भागसूचना
सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कप नामक दानवोंके द्वारा स्वर्गलोकपर अधिकार जमा लेनेपर ब्राह्मणोंका कपोंको भस्म कर देना, वायुदेव और कार्तवीर्य अर्जुनके संवादका उपसंहार
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूष्णीमासीदर्जुनस्तु पवनस्त्वब्रवीत् पुनः ।
शृणु मे ब्राह्मणेष्वेव मुख्यं कर्म जनाधिप ॥ १ ॥
मूलम्
तूष्णीमासीदर्जुनस्तु पवनस्त्वब्रवीत् पुनः ।
शृणु मे ब्राह्मणेष्वेव मुख्यं कर्म जनाधिप ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इतनेपर भी कार्तवीर्य चुप ही रहा। तब वायु देवताने फिर कहा—नरेश्वर! ब्राह्मणोंके और भी जो श्रेष्ठ कर्म हैं, उनका वर्णन सुनो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदस्यास्यमनुप्राप्ता यदा सेन्द्रा दिवौकसः।
तदैव च्यवनेनेह हृता तेषां वसुन्धरा ॥ २ ॥
मूलम्
मदस्यास्यमनुप्राप्ता यदा सेन्द्रा दिवौकसः।
तदैव च्यवनेनेह हृता तेषां वसुन्धरा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता मदके मुखमें पड़ गये थे, उसी समय च्यवनने उनके अधिकारकी सारी भूमि हर ली थी (तथा कप नामक दानवोंने उनके स्वर्गलोकपर अधिकार जमा लिया था)॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभौ लोकौ हृतौ मत्वा ते देवा दुःखिताऽभवन्।
शोकार्ताश्च महात्मानं ब्रह्माणं शरणं ययुः ॥ ३ ॥
मूलम्
उभौ लोकौ हृतौ मत्वा ते देवा दुःखिताऽभवन्।
शोकार्ताश्च महात्मानं ब्रह्माणं शरणं ययुः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने दोनों लोकोंका अपहरण हुआ जान वे देवता बहुत दुःखी हो गये और शोकसे आतुर हो महात्मा ब्रह्माजीकी शरणमें गये॥३॥
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदास्यव्यतिषक्तानामस्माकं लोकपूजित ।
च्यवनेन हृता भूमिः कपैश्चैव दिवं प्रभो ॥ ४ ॥
मूलम्
मदास्यव्यतिषक्तानामस्माकं लोकपूजित ।
च्यवनेन हृता भूमिः कपैश्चैव दिवं प्रभो ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता बोले— लोकपूजित प्रभो! जिस समय हम मदके मुखमें पड़ गये थे, उस समय च्यवनने हमारी भूमि हर ली थी और कप नामक दानवोंने स्वर्गलोकपर अधिकार कर लिया॥४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छध्वं शरणं विप्रानाशु सेन्द्रा दिवौकसः।
प्रसाद्य तानुभौ लोकाववाप्स्यथ यथा पुरा ॥ ५ ॥
मूलम्
गच्छध्वं शरणं विप्रानाशु सेन्द्रा दिवौकसः।
प्रसाद्य तानुभौ लोकाववाप्स्यथ यथा पुरा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— इन्द्रसहित देवताओ! तुमलोग शीघ्र ही ब्राह्मणोंकी शरणमें जाओ। उन्हें प्रसन्न कर लेनेपर तुमलोग पहलेकी भाँति दोनों लोक प्राप्त कर लोगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते ययुः शरणं विप्रानूचुस्ते कान् जयामहे।
इत्युक्तास्ते द्विजान् प्राहुर्जयतेह कपानिति ॥ ६ ॥
मूलम्
ते ययुः शरणं विप्रानूचुस्ते कान् जयामहे।
इत्युक्तास्ते द्विजान् प्राहुर्जयतेह कपानिति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब देवतालोग ब्राह्मणोंकी शरणमें गये। ब्राह्मणोंने पूछा—‘हम किनको जीतें?’ उनके इस तरह पूछनेपर देवताओंने ब्राह्मणोंसे कहा—‘आपलोग कप नामक दानवोंको परास्त कीजिये’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूगतान् हि विजेतारो वयमित्यब्रुवन् द्विजाः।
ततः कर्म समारब्धं ब्राह्मणैः कपनाशनम् ॥ ७ ॥
मूलम्
भूगतान् हि विजेतारो वयमित्यब्रुवन् द्विजाः।
ततः कर्म समारब्धं ब्राह्मणैः कपनाशनम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ब्राह्मणोंने कहा—‘हम उन दानवोंको पृथ्वीपर लाकर परास्त करेंगे।’ तदनन्तर ब्राह्मणोंने कपविनाशक कर्म आरम्भ किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा प्रेषितो दूतो ब्राह्मणेभ्यो धनी कपैः।
स च तान् ब्राह्मणानाह धनी कपवचो यथा ॥ ८ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा प्रेषितो दूतो ब्राह्मणेभ्यो धनी कपैः।
स च तान् ब्राह्मणानाह धनी कपवचो यथा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसका समाचार सुनकर कपोंने ब्राह्मणोंके पास अपना धनी नामक दूत भेजा, उसने उन ब्राह्मणोंसे कपोंका संदेश इस प्रकार कहा—॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवद्भिः सदृशाः सर्वे कपाः किमिह वर्तते।
सर्वे वेदविदः प्राज्ञाः सर्वे च क्रतुयाजिनः ॥ ९ ॥
सर्वे सत्यव्रताश्चैव सर्वे तुल्या महर्षिभिः।
श्रीश्चैव रमते तेषु धारयन्ति श्रियं च ते ॥ १० ॥
मूलम्
भवद्भिः सदृशाः सर्वे कपाः किमिह वर्तते।
सर्वे वेदविदः प्राज्ञाः सर्वे च क्रतुयाजिनः ॥ ९ ॥
सर्वे सत्यव्रताश्चैव सर्वे तुल्या महर्षिभिः।
श्रीश्चैव रमते तेषु धारयन्ति श्रियं च ते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्राह्मणो! समस्त कप नामक दानव आपलोगोंके ही समान हैं। फिर उनके विरुद्ध यहाँ क्या हो रहा है? सभी कप वेदोंके ज्ञाता और विद्वान् हैं। सब-के-सब यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं। सभी सत्यप्रतिज्ञ हैं और सब-के-सब महर्षियोंके तुल्य हैं। श्री उनके यहाँ रमण करती है और वे श्रीको धारण करते हैं’॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृथादारान् न गच्छन्ति वृथामांसं न भुञ्जते।
दीप्तमग्निं जुह्वते च गुरूणां वचने स्थिताः ॥ ११ ॥
मूलम्
वृथादारान् न गच्छन्ति वृथामांसं न भुञ्जते।
दीप्तमग्निं जुह्वते च गुरूणां वचने स्थिताः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे परायी स्त्रियोंसे समागम नहीं करते। मांसको व्यर्थ समझकर उसे कभी नहीं खाते हैं। प्रज्वलित अग्निमें आहुति देते और गुरुजनोंकी आज्ञामें स्थित रहते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे च नियतात्मानो बालानां संविभागिनः।
उपेत्य शनकैर्यान्ति न सेवन्ति रजस्वलाम्।
स्वर्गतिं चैव गच्छन्ति तथैव शुभकर्मिणः ॥ १२ ॥
मूलम्
सर्वे च नियतात्मानो बालानां संविभागिनः।
उपेत्य शनकैर्यान्ति न सेवन्ति रजस्वलाम्।
स्वर्गतिं चैव गच्छन्ति तथैव शुभकर्मिणः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे सभी अपने मनको संयममें रखते हैं। बालकोंको उनका भाग बाँट देते हैं। निकट आकर धीरे-धीरे चलते हैं। रजस्वला स्त्रीका कभी सेवन नहीं करते। शुभकर्म करते हैं और स्वर्गलोकमें जाते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभुक्तवत्सु नाश्नन्ति गर्भिणीवृद्धकादिषु ।
पूर्वाह्णेषु न दीव्यन्ति दिवा चैव न शेरते ॥ १३ ॥
मूलम्
अभुक्तवत्सु नाश्नन्ति गर्भिणीवृद्धकादिषु ।
पूर्वाह्णेषु न दीव्यन्ति दिवा चैव न शेरते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गर्भवती स्त्री और वृद्ध आदिके भोजन करनेसे पहले भोजन नहीं करते हैं। पूर्वाह्णमें जुआ नहीं खेलते और दिनमें नींद नहीं लेते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्गुणैर्युक्तान् कथं कपान्।
विजेष्यथ निवर्तध्वं निवृत्तानां सुखं हि वः ॥ १४ ॥
मूलम्
एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्गुणैर्युक्तान् कथं कपान्।
विजेष्यथ निवर्तध्वं निवृत्तानां सुखं हि वः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इनसे तथा अन्य बहुत-से गुणोंद्वारा संयुक्त हुए कप नामक दानवोंको आपलोग क्यों पराजित करना चाहते हैं? इस अवांछनीय कार्यसे निवृत्त होइये, क्योंकि निवृत्त होनेसे ही आपलोगोंको सुख मिलेगा’॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मणा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपान्वयं विजेष्यामो ये देवास्ते वयं स्मृताः।
तस्माद् वध्याः कपाऽस्माकं धनिन् याहि यथाऽऽगतम् ॥ १५ ॥
मूलम्
कपान्वयं विजेष्यामो ये देवास्ते वयं स्मृताः।
तस्माद् वध्याः कपाऽस्माकं धनिन् याहि यथाऽऽगतम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ब्राह्मणोंने कहा— जो देवता हैं, वे हमलोग हैं; अतः देवद्रोही कप हमारे लिये वध्य हैं। इसलिये हम कपोंके कुलको पराजित करेंगे। धनी! तुम जैसे आये हो उसी तरह लौट जाओ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनी गत्वा कपानाह न वो विप्राः प्रियंकराः।
गहीत्वास्त्राण्यतो विप्रान् कपाः सर्वे समाद्रवन् ॥ १६ ॥
मूलम्
धनी गत्वा कपानाह न वो विप्राः प्रियंकराः।
गहीत्वास्त्राण्यतो विप्रान् कपाः सर्वे समाद्रवन् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनीने जाकर कपोंसे कहा—‘ब्राह्मणलोग आपका प्रिय करनेको उद्यत नहीं हैं।’ यह सुनकर अस्त्र-शस्त्र हाथमें ले सभी कप ब्राह्मणोंपर टूट पड़े॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुदग्रध्वजान् दृष्ट्वा कपान् सर्वे द्विजातयः।
व्यसृजन् ज्वलितानग्नीन् कपानां प्राणनाशनान् ॥ १७ ॥
मूलम्
समुदग्रध्वजान् दृष्ट्वा कपान् सर्वे द्विजातयः।
व्यसृजन् ज्वलितानग्नीन् कपानां प्राणनाशनान् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी ऊँची ध्वजाएँ फहरा रही थीं। कपोंको आक्रमण करते देख सभी ब्राह्मण उन कपोंपर प्रज्वलित एवं प्राणनाशक अग्निका प्रहार करने लगे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मसृष्टा हव्यभुजः कपान् हत्वा सनातनाः।
नभसीव यथाभ्राणि व्यराजन्त नराधिप ॥ १८ ॥
मूलम्
ब्रह्मसृष्टा हव्यभुजः कपान् हत्वा सनातनाः।
नभसीव यथाभ्राणि व्यराजन्त नराधिप ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! ब्राह्मणोंके छोड़े हुए सनातन अग्निदेव उन कपोंका संहार करके आकाशमें बादलोंके समान प्रकाशित होने लगे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा वै दानवान् देवाः सर्वे सम्भूय संयुगे।
तेनाभ्यजानन् हि तदा ब्राह्मणैर्निहतान् कपान् ॥ १९ ॥
मूलम्
हत्वा वै दानवान् देवाः सर्वे सम्भूय संयुगे।
तेनाभ्यजानन् हि तदा ब्राह्मणैर्निहतान् कपान् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सब देवताओंने युद्धमें संगठित होकर दानवोंका संहार कर डाला। किंतु उस समय उन्हें यह मालूम नहीं था कि ब्राह्मणोंने कपोंका विनाश कर डाला है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथागम्य महातेजा नारदोऽकथयद् विभो।
यथा हता महाभागैस्तेजसा ब्राह्मणैः कपाः ॥ २० ॥
मूलम्
अथागम्य महातेजा नारदोऽकथयद् विभो।
यथा हता महाभागैस्तेजसा ब्राह्मणैः कपाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! तदनन्तर महातेजस्वी नारदजीने आकर यह बात बतायी कि किस प्रकार महाभाग ब्राह्मणोंने अपने तेजसे कपोंका नाश किया है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदस्य वचः श्रुत्वा प्रीताः सर्वे दिवौकसः।
प्रशशंसुर्द्विजांश्चापि ब्राह्मणांश्च यशस्विनः ॥ २१ ॥
मूलम्
नारदस्य वचः श्रुत्वा प्रीताः सर्वे दिवौकसः।
प्रशशंसुर्द्विजांश्चापि ब्राह्मणांश्च यशस्विनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीकी बात सुनकर सब देवता बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने द्विजों और यशस्वी ब्राह्मणोंकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तेजस्तथा वीर्यं देवानां ववृधे ततः।
अवाप्नुवंश्चामरत्वं त्रिषु लोकेषु पूजितम् ॥ २२ ॥
मूलम्
तेषां तेजस्तथा वीर्यं देवानां ववृधे ततः।
अवाप्नुवंश्चामरत्वं त्रिषु लोकेषु पूजितम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवताओंके तेज और पराक्रमकी वृद्धि होने लगी। उन्होंने तीनों लोकोंमें सम्मानित होकर अमरत्व प्राप्त कर लिया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तवचनं वायुमर्जुनः प्रत्युवाच ह।
प्रतिपूज्य महाबाहो यत् तच्छृणु युधिष्ठिर ॥ २३ ॥
मूलम्
इत्युक्तवचनं वायुमर्जुनः प्रत्युवाच ह।
प्रतिपूज्य महाबाहो यत् तच्छृणु युधिष्ठिर ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु युधिष्ठिर! जब वायुने इस प्रकार ब्राह्मणोंका महत्त्व बतलाया, तब कार्तवीर्य अर्जुनने उनके वचनोंकी प्रशंसा करके जो उत्तर दिया, उसे सुनो॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवाम्यहं ब्राह्मणार्थं सर्वथा सततं प्रभो।
ब्रह्मण्यो ब्राह्मणेभ्यश्च प्रणमामि च नित्यशः ॥ २४ ॥
मूलम्
जीवाम्यहं ब्राह्मणार्थं सर्वथा सततं प्रभो।
ब्रह्मण्यो ब्राह्मणेभ्यश्च प्रणमामि च नित्यशः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोला— प्रभो! मैं सब प्रकारसे और सदा ब्राह्मणोंके लिये ही जीवन धारण करता हूँ, ब्राह्मणोंका भक्त हूँ और प्रतिदिन ब्राह्मणोंको प्रणाम करता हूँ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्तात्रेयप्रसादाच्च मया प्राप्तमिदं बलम्।
लोके च परमा कीर्तिर्धर्मश्चाचरितो महान् ॥ २५ ॥
मूलम्
दत्तात्रेयप्रसादाच्च मया प्राप्तमिदं बलम्।
लोके च परमा कीर्तिर्धर्मश्चाचरितो महान् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर दत्तात्रेयजीकी कृपासे मुझे इस लोकमें महान् बल, उत्तम कीर्ति और महान् धर्मकी प्राप्ति हुई है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो ब्राह्मणकर्माणि मया मारुत तत्त्वतः।
त्वया प्रोक्तानि कार्त्स्न्येन श्रुतानि प्रयतेन च ॥ २६ ॥
मूलम्
अहो ब्राह्मणकर्माणि मया मारुत तत्त्वतः।
त्वया प्रोक्तानि कार्त्स्न्येन श्रुतानि प्रयतेन च ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वायुदेव! बड़े हर्षकी बात है कि आपने मुझसे ब्राह्मणोंके अद्भुत कर्मोंका यथावत् वर्णन किया और मैंने ध्यान देकर उन सबको श्रवण किया है॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
वायुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणान् क्षात्रधर्मेण पालयस्वेन्द्रियाणि च।
भृगुभ्यस्ते भयं घोरं तत् तु कालाद् भविष्यति ॥ २७ ॥
मूलम्
ब्राह्मणान् क्षात्रधर्मेण पालयस्वेन्द्रियाणि च।
भृगुभ्यस्ते भयं घोरं तत् तु कालाद् भविष्यति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वायुने कहा— राजन्! तुम क्षत्रिय-धर्मके अनुसार ब्राह्मणोंकी रक्षा और इन्द्रियोंका संयम करो। तुम्हें भृगुवंशी ब्राह्मणोंसे घोर भय प्राप्त होनेवाला है; परंतु यह दीर्घकालके पश्चात् सम्भव होगा॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पवनार्जुनसंवादे सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें वायुदेव और अर्जुनका संवादविषयक एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५७॥