमं ब्रह्मणः पुत्रं धर्ममाहुर्मनीषिणः।
धर्मिणः पर्युपासन्ते फलं पक्वमिवाशयः ॥ ३२ ॥
मूलम्
प्रथमं ब्रह्मणः पुत्रं धर्ममाहुर्मनीषिणः।
धर्मिणः पर्युपासन्ते फलं पक्वमिवाशयः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनीषी पुरुष धर्मको ही ब्रह्माजीका ज्येष्ठ पुत्र कहते हैं। जैसे खानेवालोंका मन पके हुए फलको अधिक पसंद करता है, उसी प्रकार धर्मनिष्ठ पुरुष धर्मकी ही उपासना करते हैं॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
असतां कीदृशं रूपं साधवः किं च कुर्वते।
ब्रवीतु मे भवानेतत् सन्तोऽसन्तश्च कीदृशाः ॥ ३३ ॥
मूलम्
असतां कीदृशं रूपं साधवः किं च कुर्वते।
ब्रवीतु मे भवानेतत् सन्तोऽसन्तश्च कीदृशाः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! असाधु पुरुषोंका रूप कैसा होता है? साधु पुरुष कौन-सा कर्म करते हैं? साधु और असाधु कैसे होते हैं? आप यह बात मुझे बताइये॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुराचाराश्च दुर्धर्षा दुर्मुखाश्चाप्यसाधवः ।
साधवः शीलसम्पन्नाः शिष्टाचारस्य लक्षणम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
दुराचाराश्च दुर्धर्षा दुर्मुखाश्चाप्यसाधवः ।
साधवः शीलसम्पन्नाः शिष्टाचारस्य लक्षणम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! असाधु या दुष्ट पुरुष दुराचारी, दुर्धर्ष (उद्दण्ड) और दुर्मुख (कटुवचन बोलनेवाले) होते हैं तथा साधु पुरुष सुशील हुआ करते हैं। अब शिष्टाचारका लक्षण बताया जाता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजमार्गे गवां मध्ये धान्यमध्ये च धर्मिणः।
नोपसेवन्ति राजेन्द्र सर्गं मूत्रपुरीषयोः ॥ ३५ ॥
मूलम्
राजमार्गे गवां मध्ये धान्यमध्ये च धर्मिणः।
नोपसेवन्ति राजेन्द्र सर्गं मूत्रपुरीषयोः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा पुरुष सड़कपर, गौओंके बीचमें तथा खेतमें लगे हुए धान्यके भीतर मल-मूत्रका त्याग नहीं करते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चानामशनं दत्त्वा शेषमश्नन्ति साधवः।
न जल्पन्ति च भुञ्जाना न निद्रान्त्यार्द्रपाणयः ॥ ३६ ॥
मूलम्
पञ्चानामशनं दत्त्वा शेषमश्नन्ति साधवः।
न जल्पन्ति च भुञ्जाना न निद्रान्त्यार्द्रपाणयः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधु पुरुष देवता, पितर, भूत, अतिथि और कुटुम्बी—इन पाँचोंको भोजन देकर शेष अन्नका स्वयं आहार करते हैं। वे खाते समय बातचीत नहीं करते तथा भीगे हाथ लिये शयन नहीं करते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रभानुमनड्वाहं देवं गोष्ठं चतुष्पथम्।
ब्राह्मणं धार्मिकं वृद्धं ये कुर्वन्ति प्रदक्षिणम् ॥ ३७ ॥
वृद्धानां भारतप्तानां स्त्रीणां चक्रधरस्य च।
ब्राह्मणानां गवां राज्ञां पन्थानं ददते च ये ॥ ३८ ॥
मूलम्
चित्रभानुमनड्वाहं देवं गोष्ठं चतुष्पथम्।
ब्राह्मणं धार्मिकं वृद्धं ये कुर्वन्ति प्रदक्षिणम् ॥ ३७ ॥
वृद्धानां भारतप्तानां स्त्रीणां चक्रधरस्य च।
ब्राह्मणानां गवां राज्ञां पन्थानं ददते च ये ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग अग्नि, वृषभ, देवता, गोशाला, चौराहा, ब्राह्मण, धार्मिक और वृद्ध पुरुषोंको दाहिने करके चलते हैं, जो बड़े-बूढ़ों, भारसे पीड़ित हुए मनुष्यों, स्त्रियों, जमींदार, ब्राह्मण, गौ तथा राजाको सामनेसे आते देखकर जानेके लिये मार्ग दे देते हैं, वे सब साधु पुरुष हैं॥३७-३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिथीनां च सर्वेषां प्रेष्याणां स्वजनस्य च।
तथा शरणकामानां गोप्ता स्यात् स्वागतप्रदः ॥ ३९ ॥
सायंप्रातर्मनुष्याणामशनं देवनिर्मितम् ।
नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासविधिर्हि सः ॥ ४० ॥
मूलम्
अतिथीनां च सर्वेषां प्रेष्याणां स्वजनस्य च।
तथा शरणकामानां गोप्ता स्यात् स्वागतप्रदः ॥ ३९ ॥
सायंप्रातर्मनुष्याणामशनं देवनिर्मितम् ।
नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासविधिर्हि सः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्पुरुषको चाहिये कि वह सम्पूर्ण अतिथियों, सेवकों, स्वजनों तथा शरणार्थियोंका रक्षक एवं स्वागत करनेवाला बने। देवताओंने मनुष्योंके लिये सबेरे और सायंकाल दो ही समय भोजन करनेका विधान किया है। बीचमें भोजन करनेकी विधि नहीं देखी जाती। इस नियमका पालन करनेसे उपवासका ही फल होता है॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
होमकाले यथा वह्निः कालमेव प्रतीक्षते।
ऋतुकाले तथा नारी ऋतुमेव प्रतीक्षते ॥ ४१ ॥
मूलम्
होमकाले यथा वह्निः कालमेव प्रतीक्षते।
ऋतुकाले तथा नारी ऋतुमेव प्रतीक्षते ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे होमकालमें अग्निदेव होमकी ही प्रतीक्षा करते हैं, उसी प्रकार ऋतुकालमें स्त्री ऋतुकी ही प्रतीक्षा करती है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्यदा गच्छते यस्तु ब्रह्मचर्यं च तत् स्मृतम्।
अमृतं ब्राह्मणा गाव इत्येतत् त्रयमेकतः।
तस्माद् गोब्राह्मणं नित्यमर्चयेत यथाविधि ॥ ४२ ॥
मूलम्
नान्यदा गच्छते यस्तु ब्रह्मचर्यं च तत् स्मृतम्।
अमृतं ब्राह्मणा गाव इत्येतत् त्रयमेकतः।
तस्माद् गोब्राह्मणं नित्यमर्चयेत यथाविधि ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ऋतुकालके सिवा और कभी स्त्रीके पास नहीं जाता, उसका वह बर्ताव ब्रह्मचर्य कहा गया है। अमृत, ब्राह्मण और गौ—ये तीनों एक स्थानसे प्रकट हुए हैं। अतः गौ तथा ब्राह्मणकी सदा विधिपूर्वक पूजा करे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वदेशे परदेशे वाप्यतिथिं नोपवासयेत्।
कर्म वै सफलं कृत्वा गुरूणां प्रतिपादयेत् ॥ ४३ ॥
मूलम्
स्वदेशे परदेशे वाप्यतिथिं नोपवासयेत्।
कर्म वै सफलं कृत्वा गुरूणां प्रतिपादयेत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वदेश या परदेशमें किसी अतिथिको भूखा न रहने दे। गुरुने जिस कामके लिये आज्ञा दी हो, उसे सफल करके उन्हें सूचित कर देना चाहिये॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुभ्यस्त्वासनं देयमभिवाद्याभिपूज्य च ।
गुरुमभ्यर्च्य वर्धन्ते आयुषा यशसा श्रिया ॥ ४४ ॥
मूलम्
गुरुभ्यस्त्वासनं देयमभिवाद्याभिपूज्य च ।
गुरुमभ्यर्च्य वर्धन्ते आयुषा यशसा श्रिया ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुके आनेपर उन्हें प्रणाम करे और विधिवत् पूजा करके उन्हें बैठनेके लिये आसन दे। गुरुकी पूजा करनेसे मनुष्यके यश, आयु और श्रीकी वृद्धि होती है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धान् नाभिभवेज्जातु न चैतान् प्रेषयेदिति।
नासीनः स्यात् स्थितेष्वेवमायुरस्य न रिष्यते ॥ ४५ ॥
मूलम्
वृद्धान् नाभिभवेज्जातु न चैतान् प्रेषयेदिति।
नासीनः स्यात् स्थितेष्वेवमायुरस्य न रिष्यते ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृद्ध पुरुषोंका कभी तिरस्कार न करे। उन्हें किसी कामके लिये न भेजे तथा यदि वे खड़े हों तो स्वयं भी बैठा न रहे। ऐसा करनेसे उस मनुष्यकी आयु क्षीण नहीं होती है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नग्नामीक्षते नारीं न नग्नान् पुरुषानपि।
मैथुनं सततं गुप्तमाहारं च समाचरेत् ॥ ४६ ॥
मूलम्
न नग्नामीक्षते नारीं न नग्नान् पुरुषानपि।
मैथुनं सततं गुप्तमाहारं च समाचरेत् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नंगी स्त्रीकी ओर न देखे, नग्न पुरुषोंकी ओर भी दृष्टिपात न करे। मैथुन और भोजन सदा एकान्त स्थानमें ही करे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीर्थानां गुरवस्तीर्थं चोक्षाणां हृदयं शुचि।
दर्शनानां परं ज्ञानं संतोषः परमं सुखम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
तीर्थानां गुरवस्तीर्थं चोक्षाणां हृदयं शुचि।
दर्शनानां परं ज्ञानं संतोषः परमं सुखम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीर्थोंमें सर्वोत्तम तीर्थ गुरुजन ही हैं, पवित्र वस्तुओंमें हृदय ही अधिक पवित्र है। दर्शनों (ज्ञानों)-में परमार्थतत्त्वका ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है तथा संतोष ही सबसे उत्तम सुख है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सायं प्रातश्च वृद्धानां शृणुयात् पुष्कला गिरः।
श्रुतमाप्नोति हि नरः सततं वृद्धसेवया ॥ ४८ ॥
मूलम्
सायं प्रातश्च वृद्धानां शृणुयात् पुष्कला गिरः।
श्रुतमाप्नोति हि नरः सततं वृद्धसेवया ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सायंकाल और प्रातःकाल वृद्ध पुरुषोंकी कही हुई बातें पूरी-पूरी सुननी चाहिये। सदा वृद्ध पुरुषोंकी सेवासे मनुष्यको शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त होता है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाध्याये भोजने चैव दक्षिणं पाणिमुद्धरेत्।
यच्छेद्वाङ्मनसी नित्यमिन्द्रियाणि तथैव च ॥ ४९ ॥
मूलम्
स्वाध्याये भोजने चैव दक्षिणं पाणिमुद्धरेत्।
यच्छेद्वाङ्मनसी नित्यमिन्द्रियाणि तथैव च ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वाध्याय और भोजनके समय दाहिना हाथ उठाना चाहिये तथा मन, वाणी और इन्द्रियोंको सदा अपने अधीन रखना चहिये॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्कृतं पायसं नित्यं यवागूं कृसरं हविः।
अष्टकाः पितृदैवत्या ग्रहाणामभिपूजनम् ॥ ५० ॥
मूलम्
संस्कृतं पायसं नित्यं यवागूं कृसरं हविः।
अष्टकाः पितृदैवत्या ग्रहाणामभिपूजनम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छे ढंगसे बनायी हुई खीर, हलुआ, खिचड़ी और हविष्य आदिके द्वारा देवताओं तथा पितरोंका अष्टका श्राद्ध करना चाहिये। नवग्रहोंकी पूजा करनी चाहिये॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्मश्रुकर्मणि मङ्गल्यं क्षुतानामभिनन्दनम् ।
व्याधितानां च सर्वेषामायुषामभिनन्दनम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
श्मश्रुकर्मणि मङ्गल्यं क्षुतानामभिनन्दनम् ।
व्याधितानां च सर्वेषामायुषामभिनन्दनम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूँछ और दाढ़ी बनवाते समय मंगलसूचक शब्दोंका उच्चारण करना चाहिये। छींकनेवालेको (शतंजीव आदि कहकर) आशीर्वाद देना तथा रोगग्रस्त पुरुषोंका उनके दीर्घायु होनेकी शुभ कामना करते हुए अभिनन्दन करना चाहिये॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जातु त्वमिति ब्रूयादापन्नोऽपि महत्तरम्।
त्वंकारो वा वधो वेति विद्वत्सु न विशिष्यते ॥ ५२ ॥
मूलम्
न जातु त्वमिति ब्रूयादापन्नोऽपि महत्तरम्।
त्वंकारो वा वधो वेति विद्वत्सु न विशिष्यते ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! तुम कभी बड़े-से-बड़े संकट पड़नेपर भी किसी श्रेष्ठ पुरुषके प्रति तुमका प्रयोग न करना। किसीको तुम कहकर पुकारना या उसका वध कर डालना—इन दोनोंमें विद्वान् पुरुष कोई अन्तर नहीं मानते॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवराणां समानानां शिष्याणां च समाचरेत्।
पापमाचक्षते नित्यं हृदयं पापकर्मिणः ॥ ५३ ॥
मूलम्
अवराणां समानानां शिष्याणां च समाचरेत्।
पापमाचक्षते नित्यं हृदयं पापकर्मिणः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने बराबरके हों, अपनेसे छोटे हों अथवा शिष्य हों, उनको ‘तुम’ कहनमें कोई हर्ज नहीं है। पापकर्मी पुरुषका हृदय ही उसके पापको प्रकट कर देता है॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानपूर्वकृतं कर्म च्छादयन्ते ह्यसाधवः।
ज्ञानपूर्वं विनश्यन्ति गूहमाना महाजने ॥ ५४ ॥
मूलम्
ज्ञानपूर्वकृतं कर्म च्छादयन्ते ह्यसाधवः।
ज्ञानपूर्वं विनश्यन्ति गूहमाना महाजने ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्ट मनुष्य जान-बूझकर किये हुए पापकर्मोंको भी दूसरेसे छिपानेका प्रयत्न करते हैं; किंतु महापुरुषोंके सामने अपने किये हुए पापोंको गुप्त रखनेके कारण वे नष्ट हो जाते हैं॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मां मनुष्याः पश्यन्ति न मां पश्यन्ति देवताः।
पापेनापिहितः पापः पापमेवाभिजायते ॥ ५५ ॥
मूलम्
न मां मनुष्याः पश्यन्ति न मां पश्यन्ति देवताः।
पापेनापिहितः पापः पापमेवाभिजायते ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे पाप करते समय न मनुष्य देखते हैं और न देवता ही देख पाते हैं।’ ऐसा सोचकर पापसे आच्छादित हुआ पापात्मा पुरुष पापयोनिमें ही जन्म लेता है?॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वार्धुषिको वृद्धिं दिनभेदे प्रतीक्षते।
धर्मेण पिहितं पापं धर्ममेवाभिवर्धयेत् ॥ ५६ ॥
मूलम्
यथा वार्धुषिको वृद्धिं दिनभेदे प्रतीक्षते।
धर्मेण पिहितं पापं धर्ममेवाभिवर्धयेत् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूदखोर जितने ही दिन बीतते हैं, उतनी ही वृद्धिकी प्रतीक्षा करता है। उसी प्रकार पाप बढ़ता है, परंतु यदि उस पापको धर्मसे दबा दिया जाय तो वह धर्मकी वृद्धि करता है॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा लवणमम्भोभिराप्लुतं प्रविलीयते ।
प्रायश्चित्तहतं पापं तथा सद्यः प्रणश्यति ॥ ५७ ॥
मूलम्
यथा लवणमम्भोभिराप्लुतं प्रविलीयते ।
प्रायश्चित्तहतं पापं तथा सद्यः प्रणश्यति ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे नमककी डली जलमें डालनेसे गल जाती है, उसी प्रकार प्रायश्चित्त करनेसे तत्काल पापका नाश हो जाता है॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् पापं न गूहेत गूहमानं विवर्धयेत्।
कृत्वा तत् साधुष्वाख्येयं ते तत् प्रशमयन्त्युत ॥ ५८ ॥
मूलम्
तस्मात् पापं न गूहेत गूहमानं विवर्धयेत्।
कृत्वा तत् साधुष्वाख्येयं ते तत् प्रशमयन्त्युत ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये अपने पापको न छिपाये। छिपाया हुआ पाप बढ़ता है। यदि कभी पाप बन गया हो तो उसे साधु पुरुषोंसे कह देना चाहिये। वे उसकी शान्ति कर देते हैं॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशया संचितं द्रव्यं कालेनैवोपभुज्यते।
अन्ये चैतत् प्रपद्यन्ते वियोगे तस्य देहिनः ॥ ५९ ॥
मूलम्
आशया संचितं द्रव्यं कालेनैवोपभुज्यते।
अन्ये चैतत् प्रपद्यन्ते वियोगे तस्य देहिनः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आशासे संचित किये हुए द्रव्यका काल ही उपभोग करता है। उस मनुष्यका शरीरसे वियोग होनेपर उस धनको दूसरे लोग प्राप्त करते हैं॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
तस्मात् सर्वाणि भूतानि धर्ममेव समासते ॥ ६० ॥
मूलम्
मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
तस्मात् सर्वाणि भूतानि धर्ममेव समासते ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनीषी पुरुष धर्मको समस्त प्राणियोंका हृदय कहते हैं। अतः समस्त प्राणियोंको धर्मका ही आश्रय लेना चाहिये॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एव चरेद् धर्मं न धर्मध्वजिको भवेत्।
धर्मवाणिजका ह्येते ये धर्ममुपभुञ्जते ॥ ६१ ॥
मूलम्
एक एव चरेद् धर्मं न धर्मध्वजिको भवेत्।
धर्मवाणिजका ह्येते ये धर्ममुपभुञ्जते ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको चाहिये कि वह अकेला ही धर्मका आचरण करे। धर्मध्वजी (धर्मका दिखावा करनेवाला) न बने। जो धर्मको जीविकाका साधन बनाते हैं, उसके नामपर जीविका चलाते हैं, वे धर्मके व्यवसायी हैं॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्चेद् देवानदम्भेन सेवेतामायया गुरून्।
निधिं निदध्यात् पारत्र्यं यात्रार्थं दानशब्दितम् ॥ ६२ ॥
मूलम्
अर्चेद् देवानदम्भेन सेवेतामायया गुरून्।
निधिं निदध्यात् पारत्र्यं यात्रार्थं दानशब्दितम् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दम्भका परित्याग करके देवताओंकी पूजा करे। छल-कपट छोड़कर गुरुजनोंकी सेवा करे और परलोककी यात्राके लिये दान नामक निधिका संग्रह करे; अर्थात् पारलौकिक लाभके लिये मुक्तहस्त होकर दान करे॥६२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि धर्मप्रमाणकथने द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें धर्मके प्रमाणका वर्णनविषयक एक सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६२॥