१४६ स्त्रीधर्मकथने

भागसूचना

षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पार्वतीजीके द्वारा स्त्री-धर्मका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा महादेवः श्रोतुकामः स्वयं प्रभुः।
अनुकूलां प्रियां भार्यां पार्श्वस्थां समभाषत ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा महादेवः श्रोतुकामः स्वयं प्रभुः।
अनुकूलां प्रियां भार्यां पार्श्वस्थां समभाषत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— ऐसा कहकर महादेवजी स्वयं भी पार्वतीजीके मुँहसे कुछ सुननेकी इच्छा करने लगे। अतएव स्वयं भगवान् शिवने पास ही बैठी हुई अपनी प्रिय एवं अनुकूल भार्या पार्वतीसे कहा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परावरज्ञे धर्मज्ञे तपोवननिवासिनि ।
साध्वि सुभ्रु सुकेशान्ते हिमवत्पर्वतात्मजे ॥ २ ॥
दक्षे शमदमोपेते निर्ममे धर्मचारिणि।
पृच्छामि त्वां वरारोहे पृष्टा वद ममेप्सितम् ॥ ३ ॥

मूलम्

परावरज्ञे धर्मज्ञे तपोवननिवासिनि ।
साध्वि सुभ्रु सुकेशान्ते हिमवत्पर्वतात्मजे ॥ २ ॥
दक्षे शमदमोपेते निर्ममे धर्मचारिणि।
पृच्छामि त्वां वरारोहे पृष्टा वद ममेप्सितम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वर बोले— तपोवनमें निवास करनेवाली देवि! तुम भूत और भविष्यको जाननेवाली, धर्मके तत्त्वको समझनेवाली और स्वयं भी धर्मका आचरण करनेवाली हो। सुन्दर केशों और भौंहोंवाली सती-साध्वी हिमवान्-कुमारी! तुम कार्यकुशल हो, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहसे भी सम्पन्न हो। तुममें अहंता और ममताका सर्वथा अभाव है; अतः वरारोहे! मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ। मेरे पूछनेपर तुम मुझे मेरे अभीष्ट विषयको बताओ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सावित्री ब्रह्मणःसाध्वी कौशिकस्य शची सती।
(लक्ष्मीर्विष्णोः प्रिया भार्या धृतिर्भार्या यमस्य तु)
मार्कण्डेयस्य धूमोर्णा ऋद्धिर्वैश्रवणस्य च ॥ ४ ॥
वरुणस्य तथा गौरी सूर्यस्य च सुवर्चला।
रोहिणी शशिनः साध्वी स्वाहा चैव विभावसोः ॥ ५ ॥
अदितिः कश्यपस्याथ सर्वास्ताः पतिदेवताः।
पृष्टाश्चोपासिताश्चैव तास्त्वया देवि नित्यशः ॥ ६ ॥

मूलम्

सावित्री ब्रह्मणःसाध्वी कौशिकस्य शची सती।
(लक्ष्मीर्विष्णोः प्रिया भार्या धृतिर्भार्या यमस्य तु)
मार्कण्डेयस्य धूमोर्णा ऋद्धिर्वैश्रवणस्य च ॥ ४ ॥
वरुणस्य तथा गौरी सूर्यस्य च सुवर्चला।
रोहिणी शशिनः साध्वी स्वाहा चैव विभावसोः ॥ ५ ॥
अदितिः कश्यपस्याथ सर्वास्ताः पतिदेवताः।
पृष्टाश्चोपासिताश्चैव तास्त्वया देवि नित्यशः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीकी पत्नी सावित्री साध्वी हैं। इन्द्रपत्नी शची भी सती हैं। विष्णुकी प्यारी पत्नी लक्ष्मी पतिव्रता हैं। इसी प्रकार यमकी भार्या धृति, मार्कण्डेयकी पत्नी धूमोर्णा, कुबेरकी स्त्री ऋद्धि, वरुणकी भार्या गौरी, सूर्यकी पत्नी सुवर्चला, चन्द्रमाकी साध्वी स्त्री रोहिणी, अग्निकी भार्या स्वाहा और कश्यपकी पत्नी अदिति—ये सब-की-सब पतिव्रता देवियाँ हैं। देवि! तुमने इन सबका सदा संग किया है और इन सबसे धर्मकी बात पूछी है॥४—६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन त्वां परिपृच्छामि धर्मज्ञे धर्मवादिनि।
स्त्रीधर्मं श्रोतुमिच्छामि त्वयोदाहृतमादितः ॥ ७ ॥

मूलम्

तेन त्वां परिपृच्छामि धर्मज्ञे धर्मवादिनि।
स्त्रीधर्मं श्रोतुमिच्छामि त्वयोदाहृतमादितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः धर्मवादिनि धर्मज्ञे! मैं तुमसे स्त्रीधर्मके विषयमें प्रश्न करता हूँ और तुम्हारे मुखसे वर्णित नारीधर्म आद्योपान्त सुनना चाहता हूँ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सधर्मचारिणी मे त्वं समशीला समव्रता।
समानसारवीर्या च तपस्तीव्रं कृतं च ते ॥ ८ ॥

मूलम्

सधर्मचारिणी मे त्वं समशीला समव्रता।
समानसारवीर्या च तपस्तीव्रं कृतं च ते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम मेरी सहधर्मिणी हो। तुम्हारा शील-स्वभाव तथा व्रत मेरे समान ही है। तुम्हारी सारभूत शक्ति भी मुझसे कम नहीं है। तुमने तीव्र तपस्या भी की है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया ह्युक्तो विशेषेण गुणवान् स भविष्यति।
लोके चैव त्वया देवि प्रमाणत्वमुपैष्यति ॥ ९ ॥

मूलम्

त्वया ह्युक्तो विशेषेण गुणवान् स भविष्यति।
लोके चैव त्वया देवि प्रमाणत्वमुपैष्यति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः देवि! तुम्हारे द्वारा कहा गया स्त्रीधर्म विशेष गुणवान् होगा और लोकमें प्रमाणभूत माना जायगा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियश्चैव विशेषेण स्त्रीजनस्य गतिः परा।
गौर्यां गच्छति सुश्रोणि लोकेष्वेषा गतिः सदा ॥ १० ॥

मूलम्

स्त्रियश्चैव विशेषेण स्त्रीजनस्य गतिः परा।
गौर्यां गच्छति सुश्रोणि लोकेष्वेषा गतिः सदा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशेषतः स्त्रियाँ ही स्त्रियोंकी परम गति हैं। सुश्रोणि! संसारमें भूतलपर यह बात सदासे प्रचलित है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम चार्धं शरीरस्य तव चार्धेन निर्मितम्।
सुरकार्यकरी च त्वं लोकसंतानकारिणी ॥ ११ ॥

मूलम्

मम चार्धं शरीरस्य तव चार्धेन निर्मितम्।
सुरकार्यकरी च त्वं लोकसंतानकारिणी ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा आधा शरीर तुम्हारे आधे शरीरसे निर्मित हुआ है। तुम देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाली तथा लोक-संततिका विस्तार करनेवाली हो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(प्रमदोक्तं तु यत् किंचित्‌ तत् स्त्रीषु बहु मन्यते।
न तथा मन्यते स्त्रीषु पुरुषोक्तमनिन्दिते॥)

मूलम्

(प्रमदोक्तं तु यत् किंचित्‌ तत् स्त्रीषु बहु मन्यते।
न तथा मन्यते स्त्रीषु पुरुषोक्तमनिन्दिते॥)

अनुवाद (हिन्दी)

अनिन्दिते! नारीकी कही हुई जो बात होती है, उसे ही स्त्रियोंमें अधिक महत्त्व दिया जाता है। पुरुषोंकी कही हुई बातको स्त्रियोंमें वैसा महत्त्व नहीं दिया जाता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव सर्वः सुविदितः स्त्रीधर्मः शाश्वतः शुभे।
तस्मादशेषतो ब्रूहि स्वधर्मं विस्तरेण मे ॥ १२ ॥

मूलम्

तव सर्वः सुविदितः स्त्रीधर्मः शाश्वतः शुभे।
तस्मादशेषतो ब्रूहि स्वधर्मं विस्तरेण मे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुभे! तुम्हें सम्पूर्ण सनातन स्त्रीधर्मका भलीभाँति ज्ञान है; अतः अपने धर्मका पूर्णरूपसे विस्तारपूर्वक मेरे आगे वर्णन करो॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् सर्वभूतेश भूतभव्यभवोत्तम ।
त्वत्प्रभावादियं देव वाक् चैव प्रतिभाति मे ॥ १३ ॥
इमास्तु नद्यो देवेश सर्वतीर्थोदकैर्युताः।
उपस्पर्शनहेतोस्त्वामुपयान्ति समीपतः ॥ १४ ॥
एताभिः सह सम्मन्त्र्य प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः।
प्रभवन् योऽनहंवादी स वै पुरुष उच्यते ॥ १५ ॥

मूलम्

भगवन् सर्वभूतेश भूतभव्यभवोत्तम ।
त्वत्प्रभावादियं देव वाक् चैव प्रतिभाति मे ॥ १३ ॥
इमास्तु नद्यो देवेश सर्वतीर्थोदकैर्युताः।
उपस्पर्शनहेतोस्त्वामुपयान्ति समीपतः ॥ १४ ॥
एताभिः सह सम्मन्त्र्य प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः।
प्रभवन् योऽनहंवादी स वै पुरुष उच्यते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने कहा— भगवन्! सर्वभूतेश्वर! भूत, भविष्य और वर्तमानकालस्वरूप सर्वश्रेष्ठ महादेव! आपके प्रभावसे मेरी यह वाणी प्रतिभासम्पन्न हो रही है—अब मैं स्त्री-धर्मका वर्णन कर सकती हूँ। किंतु देवेश्वर! ये नदियाँ सम्पूर्ण तीर्थोंके जलसे सम्पन्न हो आपके स्नान और आचमन आदिके लिये अथवा आपके चरणोंका स्पर्श करनेके लिये यहाँ आपके निकट आ रही हैं। मैं इन सबके साथ सलाह करके क्रमशः स्त्रीधर्मका वर्णन करूँगी। जो व्यक्ति समर्थ होकर भी अहंकारशून्य हो, वही पुरुष कहलाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्री च भूतेश सततं स्त्रियमेवानुधावति।
मया सम्मानिताश्चैव भविष्यन्ति सरिद्वराः ॥ १६ ॥

मूलम्

स्त्री च भूतेश सततं स्त्रियमेवानुधावति।
मया सम्मानिताश्चैव भविष्यन्ति सरिद्वराः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूतनाथ! स्त्री सदा स्त्रीका ही अनुसरण करती है। मेरे ऐसा करनेसे ये श्रेष्ठ सरिताएँ मेरे द्वारा सम्मानित होंगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा सरस्वती पुण्या नदीनामुत्तमा नदी।
प्रथमा सर्वसरितां नदी सागरगामिनी ॥ १७ ॥
विपाशा च वितस्ता च चन्द्रभागा इरावती।
शतद्रूर्देविका सिन्धुः कौशिकी गौतमी तथा ॥ १८ ॥
(यमुना नर्मदां चैव कावेरीमथ निम्नगाम्)

मूलम्

एषा सरस्वती पुण्या नदीनामुत्तमा नदी।
प्रथमा सर्वसरितां नदी सागरगामिनी ॥ १७ ॥
विपाशा च वितस्ता च चन्द्रभागा इरावती।
शतद्रूर्देविका सिन्धुः कौशिकी गौतमी तथा ॥ १८ ॥
(यमुना नर्मदां चैव कावेरीमथ निम्नगाम्)

अनुवाद (हिन्दी)

ये नदियोंमें उत्तम पुण्यसलिला सरस्वती विराजमान हैं, जो समुद्रमें मिली हुई हैं। ये समस्त सरिताओंमें प्रथम (प्रधान) मानी जाती हैं। इनके सिवा विपाशा (व्यास), वितस्ता (झेलम), चन्द्रभागा (चनाव), इरावती (रावी), शतद्रू (शतलज), देविका, सिन्धु, कौशिकी (कोसी), गौतमी (गोदावरी), यमुना, नर्मदा तथा कावेरी नदी भी यहाँ विद्यमान हैं॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा देवनदी चेयं सर्वतीर्थाभिसम्भृता।
गगनाद् गां गता देवी गङ्गा सर्वसरिद्वरा ॥ १९ ॥

मूलम्

तथा देवनदी चेयं सर्वतीर्थाभिसम्भृता।
गगनाद् गां गता देवी गङ्गा सर्वसरिद्वरा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये समस्त तीर्थोंसे सेवित तथा सम्पूर्ण सरिताओंमें श्रेष्ठ देवनदी गंगादेवी भी, जो आकाशसे पृथ्वीपर उतरी हैं, यहाँ विराजमान हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा देवदेवस्य पत्नी धर्मभृतां वरा।
स्मितपूर्वमथाभाष्य सर्वास्ताः सरितस्तथा ॥ २० ॥
अपृच्छद् देवमहिषी स्त्रीधर्मं धर्मवत्सला।
स्त्रीधर्मकुशलास्ता वै गङ्गाद्याः सरितां वराः ॥ २१ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा देवदेवस्य पत्नी धर्मभृतां वरा।
स्मितपूर्वमथाभाष्य सर्वास्ताः सरितस्तथा ॥ २० ॥
अपृच्छद् देवमहिषी स्त्रीधर्मं धर्मवत्सला।
स्त्रीधर्मकुशलास्ता वै गङ्गाद्याः सरितां वराः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर देवाधिदेव महादेवजीकी पत्नी, धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ, धर्मवत्सला, देवमहिषी उमाने स्त्री-धर्मके ज्ञानमें निपुण गंगा आदि उन समस्त श्रेष्ठ सरिताओंको मन्द मुसकानके साथ सम्बोधित करके उनसे स्त्रीधर्मके विषयमें प्रश्न किया॥२०-२१॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(हे पुण्याः सरितः श्रेष्ठाः सर्वपापविनाशिकाः।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नाः शृणुध्वं वचनं मम॥)
अयं भगवता प्रोक्ताः प्रश्नः स्त्रीधर्मसंश्रितः।
तं तु सम्मन्त्र्य युष्माभिर्वक्तुमिच्छामि शंकरम् ॥ २२ ॥

मूलम्

(हे पुण्याः सरितः श्रेष्ठाः सर्वपापविनाशिकाः।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नाः शृणुध्वं वचनं मम॥)
अयं भगवता प्रोक्ताः प्रश्नः स्त्रीधर्मसंश्रितः।
तं तु सम्मन्त्र्य युष्माभिर्वक्तुमिच्छामि शंकरम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमा बोलीं— हे समस्त पापोंका विनाश करनेवाली, ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न पुण्यसलिला श्रेष्ठ नदियो! मेरी बात सुनो। भगवान् शिवने यह स्त्रीधर्मसम्बन्धी प्रश्न उपस्थित किया है। उसके विषयमें मैं तुमलोगोंसे सलाह लेकर ही भगवान् शंकरसे कुछ कहना चाहती हूँ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैकसाध्यं पश्यामि विज्ञानं भुवि कस्यचित्।
दिवि वा सागरगमास्तेन वो मानयाम्यहम् ॥ २३ ॥

मूलम्

न चैकसाध्यं पश्यामि विज्ञानं भुवि कस्यचित्।
दिवि वा सागरगमास्तेन वो मानयाम्यहम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्रगामिनी सरिताओ! पृथ्वीपर या स्वर्गमें मैं किसीका भी ऐसा कोई विज्ञान नहीं देखती, जिसे उसने अकेले ही—दूसरोंका सहयोग लिये बिना ही सिद्ध कर लिया हो, इसीलिये मैं आपलोगोंसे सादर सलाह लेती हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सर्वाः सरिच्छ्रेष्ठाः पृष्टाः पुण्यतमाः शिवाः।
ततो देवनदी गङ्गा नियुक्ता प्रतिपूज्य च ॥ २४ ॥

मूलम्

एवं सर्वाः सरिच्छ्रेष्ठाः पृष्टाः पुण्यतमाः शिवाः।
ततो देवनदी गङ्गा नियुक्ता प्रतिपूज्य च ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उमाने जब समस्त कल्याणस्वरूपा परम पुण्यमयी श्रेष्ठ सरिताओंके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित किया, तब उन्होंने इसका उत्तर देनेके लिये देवनदी गंगाको सम्मानपूर्वक नियुक्त किया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बह्वीभिर्बुद्धिभिः स्फीता स्त्रीधर्मज्ञा शुचिस्मिता।
शैलराजसुतां देवीं पुण्या पापभयापहा ॥ २५ ॥
बुद्‌ध्या विनयसम्पन्ना सर्वधर्मविशारदा ।
सस्मितं बहुबुद्ध्याढ्‌या गङ्गा वचनमब्रवीत् ॥ २६ ॥

मूलम्

बह्वीभिर्बुद्धिभिः स्फीता स्त्रीधर्मज्ञा शुचिस्मिता।
शैलराजसुतां देवीं पुण्या पापभयापहा ॥ २५ ॥
बुद्‌ध्या विनयसम्पन्ना सर्वधर्मविशारदा ।
सस्मितं बहुबुद्ध्याढ्‌या गङ्गा वचनमब्रवीत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र मुसकानवाली गंगाजी अनेक बुद्धियोंसे बढ़ी-चढ़ी, स्त्री-धर्मको जाननेवाली, पाप-भयको दूर करनेवाली, पुण्यमयी, बुद्धि और विनयसे सम्पन्न, सर्वधर्मविशारद तथा प्रचुर बुद्धिसे संयुक्त थीं। उन्होंने गिरिराजकुमारी उमादेवीसे मन्द-मन्द मुसकराते हुए कहा॥२५-२६॥

मूलम् (वचनम्)

गङ्गोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यास्म्यनुगृहीतास्मि देवि धर्मपरायणे ।
या त्वं सर्वजगन्मान्या नदीं मानयसेऽनघे ॥ २७ ॥

मूलम्

धन्यास्म्यनुगृहीतास्मि देवि धर्मपरायणे ।
या त्वं सर्वजगन्मान्या नदीं मानयसेऽनघे ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गंगाजीने कहा— देवि! धर्मपरायणे! अनघे! मैं धन्य हूँ। मुझपर आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है; क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत्‌की सम्माननीया होनेपर भी एक तुच्छ नदीको मान्यता प्रदान कर रही हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभवन् पृच्छते यो हि सम्मानयति वा पुनः।
नूनं जनमदुष्टात्मा पण्डिताख्यां स गच्छति ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रभवन् पृच्छते यो हि सम्मानयति वा पुनः।
नूनं जनमदुष्टात्मा पण्डिताख्यां स गच्छति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सब प्रकारसे समर्थ होकर भी दूसरोंसे पूछता तथा उन्हें सम्मान देता है और जिसके मनमें कभी दुष्टता नहीं आती, वह मनुष्य निस्संदेह पण्डित कहलाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानविज्ञानसम्पन्नानूहापोहविशारदान् ।
प्रवक्तॄन्‌ पृच्छते योऽन्यान् स वै नापदमृच्छति ॥ २९ ॥
अन्यथा बहुबुद्ध्याढ्यो वाक्यं वदति संसदि।
अन्यथैव ह्यहंवादी दुर्बलं वदते वचः ॥ ३० ॥

मूलम्

ज्ञानविज्ञानसम्पन्नानूहापोहविशारदान् ।
प्रवक्तॄन्‌ पृच्छते योऽन्यान् स वै नापदमृच्छति ॥ २९ ॥
अन्यथा बहुबुद्ध्याढ्यो वाक्यं वदति संसदि।
अन्यथैव ह्यहंवादी दुर्बलं वदते वचः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न और ऊहापोहमें कुशल दूसरे-दूसरे वक्ताओंसे अपना संदेह पूछता है, वह आपत्तिमें नहीं पड़ता है। विशेष बुद्धिमान् पुरुष सभामें और तरहकी बात करता है और अहंकारी मनुष्य और ही तरहकी दुर्बलतायुक्त बातें करता है॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यज्ञाने दिवि श्रेष्ठे दिव्यपुण्यैः सहोत्थिते।
त्वमेवार्हसि नो देवि स्त्रीधर्माननुभाषितुम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

दिव्यज्ञाने दिवि श्रेष्ठे दिव्यपुण्यैः सहोत्थिते।
त्वमेवार्हसि नो देवि स्त्रीधर्माननुभाषितुम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! तुम दिव्य ज्ञानसे सम्पन्न और देवलोकमें सर्वश्रेष्ठ हो। दिव्य पुण्योंके साथ तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम्हीं हम सब लोगोंको स्त्री-धर्मका उपदेश देनेके योग्य हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः साऽऽराधिता देवी गङ्गया बहुभिर्गुणैः।
प्राह सर्वमशेषेण स्त्रीधर्मं सुरसुन्दरी ॥ ३२ ॥

मूलम्

ततः साऽऽराधिता देवी गङ्गया बहुभिर्गुणैः।
प्राह सर्वमशेषेण स्त्रीधर्मं सुरसुन्दरी ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर गंगाजीके द्वारा अनेक गुणोंका बखान करके पूजित होनेपर देवसुन्दरी देवी उमाने सम्पूर्ण स्त्री-धर्मका पूर्णतः वर्णन किया॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीधर्मो मां प्रति यथा प्रतिभाति यथाविधि।
तमहं कीर्तयिष्यामि तथैव प्रश्रिता भव ॥ ३३ ॥

मूलम्

स्त्रीधर्मो मां प्रति यथा प्रतिभाति यथाविधि।
तमहं कीर्तयिष्यामि तथैव प्रश्रिता भव ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमा बोलीं— स्त्री-धर्मका स्वरूप मेरी बुद्धिमें जैसा प्रतीत होता है, उसे मैं विधिपूर्वक बताऊँगी। तुम विनय और उत्सुकतासे युक्त होकर इसे सुनो॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीधर्मः पूर्व एवायं विवाहे बन्धुभिः कृतः।
सहधर्मचरी भर्तुर्भवत्यग्निसमीपतः ॥ ३४ ॥

मूलम्

स्त्रीधर्मः पूर्व एवायं विवाहे बन्धुभिः कृतः।
सहधर्मचरी भर्तुर्भवत्यग्निसमीपतः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विवाहके समय कन्याके भाई-बन्धु पहले ही उसे स्त्री-धर्मका उपदेश कर देते हैं। जब कि वह अग्निके समीप अपने पतिकी सहधर्मिणी बनती है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुस्वभावा सुवचना सुवृत्ता सुखदर्शना।
अनन्यचित्ता सुमुखी भर्तुः सा धर्मचारिणी ॥ ३५ ॥
सा भवेद् धर्मपरमा सा भवेद् धर्मभागिनी।
देववत् सततं साध्वी या भर्तारं प्रपश्यति ॥ ३६ ॥

मूलम्

सुस्वभावा सुवचना सुवृत्ता सुखदर्शना।
अनन्यचित्ता सुमुखी भर्तुः सा धर्मचारिणी ॥ ३५ ॥
सा भवेद् धर्मपरमा सा भवेद् धर्मभागिनी।
देववत् सततं साध्वी या भर्तारं प्रपश्यति ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके स्वभाव, बात-चीत और आचरण उत्तम हों, जिसको देखनेसे पतिको सुख मिलता हो, जो अपने पतिके सिवा दूसरे किसी पुरुषमें मन नहीं लगाती हो और स्वामीके समक्ष सदा प्रसन्नमुखी रहती हो, वह स्त्री धर्माचरण करनेवाली मानी गयी है। जो साध्वी स्त्री अपने स्वामीको सदा देवतुल्य समझती है, वही धर्मपरायणा और वही धर्मके फलकी भागिनी होती है॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषां परिचारं च देववद् या करोति च।
नान्यभावा ह्यविमनाः सुव्रता सुखदर्शना ॥ ३७ ॥
पुत्रवक्त्रमिवाभीक्ष्णं भर्तुर्वदनमीक्षते ।
या साध्वी नियताहारा सा भवेद् धर्मचारिणी ॥ ३८ ॥

मूलम्

शुश्रूषां परिचारं च देववद् या करोति च।
नान्यभावा ह्यविमनाः सुव्रता सुखदर्शना ॥ ३७ ॥
पुत्रवक्त्रमिवाभीक्ष्णं भर्तुर्वदनमीक्षते ।
या साध्वी नियताहारा सा भवेद् धर्मचारिणी ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पतिकी देवताके समान सेवा और परिचर्या करती हैं, पतिके सिवा दूसरे किसीसे हार्दिक प्रेम नहीं करती, कभी नाराज नहीं होती तथा उत्तम व्रतका पालन करती है, जिसका दर्शन पतिको सुखद जान पड़ता है, जो पुत्रके मुखकी भाँति स्वामीके मुखकी ओर सदा निहारती रहती है तथा जो साध्वी एवं नियमित आहारका सेवन करनेवाली है, वह स्त्री धर्मचारिणी कही गयी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा दम्पतिधर्मं वै सहधर्मं कृतं शुभम्।
या भवेद् धर्मपरमा नारी भर्तृसमव्रता ॥ ३९ ॥

मूलम्

श्रुत्वा दम्पतिधर्मं वै सहधर्मं कृतं शुभम्।
या भवेद् धर्मपरमा नारी भर्तृसमव्रता ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पति और पत्नीको एक साथ रहकर धर्माचरण करना चाहिये।’ इस मंगलमय दाम्पत्य धर्मको सुनकर जो स्त्री धर्मपरायण हो जाती है, वह पतिके समान व्रतका पालन करनेवाली (पतिव्रता) है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देववत् सततं साध्वी भर्तारमनुपश्यति।
दम्पत्योरेष वै धर्मः सहधर्मकृतः शुभः ॥ ४० ॥

मूलम्

देववत् सततं साध्वी भर्तारमनुपश्यति।
दम्पत्योरेष वै धर्मः सहधर्मकृतः शुभः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साध्वी स्त्री सदा अपने पतिको देवताके समान समझती है। पति और पत्नीका यह सहधर्म (साथ-साथ रहकर धर्माचरण करना) रूप धर्म परम मंगलमय है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषां परिचारं च देवतुल्यं प्रकुर्वती।
वश्या भावेन सुमनाः सुव्रता सुखदर्शना।
अनन्यचित्ता सुमुखी भर्तुः सा धर्मचारिणी ॥ ४१ ॥
परुषाण्यपि चोक्ता या दृष्टा दृष्टेन चक्षुषा।
सुप्रसन्नमुखी भर्तुर्या नारी सा पतिव्रता ॥ ४२ ॥

मूलम्

शुश्रूषां परिचारं च देवतुल्यं प्रकुर्वती।
वश्या भावेन सुमनाः सुव्रता सुखदर्शना।
अनन्यचित्ता सुमुखी भर्तुः सा धर्मचारिणी ॥ ४१ ॥
परुषाण्यपि चोक्ता या दृष्टा दृष्टेन चक्षुषा।
सुप्रसन्नमुखी भर्तुर्या नारी सा पतिव्रता ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने हृदयके अनुरागके कारण स्वामीके अधीन रहती है, अपने चित्तको प्रसन्न रखती है, देवताके समान पतिकी सेवा और परिचर्या करती है, उत्तम व्रतका आश्रय लेती है ओर पतिके लिये सुखदायक सुन्दर वेष धारण किये रहती है, जिसका चित्त पतिके सिवा और किसीकी ओर नहीं जाता, पतिके समक्ष प्रसन्नवदन रहनेवाली वह स्त्री धर्मचारिणी मानी गयी है। जो स्वामीके कठोर वचन कहने या दोषपूर्ण दृष्टिसे देखनेपर भी प्रसन्नतासे मुसकराती रहती है, वही स्त्री पतिव्रता है॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चन्द्रसूर्यौ न तरुं पुंनाम्ना या निरीक्षते।
भर्तृवर्जं वरारोहा सा भवेद् धर्मचारिणी ॥ ४३ ॥
दरिद्रं व्याधितं दीनमध्वना परिकर्शितम्।
पतिं पुत्रमिवोपास्ते सा नारी धर्मभागिनी ॥ ४४ ॥

मूलम्

न चन्द्रसूर्यौ न तरुं पुंनाम्ना या निरीक्षते।
भर्तृवर्जं वरारोहा सा भवेद् धर्मचारिणी ॥ ४३ ॥
दरिद्रं व्याधितं दीनमध्वना परिकर्शितम्।
पतिं पुत्रमिवोपास्ते सा नारी धर्मभागिनी ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सुन्दरी नारी पतिके सिवा पुरुष नामधारी चन्द्रमा, सूर्य और किसी वृक्षकी ओर भी दृष्टि नहीं डालती, वही पातिव्रतधर्मका पालन करनेवाली है। जो नारी अपने दरिद्र, रोगी, दीन अथवा रास्तेकी थकावटसे खिन्न हुए पतिकी पुत्रके समान सेवा करती है, वह धर्मफलकी भागिनी होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या नारी प्रयता दक्षा या नारी पुत्रिणी भवेत्।
पतिप्रिया पतिप्राणा सा नारी धर्मभागिनी ॥ ४५ ॥
शुश्रूषां परिचर्यां च करोत्यविमनाः सदा।
सुप्रतीता विनीता च सा नारी धर्मभागिनी ॥ ४६ ॥

मूलम्

या नारी प्रयता दक्षा या नारी पुत्रिणी भवेत्।
पतिप्रिया पतिप्राणा सा नारी धर्मभागिनी ॥ ४५ ॥
शुश्रूषां परिचर्यां च करोत्यविमनाः सदा।
सुप्रतीता विनीता च सा नारी धर्मभागिनी ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो स्त्री अपने हृदयको शुद्ध रखती, गृहकार्य करनेमें कुशल और पुत्रवती होती, पतिसे प्रेम करती और पतिको ही अपने प्राण समझती है, वही धर्मफल पानेकी अधिकारिणी होती है। जो सदा प्रसन्नचित्तसे पतिकी सेवा-शुश्रूषामें लगी रहती है, पतिके ऊपर पूर्ण विश्वास रखती और उसके साथ विनयपूर्ण बर्ताव करती है, वही नारी धर्मके श्रेष्ठ फलकी भागिनी होती है॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कामेषु न भोगेषु नैश्वर्ये न सुखे तथा।
स्पृहा यस्या यथा पत्यौ सा नारी धर्मभागिनी ॥ ४७ ॥

मूलम्

न कामेषु न भोगेषु नैश्वर्ये न सुखे तथा।
स्पृहा यस्या यथा पत्यौ सा नारी धर्मभागिनी ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके हृदयमें पतिके लिये जैसी चाह होती है, वैसी काम, भोग और सुखके लिये भी नहीं होती। वह स्त्री पातिव्रतधर्मकी भागिनी होती है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल्योत्थानरतिर्नित्यं गहशुश्रूषणे रता ।
सुसम्मृष्टक्षया चैव गोशकृत्कृतलेपना ॥ ४८ ॥
अग्निकार्यपरा नित्यं सदा पुष्पबलिप्रदा।
देवतातिथिभृत्यानां निर्वाप्य पतिना सह ॥ ४९ ॥
शेषान्नमुपभुञ्जाना यथान्यायं यथाविधि ।
तुष्टपुष्टजना नित्यं नारी धर्मेण युज्यते ॥ ५० ॥

मूलम्

कल्योत्थानरतिर्नित्यं गहशुश्रूषणे रता ।
सुसम्मृष्टक्षया चैव गोशकृत्कृतलेपना ॥ ४८ ॥
अग्निकार्यपरा नित्यं सदा पुष्पबलिप्रदा।
देवतातिथिभृत्यानां निर्वाप्य पतिना सह ॥ ४९ ॥
शेषान्नमुपभुञ्जाना यथान्यायं यथाविधि ।
तुष्टपुष्टजना नित्यं नारी धर्मेण युज्यते ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रतिदिन प्रातःकाल उठनेमें रुचि रखती है, घरोंके काम-काजमें योग देती है, घरको झाड़-बुहारकर साफ रखती है और गोबरसे लीप-पोतकर पवित्र बनाये रखती है, जो पतिके साथ रहकर प्रतिदिन अग्निहोत्र करती है, देवताओंको पुष्प और बलि अर्पण करती है तथा देवता, अतिथि और पोष्यवर्गको भोजनसे तृप्त करके न्याय और विधिके अनुसार शेष अन्नका स्वयं भोजन करती है तथा घरके लोगोंको हृष्ट-पुष्ट एवं संतुष्ट रखती है, ऐसी ही नारी सती-धर्मके फलसे युक्त होती है॥४८—५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वश्रूश्वशुरयोः पादौ जोषयन्ती गुणान्विता।
मातापितृपरा नित्यं या नारी सा तपोधना ॥ ५१ ॥
ब्राह्मणान् दुर्बलानाथान् दीनान्धकृपणांस्तथा ।
बिभर्त्यन्नेन या नारी सा पतिव्रतभागिनी ॥ ५२ ॥

मूलम्

श्वश्रूश्वशुरयोः पादौ जोषयन्ती गुणान्विता।
मातापितृपरा नित्यं या नारी सा तपोधना ॥ ५१ ॥
ब्राह्मणान् दुर्बलानाथान् दीनान्धकृपणांस्तथा ।
बिभर्त्यन्नेन या नारी सा पतिव्रतभागिनी ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उत्तम गुणोंसे युक्त होकर सदा सास-ससुरके चरणोंकी सेवामें संलग्न रहती है तथा माता-पिताके प्रति भी सदा उत्तम भक्तिभाव रखती है, वह स्त्री तपस्यारूपी धनसे सम्पन्न मानी गयी है। जो नारी ब्राह्मणों, दुर्बलों, अनाथों, दीनों, अन्धों और कृपणों (कंगालों) का अन्नके द्वारा भरण-पोषण करती है, वह पातिव्रतधर्मके पालनका फल पाती है॥५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रतं चरति या नित्यं दुश्चरं लघुसत्त्वया।
पतिचित्ता पतिहिता सा पतिव्रतभागिनी ॥ ५३ ॥

मूलम्

व्रतं चरति या नित्यं दुश्चरं लघुसत्त्वया।
पतिचित्ता पतिहिता सा पतिव्रतभागिनी ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रतिदिन शीघ्रतापूर्वक मर्यादाका बोध करानेवाली बुद्धिके द्वारा दुष्कर व्रतका आचरण करती है, पतिमें ही मन लगाती है और निरन्तर पतिके हित-साधनमें लगी रहती है, उसे पतिव्रत- धर्मके पालनका सुख प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यमेतत् तपश्चैतत् स्वर्गश्चैष सनातनः।
या नारी भर्तृपरमा भवेद् भर्तृव्रता सती ॥ ५४ ॥

मूलम्

पुण्यमेतत् तपश्चैतत् स्वर्गश्चैष सनातनः।
या नारी भर्तृपरमा भवेद् भर्तृव्रता सती ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो साध्वी नारी पतिव्रत-धर्मका पालन करती हुई पतिकी सेवामें लगी रहती है, उसका यह कार्य महान् पुण्य, बड़ी भारी तपस्या और सनातन स्वर्गका साधन है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिर्हि देवो नारीणां पतिर्बन्धुः पतिर्गतिः।
पत्या समा गतिर्नास्ति दैवतं वा यथा पतिः ॥ ५५ ॥

मूलम्

पतिर्हि देवो नारीणां पतिर्बन्धुः पतिर्गतिः।
पत्या समा गतिर्नास्ति दैवतं वा यथा पतिः ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पति ही नारियोंका देवता, पति ही बन्धु-बान्धव और पति ही उनकी गति है। नारीके लिये पतिके समान न दूसरा कोई सहारा है और न दूसरा कोई देवता॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिप्रसादः स्वर्गो वा तुल्यो नार्या न वा भवेत्।
अहं स्वर्गं न हीच्छेयं त्वय्यप्रीते महेश्वरे ॥ ५६ ॥

मूलम्

पतिप्रसादः स्वर्गो वा तुल्यो नार्या न वा भवेत्।
अहं स्वर्गं न हीच्छेयं त्वय्यप्रीते महेश्वरे ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ओर पतिकी प्रसन्नता और दूसरी ओर स्वर्ग—ये दोनों नारीकी दृष्टिमें समान हो सकते हैं या नहीं, इसमें संदेह है। मेरे प्राणनाथ महेश्वर! मैं तो आपको अप्रसन्न रखकर स्वर्गको नहीं चाहती॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यकार्यमधर्मं वा यदि वा प्राणनाशनम्।
पतिर्ब्रूयाद् दरिद्रो वा व्याधितो वा कथंचन ॥ ५७ ॥
आपन्नो रिपुसंस्थो वा ब्रह्मशापार्दितोऽपि वा।
आपद्धर्माननुप्रेक्ष्य तत्कार्यमविशङ्कया ॥ ५८ ॥

मूलम्

यद्यकार्यमधर्मं वा यदि वा प्राणनाशनम्।
पतिर्ब्रूयाद् दरिद्रो वा व्याधितो वा कथंचन ॥ ५७ ॥
आपन्नो रिपुसंस्थो वा ब्रह्मशापार्दितोऽपि वा।
आपद्धर्माननुप्रेक्ष्य तत्कार्यमविशङ्कया ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पति दरिद्र हो जाय, किसी रोगसे घिर जाय, आपत्तिमें फँस जाय, शत्रुओंके बीचमें पड़ जाय अथवा ब्राह्मणके शापसे कष्ट पा रहा हो, उस अवस्थामें वह न करनेयोग्य कार्य, अधर्म अथवा प्राणत्यागकी भी आज्ञा दे दे, तो उसे आपत्तिकालका धर्म समझकर निःशंकभावसे तुरंत पूरा करना चाहिये॥५७-५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष देव मया प्रोक्तः स्त्रीधर्मो वचनात् तव।
या त्वेवंभाविनी नारी सा पतिव्रतभागिनी ॥ ५९ ॥

मूलम्

एष देव मया प्रोक्तः स्त्रीधर्मो वचनात् तव।
या त्वेवंभाविनी नारी सा पतिव्रतभागिनी ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! आपकी आज्ञासे मैंने यह स्त्रीधर्मका वर्णन किया है। जो नारी ऊपर बताये अनुसार अपना जीवन बनाती है, वह पातिव्रत-धर्मके फलकी भागिनी होती है॥५९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तु देवेशः प्रतिपूज्य गिरेः सुताम्।
लोकान् विसर्जयामास सर्वैरनुचरैर्वृतान् ॥ ६० ॥
ततो ययुर्भूतगणाः सरितश्च यथागतम्।
गन्धर्वाप्सरसश्चैव प्रणम्य शिरसा भवम् ॥ ६१ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तु देवेशः प्रतिपूज्य गिरेः सुताम्।
लोकान् विसर्जयामास सर्वैरनुचरैर्वृतान् ॥ ६० ॥
ततो ययुर्भूतगणाः सरितश्च यथागतम्।
गन्धर्वाप्सरसश्चैव प्रणम्य शिरसा भवम् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! पार्वतीजीके द्वारा इस प्रकार नारीधर्मका वर्णन सुनकर देवाधिदेव महादेवजीने गिरिराजकुमारीका बड़ा आदर किया और वहाँ समस्त अनुचरोंके साथ आये हुए लोगोंको जानेकी आज्ञा दी। तब समस्त भूतगण, सरिताएँ गन्धर्व और अप्सराएँ भगवान् शंकरको सिरसे प्रणाम करके अपने-अपने स्थानको चली गयीं॥६०-६१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि उमामहेश्वरसंवादे स्त्रीधर्मकथने षट्‌चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें उमा-महेश्वरसंवादके प्रसङ्गमें स्त्रीधर्मका वर्णनविषयक एक सौ छियालिसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४६॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ६४ श्लोक हैं)