भागसूचना
एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भगवान् शङ्करके माहात्म्यका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिर महाबाहो महाभाग्यं महात्मनः।
रुद्राय बहुरूपाय बहुनाम्ने निबोध मे ॥ १ ॥
मूलम्
युधिष्ठिर महाबाहो महाभाग्यं महात्मनः।
रुद्राय बहुरूपाय बहुनाम्ने निबोध मे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— महाबाहु युधिष्ठिर! अब मैं अनेक नाम और रूप धारण करनेवाले महात्मा भगवान् रुद्रका माहात्म्य बतला रहा हूँ, सुनिये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वदन्त्यग्निं महादेवं तथा स्थाणुं महेश्वरम्।
एकाक्षं त्र्यम्बकं चैव विश्वरूपं शिवं तथा ॥ २ ॥
मूलम्
वदन्त्यग्निं महादेवं तथा स्थाणुं महेश्वरम्।
एकाक्षं त्र्यम्बकं चैव विश्वरूपं शिवं तथा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष इन महादेवजीको अग्नि, स्थाणु, महेश्वर, एकाक्ष, त्र्यम्बक, विश्वरूप और शिव आदि अनेक नामोंसे पुकारते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वे तनू तस्य देवस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः।
घोरामन्यां शिवामन्यां ते तनू बहुधा पुनः ॥ ३ ॥
मूलम्
द्वे तनू तस्य देवस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः।
घोरामन्यां शिवामन्यां ते तनू बहुधा पुनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदमें उनके दो रूप बताये गये हैं, जिन्हें वेदवेत्ता ब्राह्मण जानते हैं। उनका एक स्वरूप तो घोर है और दूसरा शिव। इन दोनोंके भी अनेक भेद हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उग्रा घोरा तनुर्यास्य सोऽग्निर्विद्युत् स भास्करः।
शिवा सौम्या च या त्वस्य धर्मस्त्वापोऽथ चन्द्रमाः ॥ ४ ॥
मूलम्
उग्रा घोरा तनुर्यास्य सोऽग्निर्विद्युत् स भास्करः।
शिवा सौम्या च या त्वस्य धर्मस्त्वापोऽथ चन्द्रमाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनकी जो घोर मूर्ति है, वह भय उपजानेवाली है। उसके अग्नि, विद्युत् और सूर्य आदि अनेक रूप हैं। इससे भिन्न जो शिव-नामवाली मूर्ति है, वह परम शान्त एवं मंगलमयी है। उसके धर्म, जल और चन्द्रमा आदि कई रूप हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनोऽर्धं तु तस्याग्निः सोमोऽर्धं पुनरुच्यते।
ब्रह्मचर्यं चरत्येका शिवा चास्य तनुस्तथा ॥ ५ ॥
यास्य घोरतमा मूर्तिर्जगत् संहरते तथा।
ईश्वरत्वान्महत्त्वाच्च महेश्वर इति स्मृतः ॥ ६ ॥
मूलम्
आत्मनोऽर्धं तु तस्याग्निः सोमोऽर्धं पुनरुच्यते।
ब्रह्मचर्यं चरत्येका शिवा चास्य तनुस्तथा ॥ ५ ॥
यास्य घोरतमा मूर्तिर्जगत् संहरते तथा।
ईश्वरत्वान्महत्त्वाच्च महेश्वर इति स्मृतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महादेवजीके आधे शरीरको अग्नि और आधेको सोम कहते हैं। उनकी शिवमूर्ति ब्रह्मचर्यका पालन करती है और जो अत्यन्त घोर मूर्ति है, वह जगत्का संहार करती है। उनमें महत्त्व और ईश्वरत्व होनेके कारण वे ‘महेश्वर’ कहलाते हैं॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्निर्दहति यत्तीक्ष्णो यदुग्रो यत् प्रतापवान्।
मांसशोणितमज्जादो यत् ततो रुद्र उच्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
यन्निर्दहति यत्तीक्ष्णो यदुग्रो यत् प्रतापवान्।
मांसशोणितमज्जादो यत् ततो रुद्र उच्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जो सबको दग्ध करते हैं, अत्यन्त तीक्ष्ण हैं, उग्र और प्रतापी हैं, प्रलयाग्निरूपसे मांस, रक्त और मज्जाको भी अपना ग्रास बना लेते हैं; इसलिये ‘रुद्र’ कहलाते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवानां सुमहान् यच्च यच्चास्य विषयो महान्।
यच्च विश्वं महत् पाति महादेवस्ततः स्मृतः ॥ ८ ॥
मूलम्
देवानां सुमहान् यच्च यच्चास्य विषयो महान्।
यच्च विश्वं महत् पाति महादेवस्ततः स्मृतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे देवताओंमें महान् हैं, उनका विषय भी महान् है तथा वे महान् विश्वकी रक्षा करते हैं; इसलिये ‘महादेव’ कहलाते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धूम्ररूपं च यत्तस्य धूर्जटीत्यत उच्यते।
समेधयति यन्नित्यं सर्वान् वै सर्वकर्मभिः ॥ ९ ॥
मनुष्यान् शिवमन्विच्छंस्तस्मादेष शिवः स्मृतः।
मूलम्
धूम्ररूपं च यत्तस्य धूर्जटीत्यत उच्यते।
समेधयति यन्नित्यं सर्वान् वै सर्वकर्मभिः ॥ ९ ॥
मनुष्यान् शिवमन्विच्छंस्तस्मादेष शिवः स्मृतः।
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा उनकी जटाका रूप धूम्र वर्णका है, इसलिये उन्हें ‘धूर्जटि’ कहते हैं। सब प्रकारके कर्मोंद्वारा सब लोगोंकी उन्नति करते हैं और सबका कल्याण चाहते हैं; इसलिये इनका नाम ‘शिव’ है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दहत्यूर्ध्वं स्थितो यच्च प्राणान् तॄणां स्थिरश्च यत् ॥ १० ॥
स्थिरलिंगश्च यन्नित्यं तस्मात् स्थाणुरिति स्मृतः।
मूलम्
दहत्यूर्ध्वं स्थितो यच्च प्राणान् तॄणां स्थिरश्च यत् ॥ १० ॥
स्थिरलिंगश्च यन्नित्यं तस्मात् स्थाणुरिति स्मृतः।
अनुवाद (हिन्दी)
ये ऊर्ध्वभागमें स्थित होकर देहधारियोंके प्राणोंका नाश करते हैं। सदा स्थिर रहते हैं और जिनका लिंग-विग्रह सदा स्थिर रहता है। इसलिये ये ‘स्थाणु’ कहलाते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदस्य बहुधा रूपं भूतं भव्यं भवत्तथा ॥ ११ ॥
स्थावरं जङ्गमं चैव बहुरूपस्ततः स्मृतः।
विश्वे देवाश्च यत्तस्मिन् विश्वरूपस्ततः स्मृतः ॥ १२ ॥
मूलम्
यदस्य बहुधा रूपं भूतं भव्यं भवत्तथा ॥ ११ ॥
स्थावरं जङ्गमं चैव बहुरूपस्ततः स्मृतः।
विश्वे देवाश्च यत्तस्मिन् विश्वरूपस्ततः स्मृतः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूत, भविष्य और वर्तमानकालमें स्थावर और जंगमोंके आकारमें उनके अनेक रूप प्रकट होते हैं, इसलिये वे ‘बहुरूप’ कहे गये हैं। समस्त देवता उनमें निवास करते हैं; इसलिये वे ‘विश्वरूप’ कहे गये हैं॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्राक्षोऽयुताक्षो वा सर्वतोऽक्षिमयोऽपि वा।
चक्षुषः प्रभवेत् तेजो नास्त्यन्तोऽथास्य चक्षुषाम् ॥ १३ ॥
मूलम्
सहस्राक्षोऽयुताक्षो वा सर्वतोऽक्षिमयोऽपि वा।
चक्षुषः प्रभवेत् तेजो नास्त्यन्तोऽथास्य चक्षुषाम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके नेत्रसे तेज प्रकट होता है तथा उनके नेत्रोंका अन्त नहीं है। इसलिये ये ‘सहस्राक्ष’, ‘आयुताक्ष’ और ‘सर्वतोऽक्षिमय’ कहलाते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा यत् पशून् पाति तैश्च यद् रमते सह।
तेषामधिपतिर्यच्च तस्मात् पशुपतिः स्मृतः ॥ १४ ॥
मूलम्
सर्वथा यत् पशून् पाति तैश्च यद् रमते सह।
तेषामधिपतिर्यच्च तस्मात् पशुपतिः स्मृतः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब प्रकारसे पशुओंका पालन करते हैं, उनके साथ रहनेमें सुख मानते हैं तथा पशुओंके अधिपति हैं। इसलिये वे ‘पशुपति’ कहलाते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्येन ब्रह्मचर्येण लिङ्गमस्य यदा स्थितम्।
महयत्यस्य लोकश्च प्रियं ह्येतन्महात्मनः ॥ १५ ॥
मूलम्
नित्येन ब्रह्मचर्येण लिङ्गमस्य यदा स्थितम्।
महयत्यस्य लोकश्च प्रियं ह्येतन्महात्मनः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य यदि ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए प्रतिदिन स्थिर शिवलिंगकी पूजा करता है तो इससे महात्मा शंकरको बड़ी प्रसन्नता होती है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विग्रहं पूजयेद् यो वै लिङ्गं वापि महात्मनः।
लिङ्गं पूजयिता नित्यं महतीं श्रियमश्नुते ॥ १६ ॥
मूलम्
विग्रहं पूजयेद् यो वै लिङ्गं वापि महात्मनः।
लिङ्गं पूजयिता नित्यं महतीं श्रियमश्नुते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो महात्मा शंकरके श्रीविग्रह अथवा लिंगकी पूजा करता है, वह लिंगपूजक सदा बहुत बड़ी सम्पत्तिका भागी होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयश्चापि देवाश्च गन्धर्वाप्सरसस्तथा ।
लिङ्गमेवार्चयन्ति स्म यत् तदूर्ध्वं समास्थितम् ॥ १७ ॥
पूज्यमाने ततस्तस्मिन् मोदते स महेश्वरः।
सुखं ददाति प्रीतात्मा भक्तानां भक्तवत्सलः ॥ १८ ॥
मूलम्
ऋषयश्चापि देवाश्च गन्धर्वाप्सरसस्तथा ।
लिङ्गमेवार्चयन्ति स्म यत् तदूर्ध्वं समास्थितम् ॥ १७ ॥
पूज्यमाने ततस्तस्मिन् मोदते स महेश्वरः।
सुखं ददाति प्रीतात्मा भक्तानां भक्तवत्सलः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि, देवता, गन्धर्व और अप्सराएँ ऊर्ध्वलोकमें स्थित शिवलिंगकी ही पूजा करती हैं। इस प्रकार शिवलिंगकी पूजा होनेपर भक्तवत्सल भगवान् महेश्वर बड़े प्रसन्न होते हैं और प्रसन्नचित्त होकर वे भक्तोंको सुख देते हैं॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष एव श्मशानेषु देवो वसति निर्दहन्।
यजन्ते ते जनास्तत्र वीरस्थाननिषेविणः ॥ १९ ॥
मूलम्
एष एव श्मशानेषु देवो वसति निर्दहन्।
यजन्ते ते जनास्तत्र वीरस्थाननिषेविणः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये ही भगवान् शंकर अग्निरूपसे शवको दग्ध करते हुए श्मशानभूमिमें निवास करते हैं। जो लोग वहाँ उनकी पूजा करते हैं, उन्हें वीरोंको प्राप्त होनेवाले उत्तम लोक प्राप्त होते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयस्थः शरीरेषु स मृत्युः प्राणिनामिह।
स च वायुः शरीरेषु प्राणापानशरीरिणाम् ॥ २० ॥
मूलम्
विषयस्थः शरीरेषु स मृत्युः प्राणिनामिह।
स च वायुः शरीरेषु प्राणापानशरीरिणाम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे प्राणियोंके शरीरोंमें रहनेवाले और उनके मृत्युरूप हैं तथा वे ही प्राण-अपान आदि वायुके रूपसे देहके भीतर निवास करते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य घोराणि रूपाणि दीप्तानि च बहूनि च।
लोके यान्यस्य पूज्यन्ते विप्रास्तानि विदुर्बुधाः ॥ २१ ॥
मूलम्
तस्य घोराणि रूपाणि दीप्तानि च बहूनि च।
लोके यान्यस्य पूज्यन्ते विप्रास्तानि विदुर्बुधाः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बहुत-से भयंकर एवं उद्दीप्त रूप हैं, जिनकी जगत्में पूजा होती है। विद्वान् ब्राह्मण ही उन सब रूपोंको जानते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामधेयानि देवेषु बहून्यस्य यथार्थवत्।
निरुच्यन्ते महत्त्वाच्च विभुत्वात् कर्मभिस्तथा ॥ २२ ॥
मूलम्
नामधेयानि देवेषु बहून्यस्य यथार्थवत्।
निरुच्यन्ते महत्त्वाच्च विभुत्वात् कर्मभिस्तथा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी महत्ता, व्यापकता तथा दिव्य कर्मोंके अनुसार देवताओंमें उनके बहुत-से यथार्थ नाम प्रचलित हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदे चास्य विदुर्विप्राः शतरुद्रीयमुत्तमम्।
व्यासेनोक्तं च यच्चापि उपस्थानं महात्मनः ॥ २३ ॥
मूलम्
वेदे चास्य विदुर्विप्राः शतरुद्रीयमुत्तमम्।
व्यासेनोक्तं च यच्चापि उपस्थानं महात्मनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदके शतरुद्रिय प्रकरणमें उनके सैकड़ों उत्तम नाम हैं, जिन्हें वेदवेत्ता ब्राह्मण जानते हैं। महर्षि व्यासने भी उन महात्मा शिवका उपस्थान (स्तवन) बताया है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रदाता सर्वलोकानां विश्वं चाप्युच्यते महत्।
ज्येष्ठभूतं वदन्त्येनं ब्राह्मणा ऋषयोऽपरे ॥ २४ ॥
मूलम्
प्रदाता सर्वलोकानां विश्वं चाप्युच्यते महत्।
ज्येष्ठभूतं वदन्त्येनं ब्राह्मणा ऋषयोऽपरे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सम्पूर्ण लोकोंको उनकी अभीष्ट वस्तु देनेवाले हैं। यह महान् विश्व उन्हींका स्वरूप बताया गया है। ब्राह्मण और ऋषि उन्हें सबसे ज्येष्ठ कहते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमो ह्येष देवानां मुखादग्निमजीजनत्।
ग्रहैर्बहुविधैः प्राणान् संरुद्धानुत्सृजत्यपि ॥ २५ ॥
मूलम्
प्रथमो ह्येष देवानां मुखादग्निमजीजनत्।
ग्रहैर्बहुविधैः प्राणान् संरुद्धानुत्सृजत्यपि ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे देवताओंमें प्रधान हैं, उन्होंने अपने मुखसे अग्निको उत्पन्न किया है। वे नाना प्रकारकी ग्रह-बाधाओंसे ग्रस्त प्राणियोंको दुःखसे छुटकारा दिलाते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुञ्चति न पुण्यात्मा शरण्यः शरणागतान्।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं वित्तं कामांश्च पुष्कलान् ॥ २६ ॥
स ददाति मनुष्येभ्यः स एवाक्षिपते पुनः।
मूलम्
विमुञ्चति न पुण्यात्मा शरण्यः शरणागतान्।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं वित्तं कामांश्च पुष्कलान् ॥ २६ ॥
स ददाति मनुष्येभ्यः स एवाक्षिपते पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
पुण्यात्मा और शरणागतवत्सल तो वे इतने हैं कि शरणमें आये हुए किसी प्राणीका त्याग नहीं करते। वे ही मनुष्योंको आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, धन और सम्पूर्ण कामनाएँ प्रदान करते हैं और वे ही पुनः उन्हें छीन लेते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रादिषु च देवेषु तस्यैश्वर्यमिहोच्यते ॥ २७ ॥
स एव व्यापृतो नित्यं त्रैलोक्यस्य शुभाशुभे।
मूलम्
शक्रादिषु च देवेषु तस्यैश्वर्यमिहोच्यते ॥ २७ ॥
स एव व्यापृतो नित्यं त्रैलोक्यस्य शुभाशुभे।
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र आदि देवताओंके पास उन्हींका दिया हुआ ऐश्वर्य बताया जाता है। तीनों लोकोंके शुभाशुभ कर्मोंका फल देनेके लिये वे ही सदा तत्पर रहते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐश्वर्याच्चैव कामानामीश्वरः पुनरुच्यते ॥ २८ ॥
महेश्वरश्च लोकानां महतामीश्वरश्च सः।
मूलम्
ऐश्वर्याच्चैव कामानामीश्वरः पुनरुच्यते ॥ २८ ॥
महेश्वरश्च लोकानां महतामीश्वरश्च सः।
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त कामनाओंके अधीश्वर होनेके कारण उन्हें ‘ईश्वर’ कहते हैं और महान् लोकोंके ईश्वर होनेके कारण उनका नाम ‘महेश्वर’ हुआ है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुभिर्विविधै रूपैर्विश्वं व्याप्तमिदं जगत्।
तस्य देवस्य यद् वक्त्रं समुद्रे वडवामुखम् ॥ २९ ॥
मूलम्
बहुभिर्विविधै रूपैर्विश्वं व्याप्तमिदं जगत्।
तस्य देवस्य यद् वक्त्रं समुद्रे वडवामुखम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने नाना प्रकारके बहुसंख्यक रूपोंद्वारा इस सम्पूर्ण लोकको व्याप्त कर रखा है। उन महादेवजीका जो मुख है, वही समुद्रमें वडवानल है॥२९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि महेश्वरमाहात्म्यं नाम एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें महेश्वरमाहात्म्य नामक एक सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६१॥