१५३ पवनार्जुनसंवादे

भागसूचना

त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वायुद्वारा उदाहरणसहित ब्राह्मणोंकी महत्ताका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

वायुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु मूढ गुणान्‌ कांश्चिद् बाह्मणानां महात्मनाम्।
ये त्वया कीर्तिता राजंस्तेभ्योऽथ ब्राह्मणो वरः ॥ १ ॥

मूलम्

शृणु मूढ गुणान्‌ कांश्चिद् बाह्मणानां महात्मनाम्।
ये त्वया कीर्तिता राजंस्तेभ्योऽथ ब्राह्मणो वरः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वायुने कहा— मूढ़! मैं महात्मा ब्राह्मणोंके कुछ गुणोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। राजन्! तुमने पृथ्वी, जल और अग्नि आदि जिन व्यक्तियोंका नाम लिया है, उन सबकी अपेक्षा ब्राह्मण श्रेष्ठ है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वक्त्वा महीत्वं भूमिस्तु स्पर्धयाङ्गनृपस्य ह।
नाशं जगाम तां विप्रो व्यस्तम्भयत कश्यपः ॥ २ ॥

मूलम्

त्वक्त्वा महीत्वं भूमिस्तु स्पर्धयाङ्गनृपस्य ह।
नाशं जगाम तां विप्रो व्यस्तम्भयत कश्यपः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, राजा अंगके साथ स्पर्धा (लाग-डाट) होनेके कारण पृथ्वीकी अधिष्ठात्री देवी अपने लोक-धर्म धारणरूप शक्तिका परित्याग करके अदृश्य हो गयीं। उस समय विप्रवर कश्यपने अपने तपोबलसे इस स्थूल पृथ्वीको थाम रखा था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजेया ब्राह्मणा राजन् दिवि चेह च नित्यदा।
अपिबत् तेजसा ह्यापः स्वयमेवाङ्गिराः पुरा ॥ ३ ॥
स ताः पिबन् क्षीरमिव नातृप्यत महामनाः।
अपूरयन्महौघेन महीं सर्वां च पार्थिव ॥ ४ ॥

मूलम्

अजेया ब्राह्मणा राजन् दिवि चेह च नित्यदा।
अपिबत् तेजसा ह्यापः स्वयमेवाङ्गिराः पुरा ॥ ३ ॥
स ताः पिबन् क्षीरमिव नातृप्यत महामनाः।
अपूरयन्महौघेन महीं सर्वां च पार्थिव ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ब्राह्मण इस मर्त्यलोक और स्वर्गलोकमें भी अजेय हैं। पहलेकी बात है, महामना अंगिरा मुनि जलको दूधकी भाँति पी गये थे। उस समय उन्हें पीनेसे तृप्ति ही नहीं होती थी। अतः पीते-पीते वे अपने तेजसे पृथ्वीका सारा जल पी गये। पृथ्वीनाथ! तत्पश्चात् उन्होंने जलका महान् स्रोत बहाकर सम्पूर्ण पृथ्वीको भर दिया॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नहं च क्रुद्धे वै जगत् त्यक्त्वा ततो गतः।
व्यतिष्ठमग्निहोत्रे च चिरमङ्गिरसो भयात् ॥ ५ ॥

मूलम्

तस्मिन्नहं च क्रुद्धे वै जगत् त्यक्त्वा ततो गतः।
व्यतिष्ठमग्निहोत्रे च चिरमङ्गिरसो भयात् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ही अंगिरा मुनि एक बार मेरे ऊपर कुपित हो गये थे। उस समय उनके भयसे इस जगत्‌को त्यागकर मुझे दीर्घकालतक अग्निहोत्रकी अग्निमें निवास करना पड़ा था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ शप्तश्च भगवान् गौतमेन पुरन्दरः।
अहल्यां कामयानो वै धर्मार्थं च न हिंसितः ॥ ६ ॥

मूलम्

अथ शप्तश्च भगवान् गौतमेन पुरन्दरः।
अहल्यां कामयानो वै धर्मार्थं च न हिंसितः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि गौतमने ऐश्वर्यशाली इन्द्रको अहल्यापर आसक्त होनेके कारण शाप दे दिया था। केवल धर्मकी रक्षाके लिये उनके प्राण नहीं लिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा समुद्रो नृपते पूर्णो मृष्टस्य वारिणः।
ब्राह्मणैरभिशप्तश्च बभूव लवणोदकः ॥ ७ ॥

मूलम्

तथा समुद्रो नृपते पूर्णो मृष्टस्य वारिणः।
ब्राह्मणैरभिशप्तश्च बभूव लवणोदकः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! समुद्र पहले मीठे जलसे भरा रहता था, परंतु ब्राह्मणोंके शापसे उसका पानी खारा हो गया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णवर्णो निर्धूमः सङ्गतोर्ध्वशिखः कविः।
क्रुद्धेनाङ्गिरसा शप्तो गुणैरेतैर्विवर्जितः ॥ ८ ॥

मूलम्

सुवर्णवर्णो निर्धूमः सङ्गतोर्ध्वशिखः कविः।
क्रुद्धेनाङ्गिरसा शप्तो गुणैरेतैर्विवर्जितः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निका रंग पहले सोनेके समान था, उसमेंसे धुआँ नहीं निकलता था और उसकी लपट सदा ऊपर की ओर ही उठती थी, किंतु क्रोधमें भरे हुए अंगिरा ऋषिने उसे शाप दे दिया। इसलिये अब उसमें ये पूर्वोक्त गुण नहीं रह गये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महतश्चूर्णितान् पश्य ये हासन्त महोदधिम्।
सुवर्णधारिणा नित्यमवशप्ता द्विजातिना ॥ ९ ॥

मूलम्

महतश्चूर्णितान् पश्य ये हासन्त महोदधिम्।
सुवर्णधारिणा नित्यमवशप्ता द्विजातिना ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, उत्तम (ब्राह्मण) वर्णधारी ब्रह्मर्षि कपिलके शापसे दग्ध हुए सगर पुत्रोंकी, जो यज्ञसम्बन्धी अश्वकी खोज करते हुए यहाँ समुद्रतक आये थे, ये राखके ढेर पड़े हुए हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समो न त्वं द्विजातिभ्यः श्रेयो विद्धि नराधिप।
गर्भस्थान् ब्राह्मणान् सम्यङ् नमस्यति किल प्रभुः ॥ १० ॥

मूलम्

समो न त्वं द्विजातिभ्यः श्रेयो विद्धि नराधिप।
गर्भस्थान् ब्राह्मणान् सम्यङ् नमस्यति किल प्रभुः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम ब्राह्मणोंकी समानता कदापि नहीं कर सकते। उनसे अपने कल्याणके उपाय जाननेका यत्न करो। राजा गर्भस्थ ब्राह्मणोंको भी भलीभाँति प्रणाम करता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्डकानां महद् राज्यं ब्राह्मणेन विनाशितम्।
तालजंघं महाक्षत्रमौर्वेणैकेन नाशितम् ॥ ११ ॥

मूलम्

दण्डकानां महद् राज्यं ब्राह्मणेन विनाशितम्।
तालजंघं महाक्षत्रमौर्वेणैकेन नाशितम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दण्डकारण्यका विशाल साम्राज्य एक ब्राह्मणने ही नष्ट कर दिया। तालजंघ नामवाले महान् क्षत्रियवंशका अकेले महात्मा और्वने संहार कर डाला॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया च विपुलं राज्यं बलं धर्मं श्रुतं तथा।
दत्तात्रेयप्रसादेन प्राप्तं परमदुर्लभम् ॥ १२ ॥

मूलम्

त्वया च विपुलं राज्यं बलं धर्मं श्रुतं तथा।
दत्तात्रेयप्रसादेन प्राप्तं परमदुर्लभम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं तुम्हें भी जो परम दुर्लभ विशाल राज्य, बल, धर्म तथा शास्त्रज्ञानकी प्राप्ति हुई है, वह विप्रवर दत्तात्रेयजीकी कृपासे ही सम्भव हुआ है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निं त्वं यजसे नित्यं कस्माद् ब्राह्मणमर्जुन।
स हि सर्वस्य लोकस्य हव्यवाट्‌ किं न वेत्सि तम्॥१३॥

मूलम्

अग्निं त्वं यजसे नित्यं कस्माद् ब्राह्मणमर्जुन।
स हि सर्वस्य लोकस्य हव्यवाट्‌ किं न वेत्सि तम्॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन! अग्नि भी तो ब्राह्मण ही है। तुम प्रतिदिन उसका यजन क्यों करते हो? क्या तुम नहीं जानते कि अग्नि ही सम्पूर्ण लोकोंके हव्यवाहन (हविष्य पहुँचानेवाले) हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा ब्राह्मणश्रेष्ठमनुभूतानुपालकम् ।
कर्तारं जीवलोकस्य कस्माज्जानन् विमुह्यसे ॥ १४ ॥

मूलम्

अथवा ब्राह्मणश्रेष्ठमनुभूतानुपालकम् ।
कर्तारं जीवलोकस्य कस्माज्जानन् विमुह्यसे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रत्येक जीवकी रक्षा और जीव-जगत्‌की सृष्टि करनेवाला है। इस बातको जानते हुए भी तुम क्यों मोहमें पड़े हुए हो॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा प्रजापतिर्ब्रह्मा अव्यक्तः प्रभुरव्ययः।
येनेदं निखिलं विश्वं जनितं स्थावरं चरम् ॥ १५ ॥

मूलम्

तथा प्रजापतिर्ब्रह्मा अव्यक्तः प्रभुरव्ययः।
येनेदं निखिलं विश्वं जनितं स्थावरं चरम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने इस सम्पूर्ण चराचर जगत्‌की सृष्टि की है, वे अव्यक्तस्वरूप अविनाशी प्रजापति भगवान् ब्रह्माजी भी ब्राह्मण ही हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अण्डजातं तु ब्रह्माणं केचिदिच्छन्त्यपण्डिताः।
अण्डाद् भिन्नाद् बभुः शैला दिशोऽम्भःपृथिवी दिवम् ॥ १६ ॥

मूलम्

अण्डजातं तु ब्रह्माणं केचिदिच्छन्त्यपण्डिताः।
अण्डाद् भिन्नाद् बभुः शैला दिशोऽम्भःपृथिवी दिवम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ मूर्ख मनुष्य ब्रह्माजीको भी अण्डसे उत्पन्न मानते हैं। (उनकी मान्यता है कि) फूटे हुए अण्डसे पर्वत, दिशाएँ, जल, पृथ्वी और स्वर्गकी उत्पत्ति हुई है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रष्टव्यं नैतदेवं हि कथं जायेदजो हि सः।
स्मृतमाकाशमण्डं तु तस्माज्जातः पितामहः ॥ १७ ॥

मूलम्

द्रष्टव्यं नैतदेवं हि कथं जायेदजो हि सः।
स्मृतमाकाशमण्डं तु तस्माज्जातः पितामहः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु ऐसा नहीं समझना चाहिये; क्योंकि जो अजन्मा है, वह जन्म कैसे ले सकता है? फिर भी जो उन्हें अण्डज कहा जाता है, उसका अभिप्राय यों समझना चाहिये। महाकाश ही यहाँ ‘अण्ड’ है, उससे पितामह प्रकट हुए हैं (इसलिये वे ‘अण्डज’ हैं)॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिष्ठेत्‌ कथमिति ब्रूहि न किंचिद्धि तदा भवेत्।
अहङ्कार इति प्रोक्तः सर्वतेजोगतः प्रभुः ॥ १८ ॥

मूलम्

तिष्ठेत्‌ कथमिति ब्रूहि न किंचिद्धि तदा भवेत्।
अहङ्कार इति प्रोक्तः सर्वतेजोगतः प्रभुः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कहो, ‘ब्रह्मा आकाशसे प्रकट हुए हैं तो किस आधारपर ठहरते हैं, यह बताइये; क्योंकि उस समय कोई दूसरा आधार नहीं रहता’ तो इसके उत्तरमें निवेदन है कि ब्रह्मा वहाँ अहंकारस्वरूप बताये गये, जो सम्पूर्ण तेजोंमें व्याप्त एवं समर्थ बताये गये हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्त्यण्डमस्ति तु ब्रह्मा स राजा लोकभावनः।
इत्युक्तः स तदा तूष्णीमभूद् वायुस्ततोऽब्रवीत् ॥ १९ ॥

मूलम्

नास्त्यण्डमस्ति तु ब्रह्मा स राजा लोकभावनः।
इत्युक्तः स तदा तूष्णीमभूद् वायुस्ततोऽब्रवीत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वास्तवमें ‘अण्ड’ नामकी कोई वस्तु नहीं है। फिर भी ब्रह्माजीका अस्तित्व है, क्योंकि वे ही जगत्‌के उत्पादक हैं। उनके ऐसा कहनेपर राजा कार्तवीर्य अर्जुन चुप हो गये, तब वायु देवता पुनः उनसे बोले॥१९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पवनार्जुनसंवादे त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें वायुदेवता और कार्तवीर्य अर्जुनका संवादविषयक एक सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५३॥