१५९ दुर्वासोभिक्षा

भागसूचना

एकोनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका प्रद्युम्नको ब्राह्मणोंकी महिमा बताते हुए दुर्वासाके चरित्रका वर्णन करना और यह सारा प्रसंग युधिष्ठिरको सुनाना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रूहि ब्राह्मणपूजायां व्युष्टिं त्वं मधुसूदन।
वेत्ता त्वमस्य चार्थस्य वेद त्वां हि पितामहः ॥ १ ॥

मूलम्

ब्रूहि ब्राह्मणपूजायां व्युष्टिं त्वं मधुसूदन।
वेत्ता त्वमस्य चार्थस्य वेद त्वां हि पितामहः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— मधुसूदन! ब्राह्मणकी पूजा करनेसे क्या फल मिलता है? इसका आप ही वर्णन कीजिये; क्योंकि आप इस विषयको अच्छी तरह जानते हैं और मेरे पितामह भी आपको इस विषयका ज्ञाता मानते हैं॥१॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुष्वावहितो राजन् द्विजानां भरतर्षभ।
यथा तत्त्वेन वदतो गुणान् वै कुरुसत्तम ॥ २ ॥

मूलम्

शृणुष्वावहितो राजन् द्विजानां भरतर्षभ।
यथा तत्त्वेन वदतो गुणान् वै कुरुसत्तम ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— कुरुकुलतिलक भरतभूषण नरेश! मैं ब्राह्मणोंके गुणोंका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ, आप ध्यान देकर सुनिये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वारवत्यां समासीनं पुरा मां कुरुनन्दन।
प्रद्युम्नः परिपप्रच्छ ब्राह्मणैः परिकोपितः ॥ ३ ॥

मूलम्

द्वारवत्यां समासीनं पुरा मां कुरुनन्दन।
प्रद्युम्नः परिपप्रच्छ ब्राह्मणैः परिकोपितः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! पहलेकी बात है, एक दिन ब्राह्मणोंने मेरे पुत्र प्रद्युम्नको कुपित कर दिया। उस समय मैं द्वारकामें ही था। प्रद्युम्नने मुझसे आकर पूछा—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं फलं ब्राह्मणेष्वस्ति पूजायां मधुसूदन।
ईश्वरत्वं कुतस्तेषामिहैव च परत्र च ॥ ४ ॥

मूलम्

किं फलं ब्राह्मणेष्वस्ति पूजायां मधुसूदन।
ईश्वरत्वं कुतस्तेषामिहैव च परत्र च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! ब्राह्मणोंकी पूजा करनेसे क्या फल होता है? इहलोक और परलोकमें वे क्यों ईश्वरतुल्य माने जाते हैं?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा द्विजातीन् सम्पूज्य किं फलं तत्र मानद।
एतद् ब्रूहि स्फुटं सर्वं सुमहान् संशयोऽत्र मे ॥ ५ ॥

मूलम्

सदा द्विजातीन् सम्पूज्य किं फलं तत्र मानद।
एतद् ब्रूहि स्फुटं सर्वं सुमहान् संशयोऽत्र मे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मानद! सदा ब्राह्मणोंकी पूजा करके मनुष्य क्या फल पाता है? यह सब मुझे स्पष्टरूपसे बताइये, क्योंकि इस विषयमें मुझे महान् संदेह है’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्ते वचने तस्मिन् प्रद्युम्नेन तथा त्वहम्।
प्रत्यब्रुवं महाराज यत् तच्छृणु समाहितः ॥ ६ ॥
व्युष्टिं ब्राह्मणपूजायां रौक्मिणेय निबोध मे।
एते हि सोमराजान ईश्वराः सुखदुःखयोः ॥ ७ ॥
अस्मिल्ँलोके रौक्मिणेय तथामुष्मिंश्च पुत्रक।

मूलम्

इत्युक्ते वचने तस्मिन् प्रद्युम्नेन तथा त्वहम्।
प्रत्यब्रुवं महाराज यत् तच्छृणु समाहितः ॥ ६ ॥
व्युष्टिं ब्राह्मणपूजायां रौक्मिणेय निबोध मे।
एते हि सोमराजान ईश्वराः सुखदुःखयोः ॥ ७ ॥
अस्मिल्ँलोके रौक्मिणेय तथामुष्मिंश्च पुत्रक।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! प्रद्युम्नके ऐसा कहनेपर मैंने उसको उत्तर दिया। रुक्मिणीनन्दन! ब्राह्मणोंकी पूजा करनेसे क्या फल मिलता है, यह मैं बता रहा हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। बेटा! ब्राह्मणोंके राजा सोम (चन्द्रमा) हैं। अतः ये इस लोक और परलोकमें भी सुख-दुःख देनेमें समर्थ होते हैं॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणप्रमुखं सौम्यं न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ ८ ॥
ब्राह्मणप्रतिपूजायामायुः कीर्तिर्यशो बलम् ।
लोका लोकेश्वराश्चैव सर्वे ब्राह्मणपूजकाः ॥ ९ ॥

मूलम्

ब्राह्मणप्रमुखं सौम्यं न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ ८ ॥
ब्राह्मणप्रतिपूजायामायुः कीर्तिर्यशो बलम् ।
लोका लोकेश्वराश्चैव सर्वे ब्राह्मणपूजकाः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंमें शान्तभावकी प्रधानता होती है। इस विषयमें मुझे कोई विचार नहीं करना है। ब्राह्मणोंकी पूजा करनेसे आयु, कीर्ति, यश और बलकी प्राप्ति होती है। समस्त लोक और लोकेश्वर ब्राह्मणोंके पूजक हैं॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिवर्गे चापवर्गे च यशःश्रीरोगशान्तिषु।
देवतापितृपूजासु संतोष्याश्चैव नो द्विजाः ॥ १० ॥

मूलम्

त्रिवर्गे चापवर्गे च यशःश्रीरोगशान्तिषु।
देवतापितृपूजासु संतोष्याश्चैव नो द्विजाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धिके लिये, मोक्षकी प्राप्तिके लिये और यश, लक्ष्मी तथा आरोग्यकी उपलब्धिके लिये एवं देवता और पितरोंकी पूजाके समय हमें ब्राह्मणोंको पूर्ण संतुष्ट करना चाहिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्कथं वै नाद्रियेयमीश्वरोऽस्मीति पुत्रक।
मा ते मन्युर्महाबाहो भवत्वत्र द्विजान् प्रति ॥ ११ ॥

मूलम्

तत्कथं वै नाद्रियेयमीश्वरोऽस्मीति पुत्रक।
मा ते मन्युर्महाबाहो भवत्वत्र द्विजान् प्रति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! ऐसी दशामें मैं ब्राह्मणोंका आदर कैसे नहीं करूँ? महाबाहो! मैं ईश्वर (सब कुछ करनेमें समर्थ) हूँ—ऐसा मानकर तुम्हें ब्राह्मणोंके प्रति क्रोध नहीं करना चाहिये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणा हि महद्‌भूतमस्मिल्ँलोके परत्र च।
भस्म कुर्युर्जगदिदं क्रुद्धाः प्रत्यक्षदर्शिनः ॥ १२ ॥

मूलम्

ब्राह्मणा हि महद्‌भूतमस्मिल्ँलोके परत्र च।
भस्म कुर्युर्जगदिदं क्रुद्धाः प्रत्यक्षदर्शिनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण इस लोक और परलोकमें भी महान् माने गये हैं। वे सब कुछ प्रत्यक्ष देखते हैं और यदि क्रोधमें भर जायँ तो इस जगत्‌को भस्म कर सकते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यानपि सृजेयुश्च लोकाल्ँलोकेश्वरांस्तथा ।
कथं तेषु न वर्तेरन् सम्यग् ज्ञानात् सुतेजसः ॥ १३ ॥

मूलम्

अन्यानपि सृजेयुश्च लोकाल्ँलोकेश्वरांस्तथा ।
कथं तेषु न वर्तेरन् सम्यग् ज्ञानात् सुतेजसः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे-दूसरे लोक और लोकपालोंकी वे सृष्टि कर सकते हैं। अतः तेजस्वी पुरुष ब्राह्मणोंके महत्त्वको अच्छी तरह जानकर भी उनके साथ सद्‌वर्ताव क्यों न करेंगे?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवसन्मद्‌गृहे तात ब्राह्मणो हरिपिङ्गलः।
चीरवासा बिल्वदण्डी दीर्घश्मश्रुः कृशो महान् ॥ १४ ॥

मूलम्

अवसन्मद्‌गृहे तात ब्राह्मणो हरिपिङ्गलः।
चीरवासा बिल्वदण्डी दीर्घश्मश्रुः कृशो महान् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! पहलेकी बात है, मेरे घरमें एक हरित-पिंगल वर्णवाले ब्राह्मणने निवास किया था। वह चिथड़े पहिनता और बेलका डंडा हाथमें लिये रहता था। उसकी मूँछें और दाढ़ियाँ बढ़ी हुई थीं। वह देखनेमें दुबला-पतला और ऊँचे कदका था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घेभ्यश्च मनुष्येभ्यः प्रमाणादधिको भुवि।
स स्वैरं चरते लोकान् ये दिव्या ये च मानुषाः॥१५॥

मूलम्

दीर्घेभ्यश्च मनुष्येभ्यः प्रमाणादधिको भुवि।
स स्वैरं चरते लोकान् ये दिव्या ये च मानुषाः॥१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस भूतलपर जो बड़े-से-बड़े मनुष्य हैं, उन सबसे वह अधिक लंबा था और दिव्य तथा मानव लोकोंमें इच्छानुसार विचरण करता था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमां गाथां गायमानश्चत्वरेषु सभासु च।
दुर्वाससं वासयेत् को ब्राह्मणं सत्कृतं गृहे ॥ १६ ॥

मूलम्

इमां गाथां गायमानश्चत्वरेषु सभासु च।
दुर्वाससं वासयेत् को ब्राह्मणं सत्कृतं गृहे ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ब्राह्मण देवता जिस समय यहाँ पधारे थे, उस समय धर्मशालाओंमें और चौराहोंपर यह गाथा गाते फिरते थे कि ‘कौन मुझ दुर्वासा ब्राह्मणको अपने घरमें सत्कारपूर्वक ठहरायेगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोषणः सर्वभूतानां सूक्ष्मेऽप्यपकृते कृते।
परिभाषां च मे श्रुत्वा को नु दद्यात् प्रतिश्रयम्॥१७॥
यो मां कश्चिद् वासयीत न स मां कोपयेदिति।

मूलम्

रोषणः सर्वभूतानां सूक्ष्मेऽप्यपकृते कृते।
परिभाषां च मे श्रुत्वा को नु दद्यात् प्रतिश्रयम्॥१७॥
यो मां कश्चिद् वासयीत न स मां कोपयेदिति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मेरा थोड़ा-सा भी अपराध बन जाय तो मैं समस्त प्राणियोंपर अत्यन्त कुपित हो उठता हूँ। मेरे इस भाषणको सुनकर कौन मेरे लिये ठहरनेका स्थान देगा? जो कोई मुझे अपने घरमें ठहराये, वह मुझे क्रोध न दिलाये। इस बातके लिये उसे सतत सावधान रहना होगा’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मान्नाद्रियते कश्चित् ततोऽहं समवासयम् ॥ १८ ॥
स सम्भुङ्‌क्ते सहस्राणां बहूनामन्नमेकदा।
एकदा सोऽल्पकं भुङ्‌क्ते न चैवैति पुनर्गृहान् ॥ १९ ॥

मूलम्

यस्मान्नाद्रियते कश्चित् ततोऽहं समवासयम् ॥ १८ ॥
स सम्भुङ्‌क्ते सहस्राणां बहूनामन्नमेकदा।
एकदा सोऽल्पकं भुङ्‌क्ते न चैवैति पुनर्गृहान् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! जब कोई भी उनका आदर न कर सका तब मैंने उन्हें अपने घरमें ठहराया। वे कभी तो एक ही समय इतना अन्न भोजन कर लेते थे, जितनेसे कई हजार मनुष्य तृप्त हो सकते थे और कभी बहुत थोड़ा अन्न खाते तथा घरसे निकल जाते थे। उस दिन फिर घरको नहीं लौटते थे॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकस्माच्च प्रहसति तथाकस्मात् प्ररोदिति।
न चास्य वयसा तुल्यः पृथिव्यामभवत् तदा ॥ २० ॥

मूलम्

अकस्माच्च प्रहसति तथाकस्मात् प्ररोदिति।
न चास्य वयसा तुल्यः पृथिव्यामभवत् तदा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अकस्मात् जोर-जोरसे हँसने लगते और अचानक फूट-फूटकर रो पड़ते थे। उस समय इस पृथ्वीपर उनका समवयस्क कोई नहीं था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ स्वावसथं गत्वा स शय्यास्तरणानि च।
कन्याश्चालंकृता दग्ध्वा ततो व्यपगतः पुनः ॥ २१ ॥

मूलम्

अथ स्वावसथं गत्वा स शय्यास्तरणानि च।
कन्याश्चालंकृता दग्ध्वा ततो व्यपगतः पुनः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन अपने ठहरनेके स्थानपर जाकर वहाँ बिछी हुई शय्याओं, बिछौनों और वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हुई कन्याओंको उन्होंने जलाकर भस्म कर दिया और स्वयं वहाँसे खिसक गये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ मामब्रवीद् भूयः स मुनिः संशितव्रतः।
कृष्ण पायसमिच्छामि भोक्तुमित्येव सत्वरः ॥ २२ ॥

मूलम्

अथ मामब्रवीद् भूयः स मुनिः संशितव्रतः।
कृष्ण पायसमिच्छामि भोक्तुमित्येव सत्वरः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तुरंत ही मेरे पास आकर वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले मुनि मुझसे इस प्रकार बोले—‘कृष्ण! मैं शीघ्र ही खीर खाना चाहता हूँ’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदैव तु मया तस्य चित्तज्ञेन गृहे जनः।
सर्वाण्यन्नानि पानानि भक्ष्याश्चोच्चावचास्तथा ॥ २३ ॥
भवन्तु सत्कृतानीह पूर्वमेव प्रचोदितः।
ततोऽहं ज्वलमानं वै पायसं प्रत्यवेदयम् ॥ २४ ॥

मूलम्

तदैव तु मया तस्य चित्तज्ञेन गृहे जनः।
सर्वाण्यन्नानि पानानि भक्ष्याश्चोच्चावचास्तथा ॥ २३ ॥
भवन्तु सत्कृतानीह पूर्वमेव प्रचोदितः।
ततोऽहं ज्वलमानं वै पायसं प्रत्यवेदयम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं उनके मनकी बात जानता था, इसलिये घरके लोगोंको पहलेसे ही आज्ञा दे दी थी कि ‘सब प्रकारके उत्तम, मध्यम अन्नपान और भक्ष्य-भोज्य पदार्थ आदरपूर्वक तैयार किये जायँ।’ मेरे कथनानुसार सभी चीजें तैयार थीं ही, अतः मैंने मुनिको गरमागरम खीर निवेदन किया॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं भूक्त्वैव स तु क्षिप्रं ततो वचनमब्रवीत्।
क्षिप्रमङ्‌गानि लिम्पस्व पायसेनेति स स्म ह ॥ २५ ॥

मूलम्

तं भूक्त्वैव स तु क्षिप्रं ततो वचनमब्रवीत्।
क्षिप्रमङ्‌गानि लिम्पस्व पायसेनेति स स्म ह ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसको थोड़ा-सा ही खाकर वे तुरंत मुझसे बोले—‘कृष्ण! इस खीरको शीघ्र ही अपने सारे अंगोंमें पोत लो’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविमृश्यैव च ततः कृतवानस्मि तत् तथा।
तेनोच्छिष्टेन गात्राणि शिरश्चैवाभ्यमृक्षयम् ॥ २६ ॥

मूलम्

अविमृश्यैव च ततः कृतवानस्मि तत् तथा।
तेनोच्छिष्टेन गात्राणि शिरश्चैवाभ्यमृक्षयम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने बिना विचारे ही उनकी इस आज्ञाका पालन किया। वही जूठी खीर मैंने अपने सिरपर तथा अन्य सारे अंगोंमें पोत ली॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ददर्श तदाभ्याशे मातरं ते शुभाननाम्।
तामपि स्मयमानां स पायसेनाभ्यलेपयम् ॥ २७ ॥

मूलम्

स ददर्श तदाभ्याशे मातरं ते शुभाननाम्।
तामपि स्मयमानां स पायसेनाभ्यलेपयम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेहीमें उन्होंने देखा कि तुम्हारी सुमुखी माता पास ही खड़ी-खड़ी मुसकरा रही हैं। मुनिकी आज्ञा पाकर मैंने मुसकराती हुई तुम्हारी माताके अंगोंमें भी खीर लपेट दी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनिः पायसदिग्धाङ्गीं रथे तूर्णमयोजयत्।
तमारुह्य रथं चैव निर्ययौ स गृहान्मम ॥ २८ ॥

मूलम्

मुनिः पायसदिग्धाङ्गीं रथे तूर्णमयोजयत्।
तमारुह्य रथं चैव निर्ययौ स गृहान्मम ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके सारे अंगोंमें खीर लिपटी हुई थी, उस महारानी रुक्मिणीको मुनिने तुरंत रथमें जोत दिया और उसी रथपर बैठकर वे मेरे घरसे निकले॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निवर्णो ज्वलन् धीमान्‌ स द्विजो रथधुर्यवत्।
प्रतोदेनातुदद् बालां रुक्मिणीं मम पश्यतः ॥ २९ ॥

मूलम्

अग्निवर्णो ज्वलन् धीमान्‌ स द्विजो रथधुर्यवत्।
प्रतोदेनातुदद् बालां रुक्मिणीं मम पश्यतः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बुद्धिमान् ब्राह्मण दुर्वासा अपने तेजसे अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे। उन्होंने मेरे देखते-देखते जैसे रथके घोड़ोंपर कोड़े चलाये जाते हैं, उसी प्रकार भोली-भाली रुक्मिणीको भी चाबुकसे चोट पहुँचाना आरम्भ किया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च मे स्तोकमप्यासीद् दुःखमीर्ष्याकृतं तदा।
तथा स राजमार्गेण महता निर्ययौ बहिः ॥ ३० ॥

मूलम्

न च मे स्तोकमप्यासीद् दुःखमीर्ष्याकृतं तदा।
तथा स राजमार्गेण महता निर्ययौ बहिः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय मेरे मनमें थोड़ा-सा भी ईर्ष्याजनित दुःख नहीं हुआ। इसी अवस्थामें वे महलसे बाहर आकर विशाल राजमार्गसे चलने लगे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं दाशार्हा जातमन्यवः।
तत्राजल्पन् मिथः केचित् समाभाष्य परस्परम् ॥ ३१ ॥
ब्राह्मणा एव जायेरन् नान्यो वर्णः कथंचन।
को ह्येनं रथमास्थाय जीवेदन्यः पुमानिह ॥ ३२ ॥

मूलम्

तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं दाशार्हा जातमन्यवः।
तत्राजल्पन् मिथः केचित् समाभाष्य परस्परम् ॥ ३१ ॥
ब्राह्मणा एव जायेरन् नान्यो वर्णः कथंचन।
को ह्येनं रथमास्थाय जीवेदन्यः पुमानिह ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह महान् आश्चर्यकी बात देखकर दशार्हवंशी यादवोंको बड़ा क्रोध हुआ। उनमेंसे कुछ लोग वहाँ आपसमें इस प्रकार बातें करने लगे—‘भाइयो! इस संसारमें ब्राह्मण ही पैदा हों, दूसरा कोई वर्ण किसी तरह पैदा न हो। अन्यथा यहाँ इन बाबाजीके सिवा और कौन पुरुष इस रथपर बैठकर जीवित रह सकता था॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशीविषविषं तीक्ष्णं ततस्तीक्ष्णतरो द्विजः।
ब्रह्माशीविषदग्धस्य नास्ति कश्चिच्चिकित्सकः ॥ ३३ ॥

मूलम्

आशीविषविषं तीक्ष्णं ततस्तीक्ष्णतरो द्विजः।
ब्रह्माशीविषदग्धस्य नास्ति कश्चिच्चिकित्सकः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कहते हैं—विषैले साँपोंका विष बड़ा तीखा होता है, परंतु ब्राह्मण उससे भी अधिक तीक्ष्ण होता है। जो ब्राह्मणरूपी विषधर सर्पसे जलाया गया हो, उसके लिये इस संसारमें कोई चिकित्सक नहीं है’॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् व्रजति दुर्धर्षे प्रास्खलद् रुक्मिणी पथि।
तन्नामर्षयत श्रीमांस्ततस्तूर्णमचोदयत् ॥ ३४ ॥

मूलम्

तस्मिन् व्रजति दुर्धर्षे प्रास्खलद् रुक्मिणी पथि।
तन्नामर्षयत श्रीमांस्ततस्तूर्णमचोदयत् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दुर्धर्ष दुर्वासाके इस प्रकार रथसे यात्रा करते समय बेचारी रुक्मिणी रास्तेमें लड़खड़ाकर गिर पड़ी, परंतु श्रीमान् दुर्वासा मुनि इस बातको सहन न कर सके। उन्होंने तुरंत उसे चाबुकसे हाँकना शुरू किया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः परमसंक्रुद्धो रथात् प्रस्कन्द्य स द्विजः।
पदातिरुत्पथेनैव प्राद्रवद् दक्षिणामुखः ॥ ३५ ॥

मूलम्

ततः परमसंक्रुद्धो रथात् प्रस्कन्द्य स द्विजः।
पदातिरुत्पथेनैव प्राद्रवद् दक्षिणामुखः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वह बारंबार लड़खड़ाने लगी, तब वे और भी कुपित हो उठे और रथसे कूदकर बिना रास्तेके ही दक्षिण दिशाकी ओर पैदल ही भागने लगे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुत्पथेन धावन्तमन्वधावं द्विजोत्तमम् ।
तथैव पायसादिग्धः प्रसीद भगवन्निति ॥ ३६ ॥

मूलम्

तमुत्पथेन धावन्तमन्वधावं द्विजोत्तमम् ।
तथैव पायसादिग्धः प्रसीद भगवन्निति ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बिना रास्तेके ही दौड़ते हुए विप्रवर दुर्वासाके पीछे-पीछे मैं उसी तरह सारे शरीरमें खीर लपेटे दौड़ने लगा और बोला—‘भगवन्! प्रसन्न होइये’॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विलोक्य तेजस्वी ब्राह्मणो मामुवाच ह।
जितः क्रोधस्त्वया कृष्ण प्रकृत्यैव महाभुज ॥ ३७ ॥
न तेऽपराधमिह वै दृष्टवानस्मि सुव्रत।
प्रीतोऽस्मि तव गोविन्द वृणु कामान्‌ यथेप्सितान् ॥ ३८ ॥

मूलम्

ततो विलोक्य तेजस्वी ब्राह्मणो मामुवाच ह।
जितः क्रोधस्त्वया कृष्ण प्रकृत्यैव महाभुज ॥ ३७ ॥
न तेऽपराधमिह वै दृष्टवानस्मि सुव्रत।
प्रीतोऽस्मि तव गोविन्द वृणु कामान्‌ यथेप्सितान् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वे तेजस्वी ब्राह्मण मेरी ओर देखकर बोले—‘महाबाहु श्रीकृष्ण! तुमने स्वभावसे ही क्रोधको जीत लिया है। उत्तम व्रतधारी गोविन्द! मैंने यहाँ तुम्हारा कोई भी अपराध नहीं देखा है, अतः तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे मनोवांछित कामनाएँ माँग लो॥३७-३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसन्नस्य च मे तात पश्य व्युष्टिं यथाविधि।
यावदेव मनुष्याणामन्ने भावो भविष्यति ॥ ३९ ॥
यथैवान्ने तथा तेषां त्वयि भावो भविष्यति।

मूलम्

प्रसन्नस्य च मे तात पश्य व्युष्टिं यथाविधि।
यावदेव मनुष्याणामन्ने भावो भविष्यति ॥ ३९ ॥
यथैवान्ने तथा तेषां त्वयि भावो भविष्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! मेरे प्रसन्न होनेका जो भावी फल है, उसे विधिपूर्वक सुनो। जबतक देवताओं और मनुष्योंका अन्नमें प्रेम रहेगा, तबतक जैसा अन्नके प्रति उनका भाव या आकर्षण होगा, वैसा ही तुम्हारे प्रति भी बना रहेगा॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावच्च पुण्या लोकेषु त्वयि कीर्तिर्भविष्यति ॥ ४० ॥
त्रिषु लोकेषु तावच्च वैशिष्ट्यं प्रतिपत्स्यसे।
सुप्रियः सर्वलोकस्य भविष्यसि जनार्दन ॥ ४१ ॥

मूलम्

यावच्च पुण्या लोकेषु त्वयि कीर्तिर्भविष्यति ॥ ४० ॥
त्रिषु लोकेषु तावच्च वैशिष्ट्यं प्रतिपत्स्यसे।
सुप्रियः सर्वलोकस्य भविष्यसि जनार्दन ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तीनों लोकोंमें जबतक तुम्हारी पुण्यकीर्ति रहेगी, तबतक त्रिभुवनमें तुम प्रधान बने रहोगे। जनार्दन! तुम सब लोगोंके परम प्रिय होओगे॥४०-४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्ते भिन्नं च दग्धं च यच्च किंचिद् विनाशितम्।
सर्वं तथैव द्रष्टासि विशिष्टं वा जनार्दन ॥ ४२ ॥

मूलम्

यत्ते भिन्नं च दग्धं च यच्च किंचिद् विनाशितम्।
सर्वं तथैव द्रष्टासि विशिष्टं वा जनार्दन ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनार्दन! तुम्हारी जो-जो वस्तु मैंने तोड़ी-फोड़ी, जलायी या नष्ट कर दी है, वह सब तुम्हें पूर्ववत् या पहलेसे भी अच्छी अवस्थामें सुरक्षित दिखायी देगी॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावदेतत् प्रलिप्तं ते गात्रेषु मधुसूदन।
अतो मृत्युभयं नास्ति यावदिच्छसि चाच्युत ॥ ४३ ॥

मूलम्

यावदेतत् प्रलिप्तं ते गात्रेषु मधुसूदन।
अतो मृत्युभयं नास्ति यावदिच्छसि चाच्युत ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! तुमने अपने सारे अंगोंमें जहाँतक खीर लगायी है, वहाँतकके अंगोंमें चोट लगनेसे तुम्हें मृत्युका भय नहीं रहेगा। अच्युत! तुम जबतक चाहोगे, यहाँ अमर बने रहोगे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु पादतले लिप्ते कस्मात्ते पुत्रकाद्य वै।
नैतन्मे प्रियमित्येवं स मां प्रीतोऽब्रवीत् तदा ॥ ४४ ॥
इत्युक्तोऽहं शरीरं स्वं ददर्श श्रीसमायुतम्।

मूलम्

न तु पादतले लिप्ते कस्मात्ते पुत्रकाद्य वै।
नैतन्मे प्रियमित्येवं स मां प्रीतोऽब्रवीत् तदा ॥ ४४ ॥
इत्युक्तोऽहं शरीरं स्वं ददर्श श्रीसमायुतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु यह खीर तुमने अपने पैरोंके तलवोंमें नहीं लगायी है। बेटा! तुमने ऐसा क्यों किया? तुम्हारा यह कार्य मुझे प्रिय नहीं लगा।’ इस प्रकार जब उन्होंने मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहा, तब मैंने अपने शरीरको अद्‌भुत कान्तिसे सम्पन्न देखा॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुक्मिणीं चाब्रवीत् प्रीतः सर्वस्त्रीणां वरं यशः ॥ ४५ ॥
कीर्तिं चानुत्तमां लोके समवाप्स्यसि शोभने।
न त्वां जरा वा रोगो वा वैवर्ण्यं चापि भाविनि॥४६॥
स्प्रक्ष्यन्ति पुण्यगन्धा च कृष्णमाराधयिष्यसि।

मूलम्

रुक्मिणीं चाब्रवीत् प्रीतः सर्वस्त्रीणां वरं यशः ॥ ४५ ॥
कीर्तिं चानुत्तमां लोके समवाप्स्यसि शोभने।
न त्वां जरा वा रोगो वा वैवर्ण्यं चापि भाविनि॥४६॥
स्प्रक्ष्यन्ति पुण्यगन्धा च कृष्णमाराधयिष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर मुनिने रुक्मिणीसे भी प्रसन्नतापूर्वक कहा—‘शोभने! तुम सम्पूर्ण स्त्रियोंमें उत्तम यश और लोकमें सर्वोत्तम कीर्ति प्राप्त करोगी। भामिनि! तुम्हें बुढ़ापा या रोग अथवा कान्तिहीनता आदि दोष नहीं छू सकेंगे। तुम पवित्र सुगन्धसे सुवासित होकर श्रीकृष्णकी आराधना करोगी॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षोडशानां सहस्राणां वधूनां केशवस्य ह ॥ ४७ ॥
वरिष्ठा च सलोक्या च केशवस्य भविष्यसि।

मूलम्

षोडशानां सहस्राणां वधूनां केशवस्य ह ॥ ४७ ॥
वरिष्ठा च सलोक्या च केशवस्य भविष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्णकी जो सोलह हजार रानियाँ हैं, उन सबमें तुम श्रेष्ठ और पतिके सालोक्यकी अधिकारिणी होओगी’॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव मातरमित्युक्त्वा ततो मां पुनरब्रवीत् ॥ ४८ ॥
प्रस्थितः सुमहातेजा दुर्वासाग्निरिव ज्वलन्।
एषैव ते बुद्धिरस्तु ब्राह्मणान्प्रति केशव ॥ ४९ ॥

मूलम्

तव मातरमित्युक्त्वा ततो मां पुनरब्रवीत् ॥ ४८ ॥
प्रस्थितः सुमहातेजा दुर्वासाग्निरिव ज्वलन्।
एषैव ते बुद्धिरस्तु ब्राह्मणान्प्रति केशव ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रद्युम्न! तुम्हारी मातासे ऐसा कहकर वे अग्निके समान प्रज्वलित होनेवाले महातेजस्वी दुर्वासा यहाँसे प्रस्थित होते समय फिर मुझसे बोले—‘केशव! ब्राह्मणोंके प्रति तुम्हारी सदा ऐसी ही बुद्धि बनी रहे’॥४८-४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा स तदा पुत्र तत्रैवान्तरधीयत।
तस्मिन्नन्तर्हिते चाहमुपांशुव्रतमाचरम् ॥ ५० ॥
यत्किंचिद् ब्राह्मणो ब्रूयात्‌ सर्वं कुर्यामिति प्रभो।

मूलम्

इत्युक्त्वा स तदा पुत्र तत्रैवान्तरधीयत।
तस्मिन्नन्तर्हिते चाहमुपांशुव्रतमाचरम् ॥ ५० ॥
यत्किंचिद् ब्राह्मणो ब्रूयात्‌ सर्वं कुर्यामिति प्रभो।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभावशाली पुत्र! ऐसा कहकर वे वहीं अन्तर्धान हो गये। उनके अदृश्य हो जानेपर मैंने अस्पष्ट वाणीमें धीरेसे यह व्रत लिया कि ‘आजसे कोई ब्राह्मण मुझसे जो कुछ कहेगा, वह सब मैं पूर्ण करूँगा’॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् व्रतमहं कृत्वा मात्रा ते सह पुत्रक ॥ ५१ ॥
ततः परमहृष्टात्मा प्राविशं गृहमेव च।

मूलम्

एतद् व्रतमहं कृत्वा मात्रा ते सह पुत्रक ॥ ५१ ॥
ततः परमहृष्टात्मा प्राविशं गृहमेव च।

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! ऐसी प्रतिज्ञा करके परम प्रसन्नचित्त होकर मैंने तुम्हारी माताके साथ घरमें प्रवेश किया॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविष्टमात्रश्च गृहे सर्वं पश्यामि तन्नवम् ॥ ५२ ॥
यद् भिन्नं यच्च वै दग्धं तेन विप्रेण पुत्रक।

मूलम्

प्रविष्टमात्रश्च गृहे सर्वं पश्यामि तन्नवम् ॥ ५२ ॥
यद् भिन्नं यच्च वै दग्धं तेन विप्रेण पुत्रक।

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्र! घरमें प्रवेश करके मैं देखता हूँ तो उन ब्राह्मणने जो कुछ तोड़-फोड़ या जला दिया था, वह सब नूतनरूपसे प्रस्तुत दिखायी दिया॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहं विस्मयं प्राप्तः सर्वं दृष्ट्वा नवं दृढम् ॥ ५३ ॥
अपूजयं च मनसा रौक्मिणेय सदा द्विजान्।

मूलम्

ततोऽहं विस्मयं प्राप्तः सर्वं दृष्ट्वा नवं दृढम् ॥ ५३ ॥
अपूजयं च मनसा रौक्मिणेय सदा द्विजान्।

अनुवाद (हिन्दी)

रुक्मिणीनन्दन! वे सारी वस्तुएँ नूतन और सुदृढ़ रूपमें उपलब्ध हैं, यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ और मैंने मन-ही-मन द्विजोंकी सदा ही पूजा की॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यहं रौक्मिणेयस्य पृच्छतो भरतर्षभ ॥ ५४ ॥
माहात्म्यं द्विजमुख्यस्य सर्वमाख्यातवांस्तदा ।

मूलम्

इत्यहं रौक्मिणेयस्य पृच्छतो भरतर्षभ ॥ ५४ ॥
माहात्म्यं द्विजमुख्यस्य सर्वमाख्यातवांस्तदा ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! रुक्मिणीकुमार प्रद्युम्नके पूछनेपर इस तरह मैंने उनसे विप्रवर दुर्वासाका सारा माहात्म्य कहा था॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा त्वमपि कौन्तेय ब्राह्मणान् सततं प्रभो ॥ ५५ ॥
पूजयस्व महाभागान् वाग्भिर्दानैश्च नित्यदा।

मूलम्

तथा त्वमपि कौन्तेय ब्राह्मणान् सततं प्रभो ॥ ५५ ॥
पूजयस्व महाभागान् वाग्भिर्दानैश्च नित्यदा।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! कुन्तीनन्दन! इसी प्रकार आप भी सदा मीठे वचन बोलकर और नाना प्रकारके दान देकर महाभाग ब्राह्मणोंकी सर्वदा पूजा करते रहें॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं व्युष्टिमहं प्राप्तो ब्राह्मणस्य प्रसादजाम्।
यच्च मामाह भीष्मोऽयं तत्सत्यं भरतर्षभ ॥ ५६ ॥

मूलम्

एवं व्युष्टिमहं प्राप्तो ब्राह्मणस्य प्रसादजाम्।
यच्च मामाह भीष्मोऽयं तत्सत्यं भरतर्षभ ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार ब्राह्मणके प्रसादसे मुझे उत्तम फल प्राप्त हुआ। ये भीष्मजी मेरे विषयमें जो कुछ कहते हैं, वह सब सत्य है॥५६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि दुर्वासोभिक्षा नाम एकोनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें दुर्वासाकी भिक्षा नामक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५९॥