भागसूचना
एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणोंकी महिमाका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
के पूज्याः के नमस्कार्याः कथं वर्तेत केषु च।
किमाचारः कीदृशेषु पितामह न रिष्यते ॥ १ ॥
मूलम्
के पूज्याः के नमस्कार्याः कथं वर्तेत केषु च।
किमाचारः कीदृशेषु पितामह न रिष्यते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! संसारमें कौन मनुष्य पूज्य हैं? किनको नमस्कार करना चाहिये? किनके साथ कैसा बर्ताव करना उचित है तथा कैसे लोगोंके साथ किस प्रकारका आचरण किया जाय तो वह हानिकर नहीं होता?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानां परिभव सादयेदपि देवताः।
ब्राह्मणांस्तु नमस्कृत्य युधिष्ठिर न रिष्यते ॥ २ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानां परिभव सादयेदपि देवताः।
ब्राह्मणांस्तु नमस्कृत्य युधिष्ठिर न रिष्यते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! ब्राह्मणोंका अपमान देवताओंको भी दुःखमें डाल सकता है। परंतु यदि ब्राह्मणोंको नमस्कार करके उनके साथ विनयपूर्ण बर्ताव किया जाय तो कभी कोई हानि नहीं होती॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते पूज्यास्ते नमस्कार्या वर्तेथास्तेषु पुत्रवत्।
ते हि लोकानिमान् सर्वान् धारयन्ति मनीषिणः ॥ ३ ॥
मूलम्
ते पूज्यास्ते नमस्कार्या वर्तेथास्तेषु पुत्रवत्।
ते हि लोकानिमान् सर्वान् धारयन्ति मनीषिणः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः ब्राह्मणोंकी पूजा करे। ब्राह्मणोंको नमस्कार करे। उनके प्रति वैसा ही बर्ताव करे, जैसा सुयोग्य पुत्र अपने पिताके प्रति करता है; क्योंकि मनीषी ब्राह्मण इन सब लोकोंको धारण करते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाः सर्वलोकानां महान्तो धर्मसेतवः।
धनत्यागाभिरामाश्च वाक्संयमरताश्च ये ॥ ४ ॥
मूलम्
ब्राह्मणाः सर्वलोकानां महान्तो धर्मसेतवः।
धनत्यागाभिरामाश्च वाक्संयमरताश्च ये ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण समस्त जगत्की धर्ममर्यादाका संरक्षण करनेवाले सेतुके समान हैं। वे धनका त्याग करके प्रसन्न होते हैं और वाणीका संयम रखते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रमणीयाश्च भूतानां निधानं च धृतव्रताः।
प्रणेतारश्च लोकानां शास्त्राणां च यशस्विनः ॥ ५ ॥
मूलम्
रमणीयाश्च भूतानां निधानं च धृतव्रताः।
प्रणेतारश्च लोकानां शास्त्राणां च यशस्विनः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे समस्त भूतोंके लिये रमणीय, उत्तम निधि, दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले, लोकनायक, शास्त्रोंके निर्माता और परम यशस्वी हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपो येषां धनं नित्यं वाक् चैव विपुलं बलम्।
प्रभवश्चैव धर्माणां धर्मज्ञाः सूक्ष्मदर्शिनः ॥ ६ ॥
मूलम्
तपो येषां धनं नित्यं वाक् चैव विपुलं बलम्।
प्रभवश्चैव धर्माणां धर्मज्ञाः सूक्ष्मदर्शिनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा तपस्या उनका धन और वाणी उनका महान् बल है। वे धर्मोंकी उत्पत्तिके कारण, धर्मके ज्ञाता और सूक्ष्मदर्शी हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मकामाः स्थिता धर्मे सुकृतैर्धर्मसेतवः।
यान् समाश्रित्य जीवन्ति प्रजाः सर्वाश्चतुर्विधाः ॥ ७ ॥
मूलम्
धर्मकामाः स्थिता धर्मे सुकृतैर्धर्मसेतवः।
यान् समाश्रित्य जीवन्ति प्रजाः सर्वाश्चतुर्विधाः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे धर्मकी ही इच्छा रखनेवाले, पुण्यकर्मोंद्वारा धर्ममें ही स्थित रहनेवाले और धर्मके सेतु हैं। उन्हींका आश्रय लेकर चारों प्रकारकी सारी प्रजा जीवन धारण करती है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पन्थानः सर्वनेतारो यज्ञवाहाः सनातनाः।
पितृपैतामहीं गुर्वीमुद्वहन्ति धुरं सदा ॥ ८ ॥
मूलम्
पन्थानः सर्वनेतारो यज्ञवाहाः सनातनाः।
पितृपैतामहीं गुर्वीमुद्वहन्ति धुरं सदा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण ही सबके पथप्रदर्शक, नेता और सनातन यज्ञ-निर्वाहक हैं। वे बाप-दादोंकी चलायी हुई भारी धर्म-मर्यादाका भार सदा वहन करते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुरि ये नावसीदन्ति विषये सद्गवा इव।
पितृदेवातिथिमुखा हव्यकव्याग्रभोजिनः ॥ ९ ॥
मूलम्
धुरि ये नावसीदन्ति विषये सद्गवा इव।
पितृदेवातिथिमुखा हव्यकव्याग्रभोजिनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अच्छे बैल बोझ ढोनेमें शिथिलता नहीं दिखाते, उसी प्रकार वे धर्मका भार वहन करनेमें कष्टका अनुभव नहीं करते हैं। वे ही देवता, पितर और अतिथियोंके मुख तथा हव्य-कव्यमें प्रथम भोजनके अधिकारी हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजनादेव लोकांस्त्रींस्त्रायन्ते महतो भयात्।
दीपः सर्वस्य लोकस्य चक्षुश्चक्षुष्मतामपि ॥ १० ॥
मूलम्
भोजनादेव लोकांस्त्रींस्त्रायन्ते महतो भयात्।
दीपः सर्वस्य लोकस्य चक्षुश्चक्षुष्मतामपि ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण भोजनमात्र करके तीनों लोकोंकी महान् भयसे रक्षा करते हैं। वे सम्पूर्ण जगत्के लिये दीपकी भाँति प्रकाशक तथा नेत्रवालोंके भी नेत्र हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वशिक्षा श्रुतिधना निपुणा मोक्षदर्शिनः।
गतिज्ञाः सर्वभूतानामध्यात्मगतिचिन्तकाः ॥ ११ ॥
मूलम्
सर्वशिक्षा श्रुतिधना निपुणा मोक्षदर्शिनः।
गतिज्ञाः सर्वभूतानामध्यात्मगतिचिन्तकाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण सबको सीख देनेवाले हैं। वेद ही उनका धन है। वे शास्त्रज्ञानमें कुशल, मोक्षदर्शी, समस्त भूतोंकी गतिके ज्ञाता और अध्यात्म-तत्त्वका चिन्तन करनेवाले हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदिमध्यावसानानां ज्ञातारश्छिन्नसंशयाः ।
परावरविशेषज्ञा गन्तारः परमां गतिम् ॥ १२ ॥
मूलम्
आदिमध्यावसानानां ज्ञातारश्छिन्नसंशयाः ।
परावरविशेषज्ञा गन्तारः परमां गतिम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण आदि, मध्य और अन्तके ज्ञाता, संशयरहित, भूत-भविष्यका विशेष ज्ञान रखनेवाले तथा परम गतिको जानने और पानेवाले हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुक्ता धूतपाप्मानो निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः।
मानार्हा मानिता नित्यं ज्ञानविद्भिर्महात्मभिः ॥ १३ ॥
मूलम्
विमुक्ता धूतपाप्मानो निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः।
मानार्हा मानिता नित्यं ज्ञानविद्भिर्महात्मभिः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ ब्राह्मण सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त और निष्पाप हैं। उनके चित्तपर द्वन्द्वोंका प्रभाव नहीं पड़ता। वे सब प्रकारके परिग्रहका त्याग करनेवाले और सम्मान पानेके योग्य हैं। ज्ञानी महात्मा उन्हें सदा ही आदर देते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चन्दने मलपङ्के च भोजनेऽभोजने समाः।
समं येषां दुकूलं च तथा क्षौमाजिनानि च ॥ १४ ॥
मूलम्
चन्दने मलपङ्के च भोजनेऽभोजने समाः।
समं येषां दुकूलं च तथा क्षौमाजिनानि च ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे चन्दन और मलकी कीचड़में, भोजन और उपवासमें समान दृष्टि रखते हैं। उनके लिये साधारण वस्त्र, रेशमी वस्त्र और मृगछाला समान हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिष्ठेयुरप्यभुञ्जाना बहूनि दिवसान्यपि ।
शोषयेयुश्च गात्राणि स्वाध्यायैः संयतेन्द्रियाः ॥ १५ ॥
मूलम्
तिष्ठेयुरप्यभुञ्जाना बहूनि दिवसान्यपि ।
शोषयेयुश्च गात्राणि स्वाध्यायैः संयतेन्द्रियाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बहुत दिनोंतक बिना खाये रह सकते हैं और अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर स्वाध्याय करते हुए शरीरको सुखा सकते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदैवं दैवतं कुर्युर्दैवतं चाप्यदैवतम्।
लोकानन्यान् सृजेयुस्ते लोकपालांश्च कोपिताः ॥ १६ ॥
मूलम्
अदैवं दैवतं कुर्युर्दैवतं चाप्यदैवतम्।
लोकानन्यान् सृजेयुस्ते लोकपालांश्च कोपिताः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण अपने तपोबलसे जो देवता नहीं है, उसे भी देवता बना सकते हैं। यदि वे क्रोधमें भर जायँ तो देवताओंको भी देवत्वसे भ्रष्ट कर सकते हैं। दूसरे-दूसरे लोक और लोकपालोंकी रचना कर सकते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपेयः सागरो येषामपि शापान्महात्मनाम्।
येषां कोपाग्निरद्यापि दण्डके नोपशाम्यति ॥ १७ ॥
मूलम्
अपेयः सागरो येषामपि शापान्महात्मनाम्।
येषां कोपाग्निरद्यापि दण्डके नोपशाम्यति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हीं महात्माओंके शापसे समुद्रका पानी पीनेयोग्य नहीं रहा। उनकी क्रोधाग्नि दण्डकारण्यमें आजतक शान्त नहीं हुई॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवानामपि ये देवाः कारणं कारणस्य च।
प्रमाणस्य प्रमाणं च कस्तानभिभवेद् बुधः ॥ १८ ॥
मूलम्
देवानामपि ये देवाः कारणं कारणस्य च।
प्रमाणस्य प्रमाणं च कस्तानभिभवेद् बुधः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे देवताओंके भी देवता, कारणके भी कारण और प्रमाणके भी प्रमाण हैं। भला कौन मनुष्य बुद्धिमान् होकर भी ब्राह्मणोंका अपमान करेगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां वृद्धश्च बालश्च सर्वः सम्मानमर्हति।
तपोविद्याविशेषात्तु मानयन्ति परस्परम् ॥ १९ ॥
मूलम्
येषां वृद्धश्च बालश्च सर्वः सम्मानमर्हति।
तपोविद्याविशेषात्तु मानयन्ति परस्परम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंमें कोई बूढ़े हों या बालक सभी सम्मानके योग्य हैं। ब्राह्मणलोग आपसमें तप और विद्याकी अधिकता देखकर एक-दूसरेका सम्मान करते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्वान् ब्राह्मणो देवः पात्रं वै पावनं महत्।
विद्वान् भूयस्तरो देवः पूर्णसागरसंनिभः ॥ २० ॥
मूलम्
अविद्वान् ब्राह्मणो देवः पात्रं वै पावनं महत्।
विद्वान् भूयस्तरो देवः पूर्णसागरसंनिभः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्याहीन ब्राह्मण भी देवताके समान और परम पवित्र पात्र माना गया है। फिर जो विद्वान् है उसके लिये तो कहना ही क्या है। वह महान् देवताके समान है और भरे हुए महासागरके समान सद्गुण-सम्पन्न है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् ॥ २१ ॥
मूलम्
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण विद्वान् हो या अविद्वान् इस भूतलका महान् देवता है। जैसे अग्नि पञ्चभू-संस्कारपूर्वक स्थापित हो या न हो, वह महान् देवता ही है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्मशाने ह्यपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति।
हविर्यज्ञे च विधिवद् गृह एवातिशोभते ॥ २२ ॥
मूलम्
श्मशाने ह्यपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति।
हविर्यज्ञे च विधिवद् गृह एवातिशोभते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तेजस्वी अग्निदेव श्मशानमें हों तो भी दूषित नहीं होते। विधिवत् हविष्यसे सम्पादित होनेवाले यज्ञमें तथा घरमें भी उनकी अधिकाधिक शोभा होती है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तते सर्वकर्मसु।
सर्वथा ब्राह्मणो मान्यो दैवतं विद्धि तत्परम् ॥ २३ ॥
मूलम्
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तते सर्वकर्मसु।
सर्वथा ब्राह्मणो मान्यो दैवतं विद्धि तत्परम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार यद्यपि ब्राह्मण सब प्रकारके अनिष्ट कर्मोंमें लगा हो तो भी वह सर्वथा माननीय है। उसे परम देवता समझो॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि ब्राह्मणप्रशंसायामेकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें ब्राह्मणकी प्रशंसाविषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५१॥