१५४ पवनार्जुनसंवादः

भागसूचना

चतुष्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्यके प्रभावका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

वायुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमां भूमिं द्विजातिभ्यो दित्सुर्वै दक्षिणां पुरा।
अङ्गो नाम नृपो राजंस्ततश्चिन्तां मही ययौ ॥ १ ॥

मूलम्

इमां भूमिं द्विजातिभ्यो दित्सुर्वै दक्षिणां पुरा।
अङ्गो नाम नृपो राजंस्ततश्चिन्तां मही ययौ ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वायुदेवता कहते हैं— राजन्! पहलेकी बात है, अंग नामवाले एक नरेशने इस पृथ्वीको ब्राह्मणोंके हाथमें दान कर देनेका विचार किया। यह जानकर पृथ्वीको बड़ी चिन्ता हुई॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारिणीं सर्वभूतानामयं प्राप्य वरो नृपः।
कथमिच्छति मां दातुं द्विजेभ्यो ब्रह्मणः सुताम् ॥ २ ॥

मूलम्

धारिणीं सर्वभूतानामयं प्राप्य वरो नृपः।
कथमिच्छति मां दातुं द्विजेभ्यो ब्रह्मणः सुताम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सोचने लगी—‘मैं सम्पूर्ण प्राणियोंको धारण करनेवाली और ब्रह्माजीकी पुत्री हूँ। मुझे पाकर यह श्रेष्ठ राजा ब्राह्मणोंको क्यों देना चाहता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहं त्यक्त्वा गमिष्यामि भूमित्वं ब्रह्मणः पदम्।
अयं सराष्ट्रो नृपतिर्मा भूदिति ततोऽगमत् ॥ ३ ॥

मूलम्

साहं त्यक्त्वा गमिष्यामि भूमित्वं ब्रह्मणः पदम्।
अयं सराष्ट्रो नृपतिर्मा भूदिति ततोऽगमत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि इसका ऐसा विचार है तो मैं भी भूमित्वका (लोकधारणरूप अपने धर्मका) त्याग करके ब्रह्मलोक चली जाऊँगी, जिससे यह राजा अपने राज्यसे नष्ट हो जाय’। ऐसा निश्चय करके पृथ्वी चली गयी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तां कश्यपो दृष्ट्‌वा व्रजन्तीं पृथिवीं तदा।
प्रविवेश महीं सद्यो मुक्त्वाऽऽत्मानं समाहितः ॥ ४ ॥

मूलम्

ततस्तां कश्यपो दृष्ट्‌वा व्रजन्तीं पृथिवीं तदा।
प्रविवेश महीं सद्यो मुक्त्वाऽऽत्मानं समाहितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीको जाते देख महर्षि कश्यप योगका आश्रय ले अपने शरीरको त्यागकर तत्काल भूमिके इस स्थूल विग्रहमें प्रविष्ट हो गये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋद्धा सा सर्वतो जज्ञे तृणौषधिसमन्विता।
धर्मोत्तरा नष्टभया भूमिरासीत् ततो नृप ॥ ५ ॥

मूलम्

ऋद्धा सा सर्वतो जज्ञे तृणौषधिसमन्विता।
धर्मोत्तरा नष्टभया भूमिरासीत् ततो नृप ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उनके प्रवेश करनेसे पृथ्वी पहलेकी अपेक्षा भी समृद्धिशालिनी हो गयी। चारों ओर घास-पात और अन्नकी अधिक उपज होने लगी। उत्तरोत्तर धर्म बढ़ने लगा और भयका नाश हो गया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वर्षसहस्राणि दिव्यानि विपुलव्रतः।
त्रिंशतः कश्यपो राजन् भूमिरासीदतन्द्रितः ॥ ६ ॥

मूलम्

एवं वर्षसहस्राणि दिव्यानि विपुलव्रतः।
त्रिंशतः कश्यपो राजन् भूमिरासीदतन्द्रितः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार आलस्यशून्य हो विशाल व्रतका पालन करनेवाले महर्षि कश्यप तीस हजार दिव्य वर्षोंतक पृथ्वीके रूपमें स्थित रहे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथागम्य महाराज नमस्कृत्य च कश्यपम्।
पृथिवी काश्यपी जज्ञे सुता तस्य महात्मनः ॥ ७ ॥

मूलम्

अथागम्य महाराज नमस्कृत्य च कश्यपम्।
पृथिवी काश्यपी जज्ञे सुता तस्य महात्मनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तत्पश्चात् पृथ्वी ब्रह्मलोकसे लौटकर आयी और उन महात्मा कश्यपको प्रणाम करके उनकी पुत्री बनकर रहने लगी। तभीसे उसका नाम काश्यपी हुआ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष राजन्नीदृशो वै ब्राह्मणः कश्यपोऽभवत्।
अन्य प्रब्रूहि वा त्वं च कश्यपात् क्षत्रियं वरम्॥८॥

मूलम्

एष राजन्नीदृशो वै ब्राह्मणः कश्यपोऽभवत्।
अन्य प्रब्रूहि वा त्वं च कश्यपात् क्षत्रियं वरम्॥८॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ये कश्यपजी ब्राह्मण ही थे; जिनका ऐसा प्रभाव देखा गया है। तुम कश्यपसे भी श्रेष्ठ किसी अन्य क्षत्रियको जानते हो तो बताओ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूष्णीं बभूव नृपतिः पवनस्त्वब्रवीत् पुनः।
शृणु राजन्नुतथ्यस्य जातस्याङ्गिरसे कुले ॥ ९ ॥
भद्रा सोमस्य दुहिता रूपेण परमा मता।
तस्यास्तुल्यं पतिं सोम उतथ्यं समपश्यत ॥ १० ॥

मूलम्

तूष्णीं बभूव नृपतिः पवनस्त्वब्रवीत् पुनः।
शृणु राजन्नुतथ्यस्य जातस्याङ्गिरसे कुले ॥ ९ ॥
भद्रा सोमस्य दुहिता रूपेण परमा मता।
तस्यास्तुल्यं पतिं सोम उतथ्यं समपश्यत ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा कार्तवीर्य अर्जुन कोई उत्तर न दे सका। वह चुपचाप ही बैठा रहा। तब पवन देवता फिर कहने लगे—‘राजन्! अब तुम अंगिराके कुलमें उत्पन्न हुए उतथ्यका वृत्तान्त सुनो। सोमकी पुत्री भद्रा नामसे विख्यात थी। वह अपने समयकी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी मानी जाती थी। चन्द्रमाने देखा, महर्षि उतथ्य ही मेरी पुत्रीके योग्य वर हैं॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा च तीव्रं तपस्तेपे महाभागा यशस्विनी।
उतथ्यार्थे तु चार्वङ्गी परं नियममास्थिता ॥ ११ ॥

मूलम्

सा च तीव्रं तपस्तेपे महाभागा यशस्विनी।
उतथ्यार्थे तु चार्वङ्गी परं नियममास्थिता ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दर अंगोंवाली महाभागा यशस्विनी भद्रा भी उतथ्यको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये उत्तम नियमका आश्रय ले तीव्र तपस्या करने लगी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत आहूय सोतथ्यं ददावत्रिर्यशस्विनीम्।
भार्यार्थे स च जग्राह विधिवद् भूरिदक्षिणः ॥ १२ ॥

मूलम्

तत आहूय सोतथ्यं ददावत्रिर्यशस्विनीम्।
भार्यार्थे स च जग्राह विधिवद् भूरिदक्षिणः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब कुछ दिनोंके बाद सोमके पिता महर्षि अत्रिने उतथ्यको बुलाकर अपनी यशस्विनी पौत्रीका हाथ उनके हाथमें दे दिया। प्रचुर दक्षिणा देनेवाले उतथ्यने अपनी पत्नी बनानेके लिये भद्राका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां त्वकामयत श्रीमान् वरुणः पूर्वमेव ह।
स चागम्य वनप्रस्थं यमुनायां जहार ताम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तां त्वकामयत श्रीमान् वरुणः पूर्वमेव ह।
स चागम्य वनप्रस्थं यमुनायां जहार ताम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु श्रीमान् वरुणदेव उस कन्याको पहलेसे ही चाहते थे। उन्होंने वनमें स्थित मुनिके आश्रमके निकट आकर यमुनामें स्नान करते समय भद्राका अपहरण कर लिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलेश्वरस्तु हृत्वा तामनयत् स्वं पुरं प्रति।
परमाद्‌भुतसंकाशं षट्‌सहस्रशतह्रदम् ॥ १४ ॥

मूलम्

जलेश्वरस्तु हृत्वा तामनयत् स्वं पुरं प्रति।
परमाद्‌भुतसंकाशं षट्‌सहस्रशतह्रदम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जलेश्वर वरुण उस स्त्रीको हरकर अपने परम अद्‌भुत नगरमें ले आये; जहाँ छः हजार बिजलियोंका प्रकाश1 छा रहा था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि रम्यतरं किंचित् तस्मादन्यत् पुरोत्तमम्।
प्रासादैरप्सरोभिश्च दिव्यैः कामैश्च शोभितम् ॥ १५ ॥

मूलम्

न हि रम्यतरं किंचित् तस्मादन्यत् पुरोत्तमम्।
प्रासादैरप्सरोभिश्च दिव्यैः कामैश्च शोभितम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वरुणके उस नगरसे बढ़कर दूसरा कोई परम रमणीय एवं उत्तम नगर नहीं है। वह असंख्य महलों, अप्सराओं और दिव्य भोगोंसे सुशोभित होता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र देवस्तया सार्धं रेमे राजन् जलेश्वरः।
अथाख्यातमुतथ्याय ततः पत्न्यवमर्दनम् ॥ १६ ॥

मूलम्

तत्र देवस्तया सार्धं रेमे राजन् जलेश्वरः।
अथाख्यातमुतथ्याय ततः पत्न्यवमर्दनम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! जलके स्वामी वरुणदेव वहाँ भद्राके साथ रमण करने लगे। तदनन्तर नारदजीने उतथ्यको यह समाचार बताया कि ‘वरुणने आपकी पत्नीका अपहरण एवं उसके साथ बलात्कार किया है’॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा नारदात् सर्वमुतथ्यो नारदं तदा।
प्रोवाच गच्छ ब्रूहि त्वं वरुणं परुषं वचः ॥ १७ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा नारदात् सर्वमुतथ्यो नारदं तदा।
प्रोवाच गच्छ ब्रूहि त्वं वरुणं परुषं वचः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नारदजीके मुखसे यह सारा समाचार सुनकर उतथ्यने उस समय नारदजीसे कहा—‘देवर्षे! आप वरुणके पास जाइये और उनसे मेरा यह कठोर संदेश कह सुनाइये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्वाक्यान्मुञ्च मे भार्यां कस्मात् तां हृतवानसि।
लोकपालोऽसि लोकानां न लोकस्य विलोपकः ॥ १८ ॥
सोमेन दत्ता भार्या मे त्वया चापहृताद्य वै।
इत्युक्तो वचनात् तस्य नारदेन जलेश्वरः ॥ १९ ॥
मुञ्च भार्यामुतथ्यस्य कस्मात् त्वं हृतवानसि।

मूलम्

मद्वाक्यान्मुञ्च मे भार्यां कस्मात् तां हृतवानसि।
लोकपालोऽसि लोकानां न लोकस्य विलोपकः ॥ १८ ॥
सोमेन दत्ता भार्या मे त्वया चापहृताद्य वै।
इत्युक्तो वचनात् तस्य नारदेन जलेश्वरः ॥ १९ ॥
मुञ्च भार्यामुतथ्यस्य कस्मात् त्वं हृतवानसि।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वरुण! तुम मेरे कहनेसे मेरी पत्नीको छोड़ दो। तुमने क्यों उसका अपहरण किया है? तुम लोगोंके लिये लोकपाल बनाये गये हो, लोक-विनाशक नहीं। सोमने अपनी कन्या मुझे दी है, वह मेरी भार्या है। फिर आज तुमने उसका अपहरण कैसे किया?’ नारदजीने उतथ्यके कथनानुसार जलेश्वर वरुणसे यह कहा कि ‘आप उतथ्यकी स्त्रीको छोड़ दीजिये; आपने क्यों उसका अपहरण किया है?’॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति श्रुत्वा वचस्तस्य सोऽथ तं वरुणोऽब्रवीत् ॥ २० ॥
ममैषा सुप्रिया भार्या नैनामुत्स्रष्टुमुत्सहे।

मूलम्

इति श्रुत्वा वचस्तस्य सोऽथ तं वरुणोऽब्रवीत् ॥ २० ॥
ममैषा सुप्रिया भार्या नैनामुत्स्रष्टुमुत्सहे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नारदजीके मुखसे उतथ्यकी यह बात सुनकर वरुणने उनसे कहा—‘यह मेरी अत्यन्त प्यारी भार्या है। मैं इसे छोड़ नहीं सकता’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो वरुणेनाथ नारदः प्राप्य तं मुनिम्।
उतथ्यमब्रवीद् वाक्यं नातिहृष्टमना इव ॥ २१ ॥

मूलम्

इत्युक्तो वरुणेनाथ नारदः प्राप्य तं मुनिम्।
उतथ्यमब्रवीद् वाक्यं नातिहृष्टमना इव ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वरुणके इस प्रकार उत्तर देनेपर नारदजी उतथ्य मुनिके पास लौट गये और खिन्न-से होकर बोले—॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गले गृहीत्वा क्षिप्तोऽस्मि वरुणेन महामुने।
न प्रयच्छति ते भार्यां यत् ते कार्यं कुरुष्व तत्॥२२॥

मूलम्

गले गृहीत्वा क्षिप्तोऽस्मि वरुणेन महामुने।
न प्रयच्छति ते भार्यां यत् ते कार्यं कुरुष्व तत्॥२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामुने! वरुणने मेरा गला पकड़कर ढकेल दिया है। वे आपकी पत्नीको नहीं दे रहे हैं, अब आपको जो कुछ करना हो, वह कीजिये’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारदस्य वचः श्रुत्वा क्रुद्धः प्राज्वलदङ्गिराः।
अपिबत् तेजसा वारि विष्टभ्य सुमहातपाः ॥ २३ ॥

मूलम्

नारदस्य वचः श्रुत्वा क्रुद्धः प्राज्वलदङ्गिराः।
अपिबत् तेजसा वारि विष्टभ्य सुमहातपाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नारदजीकी बात सुनकर अंगिराके पुत्र उतथ्य क्रोधसे जल उठे। वे महान् तपस्वी तो थे ही, अपने तेजसे सारे जलको स्तम्भित करके पीने लगे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीयमाने तु सर्वस्मिंस्तोयेऽपि सलिलेश्वरः।
सुहृद्भिर्भिक्षमाणोऽपि नैवामुञ्चत तां तदा ॥ २४ ॥

मूलम्

पीयमाने तु सर्वस्मिंस्तोयेऽपि सलिलेश्वरः।
सुहृद्भिर्भिक्षमाणोऽपि नैवामुञ्चत तां तदा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब सारा जल पीया जाने लगा, तब सुहृदोंने जलेश्वर वरुणसे प्रार्थना की तो भी वे भद्राको न छोड़ सके॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत क्रुद्धोऽब्रवीद् भूमिमुतथ्यो ब्राह्मणोत्तमः।
दर्शयस्व स्थलं भद्रे षट्‌सहस्रशतह्रदम् ॥ २५ ॥

मूलम्

तत क्रुद्धोऽब्रवीद् भूमिमुतथ्यो ब्राह्मणोत्तमः।
दर्शयस्व स्थलं भद्रे षट्‌सहस्रशतह्रदम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ उतथ्यने कुपित होकर पृथ्वीसे कहा—‘भद्रे! तू मुझे वह स्थान दिखा दे, जहाँ छः हजार बिजलियोंका प्रकाश छाया हुआ है’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तदीरिणं जातं समुद्रस्यावसर्पतः ।
तस्माद् देशान्नदीं चैव प्रोवाचासौ द्विजोत्तमः ॥ २६ ॥
अदृश्या गच्छ भीरु त्वं सरस्वति मरुन् प्रति।
अपुण्य एष भवतु देशस्त्यक्तस्त्वया शुभे ॥ २७ ॥

मूलम्

ततस्तदीरिणं जातं समुद्रस्यावसर्पतः ।
तस्माद् देशान्नदीं चैव प्रोवाचासौ द्विजोत्तमः ॥ २६ ॥
अदृश्या गच्छ भीरु त्वं सरस्वति मरुन् प्रति।
अपुण्य एष भवतु देशस्त्यक्तस्त्वया शुभे ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समुद्रके सूखने या खिसक जानेसे वहाँका सारा स्थान ऊसर हो गया। उस देशसे होकर बहनेवाली सरस्वती नदीसे द्विजश्रेष्ठ उतथ्यने कहा—‘भीरु सरस्वति! तुम अदृश्य होकर मरु प्रदेशमें चली जाओ। शुभे! तुम्हारे द्वारा परित्यक्त होकर यह देश अपवित्र हो जाय’॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् संशोषिते देशे भद्रामादाय वारिपः।
अददाच्छरणं गत्वा भार्यामाङ्गिरसाय वै ॥ २८ ॥

मूलम्

तस्मिन् संशोषिते देशे भद्रामादाय वारिपः।
अददाच्छरणं गत्वा भार्यामाङ्गिरसाय वै ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब वह सारा प्रदेश सूख गया, तब जलेश्वर वरुण भद्राको साथ लेकर मुनिकी शरणमें आये और उन्होंने आंगिरसको उनकी भार्या दे दी॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिगृह्य तु तां भार्यामुतथ्यः सुमनाऽभवत्।
मुमोच च जगद् दुःखाद् वरुणं चैव हैहय ॥ २९ ॥

मूलम्

प्रतिगृह्य तु तां भार्यामुतथ्यः सुमनाऽभवत्।
मुमोच च जगद् दुःखाद् वरुणं चैव हैहय ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हैहयराज! अपनी उस पत्नीको पाकर उतथ्य बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने सम्पूर्ण जगत् तथा वरुणको जलके कष्टसे मुक्त कर दिया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स लब्ध्वा तां भार्यां वरुणं प्राह धर्मवित्।
उतथ्यः सुमहातेजा यत् तच्छृणु नराधिप ॥ ३० ॥

मूलम्

ततः स लब्ध्वा तां भार्यां वरुणं प्राह धर्मवित्।
उतथ्यः सुमहातेजा यत् तच्छृणु नराधिप ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! अपनी उस पत्नीको पाकर महातेजस्वी धर्मज्ञ उतथ्यने वरुणसे जो कुछ कहा, वह सुनो॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयैषा तपसा प्राप्ता क्रोशतस्ते जलाधिप।
इत्युक्त्वा तामुपादाय स्वमेव भवनं ययौ ॥ ३१ ॥

मूलम्

मयैषा तपसा प्राप्ता क्रोशतस्ते जलाधिप।
इत्युक्त्वा तामुपादाय स्वमेव भवनं ययौ ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जलेश्वर! तुम्हारे चिल्लानेपर भी मैंने तपोबलसे अपनी इस पत्नीको प्राप्त कर लिया।’ ऐसा कहकर वे भद्राको साथ ले अपने घरको लौट गये॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष राजन्नीदृशो वै उतथ्यो ब्राह्मणर्षभः।
ब्रवीम्यहं ब्रूहि वा त्वमुतथ्यात् क्षत्रियं वरम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

एष राजन्नीदृशो वै उतथ्यो ब्राह्मणर्षभः।
ब्रवीम्यहं ब्रूहि वा त्वमुतथ्यात् क्षत्रियं वरम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! ये ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य ऐसे प्रभावशाली हैं। यह बात मैं कहता हूँ। यदि उतथ्यसे श्रेष्ठ कोई क्षत्रिय हो तो तुम उसे बताओ’॥३२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पवनार्जुनसंवादो नाम चतुष्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें वायु देवता तथा कार्तवीर्य अर्जुनका संवादनामक एक सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५४॥


  1. कुछ लोग ‘षट्‌सहस्रशतह्रदम्’ का अर्थ यों करते हैं—वहाँ छः लाख तालाब शोभा पा रहे थे; परंतु ‘शतह्रदा’ शब्द बिजलीका वाचक है; अतः उपर्युक्त अर्थ किया गया है। ↩︎