०११

मूलम् (समाप्तिः)

[शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकारके कर्मोंका स्वरूप और उनके फलका एवं मद्यसेवनके दोषोंका वर्णन, आहार-शुद्धि, मांसभक्षणसे दोष, मांस न खानेसे लाभ, जीवदयाके महत्त्व, गुरुपूजाकी विधि, उपवास-विधि, ब्रह्मचर्यपालन, तीर्थचर्चा, सर्वसाधारण द्रव्यके दानसे पुण्य, अन्न, सुवर्ण, गौ, भूमि, कन्या और विद्यादानका माहात्म्य, पुण्यतम देश-काल, दिये हुए दान और धर्मकी निष्फलता, विविध प्रकारके दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओंकी पूजाका निरूपण]

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोतुं भूयोऽहमिच्छामि प्रजानां हितकारणात्।
शुभाशुभमिति प्रोक्तं कर्म स्वं स्वं समासतः॥

मूलम्

श्रोतुं भूयोऽहमिच्छामि प्रजानां हितकारणात्।
शुभाशुभमिति प्रोक्तं कर्म स्वं स्वं समासतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! अब मैं पुनः प्रजावर्गके हितके लिये शुभ और अशुभ कहे जानेवाले अपने-अपने कर्मका संक्षेपसे वर्णन सुनना चाहती हूँ॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं ते प्रवक्ष्यामि तत् सर्वं शृणु शोभने।
सुकृतं दुष्कृतं चेति द्विविधं कर्मविस्तरम्॥

मूलम्

तदहं ते प्रवक्ष्यामि तत् सर्वं शृणु शोभने।
सुकृतं दुष्कृतं चेति द्विविधं कर्मविस्तरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— शोभने! वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो। जहाँतक कर्मोंका विस्तार है, उसे दो भागोंमें बाँटा जा सकता है। पहला भाग सुकृत (पुण्य) और दूसरा दुष्कृत (पाप)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोर्यद् दुष्कृतं कर्म तच्च संजायते त्रिधा।
मनसा कर्मणा वाचा बुद्धिमोहसमुद्भवात्॥

मूलम्

तयोर्यद् दुष्कृतं कर्म तच्च संजायते त्रिधा।
मनसा कर्मणा वाचा बुद्धिमोहसमुद्भवात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंमें जो दुष्कृत कर्म है, वह तीन प्रकारका होता है। एक मनसे, दूसरा क्रियासे और तीसरा वाणीसे होनेवाला दुष्कर्म है। बुद्धिमें मोहका प्रादुर्भाव होनेसे ही ये पाप बनते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनःपूर्वं तु वा कर्म वर्तते वाङ्‌मयं ततः।
जायते वै क्रियायोगमनु चेष्टाक्रमः प्रिये॥

मूलम्

मनःपूर्वं तु वा कर्म वर्तते वाङ्‌मयं ततः।
जायते वै क्रियायोगमनु चेष्टाक्रमः प्रिये॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! पहले मनके द्वारा कर्मका चिन्तन होता है, फिर वाणीद्वारा उसे प्रकाशमें लाया जाता है। तदनन्तर क्रियाद्वारा उसे सम्पन्न किया जाता है। इसके साथ चेष्टाका क्रम चलता रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिद्रोहोऽभ्यसूया च परार्थेषु च स्पृहा।
धर्मकार्ये यदाश्रद्धा पापकर्मणि हर्षणम्॥
एवमाद्यशुभं कर्म मनसा पापमुच्यते।

मूलम्

अभिद्रोहोऽभ्यसूया च परार्थेषु च स्पृहा।
धर्मकार्ये यदाश्रद्धा पापकर्मणि हर्षणम्॥
एवमाद्यशुभं कर्म मनसा पापमुच्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

अभिद्रोह, असूया, पराये अर्थकी अभिलाषा—ये मानसिक अशुभ कर्म हैं। जब धर्म-कार्यमें अश्रद्धा हो, पाप-कर्ममें हर्ष और उत्साह बढ़े तो इस तरहके अशुभ कर्म मानसिक पाप कहलाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनृतं यच्च परुषमबद्धं यच्च शंकरि।
असत्यं परिवादश्च पापमेतत् तु वाङ्‌मयम्॥

मूलम्

अनृतं यच्च परुषमबद्धं यच्च शंकरि।
असत्यं परिवादश्च पापमेतत् तु वाङ्‌मयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्याण करनेवाली देवि! जो झूठ, कठोर तथा असम्बद्ध वचन बोला जाता है, असत्य भाषण तथा दूसरोंकी निन्दा की जाती है—यह सब वाणीसे होनेवाला पाप है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगम्यागमनं चैव परदारनिषेवणम् ।
वधबन्धपरिक्लेशैः परप्राणोपतापनम् ॥
चौर्यं परेषां द्रव्याणां हरणं नाशनं तथा।
अभक्ष्यभक्षणं चैव व्यसनेष्वभिषङ्गता ॥
दर्पात् स्तम्भाभिमानाच्च परेषामुपतापनम् ।
अकार्याणां च करणमशौचं पानसेवनम्॥
दौःशील्यं पापसम्पर्के साहाय्यं पापकर्मणि।
अधर्म्यमयशस्यं च कार्यं तस्य निषेवणम्॥
एवमाद्यशुभं चान्यच्छारीरं पापमुच्यते ॥

मूलम्

अगम्यागमनं चैव परदारनिषेवणम् ।
वधबन्धपरिक्लेशैः परप्राणोपतापनम् ॥
चौर्यं परेषां द्रव्याणां हरणं नाशनं तथा।
अभक्ष्यभक्षणं चैव व्यसनेष्वभिषङ्गता ॥
दर्पात् स्तम्भाभिमानाच्च परेषामुपतापनम् ।
अकार्याणां च करणमशौचं पानसेवनम्॥
दौःशील्यं पापसम्पर्के साहाय्यं पापकर्मणि।
अधर्म्यमयशस्यं च कार्यं तस्य निषेवणम्॥
एवमाद्यशुभं चान्यच्छारीरं पापमुच्यते ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अगम्या स्त्रीके साथ समागम, परायी स्त्रीका सेवन, प्राणियोंका वध, बन्धन तथा नाना प्रकारके क्लेशोंद्वारा दूसरे प्राणियोंको सताना, पराये धनकी चोरी, अपहरण तथा नाश करना, अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण, दुर्व्यसनोंमें आसक्ति, दर्प, उद्दण्डता और अभिमानसे दूसरोंको सताना, न करनेयोग्य काम करना, अपवित्र वस्तुको पीना अथवा उसका सेवन करना, पापियोंके सम्पर्कमें रहकर दुराचारी होना, पापकर्ममें सहायता करना, अधर्म और अपयश बढ़ानेवाले कार्योंको अपनाना इत्यादि जो दूसरे-दूसरे अशुभ कर्म हैं, वे शारीरिक पाप कहलाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानसाद् वाङ्‌मयं पापं विशिष्टमिति लक्ष्यते।
वाङ्‌मयादपि वै पापाच्छारीरं गण्यते बहु॥

मूलम्

मानसाद् वाङ्‌मयं पापं विशिष्टमिति लक्ष्यते।
वाङ्‌मयादपि वै पापाच्छारीरं गण्यते बहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानस पापसे वाणीका पाप बढ़कर समझा जाता है। वाचिक पापसे शारीरिक पापको अधिक गिना जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पापयुतं कर्म त्रिविधं पातयेन्नरम्।
परोपतापजननमत्यन्तं पातकं स्मृतम् ॥

मूलम्

एवं पापयुतं कर्म त्रिविधं पातयेन्नरम्।
परोपतापजननमत्यन्तं पातकं स्मृतम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जो तीन तरहका पापकर्म है, वह मनुष्यको नीचे गिराता है। दूसरोंको संताप देना अत्यन्त पातक माना गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिविधं तत् कृतं पापं कर्तारं पापकं नयेत्।
पातकं चापि यत् कर्म कर्मणा बुद्धिपूर्वकम्॥
सापदेशमवश्यं तु कर्तव्यमिति तत् कृतम्।
कथंचित् तत् कृतमपि कर्ता तेन न लिप्यते॥

मूलम्

त्रिविधं तत् कृतं पापं कर्तारं पापकं नयेत्।
पातकं चापि यत् कर्म कर्मणा बुद्धिपूर्वकम्॥
सापदेशमवश्यं तु कर्तव्यमिति तत् कृतम्।
कथंचित् तत् कृतमपि कर्ता तेन न लिप्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपना किया हुआ त्रिविध पाप कर्ताको पापमय योनिमें ले जाता है। पातकरूप कर्म भी यदि बुद्धि-पूर्वक किसीके प्राण बचाने आदिके उद्देश्यसे अवश्य-कर्तव्य मानकर क्रिया (शरीर) द्वारा किसी प्रकार किया गया हो तो उससे कर्ता लिप्त नहीं होता॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् पापकं कर्म यथा कृत्वा न लिप्यते॥

मूलम्

भगवन् पापकं कर्म यथा कृत्वा न लिप्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! किस तरह पापकर्म करके मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता?॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो नरोऽनपराधी च स्वात्मप्राणस्य रक्षणात्।
शत्रुमुद्यतशस्त्रं वा पूर्वं तेन हतोऽपि वा॥
प्रतिहन्यान्नरो हिंस्यान्न स पापेन लिप्यते।

मूलम्

यो नरोऽनपराधी च स्वात्मप्राणस्य रक्षणात्।
शत्रुमुद्यतशस्त्रं वा पूर्वं तेन हतोऽपि वा॥
प्रतिहन्यान्नरो हिंस्यान्न स पापेन लिप्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! जो निरपराध मनुष्य शस्त्र उठाकर मारनेके लिये आये हुए शत्रुको पहले उसीके द्वारा आघात होनेपर अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये उसपर बदलेमें प्रहार करे और मार डाले, वह पापसे लिप्त नहीं होता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चोरादधिकसंत्रस्तस्तत्प्रतीकारचेष्टया ।
यः प्रजघ्नन् नरो हन्यान्न स पापेन लिप्यते॥

मूलम्

चोरादधिकसंत्रस्तस्तत्प्रतीकारचेष्टया ।
यः प्रजघ्नन् नरो हन्यान्न स पापेन लिप्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो चोरसे अधिक भयभीत हो उससे बदला लेनेकी चेष्टा करते हुए उसपर प्रहार करता और उसे मार डालता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रामार्थं भर्तृपिण्डार्थं दीनानुग्रहकारणात् ।
वधबन्धपरिक्लेशान् कुर्वन् पापात् प्रमुच्यते॥

मूलम्

ग्रामार्थं भर्तृपिण्डार्थं दीनानुग्रहकारणात् ।
वधबन्धपरिक्लेशान् कुर्वन् पापात् प्रमुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ग्रामरक्षाके लिये, स्वामीके अन्नका बदला चुकानेके लिये अथवा दीन-दुःखियोंपर अनुग्रह करके किसी शत्रुका वध करता या उसे बन्धनमें डालकर क्लेश पहुँचाता है, वह भी पापसे मुक्ता हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्भिक्षे चात्मवृत्त्यर्थमेकायनगतस्तथा ।
अकार्यं वाप्यभक्ष्यं वा कृत्वा पापान्न लिप्यते॥

मूलम्

दुर्भिक्षे चात्मवृत्त्यर्थमेकायनगतस्तथा ।
अकार्यं वाप्यभक्ष्यं वा कृत्वा पापान्न लिप्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अकालमें अपनी जीविका चलानेके लिये तथा दूसरा कोई मार्ग न रह जानेपर अकार्य या अभक्ष्य भक्षण करता है, वह उसके पापसे लिप्त नहीं होता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिद्धसन्ति तत् पीत्वा प्रवदन्ति तथा परे।
नृत्यन्ति मुदिताः केचिद् गायन्ति च शुभाशुभान्॥

मूलम्

केचिद्धसन्ति तत् पीत्वा प्रवदन्ति तथा परे।
नृत्यन्ति मुदिताः केचिद् गायन्ति च शुभाशुभान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अब मदिरा पीनेके दोष बताता हूँ) मदिरा पीने-वाले उसे पीकर नशेमें अट्टहास करते हैं, अंट-संट बातें बकते हैं, कितने ही प्रसन्न होकर नाचते हैं और भले-बुरे गीत गाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिं ते कुर्वतेऽभीष्टं प्रहरन्ति परस्परम्।
क्वचिद् धावन्ति सहसा प्रस्खलन्ति पतन्ति च॥

मूलम्

कलिं ते कुर्वतेऽभीष्टं प्रहरन्ति परस्परम्।
क्वचिद् धावन्ति सहसा प्रस्खलन्ति पतन्ति च॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे आपसमें इच्छानुसार कलह करते और एक दूसरेको मारते-पीटते हैं। कभी सहसा दौड़ पड़ते हैं, कभी लड़खड़ाते और गिरते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयुक्तं बहु भाषन्ते यत्र क्वचन शोभने।
नग्ना विक्षिप्य गात्राणि नष्टज्ञाना इवासते॥

मूलम्

अयुक्तं बहु भाषन्ते यत्र क्वचन शोभने।
नग्ना विक्षिप्य गात्राणि नष्टज्ञाना इवासते॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोभने! वे जहाँ कहीं भी अनुचित बातें बकने लगते हैं और कभी नंग-धड़ंग हो हाथ-पैर पटकते हुए अचेत-से हो जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुविधान् भावान् कुर्वन्ति भ्रान्तचेतनाः।
ये पिबन्ति महामोहं पानं पापयुता नराः॥

मूलम्

एवं बहुविधान् भावान् कुर्वन्ति भ्रान्तचेतनाः।
ये पिबन्ति महामोहं पानं पापयुता नराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार भ्रान्तचित्त होकर वे नाना प्रकारके भाव प्रकट करते हैं। जो महामोहमें डालनेवाली मदिरा पीते हैं, वे मनुष्य पापी होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतिं लज्जां च बुद्धिं च पानं पीतं प्रणाशयेत्।
तस्मान्नराः सम्भवन्ति निर्लज्जा निरपत्रपाः॥

मूलम्

धृतिं लज्जां च बुद्धिं च पानं पीतं प्रणाशयेत्।
तस्मान्नराः सम्भवन्ति निर्लज्जा निरपत्रपाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पी हुई मदिरा मनुष्यके धैर्य, लज्जा और बुद्धिको नष्ट कर देती है। इससे मनुष्य निर्लज्ज और बेहया हो जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पानपस्तु सुरां पीत्वा तदा बुद्धिप्रणाशनात्।
कार्याकार्यस्य चाज्ञानाद् यथेष्टकरणात् स्वयम्॥
विदुषामविधेयत्वात् पापमेवाभिपद्यते ॥

मूलम्

पानपस्तु सुरां पीत्वा तदा बुद्धिप्रणाशनात्।
कार्याकार्यस्य चाज्ञानाद् यथेष्टकरणात् स्वयम्॥
विदुषामविधेयत्वात् पापमेवाभिपद्यते ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शराब पीनेवाला मनुष्य उसे पीकर बुद्धिका नाश हो जानेसे कर्तव्य और अकर्तव्यका ज्ञान न रह जानेसे, इच्छानुसार कार्य करनेसे तथा विद्वानोंकी आज्ञाके अधीन न रहनेसे पापको ही प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिभूतो भवेल्लोके मद्यपो मित्रभेदकः।
सर्वकालमशुद्धश्च सर्वभक्षस्तथा भवेत् ॥

मूलम्

परिभूतो भवेल्लोके मद्यपो मित्रभेदकः।
सर्वकालमशुद्धश्च सर्वभक्षस्तथा भवेत् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मदिरा पीनेवाला पुरुष जगत्‌में अपमानित होता है। मित्रोंमें फूट डालता है, सब कुछ खाता और हर समय अशुद्ध रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनष्टो ज्ञानविद्वद्भ्यः सततं कलिभावगः।
परुषं कटुकं घोरं वाक्यं वदति सर्वशः॥

मूलम्

विनष्टो ज्ञानविद्वद्भ्यः सततं कलिभावगः।
परुषं कटुकं घोरं वाक्यं वदति सर्वशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह स्वयं हर प्रकारसे नष्ट होकर विद्वान् विवेकी पुरुषोंसे झगड़ा किया करता है। सर्वथा रूखा, कड़वा और भयंकर वचन बोलता रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरूनतिवदेन्मत्तः परदारान् प्रधर्षयेत् ।
संविदं कुरुते शौण्डैर्न शृणोति हितं क्वचित्॥

मूलम्

गुरूनतिवदेन्मत्तः परदारान् प्रधर्षयेत् ।
संविदं कुरुते शौण्डैर्न शृणोति हितं क्वचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह मतवाला होकर गुरुजनोंसे बहकी-बहकी बातें करता है, परायी स्त्रियोंसे बलात्कार करता है, धूर्तों और जुआरियोंके साथ बैठकर सलाह करता है और कभी किसीकी कही हुई हितकर बात भी नहीं सुनता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुविधा दोषाः पानपे सन्ति शोभने।
केवलं नरकं यान्ति नास्ति तत्र विचारणा॥

मूलम्

एवं बहुविधा दोषाः पानपे सन्ति शोभने।
केवलं नरकं यान्ति नास्ति तत्र विचारणा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोभने! इस प्रकार मदिरा पीनेवालेमें बहुत-से दोष हैं। वे केवल नरकमें जाते हैं, इस विषयमें कोई विचार करनेकी बात नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्‌ तद् वर्जितं सद्‌भिः पानमात्महितैषिभिः।
यदि पानं न वर्जेरन् सन्तश्चारित्रकारणात्॥
भवेदेतज्जगत् सर्वममर्यादं च निष्क्रियम्॥

मूलम्

तस्मात्‌ तद् वर्जितं सद्‌भिः पानमात्महितैषिभिः।
यदि पानं न वर्जेरन् सन्तश्चारित्रकारणात्॥
भवेदेतज्जगत् सर्वममर्यादं च निष्क्रियम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये अपना हित चाहनेवाले सत्पुरुषोंने मदिरा-पानका सर्वथा त्याग किया है। यदि सदाचारकी रक्षाके लिये सत्पुरुष मदिरा पीना न छोड़े तो यह सारा जगत् मर्यादारहित और अकर्मण्य हो जाय (यह शरीर-सम्बन्धी महापाप है)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् बुद्धेर्हि रक्षार्थं सद्भिः पानं विवर्जितम्।

मूलम्

तस्माद् बुद्धेर्हि रक्षार्थं सद्भिः पानं विवर्जितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः श्रेष्ठ पुरुषोंने बुद्धिकी रक्षाके लिये मद्यपानको त्याग दिया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधानं सुकृतस्यापि भूयः शृणु शुचिस्मिते।
प्रोच्यते तत् त्रिधा देवि सुकृतं च समासतः॥

मूलम्

विधानं सुकृतस्यापि भूयः शृणु शुचिस्मिते।
प्रोच्यते तत् त्रिधा देवि सुकृतं च समासतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुचिस्मिते! अब पुण्यका भी विधान सुनो। देवि! थोड़ेमें तीन प्रकारका पुण्य भी बताया गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैविध्यदोषोपरमे यस्तु दोषव्यपेक्षया ।
स हि प्राप्नोति सकलं सर्वदुष्कृतवर्जनात्॥

मूलम्

त्रैविध्यदोषोपरमे यस्तु दोषव्यपेक्षया ।
स हि प्राप्नोति सकलं सर्वदुष्कृतवर्जनात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों दोषोंकी निवृत्ति हो जानेपर जो दोषकी उपेक्षा करके सम्पूर्ण दुष्कर्मोंका त्याग कर देता है, वही समस्त शुभ कर्मोंका फल पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथमं वर्जयेद् दोषान् युगपत् पृथगेव वा।
तथा धर्ममवाप्नोति दोषत्यागो हि दुष्करः॥

मूलम्

प्रथमं वर्जयेद् दोषान् युगपत् पृथगेव वा।
तथा धर्ममवाप्नोति दोषत्यागो हि दुष्करः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले सब दोषोंको एक साथ या बारी-बारीसे त्याग देना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्यको धर्माचरणका फल प्राप्त होता है; क्योंकि दोषोंका परित्याग करना बहुत ही कठिन है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोषसाकल्यसंत्यागान्मुनिर्भवति मानवः ॥
सौकर्यं पश्य धर्मस्य कार्यारम्भादृतेऽपि च।
आत्मोपलब्धोपरमाल्लभन्ते सुकृतं परम् ॥

मूलम्

दोषसाकल्यसंत्यागान्मुनिर्भवति मानवः ॥
सौकर्यं पश्य धर्मस्य कार्यारम्भादृतेऽपि च।
आत्मोपलब्धोपरमाल्लभन्ते सुकृतं परम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त दोषोंका त्याग कर देनेसे मनुष्य मुनि हो जाता है। देखो, धर्म करनेमें कितनी सुविधा या सुगमता है कि कोई कार्य किये बिना ही अपनेको प्राप्त हुए दोषोंका त्याग कर देनेमात्रसे मनुष्य परम पुण्य प्राप्त कर लेते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो नृशंसाः पच्यन्ते मानुषाः स्वल्पबुद्धयः।
ये तादृशं न बुध्यन्ते आत्माधीनं च निर्वृताः॥
दुष्कृतत्यागमात्रेण पदमूर्ध्वं हि लभ्यते॥

मूलम्

अहो नृशंसाः पच्यन्ते मानुषाः स्वल्पबुद्धयः।
ये तादृशं न बुध्यन्ते आत्माधीनं च निर्वृताः॥
दुष्कृतत्यागमात्रेण पदमूर्ध्वं हि लभ्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! अल्पबुद्धि मानव कैसे क्रूर हैं कि पाप कर्म करके अपने-आपको नरककी आगमें पकाते हैं। वे संतोषपूर्वक यह नहीं समझ पाते कि वैसा पुण्यकर्म सर्वथा अपने अधीन है। दुष्कर्मोंका त्याग करनेमात्रसे ऊर्ध्वपद (स्वर्गलोक) की प्राप्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापभीरुत्वमात्रेण दोषाणां परिवर्जनात् ।
सुशोभनो भवेद् देवि ऋजुर्धर्मव्यपेक्षया॥

मूलम्

पापभीरुत्वमात्रेण दोषाणां परिवर्जनात् ।
सुशोभनो भवेद् देवि ऋजुर्धर्मव्यपेक्षया॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! पापसे डरने, दोषोंको त्यागने और निष्कपट धर्मकी अपेक्षा रखनेसे मनुष्य उत्तम परिणामका भागी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा च बुद्धसंयोगादिन्द्रियाणां च निग्रहात्।
संतोषाच्च धृतेश्चैव शक्यते दोषवर्जनम्॥

मूलम्

श्रुत्वा च बुद्धसंयोगादिन्द्रियाणां च निग्रहात्।
संतोषाच्च धृतेश्चैव शक्यते दोषवर्जनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानी पुरुषोंके सम्पर्कसे धर्मोपदेश सुनकर इन्द्रियोंका निग्रह करने तथा संतोष और धैर्य धारण करनेसे दोषोंका परित्याग किया जा सकता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेव धर्ममित्याहुर्दोषसंयमनं प्रिये ।
यमधर्मेण धर्मोऽस्ति नान्यः शुभतरः प्रिये॥

मूलम्

तदेव धर्ममित्याहुर्दोषसंयमनं प्रिये ।
यमधर्मेण धर्मोऽस्ति नान्यः शुभतरः प्रिये॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! दोष-संयमको धर्म कहा गया है। संयमरूप धर्मका पालन करनेसे जो धर्म होता है, वही सबसे अधिक कल्याणकारी है, दूसरा नहीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमधर्मेण यतयः प्राप्नुवन्त्युत्तमां गतिम्॥
ईश्वराणां प्रभवतां दरिद्राणां च वै नृणाम्।
सफलो दोषसंत्यागो दानादपि शुभादपि॥

मूलम्

यमधर्मेण यतयः प्राप्नुवन्त्युत्तमां गतिम्॥
ईश्वराणां प्रभवतां दरिद्राणां च वै नृणाम्।
सफलो दोषसंत्यागो दानादपि शुभादपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

संयमधर्मके पालनसे यतिजन उत्तम गतिको पाते हैं। प्रभावशाली धनियोंके दान करनेसे और दरिद्र मनुष्योंके शुभकर्मोंके आचरणसे भी दोषोंका त्याग क्षणिक फल देनेवाला है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपो दानं महादेवि दोषमल्पं हि निर्हरेत्।
सुकृतं यामिकं चोक्तं वक्ष्ये निरुपसाधनम्॥

मूलम्

तपो दानं महादेवि दोषमल्पं हि निर्हरेत्।
सुकृतं यामिकं चोक्तं वक्ष्ये निरुपसाधनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

महादेवि! तप और दान अल्प दोषको हर लेते हैं। यहाँ संयमसम्बन्धी सुकृत बताया गया। अब सहायक साधनोंके बिना होनेवाले सुकृतका वर्णन करूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखाभिसंधिर्लोकानां सत्यं शौचमथार्जवम् ।
व्रतोपवासः प्रीतिश्च ब्रह्मचर्यं दमः शमः॥
एवमादि शुभं कर्म सुकृतं नियमाश्रितम्।
शृणु तेषां विशेषांश्च कीर्तयिष्यामि भामिनि॥

मूलम्

सुखाभिसंधिर्लोकानां सत्यं शौचमथार्जवम् ।
व्रतोपवासः प्रीतिश्च ब्रह्मचर्यं दमः शमः॥
एवमादि शुभं कर्म सुकृतं नियमाश्रितम्।
शृणु तेषां विशेषांश्च कीर्तयिष्यामि भामिनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत्‌के लोगोंके सुखी होनेकी कामना, सत्य, शौच, सरलता, व्रतसम्बन्धी उपवास, प्रीति, ब्रह्मचर्य, दम और शम—इत्यादि शुभ कर्म नियमोंपर अवलम्बित सुकृत है। भामिनि! अब उनके विशेष भेदोंका वर्णन करूँगा, सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव।
नास्ति सत्यात् परं दानं नास्ति सत्यात् परं तपः॥

मूलम्

सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव।
नास्ति सत्यात् परं दानं नास्ति सत्यात् परं तपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे नौका या जहाज समुद्रसे पार होनेका साधन है, उसी प्रकार सत्य स्वर्गलोकमें पहुँचनेके लिये सीढ़ीका काम देता है। सत्यसे बढ़कर दान नहीं है और सत्यसे बढ़कर तप नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा श्रुतं यथा दृष्टमात्मना यद् यथा कृतम्।
तथा तस्याविकारेण वचनं सत्यलक्षणम्॥

मूलम्

यथा श्रुतं यथा दृष्टमात्मना यद् यथा कृतम्।
तथा तस्याविकारेण वचनं सत्यलक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जैसा सुना गया हो, जैसा देखा गया हो और अपने द्वारा जैसा किया गया हो, उसको बिना किसी परिवर्तनके वाणीद्वारा प्रकट करना सत्यका लक्षण है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्छलेनाभिसंयुक्तं सत्यरूपं मृषैव तत्।
सत्यमेव प्रवक्तव्यं पारावर्यं विजानता॥

मूलम्

यच्छलेनाभिसंयुक्तं सत्यरूपं मृषैव तत्।
सत्यमेव प्रवक्तव्यं पारावर्यं विजानता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सत्य छलसे युक्त हो, वह मिथ्या ही है। अतः सत्यासत्यके भले-बुरे परिणामको जाननेवाले पुरुषको चाहिये कि वह सदा सत्य ही बोले॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घायुश्च भवेत् सत्यात् कुलसंतानपालकः।
लोकसंस्थितिपालश्च भवेत् सत्येन मानवः॥

मूलम्

दीर्घायुश्च भवेत् सत्यात् कुलसंतानपालकः।
लोकसंस्थितिपालश्च भवेत् सत्येन मानवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यके पालनसे मनुष्य दीर्घायु होता है। सत्यसे कुल-परम्पराका पालक होता है और सत्यका आश्रय लेनेसे वह लोक-मर्यादाका संरक्षक होता है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं संधारयन् मर्त्यो व्रतं शुभमवाप्नुयात्॥

मूलम्

कथं संधारयन् मर्त्यो व्रतं शुभमवाप्नुयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! मनुष्य किस प्रकार व्रत धारण करके शुभ फलको पाता है?॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वमुक्तं तु यत् पापं मनोवाक्कायकर्मभिः।
व्रतवत् तस्य संत्यागस्तपोव्रतमिति स्मृतम्॥

मूलम्

पूर्वमुक्तं तु यत् पापं मनोवाक्कायकर्मभिः।
व्रतवत् तस्य संत्यागस्तपोव्रतमिति स्मृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! पहले जो मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा होनेवाले पापोंका वर्णन किया गया है, व्रतकी भाँति उनके त्यागका नियम लेना तपोव्रत कहा गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुद्धकायो नरो भूत्वा स्नात्वा तीर्थे यथाविधि।
पञ्चभूतानि चन्द्रार्कौ संध्ये धर्मयमौ पितॄन्॥
आत्मनैव तथाऽऽत्मानं निवेद्य व्रतवच्चरेत्।

मूलम्

शुद्धकायो नरो भूत्वा स्नात्वा तीर्थे यथाविधि।
पञ्चभूतानि चन्द्रार्कौ संध्ये धर्मयमौ पितॄन्॥
आत्मनैव तथाऽऽत्मानं निवेद्य व्रतवच्चरेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य तीर्थमें विधिपूर्वक स्नान करके शुद्धशरीर हो स्वयं ही अपने आपको पंच महाभूत, चन्द्रमा, सूर्य, दोनों कालकी संध्या, धर्म, यम तथा पितरोंकी सेवामें निवेदन करके व्रत लेकर धर्माचरण करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रतमामरणाद् वापि कालच्छेदेन वा हरेत्॥
शाकादिषु व्रतं कुर्यात् तथा पुष्पफलादिषु।
ब्रह्मचर्यव्रतं कुर्यादुपवासव्रतं तथा ॥

मूलम्

व्रतमामरणाद् वापि कालच्छेदेन वा हरेत्॥
शाकादिषु व्रतं कुर्यात् तथा पुष्पफलादिषु।
ब्रह्मचर्यव्रतं कुर्यादुपवासव्रतं तथा ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने व्रतको मृत्युपर्यन्त निभावे अथवा समयकी सीमा बाँधकर उतने समयतक उसका निर्वाह करे। शाक आदि तथा फल-फूल आदिका आहार करके व्रत करे। उस समय ब्रह्मचर्यका पालन तथा उपवास भी करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमन्येषु बहुषु व्रतं कार्यं हितैषिणा।
व्रतभङ्गो यथा न स्याद् रक्षितव्यं तथा बुधैः॥

मूलम्

एवमन्येषु बहुषु व्रतं कार्यं हितैषिणा।
व्रतभङ्गो यथा न स्याद् रक्षितव्यं तथा बुधैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपना हित चाहनेवाले पुरुषको दुग्ध आदि अन्य बहुत-सी वस्तुओंमेंसे किसी एकका उपयोग करके व्रतका पालन करना चाहिये। विद्वानोंको उचित है कि वे अपने व्रतको भंग न होने दें। सब प्रकारसे उसकी रक्षा करें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रतभङ्गे महत् पापमिति विद्धि शुभेक्षणे॥
औषधार्थं यदज्ञानाद् गुरूणां वचनादपि।
अनुग्रहार्थं बन्धूनां व्रतभङ्गो न दुष्यते॥

मूलम्

व्रतभङ्गे महत् पापमिति विद्धि शुभेक्षणे॥
औषधार्थं यदज्ञानाद् गुरूणां वचनादपि।
अनुग्रहार्थं बन्धूनां व्रतभङ्गो न दुष्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुभेक्षणे! तुम यह जान लो कि व्रत भंग करनेसे महान् पाप होता है, परंतु ओषधिके लिये, अनजानमें, गुरुजनोंकी आज्ञासे तथा बन्धुजनोंपर अनुग्रह करनेके लिये यदि व्रतभंग हो जाय तो वह दूषित नहीं होता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रतापवर्गकाले तु दैवब्राह्मणपूजनम् ।
नरेण तु यथावद्धि कार्यसिद्धिं यथाप्नुयात्॥

मूलम्

व्रतापवर्गकाले तु दैवब्राह्मणपूजनम् ।
नरेण तु यथावद्धि कार्यसिद्धिं यथाप्नुयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्रतकी समाप्तिके समय मनुष्यको देवताओं और ब्राह्मणोंकी यथावत् पूजा करनी चाहिये। इससे उसे अपने कार्यमें सफलता प्राप्त होती है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं शौचविधिस्तत्र तन्मे शंसितुमर्हसि।

मूलम्

कथं शौचविधिस्तत्र तन्मे शंसितुमर्हसि।

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! व्रत ग्रहण करनेके समय शौचाचारका विधान कैसा है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह्यमाभ्यन्तरं चेति द्विविधं शौचमिष्यते।
मानसं सुकृतं यत् तच्छौचमाभ्यन्तरं स्मृतम्॥

मूलम्

बाह्यमाभ्यन्तरं चेति द्विविधं शौचमिष्यते।
मानसं सुकृतं यत् तच्छौचमाभ्यन्तरं स्मृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! शौच दो प्रकारका माना गया है—एक बाह्य शौच, दूसरा आभ्यन्तर शौच। जिसे पहले मानसिक सुकृत बताया गया है, उसीको यहाँ आभ्यन्तर शौच कहा गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदाऽऽहारविशुद्धिश्च कायप्रक्षालनं तु यत्।
बाह्यशौचं भवेदेतत् तथैवाचमनादिना ॥

मूलम्

सदाऽऽहारविशुद्धिश्च कायप्रक्षालनं तु यत्।
बाह्यशौचं भवेदेतत् तथैवाचमनादिना ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदा ही विशुद्ध आहार ग्रहण करना, शरीरको धो-पोंछकर साफ रखना तथा आचमन आदिके द्वारा भी शरीरको शुद्ध बनाये रखना, यह बाह्य शौच है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृच्चैव शुद्धदेशस्था गोशकृन्मूत्रमेव च।
द्रव्याणि गन्धयुक्तानि यानि पुष्टिकराणि च॥
एतैः सम्मार्जनैः कायमम्भसा च पुनः पुनः।

मूलम्

मृच्चैव शुद्धदेशस्था गोशकृन्मूत्रमेव च।
द्रव्याणि गन्धयुक्तानि यानि पुष्टिकराणि च॥
एतैः सम्मार्जनैः कायमम्भसा च पुनः पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

अच्छे स्थानकी मिट्टी, गोबर, गोमूत्र, सुगन्धित द्रव्य तथा पौष्टिक पदार्थ—इन सब वस्तुओंसे मिश्रित जलके द्वारा मार्जन करके शरीरको बारंबार जलसे प्रक्षालित करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षोभ्यं यत् प्रकीर्णं च नित्यस्रोतश्च यज्जलम्॥
प्रायशस्तादृशे मज्जेदन्यथा च विवर्जयेत्॥

मूलम्

अक्षोभ्यं यत् प्रकीर्णं च नित्यस्रोतश्च यज्जलम्॥
प्रायशस्तादृशे मज्जेदन्यथा च विवर्जयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँका जल अक्षोभ्य (नहानेसे गँदला न होनेवाला) और फैला हुआ हो, जिसका प्रवाह कभी टूटता न हो। प्रायः ऐसे ही जलमें गोता लगाना चाहिये। अन्यथा उस जलको त्याग देना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिस्त्रिराचमनं श्रेष्ठं निर्मलैरुद्‌धृतैर्जलैः ।
तथा विण्मूत्रयोः शुद्धिरद्भिर्बहुमृदा भवेत्॥

मूलम्

त्रिस्त्रिराचमनं श्रेष्ठं निर्मलैरुद्‌धृतैर्जलैः ।
तथा विण्मूत्रयोः शुद्धिरद्भिर्बहुमृदा भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्मल जलको हाथमें लेकर उसके द्वारा तीन-तीन बार आचमन करना श्रेष्ठ माना गया है। मल और मूत्रके स्थानोंकी शुद्धि बहुत-सी मिट्टी लगाकर जलके द्वारा धोनेसे होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव जलसंशुद्धिर्यत् संशुद्धं तु संस्पृशेत्॥

मूलम्

तथैव जलसंशुद्धिर्यत् संशुद्धं तु संस्पृशेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार जलकी शुद्धिका भी ध्यान रखना आवश्यक है। जो शुद्ध जल हो उसीका स्पर्श करे—उसीसे हाथ-मुँह धोकर कुल्ला करे और नहाये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकृता भूमिशुद्धिः स्याल्लौहानां भस्मना स्मृतम्।
तक्षणं घर्षणं चैव दारवाणां विशोधनम्॥

मूलम्

शकृता भूमिशुद्धिः स्याल्लौहानां भस्मना स्मृतम्।
तक्षणं घर्षणं चैव दारवाणां विशोधनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोबरसे लीपनेपर भूमिकी शुद्धि होती है, राखसे मलनेपर धातुके पात्रोंकी शुद्धि होती है। लकड़ीके बने हुए पात्रोंकी शुद्धि छीलने, काटने और रगड़नेसे होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दहनं मृण्मयानां च मर्त्यानां कृच्छ्रधारणम्।
शेषाणां देवि सर्वेषामातपेन जलेन च॥
ब्राह्मणानां च वाक्येन सदा संशोधनं भवेत्।

मूलम्

दहनं मृण्मयानां च मर्त्यानां कृच्छ्रधारणम्।
शेषाणां देवि सर्वेषामातपेन जलेन च॥
ब्राह्मणानां च वाक्येन सदा संशोधनं भवेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

मिट्टीके पात्रोंकी शुद्धि आगमें जलानेसे होती है, मनुष्योंकी शुद्धि कृच्छ्र सांतपन आदि व्रत धारण करनेसे होती है। देवि! शेष सब वस्तुओंकी शुद्धि सदा धूपमें तपाने, जलके द्वारा धोने और ब्राह्मणोंके वचनसे होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृष्टमद्भिर्निर्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते।
एवमापदि संशुद्धिरेवं शौचं विधीयते॥

मूलम्

अदृष्टमद्भिर्निर्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते।
एवमापदि संशुद्धिरेवं शौचं विधीयते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका दोष देखा न गया हो ऐसी वस्तुको जलसे धो दिया जाय तो वह शुद्ध हो जाता है। जिसकी वाणीद्वारा प्रशंसा की जाती है, वह भी शुद्ध ही समझना चाहिये। इसी प्रकार आपत्तिकालमें शुद्धिकी व्यवस्था है और इसी तरह शौचका विधान है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहारशुद्धिस्तु कथं देवदेव महेश्वर॥

मूलम्

आहारशुद्धिस्तु कथं देवदेव महेश्वर॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— देवदेव! महेश्वर! आहारकी शुद्धि कैसे होती है?॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमांसमद्यमक्लेद्यमपर्युषितमेव च ।
अतिकट्‌वम्ललवणहीनं च शुभगन्धि च॥
कृमिकेशमलैर्हीनं संवृतं शुद्धदर्शनम् ।
एवंविधं सदाऽऽहार्यं देवब्राह्मणसत्कृतम् ॥
श्रेष्ठमित्येव तज्ज्ञेयमन्यथा मन्यतेऽशुभम् ।

मूलम्

अमांसमद्यमक्लेद्यमपर्युषितमेव च ।
अतिकट्‌वम्ललवणहीनं च शुभगन्धि च॥
कृमिकेशमलैर्हीनं संवृतं शुद्धदर्शनम् ।
एवंविधं सदाऽऽहार्यं देवब्राह्मणसत्कृतम् ॥
श्रेष्ठमित्येव तज्ज्ञेयमन्यथा मन्यतेऽशुभम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! जिसमें मांस और मद्य न हो, जो सड़ा हुआ या पसीजा न हो, बासी न हो, अधिक कड़वा, अधिक खट्टा और अधिक नमकीन न हो, जिससे उत्तम गन्ध आती हो, जिसमें कीड़े या केश न पड़े हों, जो निर्मल हो, ढका हुआ हो और देखनेमें भी शुद्ध हो, जिसका देवताओं और ब्राह्मणोंद्वारा सत्कार किया गया हो, ऐसे अन्नको सदा भोजन करना चाहिये। उसे श्रेष्ठ ही जानना चाहिये। इसके विपरीत जो अन्न है, उसे अशुभ माना गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्राम्यादारण्यकैः सिद्धं श्रेष्ठमित्यवधारय ॥
अतिमात्रगृहीतात् तु अल्पदत्तं भवेच्छुचि।

मूलम्

ग्राम्यादारण्यकैः सिद्धं श्रेष्ठमित्यवधारय ॥
अतिमात्रगृहीतात् तु अल्पदत्तं भवेच्छुचि।

अनुवाद (हिन्दी)

ग्राम्य अन्नकी अपेक्षा वनमें उत्पन्न होनेवाले पदार्थोंसे बना हुआ अन्न श्रेष्ठ होता है। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो। अधिक-से-अधिक ग्रहण किये हुए अन्नकी अपेक्षा थोड़ा-सा दिया हुआ अन्न पवित्र होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञशेषं हविःशेषं पितृशेषं च निर्मलम्॥
इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि॥

मूलम्

यज्ञशेषं हविःशेषं पितृशेषं च निर्मलम्॥
इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञशेष (देवताओंको अर्पण करनेसे बचा हुआ), हविःशेष (अग्निमें आहुति देनेसे बचा हुआ) तथा पितृशेष (श्राद्धसे अवशिष्ट) अन्न निर्मल माना गया है। देवि! यह विषय तुम्हें बताया गया, अब और क्या सुनना चाहती हो?॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्षयन्त्यपरे मांसं वर्जयन्त्यपरे विभो।
तन्मे वद महादेव भक्ष्याभक्ष्यविनिर्णयम्॥

मूलम्

भक्षयन्त्यपरे मांसं वर्जयन्त्यपरे विभो।
तन्मे वद महादेव भक्ष्याभक्ष्यविनिर्णयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— प्रभो! कुछ लोग तो मांस खाते हैं और दूसरे लोग उसका त्याग कर देते हैं। महादेव! ऐसी दशामें मुझे भक्ष्य-अभक्ष्यका निर्णय करके बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मांसस्य भक्षणे दोषो यश्चास्याभक्षणे गुणः।
तदहं कीर्तयिष्यामि तन्निबोध यथातथम्॥

मूलम्

मांसस्य भक्षणे दोषो यश्चास्याभक्षणे गुणः।
तदहं कीर्तयिष्यामि तन्निबोध यथातथम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! मांस खानेमें जो दोष है और उसे न खानेमें जो गुण है, उसका मैं यथार्थ रूपसे वर्णन करता हूँ, उसे सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टं दत्तमधीतं च क्रतवश्च सदक्षिणाः।
अमांसभक्षणस्यैव कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥

मूलम्

इष्टं दत्तमधीतं च क्रतवश्च सदक्षिणाः।
अमांसभक्षणस्यैव कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञ, दान, वेदाध्ययन तथा दक्षिणासहित अनेकानेक क्रतु—ये सब मिलकर मांस-भक्षणके परित्यागकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं होते॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मार्थं यः परप्राणान्‌ हिंस्यात् स्वादुफलेप्सया।
व्याघ्रगृध्रशृगालैश्च राक्षसैश्च समस्तु सः॥

मूलम्

आत्मार्थं यः परप्राणान्‌ हिंस्यात् स्वादुफलेप्सया।
व्याघ्रगृध्रशृगालैश्च राक्षसैश्च समस्तु सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो स्वादकी इच्छासे अपने लिये दूसरेके प्राणोंकी हिंसा करता है, वह बाघ, गीध, सियार और राक्षसोंके समान है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
उद्विग्नवासं लभते यत्र यत्रोपजायते॥

मूलम्

स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
उद्विग्नवासं लभते यत्र यत्रोपजायते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पराये मांससे अपने मांसको बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ-कहीं भी जन्म लेता है वहीं उद्वेगमें पड़ा रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संछेदनं स्वमांसस्य यथा संजनयेद् रुजम्।
तथैव परमांसेऽपि वेदितव्यं विजानता॥

मूलम्

संछेदनं स्वमांसस्य यथा संजनयेद् रुजम्।
तथैव परमांसेऽपि वेदितव्यं विजानता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे अपने मांसको काटना अपने लिये पीड़ाजनक होता है, उसी तरह दूसरेका मांस काटनेपर उसे भी पीड़ा होती है। यह प्रत्येक विज्ञ पुरुषको समझना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु सर्वाणि मांसानि यावज्जीवं न भक्षयेत्।
स स्वर्गे विपुलं स्थानं लभते नात्र संशयः॥

मूलम्

यस्तु सर्वाणि मांसानि यावज्जीवं न भक्षयेत्।
स स्वर्गे विपुलं स्थानं लभते नात्र संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जीवनभर सब प्रकारके मांस त्याग देता है—कभी मांस नहीं खाता है, वह स्वर्गमें विशाल स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तु वर्षशतं पूर्णं तप्यते परमं तपः।
यच्चापि वर्जयेन्मांसं सममेतन्न वा समम्॥

मूलम्

यत् तु वर्षशतं पूर्णं तप्यते परमं तपः।
यच्चापि वर्जयेन्मांसं सममेतन्न वा समम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जो पूरे सौ वर्षोंतक उत्कृष्ट तपस्या करता है और जो वह सदाके लिये मांसका परित्याग कर देता है—उसके ये दोनों कर्म समान हैं अथवा समान नहीं भी हो सकते हैं [मांसका त्याग तपस्यासे भी उत्कृष्ट है]॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि प्राणैः प्रियतमं लोके किंचन विद्यते।
तस्मात् प्राणिदया कार्या यथाऽऽत्मनि तथा परे॥

मूलम्

न हि प्राणैः प्रियतमं लोके किंचन विद्यते।
तस्मात् प्राणिदया कार्या यथाऽऽत्मनि तथा परे॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें प्राणोंके समान प्रियतम दूसरी कोई वस्तु नहीं है। अतः समस्त प्राणियोंपर दया करनी चाहिये। जैसे अपने ऊपर दया अभीष्ट होती है, वैसे ही दूसरोंपर भी होनी चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं मुनयः प्राहुर्मांसस्याभक्षणे गुणान्।

मूलम्

इत्येवं मुनयः प्राहुर्मांसस्याभक्षणे गुणान्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मुनियोंने मांस न खानेमें गुण बताये हैं॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुपूजा कथं देव क्रियते धर्मचारिभिः॥

मूलम्

गुरुपूजा कथं देव क्रियते धर्मचारिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— देव! धर्मचारी मनुष्य गुरुजनोंकी पूजा कैसे करते हैं?॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुपूजां प्रवक्ष्यामि यथावत् तव शोभने।
कृतज्ञानां परो धर्म इति वेदानुशासनम्॥

मूलम्

गुरुपूजां प्रवक्ष्यामि यथावत् तव शोभने।
कृतज्ञानां परो धर्म इति वेदानुशासनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— शोभने! अब मैं तुम्हें यथावत् रूपसे गुरुजनोंकी पूजाकी विधि बता रहा हूँ। वेदकी यह आज्ञा है कि कृतज्ञ पुरुषोंके लिये गुरुजनोंकी पूजा परम धर्म है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् स्वगुरवः पूज्यास्ते हि पूर्वोपकारिणः।
गुरूणां च गरीयांसस्त्रयो लोकेषु पूजिताः॥
उपाध्यायः पिता माता सम्पूज्यास्ते विशेषतः।

मूलम्

तस्मात् स्वगुरवः पूज्यास्ते हि पूर्वोपकारिणः।
गुरूणां च गरीयांसस्त्रयो लोकेषु पूजिताः॥
उपाध्यायः पिता माता सम्पूज्यास्ते विशेषतः।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः सबको अपने-अपने गुरुजनोंका पूजन करना चाहिये; क्योंकि वे गुरुजन संतान और शिष्यपर पहले उपकार करनेवाले हैं। गुरुजनोंमें उपाध्याय (अध्यापक) पिता और माता—ये तीन अधिक गौरवशाली हैं। इनकी तीनों लोकोंमें पूजा होती है; अतः इन सबका विशेषरूपसे आदर-सत्कार करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये पितुर्भ्रातरो ज्येष्ठा ये च तस्यानुजास्तथा॥
पितुः पिता च सर्वे ते पूजनीयाः पिता तथा॥

मूलम्

ये पितुर्भ्रातरो ज्येष्ठा ये च तस्यानुजास्तथा॥
पितुः पिता च सर्वे ते पूजनीयाः पिता तथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पिताके बड़े तथा छोटे भाई हों, वे तथा पिताके भी पिता—ये सब-के-सब पिताके ही तुल्य पूजनीय हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातुर्या भगिनी ज्येष्ठा मातुर्या च यवीयसी।
मातामही च धात्री च सर्वास्ता मातरः स्मृताः॥

मूलम्

मातुर्या भगिनी ज्येष्ठा मातुर्या च यवीयसी।
मातामही च धात्री च सर्वास्ता मातरः स्मृताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताकी जो जेठी बहिन तथा छोटी बहिन हैं, वे और नानी एवं धाय—इन सबको माताके ही तुल्य माना गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपाध्यायस्य यः पुत्रो यश्च तस्य भवेद् गुरुः।
ऋत्विग् गुरुः पिता चेति गुरवः सम्प्रकीर्तिताः॥

मूलम्

उपाध्यायस्य यः पुत्रो यश्च तस्य भवेद् गुरुः।
ऋत्विग् गुरुः पिता चेति गुरवः सम्प्रकीर्तिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उपाध्यायका जो पुत्र है वह गुरु है, उसका जो गुरु है वह भी अपना गुरु है, ऋत्विक् गुरु है और पिता भी गुरु है—ये सब-के-सब गुरु कहे गये हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्येष्ठो भ्राता नरेन्द्रश्च मातुलः श्वशुरस्तथा।
भयत्राता च भर्ता च गुरवस्ते प्रकीर्तिताः॥

मूलम्

ज्येष्ठो भ्राता नरेन्द्रश्च मातुलः श्वशुरस्तथा।
भयत्राता च भर्ता च गुरवस्ते प्रकीर्तिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़ा भाई, राजा, मामा, श्वशुर, भयसे रक्षा करनेवाला तथा भर्ता (स्वामी)—ये सब गुरु कहे गये हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येष कथितः साध्वि गुरूणां सर्वसंग्रहः।
अनुवृत्तिं च पूजां च तेषामपि निबोध मे॥

मूलम्

इत्येष कथितः साध्वि गुरूणां सर्वसंग्रहः।
अनुवृत्तिं च पूजां च तेषामपि निबोध मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिव्रते! यह गुरु-कोटिमें जिनकी गणना है, उन सबका संग्रह करके यहाँ बताया गया है। अब उनकी अनुवृत्ति और पूजाकी भी बात सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आराध्या मातापितरावुपाध्यायस्तथैव च ।
कथंचिन्नावमन्तव्या नरेण हितमिच्छता ॥

मूलम्

आराध्या मातापितरावुपाध्यायस्तथैव च ।
कथंचिन्नावमन्तव्या नरेण हितमिच्छता ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपना हित चाहनेवाले पुरुषको माता, पिता और उपाध्याय—इन तीनोंकी आराधना करनी चाहिये। किसी तरह भी इनका अपमान नहीं करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन प्रीणन्ति पितरस्तेन प्रीतः प्रजापतिः।
येन प्रीणाति चेन्माता प्रीताः स्युर्देवमातरः॥
येन प्रीणात्युपाध्यायो ब्रह्मा तेनाभिपूजितः।
अप्रीतेषु पुनस्तेषु नरो नरकमेति हि॥

मूलम्

तेन प्रीणन्ति पितरस्तेन प्रीतः प्रजापतिः।
येन प्रीणाति चेन्माता प्रीताः स्युर्देवमातरः॥
येन प्रीणात्युपाध्यायो ब्रह्मा तेनाभिपूजितः।
अप्रीतेषु पुनस्तेषु नरो नरकमेति हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे पितर प्रसन्न होते हैं। प्रजापतिको प्रसन्नता होती है। जिस आराधनाके द्वारा वह माताको प्रसन्न करता है, उससे देवमाताएँ प्रसन्न होती हैं। जिससे वह उपाध्यायको संतुष्ट करता है, उससे ब्रह्माजी पूजित होते हैं। यदि मनुष्य आराधना-द्वारा इन सबको संतुष्ट न करे तो वह नरकमें जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरूणां वैरनिर्बन्धो न कर्तव्यः कथंचन।
नरकं स्वगुरुप्रीत्या मनसापि न गच्छति॥

मूलम्

गुरूणां वैरनिर्बन्धो न कर्तव्यः कथंचन।
नरकं स्वगुरुप्रीत्या मनसापि न गच्छति॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजनोंके साथ कभी वैर नहीं बाँधना चाहिये। अपने गुरुजनके प्रसन्न होनेपर मनुष्य कभी मनसे भी नरकमें नहीं पड़ता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ब्रूयाद् विप्रियं तेषामनिष्टं न प्रवर्तयेत्।
विगृह्य न वदेत् तेषां समीपे स्पर्धया क्वचित्॥

मूलम्

न ब्रूयाद् विप्रियं तेषामनिष्टं न प्रवर्तयेत्।
विगृह्य न वदेत् तेषां समीपे स्पर्धया क्वचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें जो अप्रिय लगे, ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिये, जिससे उनका अनिष्ट हो, ऐसा काम भी नहीं करना चाहिये। उनसे झगड़कर नहीं बोलना चाहिये और उनके समीप कभी किसी बातके लिये होड़ नहीं लगानी चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यदिच्छन्ति ते कर्तुमस्वतन्त्रस्तदाचरेत्।
वेदानुशासनसमं गुरुशासनमिष्यते ॥

मूलम्

यद् यदिच्छन्ति ते कर्तुमस्वतन्त्रस्तदाचरेत्।
वेदानुशासनसमं गुरुशासनमिष्यते ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे जो-जो काम कराना चाहें, उनकी आज्ञाके अधीन रहकर वह सब कुछ करना चाहिये। वेदोंकी आज्ञाके समान गुरुजनोंकी आज्ञाका पालन अभीष्ट माना गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलहांश्च विवादांश्च गुरुभिः सह वर्जयेत्।
कैतवं परिहासांश्च मन्युकामाश्रयांस्तथा ॥

मूलम्

कलहांश्च विवादांश्च गुरुभिः सह वर्जयेत्।
कैतवं परिहासांश्च मन्युकामाश्रयांस्तथा ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजनोंके साथ कलह और विवाद छोड़ दे, उनके साथ छल-कपट, परिहास तथा काम-क्रोधके आधारभूत बर्ताव भी न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरूणां योऽनहंवादी करोत्याज्ञामतन्द्रितः ।
न तस्मात् सर्वमर्त्येषु विद्यते पुण्यकृत्तमः॥

मूलम्

गुरूणां योऽनहंवादी करोत्याज्ञामतन्द्रितः ।
न तस्मात् सर्वमर्त्येषु विद्यते पुण्यकृत्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आलस्य और अहंकार छोड़कर गुरुजनोंकी आज्ञाका पालन करता है, समस्त मनुष्योंमें उससे बढ़कर पुण्यात्मा दूसरा कोई नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असूयामपवादं च गुरूणां परिवर्जयेत्।
तेषां प्रियहितान्वेषी भूत्वा परिचरेत् सदा॥

मूलम्

असूयामपवादं च गुरूणां परिवर्जयेत्।
तेषां प्रियहितान्वेषी भूत्वा परिचरेत् सदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजनोंके दोष देखना और उनकी निन्दा करना छोड़ दे, उनके प्रिय और हितका ध्यान रखते हुए सदा उनकी परिचर्या करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तद् यज्ञफलं कुर्यात् तपो वाऽऽचरितं महत्।
यत् कुर्यात् पुरुषस्येह गुरुपूजा सदा कृता॥

मूलम्

न तद् यज्ञफलं कुर्यात् तपो वाऽऽचरितं महत्।
यत् कुर्यात् पुरुषस्येह गुरुपूजा सदा कृता॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञोंका फल और किया हुआ महान् तप भी इस जगत्‌में मनुष्यको वैसा लाभ नहीं पहुँचा सकता, जैसा सदा किया हुआ गुरुपूजन पहुँचा सकता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुवृत्तेर्विना धर्मो नास्ति सर्वाश्रमेष्वपि।
तस्मात् क्षमावृतः क्षान्तो गुरुवृत्तिं समाचरेत्॥

मूलम्

अनुवृत्तेर्विना धर्मो नास्ति सर्वाश्रमेष्वपि।
तस्मात् क्षमावृतः क्षान्तो गुरुवृत्तिं समाचरेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी आश्रमोंमें अनुवृत्ति (गुरुसेवा) के बिना कोई भी धर्म सफल नहीं हो सकता। इसलिये क्षमासे युक्त और सहनशील होकर गुरुसेवा करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वमर्थं स्वशरीरं च गुर्वर्थे संत्यजेद् बुधः।
विवादं धनहेतोर्वा मोहाद् वा तैर्न रोचयेत्॥

मूलम्

स्वमर्थं स्वशरीरं च गुर्वर्थे संत्यजेद् बुधः।
विवादं धनहेतोर्वा मोहाद् वा तैर्न रोचयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष गुरुके लिये अपने धन और शरीरको समर्पण कर दे। धनके लिये अथवा मोहवश उनके साथ विवाद न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मचर्यमहिंसा च दानानि विविधानि च।
गुरुभिः प्रतिषिद्धस्य सर्वमेतदपार्थकम् ॥

मूलम्

ब्रह्मचर्यमहिंसा च दानानि विविधानि च।
गुरुभिः प्रतिषिद्धस्य सर्वमेतदपार्थकम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गुरुजनोंसे अभिशप्त है, उसके किये हुए ब्रह्मचर्य, अहिंसा और नाना प्रकारके दान—ये सब व्यर्थ हो जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपाध्यायं पितरं मातरं च
येऽभिद्रुह्युर्मनसा कर्मणा वा ।
तेषां पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं
तेभ्यो नान्यः पापकृदस्ति लोके॥

मूलम्

उपाध्यायं पितरं मातरं च
येऽभिद्रुह्युर्मनसा कर्मणा वा ।
तेषां पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं
तेभ्यो नान्यः पापकृदस्ति लोके॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग उपाध्याय, पिता और माताके साथ मन, वाणी एवं क्रियाद्वारा द्रोह करते हैं, उन्हें भ्रूणहत्यासे भी बड़ा पाप लगता है। उनसे बढ़कर पापाचारी इस संसारमें दूसरा कोई नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासविधिं तत्र तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

उपवासविधिं तत्र तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने कहा— प्रभो! अब आप मुझे उपवासकी विधि बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरमलशान्त्यर्थमिन्द्रियोच्छोषणाय च ।
एकभुक्तोपवासैस्तु धारयन्ते व्रतं नराः॥
लभन्ते विपुलं धर्मं तथाऽऽहारपरिक्षयात्।

मूलम्

शरीरमलशान्त्यर्थमिन्द्रियोच्छोषणाय च ।
एकभुक्तोपवासैस्तु धारयन्ते व्रतं नराः॥
लभन्ते विपुलं धर्मं तथाऽऽहारपरिक्षयात्।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वर बोले— प्रिये! शारीरिक दोषकी शान्तिके लिये और इन्द्रियोंको सुखाकर वशमें करनेके लिये मनुष्य एक समय भोजन अथवा दोनों समय उपवासपूर्वक व्रत धारण करते हैं और आहार क्षीण कर देनेके कारण महान् धर्मका फल पाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहूनामुपरोधं तु न कुर्यादात्मकारणात्॥
जीवोपघातं च तथा स जीवन् धन्य इष्यते।

मूलम्

बहूनामुपरोधं तु न कुर्यादात्मकारणात्॥
जीवोपघातं च तथा स जीवन् धन्य इष्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने लिये बहुतसे प्राणियोंको बन्धनमें नहीं डालता और न उनका वध ही करता है, वह जीवन भर धन्य माना जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् पुण्यं लभेन्मर्त्यः स्वयमाहारकर्शनात्॥
तद् गृहस्थैर्यथाशक्ति कर्तव्यमिति निश्चयः॥

मूलम्

तस्मात् पुण्यं लभेन्मर्त्यः स्वयमाहारकर्शनात्॥
तद् गृहस्थैर्यथाशक्ति कर्तव्यमिति निश्चयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः यह सिद्ध होता है कि स्वयं आहारको घटा देनेसे मनुष्य अवश्य पुण्यका भागी होता है। इसलिये गृहस्थोंको यथाशक्ति आहार-संयम करना चाहिये, यह शास्त्रोंका निश्चित आदेश है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासार्दिते काये आपदर्थं पयो जलम्।
भुञ्जन्नप्रतिघाती स्याद् ब्राह्मणाननुमान्य च॥

मूलम्

उपवासार्दिते काये आपदर्थं पयो जलम्।
भुञ्जन्नप्रतिघाती स्याद् ब्राह्मणाननुमान्य च॥

अनुवाद (हिन्दी)

उपवाससे जब शरीरको अधिक पीड़ा होने लगे, तब उस आपत्तिकालमें ब्राह्मणोंसे आज्ञा लेकर यदि मनुष्य दूध अथवा जल ग्रहण कर ले तो इससे उसका व्रत भंग नहीं होता॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मचर्यं कथं देव रक्षितव्यं विजानता॥

मूलम्

ब्रह्मचर्यं कथं देव रक्षितव्यं विजानता॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— देव! विज्ञ पुरुषको ब्रह्मचर्यकी रक्षा कैसे करनी चाहिये?॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु देवि समाहिता॥
ब्रह्मचर्यं परं शौचं ब्रह्मचर्यं परं तपः।
केवलं ब्रह्मचर्येण प्राप्यते परमं पदम्॥

मूलम्

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु देवि समाहिता॥
ब्रह्मचर्यं परं शौचं ब्रह्मचर्यं परं तपः।
केवलं ब्रह्मचर्येण प्राप्यते परमं पदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! यह विषय मैं तुम्हें बताता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। ब्रह्मचर्य सर्वोत्तम शौचाचार है, ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट तपस्या है तथा केवल ब्रह्मचर्यसे भी परमपदकी प्राप्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संकल्पाद् दर्शनाच्चैव तद्युक्तवचनादपि ।
संस्पर्शादथ संयोगात् पञ्चधा रक्षितं व्रतम्॥

मूलम्

संकल्पाद् दर्शनाच्चैव तद्युक्तवचनादपि ।
संस्पर्शादथ संयोगात् पञ्चधा रक्षितं व्रतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

संकल्पसे, दृष्टिसे, न्यायोचित वचनसे, स्पर्शसे और संयोगसे—इन पाँच प्रकारोंसे व्रतकी रक्षा होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रतवद्धारितं चैव ब्रह्मचर्यमकल्मषम् ।
नित्यं संरक्षितं तस्य नैष्ठिकानां विधीयते॥

मूलम्

व्रतवद्धारितं चैव ब्रह्मचर्यमकल्मषम् ।
नित्यं संरक्षितं तस्य नैष्ठिकानां विधीयते॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्रतपूर्वक धारण किया हुआ निष्कलंक ब्रह्मचर्य सदा सुरक्षित रहे, ऐसा नैष्ठिक ब्रह्मचारियोंके लिये विधान है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिष्यते गृहस्थानां कालमुद्दिश्य कारणम्॥
जन्मनक्षत्रयोगेषु पुण्यवासेषु पर्वसु ।
देवताधर्मकार्येषु ब्रह्मचर्यव्रतं चरेत् ॥

मूलम्

तदिष्यते गृहस्थानां कालमुद्दिश्य कारणम्॥
जन्मनक्षत्रयोगेषु पुण्यवासेषु पर्वसु ।
देवताधर्मकार्येषु ब्रह्मचर्यव्रतं चरेत् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही ब्रह्मचर्य गृहस्थोंके लिये भी अभीष्ट है, इसमें काल ही कारण है। जन्म-नक्षत्रका योग आनेपर पवित्र स्थानोंमें पर्वोंके दिन तथा देवतासम्बन्धी धर्म-कृत्योंमें गृहस्थोंको ब्रह्मचर्य व्रतका पालन अवश्य करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मचर्यव्रतफलं लभेद् दारव्रती सदा।
शौचमायुस्तथाऽऽरोग्यं लभ्यते ब्रह्मचारिभिः ॥

मूलम्

ब्रह्मचर्यव्रतफलं लभेद् दारव्रती सदा।
शौचमायुस्तथाऽऽरोग्यं लभ्यते ब्रह्मचारिभिः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सदा एकपत्नीव्रती रहता है, वह ब्रह्मचर्य व्रतके पालनका फल पाता है। ब्रह्मचारियोंको पवित्रता, आयु तथा आरोग्यकी प्राप्ति होती है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीर्थचर्याव्रतं देव क्रियते धर्मकांक्षिभिः।
कानि तीर्थानि लोकेषु तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

तीर्थचर्याव्रतं देव क्रियते धर्मकांक्षिभिः।
कानि तीर्थानि लोकेषु तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— देव! बहुत-से धर्माभिलाषी पुरुष तीर्थयात्राका व्रत धारण करते हैं; अतः लोकोंमें कौन-कौनसे तीर्थ हैं? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त ते कथयिष्यामि तीर्थस्नानविधिं प्रिये।
पावनार्थं च शौचार्थं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा॥

मूलम्

हन्त ते कथयिष्यामि तीर्थस्नानविधिं प्रिये।
पावनार्थं च शौचार्थं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— प्रिये! मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें तीर्थस्नानकी विधि बताता हूँ, सुनो। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने दूसरोंको पवित्र करने तथा स्वयं भी पवित्र होनेके लिये इस विधिका निर्माण किया था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यास्तु लोके महानद्यस्ताः सर्वास्तीर्थसंज्ञिकाः।
तासां प्राक्स्रोतसः श्रेष्ठाः सङ्गमश्च परस्परम्॥

मूलम्

यास्तु लोके महानद्यस्ताः सर्वास्तीर्थसंज्ञिकाः।
तासां प्राक्स्रोतसः श्रेष्ठाः सङ्गमश्च परस्परम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोकमें जो बड़ी-बड़ी नदियाँ हैं, उन सबका नाम तीर्थ है। उनमें भी जिनका प्रवाह पूरबकी ओर है, वे श्रेष्ठ हैं और जहाँ दो नदियाँ परस्पर मिलती हैं, वह स्थान भी उत्तम तीर्थ कहा गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासां सागरसंयोगो वरिष्ठश्चेति विद्यते॥
तासामुभयतः कूलं तत्र तत्र मनीषिभिः।
देवैर्वा सेवितं देवि तत् तीर्थं परमं स्मृतम्॥

मूलम्

तासां सागरसंयोगो वरिष्ठश्चेति विद्यते॥
तासामुभयतः कूलं तत्र तत्र मनीषिभिः।
देवैर्वा सेवितं देवि तत् तीर्थं परमं स्मृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उन नदियोंका जहाँ समुद्रके साथ संयोग हुआ है, वह स्थान सबसे श्रेष्ठ तीर्थ बताया गया है। देवि! उन नदियोंके दोनों तटोंपर मनीषी पुरुषोंने जिस स्थानका सेवन किया है, वह उत्कृष्ट तीर्थ माना गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्रश्च महातीर्थं पावनं परमं शुभम्।
तस्य कूलगतास्तीर्था महद्भिश्च समाप्लुताः॥

मूलम्

समुद्रश्च महातीर्थं पावनं परमं शुभम्।
तस्य कूलगतास्तीर्था महद्भिश्च समाप्लुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्र भी परम पावन एवं शुभ महातीर्थ है। उसके तटपर जो तीर्थ हैं, उनमें महात्मा पुरुषोंने गोता लगाया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रोतसां पर्वतानां च जोषितानां महर्षिभिः।
अपि कूलं तटाकं वा सेवितं मुनिभिः प्रिये॥

मूलम्

स्रोतसां पर्वतानां च जोषितानां महर्षिभिः।
अपि कूलं तटाकं वा सेवितं मुनिभिः प्रिये॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! महर्षियोंद्वारा सेवित जो जलस्रोत और पर्वत हैं, उनके तटों और तड़ागोंपर भी बहुतसे मुनि निवास करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् तु तीर्थमिति ज्ञेयं प्रभावात् तु तपस्विनाम्॥
तदाप्रभृति तीर्थत्वं लभेल्लोकहिताय वै।
एवं तीर्थं भवेद् देवि तस्य स्नानविधिं शृणु॥

मूलम्

तत् तु तीर्थमिति ज्ञेयं प्रभावात् तु तपस्विनाम्॥
तदाप्रभृति तीर्थत्वं लभेल्लोकहिताय वै।
एवं तीर्थं भवेद् देवि तस्य स्नानविधिं शृणु॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन तपस्वी मुनियोंके प्रभावसे उस स्थानको तीर्थ समझना चाहिये। ऋषियोंके निवासकालसे ही वह स्थान जगत्‌के हितके लिये तीर्थत्व प्राप्त कर लेता है। देवि! इस प्रकार स्थानविशेष तीर्थ बन जाता है। अब उसकी स्नानविधि सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्मना व्रतभूयिष्ठो गत्वा तीर्थानि कांक्षया।
उपवासत्रयं कुर्यादेकं वा नियमान्वितः॥

मूलम्

जन्मना व्रतभूयिष्ठो गत्वा तीर्थानि कांक्षया।
उपवासत्रयं कुर्यादेकं वा नियमान्वितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जन्मकालसे ही बहुत-से व्रत करता आया हो, वह पुरुष तीर्थोंके सेवनकी इच्छासे यदि वहाँ जाय तो नियमसे रहकर तीन या एक उपवास करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यमासयुते काले पौर्णमास्यां यथाविधि।
बहिरेव शुचिर्भूत्वा तत् तीर्थं मन्मना विशेत्॥

मूलम्

पुण्यमासयुते काले पौर्णमास्यां यथाविधि।
बहिरेव शुचिर्भूत्वा तत् तीर्थं मन्मना विशेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र माससे युक्त समयमें पूर्णिमाको विधिपूर्वक बाहर ही पवित्र हो मुझमें मन लगाकर उस तीर्थके भीतर प्रवेश करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिराप्लुत्स जलाभ्याशे दत्त्वा ब्राह्मणदक्षिणाम्।
अभ्यर्च्य देवायतनं ततः प्रायाद् यथागतम्॥

मूलम्

त्रिराप्लुत्स जलाभ्याशे दत्त्वा ब्राह्मणदक्षिणाम्।
अभ्यर्च्य देवायतनं ततः प्रायाद् यथागतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें तीन बार गोता लगाकर जलके निकट ही ब्राह्मणको दक्षिणा दे, फिर देवालयमें देवताकी पूजा करके जहाँ इच्छा हो, वहाँ जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् विधानं सर्वेषां तीर्थं तीर्थमिति प्रिये।
समीपतीर्थस्नानात् तु दूरतीर्थं सुपूजितम्॥

मूलम्

एतद् विधानं सर्वेषां तीर्थं तीर्थमिति प्रिये।
समीपतीर्थस्नानात् तु दूरतीर्थं सुपूजितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! प्रत्येक तीर्थमें सबके लिये स्नानका यही विधान है। निकटवर्ती तीर्थमें स्नान करनेकी अपेक्षा दूरवर्ती तीर्थमें स्नान आदि करना अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदिप्रभृति शुद्धस्य तीर्थस्नानं शुभं भवेत्।
तपोऽर्थं पापनाशार्थं शौचार्थं तीर्थगाहनम्॥

मूलम्

आदिप्रभृति शुद्धस्य तीर्थस्नानं शुभं भवेत्।
तपोऽर्थं पापनाशार्थं शौचार्थं तीर्थगाहनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पहलेसे ही शुद्ध हो, उसके लिये तीर्थस्थान शुभकारक माना जाता है। तपस्या, पापनाश और बाहर-भीतरकी पवित्रताके लिये तीर्थोंमें स्नान किया जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पुण्येषु तीर्थेषु तीर्थस्नानं शुभं भवेत्।
एतन्नैयमिकं सर्वं सुकृतं कथितं तव॥

मूलम्

एवं पुण्येषु तीर्थेषु तीर्थस्नानं शुभं भवेत्।
एतन्नैयमिकं सर्वं सुकृतं कथितं तव॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पुण्यतीर्थोंमें स्नान करना कल्याणकारी होता है। यह सब नियमपूर्वक सम्पादित होनेवाले पुण्यका तुम्हारे सामने वर्णन किया गया है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकसिद्धं तु यद् द्रव्यं सर्वसाधारणं भवेत्।
तद् ददत् सर्वसामान्यं कथं धर्मं लभेन्नरः॥

मूलम्

लोकसिद्धं तु यद् द्रव्यं सर्वसाधारणं भवेत्।
तद् ददत् सर्वसामान्यं कथं धर्मं लभेन्नरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! जो द्रव्य लोकमें सबको प्राप्त है, जो सर्वसाधारणकी वस्तु है, उस सर्वसामान्य वस्तुका दान करनेवाला मनुष्य कैसे धर्मका भागी होता है?॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोके भूतमयं द्रव्यं सर्वसाधारणं तथा।
तथैव तद् ददन्मर्त्यो लभेत् पुण्यं स तच्छृणु॥

मूलम्

लोके भूतमयं द्रव्यं सर्वसाधारणं तथा।
तथैव तद् ददन्मर्त्यो लभेत् पुण्यं स तच्छृणु॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! लोकमें जो भौतिक द्रव्य हैं, वे सबके लिये साधारण हैं; उन वस्तुओंका दान करनेवाला मनुष्य किस तरह पुण्यका भागी होता है, यह बताता हूँ, सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाता प्रतिग्रहीता च देयं सोपक्रमं तथा।
देशकालौ च यत् त्वेतद् दानं षड्‌गुणमुच्यते॥

मूलम्

दाता प्रतिग्रहीता च देयं सोपक्रमं तथा।
देशकालौ च यत् त्वेतद् दानं षड्‌गुणमुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

दान देनेवाला, उसे ग्रहण करनेवाला, देय वस्तु, उपक्रम (उसे देनेका प्रयत्न), देश और काल—इन छः वस्तुओंके गुणोंसे युक्त दान उत्तम बताया जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां सम्पद्विशेषांश्च कीर्त्यमानान् निबोध मे।
आदिप्रभृति यः शुद्धो मनोवाक्कायकर्मभिः।
सत्यवादी जितक्रोधस्त्वलुब्धो नाभ्यसूयकः ॥
श्रद्धावानास्तिकश्चैव एवं दाता प्रशस्यते॥

मूलम्

तेषां सम्पद्विशेषांश्च कीर्त्यमानान् निबोध मे।
आदिप्रभृति यः शुद्धो मनोवाक्कायकर्मभिः।
सत्यवादी जितक्रोधस्त्वलुब्धो नाभ्यसूयकः ॥
श्रद्धावानास्तिकश्चैव एवं दाता प्रशस्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं इन छहोंके विशेष गुणोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। जो आदिकालसे ही मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा शुद्ध हो, सत्यवादी, क्रोधविजयी, लोभहीन, अदोषदर्शी, श्रद्धालु और आस्तिक हो, ऐसा दाता उत्तम बताया गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुद्धो दान्तो जितक्रोधस्तथादीनकुलोद्भवः ।
श्रुतचारित्रसम्पन्नस्तथा बहुकलत्रवान् ॥
पञ्चयज्ञपरो नित्यं निर्विकारशरीरवान् ।
एतान् पात्रगुणान् विद्धि तादृक् पात्रं प्रशस्यते॥

मूलम्

शुद्धो दान्तो जितक्रोधस्तथादीनकुलोद्भवः ।
श्रुतचारित्रसम्पन्नस्तथा बहुकलत्रवान् ॥
पञ्चयज्ञपरो नित्यं निर्विकारशरीरवान् ।
एतान् पात्रगुणान् विद्धि तादृक् पात्रं प्रशस्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शुद्ध, जितेन्द्रिय, क्रोधको जीतनेवाला, उदार एवं उच्च कुलमें उत्पन्न, शास्त्रज्ञान एवं सदाचारसे सम्पन्न, बहुतसे स्त्री-पुत्रोंसे संयुक्त, पंचयज्ञपरायण तथा सदा नीरोग शरीरसे युक्त हो, वही दान लेनेका उत्तम पात्र है। उपर्युक्त गुणोंको ही दानपात्रके उत्तम गुण समझो। ऐसे पात्रकी ही प्रशंसा की जाती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृदेवाग्निकार्येषु तस्य दत्तं महत् फलम्।
यद् यदर्हति यो लोके पात्रं तस्य भवेच्च सः॥

मूलम्

पितृदेवाग्निकार्येषु तस्य दत्तं महत् फलम्।
यद् यदर्हति यो लोके पात्रं तस्य भवेच्च सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, पितर और अग्निहोत्रसम्बन्धी कार्योंमें उसको दिये हुए दानका महान् फल होता है। लोकमें जो जिस वस्तुके योग्य हो, वही उस वस्तुको पानेका पात्र होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुच्येदापदमापन्नो येन पात्रं तदस्य तु।
अन्नस्य क्षुधितं पात्रं तृषितं तु जलस्य वै॥
एवं पात्रेषु नानात्वमिष्यते पुरुषं प्रति।

मूलम्

मुच्येदापदमापन्नो येन पात्रं तदस्य तु।
अन्नस्य क्षुधितं पात्रं तृषितं तु जलस्य वै॥
एवं पात्रेषु नानात्वमिष्यते पुरुषं प्रति।

अनुवाद (हिन्दी)

जिस वस्तुके पानेसे आपत्तिमें पड़ा हुआ मनुष्य आपत्तिसे छूट जाय, उस वस्तुका वही पात्र है। भूखा मनुष्य अन्नका और प्यासा जलका पात्र है। इस प्रकार प्रत्येक पुरुषके लिये दानके भिन्न-भिन्न पात्र होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जारश्चोरश्च षण्ढश्च हिंस्रः समयभेदकः।
लोकविघ्नकराश्चान्ये वर्जिताः सर्वशः प्रिये॥

मूलम्

जारश्चोरश्च षण्ढश्च हिंस्रः समयभेदकः।
लोकविघ्नकराश्चान्ये वर्जिताः सर्वशः प्रिये॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! चोर, व्यभिचारी, नपुंसक, हिंसक, मर्यादा-भेदक और लोगोंके कार्यमें विघ्न डालनेवाले अन्यान्य पुरुष सब प्रकारसे दानमें वर्जित हैं अर्थात् उन्हें दान नहीं देना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परोपघाताद् यद् द्रव्यं चौर्याद् वा लभ्यते नृभिः।
निर्दयाल्लभ्यते यच्च धूर्तभावेन वै तथा॥
अधर्मादर्थमोहाद् वा बहूनामुपरोधनात् ।
लभ्यते यद् धनं देवि तदत्यन्तविगर्हितम्॥

मूलम्

परोपघाताद् यद् द्रव्यं चौर्याद् वा लभ्यते नृभिः।
निर्दयाल्लभ्यते यच्च धूर्तभावेन वै तथा॥
अधर्मादर्थमोहाद् वा बहूनामुपरोधनात् ।
लभ्यते यद् धनं देवि तदत्यन्तविगर्हितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! दूसरोंका वध या चोरी करनेसे मनुष्योंको जो धन मिलता है, निर्दयता तथा धूर्तता करनेसे जो प्राप्त होता है, अधर्मसे, धनविषयक मोहसे तथा बहुत-से प्राणियोंकी जीविकाका अवरोध करनेसे जो धन प्राप्त होता है, वह अत्यन्त निन्दित है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तादृशेन कृतं धर्मं निष्फलं विद्धि भामिनि।
तस्मान्न्यायागतेनैव दातव्यं शुभमिच्छता ॥

मूलम्

तादृशेन कृतं धर्मं निष्फलं विद्धि भामिनि।
तस्मान्न्यायागतेनैव दातव्यं शुभमिच्छता ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भामिनि! ऐसे धनसे किये हुए धर्मको निष्फल समझो। अतः शुभकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको न्यायतः प्राप्त हुए धनके द्वारा ही दान करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यदात्मप्रियं नित्यं तत् तद् देयमिति स्थितिः।
उपक्रममिमं विद्धि दातॄणां परमं हितम्॥

मूलम्

यद् यदात्मप्रियं नित्यं तत् तद् देयमिति स्थितिः।
उपक्रममिमं विद्धि दातॄणां परमं हितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो-जो अपनेको प्रिय लगे, उसी-उसी वस्तुका सदा दान करना चाहिये; यही मर्यादा है। इस प्रयत्न या चेष्टाको ही उपक्रम समझो। यह दाताओंके लिये परम हितकारक है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पात्रभूतं तु दूरस्थमभिगम्य प्रसाद्य च।
दाता दानं तथा दद्याद् यथा तुष्येत तेन सः॥

मूलम्

पात्रभूतं तु दूरस्थमभिगम्य प्रसाद्य च।
दाता दानं तथा दद्याद् यथा तुष्येत तेन सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दानका सुयोग्य पात्र ब्राह्मण यदि दूरका निवासी हो तो उसके पास जाकर उसे प्रसन्न करके दाता इस प्रकार दान दे, जिससे वह संतुष्ट हो जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष दानविधिः श्रेष्ठः समाहूय तु मध्यमः॥
पूर्वं च पात्रतां ज्ञात्वा समाहूय निवेद्य च।
शौचाचमनसंयुक्तं दातव्यं श्रद्धया प्रिये॥

मूलम्

एष दानविधिः श्रेष्ठः समाहूय तु मध्यमः॥
पूर्वं च पात्रतां ज्ञात्वा समाहूय निवेद्य च।
शौचाचमनसंयुक्तं दातव्यं श्रद्धया प्रिये॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह दानकी श्रेष्ठ विधि है। दानपात्रको जो अपने घर बुलाकर दान दिया जाता है, वह मध्यम श्रेणीका दान है। प्रिये! पहले पात्रताका ज्ञान प्राप्त करके फिर उस सुपात्र ब्राह्मणको घर बुलावे। उसके सामने अपना दानविषयक विचार प्रस्तुत करे। पश्चात् स्वयं ही स्नान आदिसे पवित्र हो आचमन करके श्रद्धापूर्वक अभीष्ट वस्तुका दान करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याचितॄणां तु परममाभिमुख्यं पुरस्कृतम्।
सम्मानपूर्वं संग्राह्यं दातव्यं देशकालयोः॥
अपात्रेभ्योऽपि चान्येभ्यो दातव्यं भूतिमिच्छता॥

मूलम्

याचितॄणां तु परममाभिमुख्यं पुरस्कृतम्।
सम्मानपूर्वं संग्राह्यं दातव्यं देशकालयोः॥
अपात्रेभ्योऽपि चान्येभ्यो दातव्यं भूतिमिच्छता॥

अनुवाद (हिन्दी)

याचकोंको सामने पाकर उन्हें सम्मानपूर्वक अपनाना और देश-कालके अनुसार दान देना चाहिये। ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको चाहिये कि वे दूसरे अपात्र पुरुषोंको भी आवश्यकता होनेपर अन्न-वस्त्र आदिका दान करें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पात्राणि सम्परीक्ष्यैव दात्रा वै दानमात्रया।
अतिशक्त्या परं दानं यथाशक्त्या तु मध्यमम्॥
तृतीयं चापरं दानं नानुरूपमिवात्मनः॥

मूलम्

पात्राणि सम्परीक्ष्यैव दात्रा वै दानमात्रया।
अतिशक्त्या परं दानं यथाशक्त्या तु मध्यमम्॥
तृतीयं चापरं दानं नानुरूपमिवात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पात्रोंकी परीक्षा करके दाता यदि दानकी मात्रा अपनी शक्तिसे भी अधिक करे तो वह उत्तम दान है। यथाशक्ति किया हुआ दान मध्यम है और तीसरा अधम श्रेणीका दान है, जो अपनी शक्तिके अनुरूप न हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा सम्भावितं पूर्वं दातव्यं तत् तथैव च।
पुण्यक्षेत्रेषु यद् दत्तं पुण्यकालेषु वा तथा॥
तच्छोभनतरं विद्धि गौरवाद् देशकालयोः।

मूलम्

यथा सम्भावितं पूर्वं दातव्यं तत् तथैव च।
पुण्यक्षेत्रेषु यद् दत्तं पुण्यकालेषु वा तथा॥
तच्छोभनतरं विद्धि गौरवाद् देशकालयोः।

अनुवाद (हिन्दी)

पहले जैसा बताया गया है, उसी प्रकार दान देना चाहिये। पुण्य क्षेत्रोंमें तथा पुण्यके अवसरोंपर जो कुछ दिया जाता है, उसे देश और कालके गौरवसे अत्यन्त शुभकारक समझो॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्च पुण्यतमो देशस्तथा कालश्च शंस मे॥

मूलम्

यश्च पुण्यतमो देशस्तथा कालश्च शंस मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— प्रभो! पवित्रतम देश और काल क्या है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरुक्षेत्रं महानद्यो यच्च देवर्षिसेवितम्।
गिरिर्वरश्च तीर्थानि देशभागेषु पूजितः॥
ग्रहीतुमीप्सते यत्र तत्र दत्तं महाफलम्॥

मूलम्

कुरुक्षेत्रं महानद्यो यच्च देवर्षिसेवितम्।
गिरिर्वरश्च तीर्थानि देशभागेषु पूजितः॥
ग्रहीतुमीप्सते यत्र तत्र दत्तं महाफलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! कुरुक्षेत्र, गङ्गा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ, देवताओं तथा ऋषियोंद्वारा सेवित स्थान एवं श्रेष्ठ पर्वत—ये सब-के-सब तीर्थ हैं। जहाँ देशके सभी भागोंमें पूजित श्रेष्ठ पुरुष दान ग्रहण करना चाहता हो, वहाँ दिये हुए दानका महान् फल होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरद्वसन्तकालश्च पुण्यमासस्तथैव च ।
शुक्लपक्षश्च पक्षाणां पौर्णमासी च पर्वसु॥
पितृदैवतनक्षत्रनिर्मलो दिवसस्तथा ।
तच्छोभनतरं विद्धि चन्द्रसूर्यग्रहे तथा॥

मूलम्

शरद्वसन्तकालश्च पुण्यमासस्तथैव च ।
शुक्लपक्षश्च पक्षाणां पौर्णमासी च पर्वसु॥
पितृदैवतनक्षत्रनिर्मलो दिवसस्तथा ।
तच्छोभनतरं विद्धि चन्द्रसूर्यग्रहे तथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरद् और वसन्तका समय, पवित्र मास, पक्षोंमें शुक्लपक्ष, पर्वोंमें पौर्णमासी, मघानक्षत्रयुक्त निर्मल दिवस, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण—इन सबको अत्यन्त शुभकारक काल समझो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाता देयं च पात्रं च उपक्रमयुता क्रिया।
देशकालं तथेत्येषां सम्पच्छुद्धिः प्रकीर्तिता॥

मूलम्

दाता देयं च पात्रं च उपक्रमयुता क्रिया।
देशकालं तथेत्येषां सम्पच्छुद्धिः प्रकीर्तिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

दाता हो, देनेकी वस्तु हो, दान लेनेवाला पात्र हो, उपक्रमयुक्त क्रिया हो और उत्तम देश-काल हो—इन सबका सम्पन्न होना शुद्धि कही गयी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदैव युगपत् सम्पत् तत्र दानं महद् भवेत्॥
अत्यल्पमपि यद् दानमेभिः षड्भिर्गुणैर्युतम्।
भूत्वानन्तं नयेत् स्वर्गं दातारं दोषवर्जितम्॥

मूलम्

यदैव युगपत् सम्पत् तत्र दानं महद् भवेत्॥
अत्यल्पमपि यद् दानमेभिः षड्भिर्गुणैर्युतम्।
भूत्वानन्तं नयेत् स्वर्गं दातारं दोषवर्जितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब कभी एक समय इन सबका संयोग जुट जाय तभी दान देना महान् फलदायक होता है। इन छः गुणोंसे युक्त जो दान है, वह अत्यन्त अल्प होनेपर भी अनन्त होकर निर्दोष दाताको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंगुणयुतं दानं दत्तं चाफलतां व्रजेत्।

मूलम्

एवंगुणयुतं दानं दत्तं चाफलतां व्रजेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— प्रभो! इन गुणोंसे युक्त दान दिया गया हो तो क्या वह भी निष्फल हो सकता है?॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदप्यस्ति महाभागे नराणां भावदोषतः॥
कृत्वा धर्मं तु विधिवत् पश्चात्तापं करोति चेत्।
श्लाघया वा यदि ब्रूयाद् वृथा संसदि यत्‌ कृतम्॥

मूलम्

तदप्यस्ति महाभागे नराणां भावदोषतः॥
कृत्वा धर्मं तु विधिवत् पश्चात्तापं करोति चेत्।
श्लाघया वा यदि ब्रूयाद् वृथा संसदि यत्‌ कृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— महाभागे! मनुष्योंके भाव-दोषसे ऐसा भी होता है। यदि कोई विधिपूर्वक धर्मका सम्पादन करके फिर उसके लिये पश्चात्ताप करने लगता है अथवा भरी सभामें उसकी प्रशंसा करते हुए बड़ी-बड़ी बातें बनाने लगता है, उसका वह धर्म व्यर्थ हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते दोषा विवर्ज्याश्च दातृभिः पुण्यकांक्षिभिः॥
सनातनमिदं वृत्तं सद्भिराचरितं तथा।

मूलम्

एते दोषा विवर्ज्याश्च दातृभिः पुण्यकांक्षिभिः॥
सनातनमिदं वृत्तं सद्भिराचरितं तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

पुण्यकी अभिलाषा रखनेवाले दाताओंको चाहिये कि वे इन दोषोंको त्याग दें। यह दानसम्बन्धी आचार सनातन है। सत्पुरुषोंने सदा इसका आचरण किया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुग्रहात् परेषां तु गृहस्थानामृणं हि तत्॥
इत्येवं मन आविश्य दातव्यं सततं बुधैः॥

मूलम्

अनुग्रहात् परेषां तु गृहस्थानामृणं हि तत्॥
इत्येवं मन आविश्य दातव्यं सततं बुधैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंपर अनुग्रह करनेके लिये दान किया जाता है। गृहस्थोंपर तो दूसरे प्राणियोंका ऋण होता है, जो दान करनेसे उतरता है, ऐसा मनमें समझकर विद्वान् पुरुष सदा दान करता रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेव कृतं नित्यं सुकृतं तद् भवेन्महत्।
सर्वसाधारणं द्रव्यमेवं दत्त्वा महत् फलम्॥

मूलम्

एवमेव कृतं नित्यं सुकृतं तद् भवेन्महत्।
सर्वसाधारणं द्रव्यमेवं दत्त्वा महत् फलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह दिया हुआ सुकृत सदा महान् होता है। सर्वसाधारण द्रव्यका भी इसी तरह दान करनेसे महान् फलकी प्राप्ति होती है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् कानि देयानि धर्ममुद्दिश्य मानवैः।
तान्यहं श्रोतुमिच्छामि तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

भगवन् कानि देयानि धर्ममुद्दिश्य मानवैः।
तान्यहं श्रोतुमिच्छामि तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! मनुष्योंको धर्मके उद्देश्यसे किन-किन वस्तुओंका दान करना चाहिये? यह मैं सुनना चाहती हूँ। आप मुझे बतानेकी कृपा करें॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजस्रं धर्मकार्यं च तथा नैमित्तिकं प्रिये।
अन्नं प्रतिश्रयो दीपः पानीयं तृणमिन्धनम्॥
स्नेहो गन्धश्च भैषज्यं तिलाश्च लवणं तथा।
एवमादि तथान्यच्च दानमाजस्रमुच्यते ॥

मूलम्

अजस्रं धर्मकार्यं च तथा नैमित्तिकं प्रिये।
अन्नं प्रतिश्रयो दीपः पानीयं तृणमिन्धनम्॥
स्नेहो गन्धश्च भैषज्यं तिलाश्च लवणं तथा।
एवमादि तथान्यच्च दानमाजस्रमुच्यते ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— प्रिये! निरन्तर धर्मकार्य तथा नैमित्तिक कर्म करने चाहिये। अन्न, निवासस्थान, दीप, जल, तृण, ईंधन, तेल, गन्ध, ओषधि, तिल और नमक—ये तथा और भी बहुत-सी वस्तुएँ निरन्तर दान करनेकी वस्तुएँ बतायी गयी हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नं प्राणो मनुष्याणामन्नदः प्राणदो भवेत्।
तस्मादन्नं विशेषेण दातुमिच्छति मानवः॥

मूलम्

अन्नं प्राणो मनुष्याणामन्नदः प्राणदो भवेत्।
तस्मादन्नं विशेषेण दातुमिच्छति मानवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्न मनुष्योंका प्राण है। जो अन्न दान करता है, वह प्राणदान करनेवाला होता है। अतः मनुष्य विशेषरूपसे अन्नका दान करना चाहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणायाभिरूपाय यो दद्यादन्नमीप्सितम् ।
निदधाति निधिश्रेष्ठं सोऽनन्तं पारलौकिकम्॥

मूलम्

ब्राह्मणायाभिरूपाय यो दद्यादन्नमीप्सितम् ।
निदधाति निधिश्रेष्ठं सोऽनन्तं पारलौकिकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनुरूप ब्राह्मणको जो अभीष्ट अन्न प्रदान करता है, वह परलोकमें अपने लिये अनन्त एवं उत्तम निधिकी स्थापना करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रान्तमध्वपरिश्रान्तमतिथिं गृहमागतम् ।
अर्चयीत प्रयत्नेन स हि यज्ञो वरप्रदः॥

मूलम्

श्रान्तमध्वपरिश्रान्तमतिथिं गृहमागतम् ।
अर्चयीत प्रयत्नेन स हि यज्ञो वरप्रदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रास्तेका थका-माँदा अतिथि यदि घरपर आ जाय तो यत्नपूर्वक उसका आदर-सत्कार करे; क्योंकि वह अतिथि-सत्कार मनोवांछित फल देनेवाला यज्ञ है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितरस्तस्य नन्दन्ति सुवृष्ट्‌या कर्षका इव।
पुत्रो यस्य तु पौत्रो वा श्रोत्रियं भोजयिष्यति॥

मूलम्

पितरस्तस्य नन्दन्ति सुवृष्ट्‌या कर्षका इव।
पुत्रो यस्य तु पौत्रो वा श्रोत्रियं भोजयिष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका पुत्र अथवा पौत्र किसी श्रोत्रिय ब्राह्मणको भोजन कराता है, उसके पितर उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं, जैसे अच्छी वर्षा होनेसे किसान॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चाण्डालशूद्राणामन्नदानं न गर्ह्यते।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन दद्यादन्नममत्सरः ॥

मूलम्

अपि चाण्डालशूद्राणामन्नदानं न गर्ह्यते।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन दद्यादन्नममत्सरः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चाण्डाल और शूद्रोंको भी दिया हुआ अन्नदान निन्दित नहीं होता। अतः ईर्ष्या छोड़कर सब प्रकारके प्रयत्नद्वारा अन्नदान करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नदानाच्च लोकांस्तान् सम्प्रवक्ष्याम्यनिन्दिते ।
भवनानि प्रकाशन्ते दिवि तेषां महात्मनाम्॥

मूलम्

अन्नदानाच्च लोकांस्तान् सम्प्रवक्ष्याम्यनिन्दिते ।
भवनानि प्रकाशन्ते दिवि तेषां महात्मनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनिन्दिते! अन्नदानसे जो लोक प्राप्त होते हैं उनका वर्णन करता हूँ। उन महामना दानी पुरुषोंको मिले हुए भवन देवलोकमें प्रकाशित होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेकशतभौमानि सान्तर्जलवनानि च ।
वैडूर्यार्चिःप्रकाशानि हेमरूप्यनिभानि च ॥
नानारूपाणि संस्थानां नानारत्नमयानि च।
चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किंकिणीजालवन्ति च ॥
तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च।
यथेष्टभक्ष्यभोज्यानि शयनासनवन्ति च ॥
सर्वकामफलाश्चात्र वृक्षा भवनसंस्थिताः ।
वाप्यो बह्व्यश्च कूपाश्च दीर्घिकाश्च सहस्रशः॥

मूलम्

अनेकशतभौमानि सान्तर्जलवनानि च ।
वैडूर्यार्चिःप्रकाशानि हेमरूप्यनिभानि च ॥
नानारूपाणि संस्थानां नानारत्नमयानि च।
चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किंकिणीजालवन्ति च ॥
तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च।
यथेष्टभक्ष्यभोज्यानि शयनासनवन्ति च ॥
सर्वकामफलाश्चात्र वृक्षा भवनसंस्थिताः ।
वाप्यो बह्व्यश्च कूपाश्च दीर्घिकाश्च सहस्रशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन भव्य भवनोंमें सैकड़ों तल्ले हैं। उनके भीतर जल और वन हैं। वे वैदूर्यमणिके तेजसे प्रकाशित होते हैं। उनमें सोने और चाँदी-जैसी चमक है। उन गृहोंके अनेक रूप हैं। नाना प्रकारके रत्नोंसे उनका निर्माण हुआ है। वे चन्द्रमण्डलके समान उज्ज्वल और क्षुद्र घण्टिकाओंकी झालरोंसे सुशोभित हैं। किन्हीं-किन्हींकी कान्ति प्रातःकालके सूर्यकी भाँति प्रकाशित होती है। उन महात्माओंके वे भवन स्थावर भी हैं और जंगम भी हैं। उनमें इच्छानुसार भक्ष्य-भोज्य पदार्थ उपलब्ध होते हैं। उत्तम शय्या और आसन बिछे रहते हैं। वहाँ सम्पूर्ण मनोवांछित फल देनेवाले कल्पवृक्ष प्रत्येक घरमें विराजमान हैं। वहाँ बहुत-सी बावड़ियाँ, कुएँ और सहस्रों जलाशय हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरुजानि विशोकानि नित्यानि विविधानि च।
भवनानि विचित्राणि प्राणदानां त्रिविष्टपे॥

मूलम्

अरुजानि विशोकानि नित्यानि विविधानि च।
भवनानि विचित्राणि प्राणदानां त्रिविष्टपे॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणस्वरूप अन्न-दान करनेवाले लोगोंको स्वर्गमें जो भाँति-भाँतिके विचित्र भवन प्राप्त होते हैं, वे रोग-शोकसे रहित और नित्य (चिरस्थायी) हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विवस्वतश्च सोमस्य ब्रह्मणश्च प्रजापतेः।
विशन्ति लोकांस्ते नित्यं जगत्यन्नोदकप्रदाः॥

मूलम्

विवस्वतश्च सोमस्य ब्रह्मणश्च प्रजापतेः।
विशन्ति लोकांस्ते नित्यं जगत्यन्नोदकप्रदाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत्‌में सदा अन्न और जलका दान करनेवाले मनुष्य सूर्य, चन्द्रमा तथा प्रजापति ब्रह्माजीके लोकोंमें जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र ते सुचिरं कालं विहृत्याप्सरसां गणैः।
जायन्ते मानुषे लोके सर्वकल्याणसंयुताः॥

मूलम्

तत्र ते सुचिरं कालं विहृत्याप्सरसां गणैः।
जायन्ते मानुषे लोके सर्वकल्याणसंयुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे वहाँ चिरकालतक अप्सराओंके साथ विहार करके पुनः मनुष्यलोकमें जन्म लेते और समस्त कल्याणकारी गुणोंसे संयुक्त होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलसंहननोपेता नीरोगाश्चिरजीविनः ।
कुलीना मतिमन्तश्च भवन्त्यन्नप्रदा नराः॥

मूलम्

बलसंहननोपेता नीरोगाश्चिरजीविनः ।
कुलीना मतिमन्तश्च भवन्त्यन्नप्रदा नराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सबल शरीरसे सम्पन्न, नीरोग, चिरजीवी, कुलीन, बुद्धिमान् तथा अन्नदाता होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादन्नं विशेषेण दातव्यं भूतिमिच्छता।
सर्वकालं च सर्वस्य सर्वत्र च सदैव च॥

मूलम्

तस्मादन्नं विशेषेण दातव्यं भूतिमिच्छता।
सर्वकालं च सर्वस्य सर्वत्र च सदैव च॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको सदा, सर्वत्र, सबके लिये, सब समय विशेषरूपसे अन्नदान करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णदानं परमं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्।
तस्मात् ते वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥
अपि पापकृतं क्रूरं दत्तं रुक्मं प्रकाशयेत्॥

मूलम्

सुवर्णदानं परमं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्।
तस्मात् ते वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥
अपि पापकृतं क्रूरं दत्तं रुक्मं प्रकाशयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णदान परम उत्तम, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला और महान् कल्याणकारी है। इसलिये तुमसे क्रमशः उसीका यथावत्‌रूपसे वर्णन करूँगा। दिया हुआ सुवर्णका दान क्रूर और पापाचारीको भी प्रकाशित कर देता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णं ये प्रयच्छन्ति श्रोत्रियेभ्यः सुचेतसः।
देवतास्ते तर्पयन्ति समस्ता इति वैदिकम्॥

मूलम्

सुवर्णं ये प्रयच्छन्ति श्रोत्रियेभ्यः सुचेतसः।
देवतास्ते तर्पयन्ति समस्ता इति वैदिकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शुद्ध हृदयवाले मनुष्य श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको सुवर्णका दान करते हैं, वे समस्त देवताओंको तृप्त कर देते हैं। यह वेदका मत है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निर्हि देवताः सर्वाः सुवर्णं चाग्निरुच्यते।
तस्मात् सुवर्णदानेन तृप्ताः स्युः सर्वदेवताः॥

मूलम्

अग्निर्हि देवताः सर्वाः सुवर्णं चाग्निरुच्यते।
तस्मात् सुवर्णदानेन तृप्ताः स्युः सर्वदेवताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्नि सम्पूर्ण देवताओंके स्वरूप हैं और सुवर्णको भी अग्निरूप ही बताया जाता है। इसलिये सुवर्णके दानसे समस्त देवता तृप्त होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्न्यभावे तु कुर्वन्ति वह्निस्थानेषु काञ्चनम्।
तस्मात् सुवर्णदातारः सर्वान् कामानवाप्नुयुः॥

मूलम्

अग्न्यभावे तु कुर्वन्ति वह्निस्थानेषु काञ्चनम्।
तस्मात् सुवर्णदातारः सर्वान् कामानवाप्नुयुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निके अभावमें उसकी जगह सुवर्णको स्थापित करते हैं। अतः सुवर्णका दान करनेवाले पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्यस्य हुताशस्य लोकान् नानाविधान् शुभान्।
काञ्चनं सम्प्रदायाशु प्रविशन्ति न संशयः॥

मूलम्

आदित्यस्य हुताशस्य लोकान् नानाविधान् शुभान्।
काञ्चनं सम्प्रदायाशु प्रविशन्ति न संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णका दान करके मनुष्य शीघ्र ही सूर्य एवं अग्निके नाना प्रकारके मङ्गलकारी लोकोंमें प्रवेश करते हैं, इसमें संशय नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलंकारं कृतं चापि केवलात् प्रविशिष्यते।
सौवर्णैर्ब्राह्मणं काले तैरलंकृत्य भोजयेत्॥
य एतत् परमं दानं दत्त्वा सौवर्णमद्भुतम्।
द्युतिं मेधां वपुः कीर्तिं पुनर्जाते लभेद् ध्रुवम्॥

मूलम्

अलंकारं कृतं चापि केवलात् प्रविशिष्यते।
सौवर्णैर्ब्राह्मणं काले तैरलंकृत्य भोजयेत्॥
य एतत् परमं दानं दत्त्वा सौवर्णमद्भुतम्।
द्युतिं मेधां वपुः कीर्तिं पुनर्जाते लभेद् ध्रुवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल सुवर्णकी अपेक्षा उसका आभूषण बनवाकर दान देना श्रेष्ठ माना गया है। अतः दानकालमें ब्राह्मणको सोनेके आभूषणोंसे विभूषित करके भोजन करावे। जो यह अद्‌भुत एवं उत्कृष्ट सुवर्ण-दान करता है, वह पुनर्जन्म लेनेपर निश्चय ही सुन्दर शरीर, कान्ति, बुद्धि और कीर्ति पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् स्वशक्त्या दातव्यं काञ्चनं भुवि मानवैः।
न ह्येतस्मात् परं लोकेष्वन्यत् पापात् प्रमुच्यते॥

मूलम्

तस्मात् स्वशक्त्या दातव्यं काञ्चनं भुवि मानवैः।
न ह्येतस्मात् परं लोकेष्वन्यत् पापात् प्रमुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मनुष्योंको अपनी शक्तिके अनुसार पृथ्वीपर सुवर्णदान अवश्य करना चाहिये। संसारमें इससे बढ़कर कोई दान नहीं है। सुवर्णदान करके मनुष्य पापसे मुक्त हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि गवां दानमनिन्दिते।
न हि गोभ्यः परं दानं विद्यते जगति प्रिये॥

मूलम्

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि गवां दानमनिन्दिते।
न हि गोभ्यः परं दानं विद्यते जगति प्रिये॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनिन्दिते! इसके बाद मैं गोदानका वर्णन करूँगा। प्रिये! इस संसारमें गौओंके दानसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकान्‌ सिसृक्षुणा पूर्वं गावः सृष्टाः स्वयम्भुवा।
वृत्त्यर्थं सर्वभूतानां तस्मात् ता मातरः स्मृताः॥

मूलम्

लोकान्‌ सिसृक्षुणा पूर्वं गावः सृष्टाः स्वयम्भुवा।
वृत्त्यर्थं सर्वभूतानां तस्मात् ता मातरः स्मृताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें लोकसृष्टिकी इच्छावाले स्वयम्भू ब्रह्माजीने समस्त प्राणियोंकी जीवन-वृत्तिके लिये गौओंकी सृष्टि की थी। इसलिये वे सबकी माताएँ मानी गयी हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकज्येष्ठा लोकवृत्त्यां प्रवृत्ता
मय्यायत्ताः सोमनिष्यन्दभूताः ।
सौम्याः पुण्याः कामदाः प्राणदाश्च
तस्मात् पूज्याः पुण्यकामैर्मनुष्यैः ॥

मूलम्

लोकज्येष्ठा लोकवृत्त्यां प्रवृत्ता
मय्यायत्ताः सोमनिष्यन्दभूताः ।
सौम्याः पुण्याः कामदाः प्राणदाश्च
तस्मात् पूज्याः पुण्यकामैर्मनुष्यैः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौएँ सम्पूर्ण जगत्‌में ज्येष्ठ हैं। वे लोगोंको जीविका देनेके कार्यमें प्रवृत्त हुई हैं। मेरे अधीन हैं और चन्द्रमाके अमृतमय द्रवसे प्रकट हुई हैं। वे सौम्य, पुण्यमयी, कामनाओंकी पूर्ति करनेवाली तथा प्राणदायिनी हैं। इसलिये पुण्याभिलाषी मनुष्योंके लिये पूजनीय हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धेनुं दत्त्वा निभृतां सुशीलां
कल्याणवत्सां च पयस्विनीं च।
यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या-
स्तावत्समाः स्वर्गफलानि भुङ्क्ते ॥

मूलम्

धेनुं दत्त्वा निभृतां सुशीलां
कल्याणवत्सां च पयस्विनीं च।
यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या-
स्तावत्समाः स्वर्गफलानि भुङ्क्ते ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो हृष्ट-पुष्ट, अच्छे स्वभाववाली, उत्तम बछड़ेसे युक्त एवं दूध देनेवाली गायका दान करता है, वह उस गायके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक स्वर्गीय फल भोगता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयच्छते यः कपिलां सचैलां
सकांस्यदोहां कनकाग्र्यशृङ्गीम् ।
पुत्रांश्च पौत्रांश्च कुलं च सर्व-
मासप्तमं तारयते परत्र ॥

मूलम्

प्रयच्छते यः कपिलां सचैलां
सकांस्यदोहां कनकाग्र्यशृङ्गीम् ।
पुत्रांश्च पौत्रांश्च कुलं च सर्व-
मासप्तमं तारयते परत्र ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो काँसके दुग्धपात्र और सोनेसे मढ़े हुए सींगोंवाली कपिला गौका वस्त्रसहित दान करता है, वह अपने पुत्रों, पौत्रों तथा सातवीं पीढ़ीतकके समस्त कुलका परलोकमें उद्धार कर देता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तर्जाताः क्रीतका द्यूतलब्धाः
प्राणक्रीताः सोदकाश्चौजसा वा ।
कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोषणार्थागताश्च
द्वारैरेतैस्ताः प्रलब्धाः प्रदद्यात् ॥

मूलम्

अन्तर्जाताः क्रीतका द्यूतलब्धाः
प्राणक्रीताः सोदकाश्चौजसा वा ।
कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोषणार्थागताश्च
द्वारैरेतैस्ताः प्रलब्धाः प्रदद्यात् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने ही यहाँ पैदा हुई हों, खरीदकर लायी गयी हों, जुएमें जीत ली गयी हों, बदलेमें दूसरा कोई प्राणी देकर खरीदी गयी हों, जल हाथमें लेकर संकल्पपूर्वक दी गयी हों, अथवा युद्धमें बलपूर्वक जीती गयी हों, संकटसे छुड़ाकर लायी गयी हों, या पालन-पोषणके लिये आयी हों—इन द्वारोंसे प्राप्त हुई गौओंका दान करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृशाय बहुपुत्राय श्रोत्रियायाहिताग्नये ।
प्रदाय नीरुजां धेनुं लोकान् प्राप्नोत्यनुत्तमान्॥

मूलम्

कृशाय बहुपुत्राय श्रोत्रियायाहिताग्नये ।
प्रदाय नीरुजां धेनुं लोकान् प्राप्नोत्यनुत्तमान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीविकाके बिना दुर्बल, अनेक पुत्रवाले, अग्निहोत्री, श्रोत्रिय ब्राह्मणको दूध देनेवाली नीरोग गायका दान करके दाता सर्वोत्तम लोकोंको प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसस्य कृतघ्नस्य लुब्धस्यानृतवादिनः ।
हव्यकव्यव्यपेतस्य न दद्याद् गाः कथंचन॥

मूलम्

नृशंसस्य कृतघ्नस्य लुब्धस्यानृतवादिनः ।
हव्यकव्यव्यपेतस्य न दद्याद् गाः कथंचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो क्रूर, कृतघ्न, लोभी, असत्यवादी और हव्य-कव्यसे दूर रहनेवाला हो, ऐसे मनुष्यको किसी तरह गौएँ नहीं देनी चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समानवत्सां यो दद्याद् धेनुं विप्रे पयस्विनीम्।
सुवृत्तां वस्त्रसंछन्नां सोमलोके महीयते॥

मूलम्

समानवत्सां यो दद्याद् धेनुं विप्रे पयस्विनीम्।
सुवृत्तां वस्त्रसंछन्नां सोमलोके महीयते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य समान रंगके बछड़ेवाली, सीधी-सादी एवं दूध देनेवाली गायको वस्त्र ओढ़ाकर ब्राह्मणको दान करता है, वह सोमलोकमें प्रतिष्ठित होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समानवत्सां यो दद्यात्‌ कृष्णां धेनुं पयस्विनीम्।
सुवृत्तां वस्त्रसंछन्नां लोकान् प्राप्नोत्यपाम्पतेः॥

मूलम्

समानवत्सां यो दद्यात्‌ कृष्णां धेनुं पयस्विनीम्।
सुवृत्तां वस्त्रसंछन्नां लोकान् प्राप्नोत्यपाम्पतेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो समान रंगके बछड़ेवाली, सीधी-सादी एवं दूध देनेवाली काली गौको वस्त्र ओढ़ाकर उसका ब्राह्मणको दान करता है, वह जलके स्वामी वरुणके लोकोंमें जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यवर्णां पिङ्गाक्षीं सवत्सां कांस्यदोहनाम्।
प्रदाय वस्त्रसंछन्नां यान्ति कौबेर सद्मनः॥

मूलम्

हिरण्यवर्णां पिङ्गाक्षीं सवत्सां कांस्यदोहनाम्।
प्रदाय वस्त्रसंछन्नां यान्ति कौबेर सद्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके शरीरका रंग सुनहरा, आँखें भूरी, साथमें बछड़ा और काँसकी दुहानी हो, उस गौको वस्त्र ओढ़ाकर दान करनेसे मनुष्य कुबेरके धाममें जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायुरेणुसवर्णां च सवत्सां कांस्यदोहनाम्।
प्रदाय वस्त्रसंछन्नां वायुलोके महीयते॥

मूलम्

वायुरेणुसवर्णां च सवत्सां कांस्यदोहनाम्।
प्रदाय वस्त्रसंछन्नां वायुलोके महीयते॥

अनुवाद (हिन्दी)

वायुसे उड़ी हुई धूलिके समान रंगवाली, बछड़े-सहित, दूध देनेवाली गायको कपड़ा ओढ़ाकर काँसके दुहानीके साथ दान देकर दाता वायुलोकमें प्रतिष्ठित होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समानवत्सां यो धेनुं दत्त्वा गौरीं पयस्विनीम्।
सुवृत्तां वस्त्रसंछन्नामग्निलोके महीयते ॥

मूलम्

समानवत्सां यो धेनुं दत्त्वा गौरीं पयस्विनीम्।
सुवृत्तां वस्त्रसंछन्नामग्निलोके महीयते ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो समान रंगके बछड़ेवाली, सीधी-सादी, धौरी एवं दूध देनेवाली धेनुको वस्त्रसे आच्छादित करके उसका दान करता है, वह अग्निलोकमें प्रतिष्ठित होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युवानं बलिनं श्यामं शतेन सह यूथपम्।
गवेन्द्रं ब्राह्मणेन्द्राय भूरिशृङ्गमलंकृतम् ॥
ऋषभं ये प्रयच्छन्ति श्रोत्रियाणां महात्मनाम्।
ऐश्वर्यमभिजायन्ते जायमानाः पुनः पुनः॥

मूलम्

युवानं बलिनं श्यामं शतेन सह यूथपम्।
गवेन्द्रं ब्राह्मणेन्द्राय भूरिशृङ्गमलंकृतम् ॥
ऋषभं ये प्रयच्छन्ति श्रोत्रियाणां महात्मनाम्।
ऐश्वर्यमभिजायन्ते जायमानाः पुनः पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग महामनस्वी श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको नौजवान, बड़े सींगवाले, बलवान्, श्यामवर्ण, एक सौ गौओंसहित यूथपति गवेन्द्र (साँड़) को पूर्णतः अलंकृत करके उसे श्रेष्ठ ब्राह्मणके हाथमें दे देते हैं, वे बारंबार जन्म लेनेपर ऐश्वर्यके साथ ही जन्म लेते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गवां मूत्रपुरीषाणि नोद्विजेत कदाचन।
न चासां मांसमश्नीयाद् गोषु भक्तः सदा भवेत्॥

मूलम्

गवां मूत्रपुरीषाणि नोद्विजेत कदाचन।
न चासां मांसमश्नीयाद् गोषु भक्तः सदा भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौओंके मल-मूत्रसे कभी उद्विग्न नहीं होना चाहिये और उनका मांस कभी नहीं खाना चाहिये। सदा गौओंका भक्त होना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रासमुष्टिं परगवे दद्याद् संवत्सरं शुचिः।
अकृत्वा स्वयमाहारं व्रतं तत् सार्वकामिकम्॥

मूलम्

ग्रासमुष्टिं परगवे दद्याद् संवत्सरं शुचिः।
अकृत्वा स्वयमाहारं व्रतं तत् सार्वकामिकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पवित्र भावसे रहकर एक वर्षतक दूसरेकी गायको एक मुट्ठी ग्रास खिलाता है और स्वयं आहार नहीं करता, उसका वह व्रत सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गवामुभयतः काले नित्यं स्वस्त्ययनं वदेत्।
न चासां चिन्तयेत् पापमिति धर्मविदो विदुः॥

मूलम्

गवामुभयतः काले नित्यं स्वस्त्ययनं वदेत्।
न चासां चिन्तयेत् पापमिति धर्मविदो विदुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौओंके पास प्रतिदिन दोनों समय उनके कल्याणकी बात कहनी चाहिये। कभी उनका अनिष्ट-चिन्तन नहीं करना चाहिये। ऐसा धर्मज्ञ पुरुषोंका मत है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावः पवित्रं परमं गोषु लोकाः प्रतिष्ठिताः।
कथंचिन्नावमन्तव्या गावो लोकस्य मातरः॥

मूलम्

गावः पवित्रं परमं गोषु लोकाः प्रतिष्ठिताः।
कथंचिन्नावमन्तव्या गावो लोकस्य मातरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौएँ परम पवित्र वस्तु हैं, गौओंमें सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं। अतः किसी तरह गौओंका अपमान नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे सम्पूर्ण जगत्‌की माताएँ हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादेव गवां दानं विशिष्टमिति कथ्यते।
गोषु पूजा च भक्तिश्च नरस्यायुष्यतां वहेत्॥

मूलम्

तस्मादेव गवां दानं विशिष्टमिति कथ्यते।
गोषु पूजा च भक्तिश्च नरस्यायुष्यतां वहेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीलिये गौओंका दान सबसे उत्कृष्ट बताया जाता है। गौओंकी पूजा तथा उनके प्रति की हुई भक्ति मनुष्यकी आयु बढ़ानेवाली होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः परं प्रवक्ष्यामि भूमिदानं महाफलम्।
भूमिदानसमं दानं लोके नास्तीति निश्चयः॥

मूलम्

अतः परं प्रवक्ष्यामि भूमिदानं महाफलम्।
भूमिदानसमं दानं लोके नास्तीति निश्चयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद मैं भूमिदानका महत्त्व बतलाऊँगा। भूमिदानका महान् फल है। संसारमें भूमिदानके समान दूसरा कोई दान नहीं है। यही धर्मात्मा पुरुषोंका निश्चय है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहयुक् क्षेत्रयुग् वापि भूमिभागः प्रदीयते।
सुखभोगं निराक्रोशं वास्तुपूर्वं प्रकल्प्य च॥
ग्रहीतारमलंकृत्य वस्त्रपुष्पानुलेपनैः ।
सभृत्यं सपरीवारं भोजयित्वा यथेष्टतः॥
यो दद्याद् दक्षिणां काले त्रिरद्भिर्गृह्यतामिति॥

मूलम्

गृहयुक् क्षेत्रयुग् वापि भूमिभागः प्रदीयते।
सुखभोगं निराक्रोशं वास्तुपूर्वं प्रकल्प्य च॥
ग्रहीतारमलंकृत्य वस्त्रपुष्पानुलेपनैः ।
सभृत्यं सपरीवारं भोजयित्वा यथेष्टतः॥
यो दद्याद् दक्षिणां काले त्रिरद्भिर्गृह्यतामिति॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृह अथवा क्षेत्रसे युक्त भू-भागका दान करना चाहिये। जहाँ सुख भोगनेकी सुविधा हो, जो अनिन्दनीय स्थान हो, वहाँ वास्तुपूजनपूर्वक गृह बनाकर दान लेनेवालेको वस्त्र, पुष्पमाला तथा चन्दनसे अलंकृत करके सेवक और परिवारसहित उसे यथेष्ट भोजन करावे। तत्पश्चात् यथासमय तीन बार हाथमें जल लेकर ‘दान ग्रहण कीजिये’ ऐसा कहकर उसे उस भूमिका दान एवं दक्षिणा दे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं भूम्यां प्रदत्तायां श्रद्धया वीतमत्सरैः।
यावत्‌ तिष्ठति सा भूमिस्तावत्‌ तस्य फलं विदुः।

मूलम्

एवं भूम्यां प्रदत्तायां श्रद्धया वीतमत्सरैः।
यावत्‌ तिष्ठति सा भूमिस्तावत्‌ तस्य फलं विदुः।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार ईर्ष्यारहित पुरुषोंद्वारा श्रद्धापूर्वक भूदान दिये जानेपर जबतक वह भूमि रहती है, तबतक दाता उसके दानजनित फलका उपभोग करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिदः स्वर्गमारुह्य रमते शाश्वतीः समाः।
अचला ह्यक्षया भूमिः सर्वकामान् दुधुक्षति॥

मूलम्

भूमिदः स्वर्गमारुह्य रमते शाश्वतीः समाः।
अचला ह्यक्षया भूमिः सर्वकामान् दुधुक्षति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूमिदान देनेवाला पुरुष स्वर्गलोकमें जाकर सदा ही सुख भोगता है; क्योंकि यह अचल एवं अक्षय भूमि सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति करती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् किंचित् कुरुते पापं पुरुषो वृत्तिकर्शितः।
अपि गोकर्णमात्रेण भूमिदानेन मुच्यते॥

मूलम्

यत् किंचित् कुरुते पापं पुरुषो वृत्तिकर्शितः।
अपि गोकर्णमात्रेण भूमिदानेन मुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीविकाके लिये कष्ट पानेवाला पुरुष जो कोई भी पाप करता है, गायके कान बराबर भूमिका दान करनेसे भी मुक्त हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णं रजतं वस्त्रं मणिमुक्तावसूनि च।
सर्वमेतन्महाभागे भूमिदाने प्रतिष्ठितम् ॥

मूलम्

सुवर्णं रजतं वस्त्रं मणिमुक्तावसूनि च।
सर्वमेतन्महाभागे भूमिदाने प्रतिष्ठितम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभागे! भूमिदानमें सुवर्ण, रजत, वस्त्र, मणि, मोती तथा रत्न—इन सबका दान प्रतिष्ठित है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भर्तुर्निःश्रेयसे युक्तास्त्यक्तात्मानो रणे हताः।
ब्रह्मलोकाय संसिद्धा नातिक्रामन्ति भूमिदम्॥

मूलम्

भर्तुर्निःश्रेयसे युक्तास्त्यक्तात्मानो रणे हताः।
ब्रह्मलोकाय संसिद्धा नातिक्रामन्ति भूमिदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वामीके कल्याण-साधनमें तत्पर हो युद्धमें मारे जाकर अपने शरीरका परित्याग करनेवाले शूरवीर योद्धा उत्तम सिद्धि पाकर ब्रह्मलोककी यात्रा करते हैं; परंतु वे भी भूमिदान करनेवालेको लाँघ नहीं पाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हलकृष्टां महीं दद्याद् यत्सबीजफलान्विताम्।
सुकूपशरणां वापि सा भवेत् सर्वकामदा॥

मूलम्

हलकृष्टां महीं दद्याद् यत्सबीजफलान्विताम्।
सुकूपशरणां वापि सा भवेत् सर्वकामदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ सुन्दर कूआँ और रहनेके लिये घर बना हो, जो हलसे जोती गयी हो और जिसमें बीजसहित फल लगे हों, ऐसी भूमिका दान करना चाहिये। वह सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्पन्नसस्यां पृथिवीं यो ददाति द्विजन्मनाम्।
विमुक्तः कलुषैः सर्वैः शक्रलोकं स गच्छति॥

मूलम्

निष्पन्नसस्यां पृथिवीं यो ददाति द्विजन्मनाम्।
विमुक्तः कलुषैः सर्वैः शक्रलोकं स गच्छति॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उपजी हुई खेतीसे युक्त भूमिका ब्राह्मणोंके लिये दान करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो इन्द्रलोकमें जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा जनित्री क्षीरेण स्वपुत्रमभिवर्धयेत्।
एवं सर्वफलैर्भूमिर्दातारमभिवर्धयेत् ॥

मूलम्

यथा जनित्री क्षीरेण स्वपुत्रमभिवर्धयेत्।
एवं सर्वफलैर्भूमिर्दातारमभिवर्धयेत् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे माता दूध पिलाकर अपने पुत्रका पालन-पोषण करती है, उसी प्रकार भूमि सम्पूर्ण मनोवांछित फल देकर दाताको अभ्युदयशील बनाती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणं वृत्तसम्पन्नमाहिताग्निं शुचिव्रतम् ।
ग्राहयित्वा निजां भूमिं न यान्ति यमसादनम्॥

मूलम्

ब्राह्मणं वृत्तसम्पन्नमाहिताग्निं शुचिव्रतम् ।
ग्राहयित्वा निजां भूमिं न यान्ति यमसादनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग उत्तम व्रतका पालन करनेवाले, अग्निहोत्री एवं सदाचारी ब्राह्मणको अपनी भूमि देते हैं, वे यमलोकमें कभी नहीं जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा चन्द्रमसो वृद्धिरहन्यहनि दृश्यते।
तथा भूमेः कृतं दानं सस्ये सस्ये विवर्धते॥

मूलम्

यथा चन्द्रमसो वृद्धिरहन्यहनि दृश्यते।
तथा भूमेः कृतं दानं सस्ये सस्ये विवर्धते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शुक्लपक्षमें चन्द्रमाकी प्रतिदिन वृद्धि होती देखी जाती है, उसी प्रकार किये हुए भूमिदानका महत्त्व प्रत्येक नयी फसल पैदा होनेपर बढ़ता जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा बीजानि रोहन्ति प्रकीर्णानि महीतले।
तथा कामाः प्ररोहन्ति भूमिदानगुणार्जिताः॥

मूलम्

यथा बीजानि रोहन्ति प्रकीर्णानि महीतले।
तथा कामाः प्ररोहन्ति भूमिदानगुणार्जिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पृथ्वीपर बिखेरे हुए बीज अंकुरित हो जाते हैं, उसी प्रकार भूमिदानके गुणोंसे प्राप्त हुए सम्पूर्ण मनोवांछित भोग अंकुरित होते और बढ़ते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितरः पितृलोकस्था देवताश्च दिवि स्थिताः।
संतर्पयन्ति भोगैस्तं यो ददाति वसुंधराम्॥

मूलम्

पितरः पितृलोकस्था देवताश्च दिवि स्थिताः।
संतर्पयन्ति भोगैस्तं यो ददाति वसुंधराम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भूमिका दान करता है, उसे पितृलोकनिवासी पितर और स्वर्गवासी देवता अभीष्ट भोगोंद्वारा तृप्त करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घायुष्यं वराङ्गत्वं स्फीतां च श्रियमुत्तमाम्।
परत्र लभते मर्त्यः सम्प्रदाय वसुंधराम्॥

मूलम्

दीर्घायुष्यं वराङ्गत्वं स्फीतां च श्रियमुत्तमाम्।
परत्र लभते मर्त्यः सम्प्रदाय वसुंधराम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूमिदान करके मनुष्य परलोकमें दीर्घायु, सुन्दर शरीर और बढ़ी-चढ़ी उत्तम सम्पत्ति पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् सर्वं मयोद्दिष्टं भूमिदानस्य यत् फलम्।
श्रद्दधानैर्नरैर्नित्यं श्राव्यमेतत् सनातनम् ।

मूलम्

एतत् सर्वं मयोद्दिष्टं भूमिदानस्य यत् फलम्।
श्रद्दधानैर्नरैर्नित्यं श्राव्यमेतत् सनातनम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

यह सब मैंने भूमिदानका फल बताया है। श्रद्धालु पुरुषोंको प्रतिदिन यह सनातन दानमाहात्म्य सुनना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः परं प्रवक्ष्यामि कन्यादानं यथाविधि।
कन्या देया महादेवि परेषामात्मनोऽपि वा॥

मूलम्

अतः परं प्रवक्ष्यामि कन्यादानं यथाविधि।
कन्या देया महादेवि परेषामात्मनोऽपि वा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं विधिपूर्वक कन्यादानका माहात्म्य बताऊँगा। महादेवि! दूसरोंकी और अपनी भी कन्याका दान करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कन्यां शुद्धव्रताचारां कुलरूपसमन्विताम् ।
यस्मै दित्सति पात्राय तेनापि भृशकामिताम्॥

मूलम्

कन्यां शुद्धव्रताचारां कुलरूपसमन्विताम् ।
यस्मै दित्सति पात्राय तेनापि भृशकामिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शुद्ध व्रत एवं आचारवाली, कुलीन एवं सुन्दर रूपवाली कन्याका किसी सुपात्र पुरुषको दान करना चाहता है, उसे इस बातपर भी ध्यान रखना चाहिये कि वह सुपात्र व्यक्ति उस कन्याको बहुत चाहता है या नहीं (वह पुरुष उसे चाहता हो तभी उसके साथ उस कन्याका विवाह करना चाहिये)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथमं तां समाकल्प्य बन्धुभिः कृतनिश्चयाम्।
कारयित्वा गृहं पूर्वं दासीदासपरिच्छदैः॥
गृहोपकरणैश्चैव पशुधान्येन संयुताम् ।
तदर्थिने तदर्हाय कन्यां तां समलङ्कृताम्॥
सविवाहं यथान्यायं प्रयच्छेदग्निसाक्षिकम् ॥

मूलम्

प्रथमं तां समाकल्प्य बन्धुभिः कृतनिश्चयाम्।
कारयित्वा गृहं पूर्वं दासीदासपरिच्छदैः॥
गृहोपकरणैश्चैव पशुधान्येन संयुताम् ।
तदर्थिने तदर्हाय कन्यां तां समलङ्कृताम्॥
सविवाहं यथान्यायं प्रयच्छेदग्निसाक्षिकम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले बन्धुओंके साथ सलाह करके कन्याके विवाहका निश्चय करे, तत्पश्चात् उसे वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित करे। फिर उसके लिये मण्डप बनाकर दास-दासी, अन्यान्य सामग्री, घरके आवश्यक उपकरण, पशु और धान्यसे सम्पन्न एवं वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हुई उस कन्याका उसे चाहनेवाले योग्य वरको अग्निदेवकी साक्षितामें यथोचित रीतिसे विवाहपूर्वक दान करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्त्यायतीं यथा कृत्वा सद्‌गृहे तौ निवेशयेत्॥
एवं कृत्वा वधूदानं तस्य दानस्य गौरवात्।
प्रेत्यभावे महीयेत स्वर्गलोके यथासुखम्॥
पुनर्जातश्च सौभाग्यं कुलवृद्धिं तथाऽऽप्नुयात्॥

मूलम्

वृत्त्यायतीं यथा कृत्वा सद्‌गृहे तौ निवेशयेत्॥
एवं कृत्वा वधूदानं तस्य दानस्य गौरवात्।
प्रेत्यभावे महीयेत स्वर्गलोके यथासुखम्॥
पुनर्जातश्च सौभाग्यं कुलवृद्धिं तथाऽऽप्नुयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भविष्यमें जीवन-निर्वाहके लिये पूर्ण व्यवस्था करके उन दोनों दम्पतिको उत्तम गृहमें ठहरावे। इस प्रकार वधू-वेषमें कन्याका दान करके उस दानकी महिमासे दाता मृत्युके पश्चात् स्वर्गलोकमें सुख और सम्मानके साथ रहता है। फिर जन्म लेनेपर उसे सौभाग्य प्राप्त होता है तथा वह अपने कुलको बढ़ाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यादानं तथा देवि पात्रभूताय वै ददत्।
प्रेत्यभावे लभेन्मर्त्यो मेधां वृद्धिं धृतिं स्मृतिम्॥

मूलम्

विद्यादानं तथा देवि पात्रभूताय वै ददत्।
प्रेत्यभावे लभेन्मर्त्यो मेधां वृद्धिं धृतिं स्मृतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! सुपात्र शिष्यको विद्यादान देनेवाला मनुष्य मृत्युके पश्चात् वृद्धि, बुद्धि, धृति और स्मृति प्राप्त करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुरूपाय शिष्याय यश्च विद्यां प्रयच्छति।
यथोक्तस्य प्रदानस्य फलमानन्त्यमश्नुते ॥

मूलम्

अनुरूपाय शिष्याय यश्च विद्यां प्रयच्छति।
यथोक्तस्य प्रदानस्य फलमानन्त्यमश्नुते ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सुयोग्य शिष्यको विद्या दान करता है, उसे शास्त्रोक्त दानका अक्षय फल प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दापनं त्वथ विद्यानां दरिद्रेभ्योऽर्थवेदनैः।
स्वयं दत्तेन तुल्यं स्यादिति विद्धि शुभानने॥

मूलम्

दापनं त्वथ विद्यानां दरिद्रेभ्योऽर्थवेदनैः।
स्वयं दत्तेन तुल्यं स्यादिति विद्धि शुभानने॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुभानने! निर्धन छात्रोंको धनकी सहायता देकर विद्या प्राप्त कराना भी स्वयं किये हुए विद्यादानके समान है, ऐसा समझो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते कथितान्येव महादानानि मानिनि।
त्वत्प्रियार्थं मया देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि॥

मूलम्

एवं ते कथितान्येव महादानानि मानिनि।
त्वत्प्रियार्थं मया देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानिनि! देवि! इस प्रकार मैंने तुम्हारी प्रसन्नताके लिये ये बड़े-बड़े दान बताये हैं। अब और क्या सुनना चाहती हो?॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् देवदेवेश कथं देयं तिलान्वितम्।
तस्य तस्य फलं ब्रूहि दत्तस्य च कृतस्य च॥

मूलम्

भगवन् देवदेवेश कथं देयं तिलान्वितम्।
तस्य तस्य फलं ब्रूहि दत्तस्य च कृतस्य च॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! देवदेवेश्वर! तिलका दान कैसे करना चाहिये? और करनेका फल क्या होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिलकल्पविधिं देवि तन्मे शृणु समाहिता॥
समृद्धैरसमृद्धैर्वा तिला देया विशेषतः।
तिलाः पवित्राः पापघ्नाः सुपुण्या इति संस्मृताः॥

मूलम्

तिलकल्पविधिं देवि तन्मे शृणु समाहिता॥
समृद्धैरसमृद्धैर्वा तिला देया विशेषतः।
तिलाः पवित्राः पापघ्नाः सुपुण्या इति संस्मृताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— तुम एकाग्रचित्त होकर मुझसे तिलकल्पकी विधि सुनो। मनुष्य धनी हों या निर्धन, उन्हें विशेषरूपसे तिलोंका दान करना चाहिये; क्योंकि तिल पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय माने गये हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यायतस्तु तिलान् शुद्धान् संहृत्याथ स्वशक्तितः।
तिलराशिं पुनः कुर्यात् पर्वताभं सरत्नकम्॥
महान्तं यदि वा स्तोकं नानाद्रव्यसमन्वितम्॥
सुवर्णरजताभ्यां च मणिमुक्ताप्रवालकैः ।
अलंकृत्य यथायोगं सपताकं सवेदिकम्॥
सभूषणं सवस्त्रं च शयनासनसम्मितम्।
प्रायशः कौमुदीमासे पौर्णमास्यां विशेषतः।
भोजयित्वा च विधिवद् ब्राह्मणानर्हतो बहून्॥
स्वयं कृतोपवासश्च वृत्तशौचसमन्वितः ।
दद्यात् प्रदक्षिणीकृत्य तिलराशिं सदक्षिणम्॥

मूलम्

न्यायतस्तु तिलान् शुद्धान् संहृत्याथ स्वशक्तितः।
तिलराशिं पुनः कुर्यात् पर्वताभं सरत्नकम्॥
महान्तं यदि वा स्तोकं नानाद्रव्यसमन्वितम्॥
सुवर्णरजताभ्यां च मणिमुक्ताप्रवालकैः ।
अलंकृत्य यथायोगं सपताकं सवेदिकम्॥
सभूषणं सवस्त्रं च शयनासनसम्मितम्।
प्रायशः कौमुदीमासे पौर्णमास्यां विशेषतः।
भोजयित्वा च विधिवद् ब्राह्मणानर्हतो बहून्॥
स्वयं कृतोपवासश्च वृत्तशौचसमन्वितः ।
दद्यात् प्रदक्षिणीकृत्य तिलराशिं सदक्षिणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी शक्तिके अनुसार न्यायपूर्वक शुद्ध तिलोंका संग्रह करके उनकी पर्वताकार राशि बनावे। वह राशि छोटी हो या बड़ी उसे नाना प्रकारके द्रव्यों तथा रत्नोंसे युक्त करे। फिर यथाशक्ति सोना, चाँदी, मणि, मोती और मूँगोंसे अलंकृत करके पताका, वेदी, भूषण, वस्त्र, शय्या और आसनसे सुशोभित करे। प्रायः आश्विन मासमें विशेषतः पूर्णिमा तिथिको बहुत-से सुयोग्य ब्राह्मणोंको विधिवत् भोजन कराकर स्वयं उपवास करके शौचाचार-सम्पन्न हो उन ब्राह्मणोंकी परिक्रमा करके दक्षिणासहित उस तिलराशिका दान करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस्यापि बहूनां वा दातव्यं भूतिमिच्छता।
तस्य दानफलं देवि अग्निष्टोमेन संयुतम्॥

मूलम्

एकस्यापि बहूनां वा दातव्यं भूतिमिच्छता।
तस्य दानफलं देवि अग्निष्टोमेन संयुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि वह एक ही पुरुषको या अनेक व्यक्तियोंको दान दे। देवि! उनके दानका फल अग्निष्टोम यज्ञके समान होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केवलं वा तिलैरेव भूमौ कृत्वा गवाकृतिम्।
सवस्त्रकं सरत्नं च पुंसा गोदानकांक्षिणा॥
तदर्हाय प्रदातव्यं तस्य गोदानतः फलम्॥

मूलम्

केवलं वा तिलैरेव भूमौ कृत्वा गवाकृतिम्।
सवस्त्रकं सरत्नं च पुंसा गोदानकांक्षिणा॥
तदर्हाय प्रदातव्यं तस्य गोदानतः फलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा पृथ्वीपर केवल तिलोंसे ही गौकी आकृति बनाकर गोदानके फलकी इच्छा रखनेवाला पुरुष रत्न और वस्त्रसहित उस तिल-धेनुका सुयोग्य ब्राह्मणको दान करे। इससे दाताको गोदान करनेका फल मिलता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरावांस्तिलसम्पूर्णान् सहिरण्यान् सचम्पकान् ।
नृपो ददद् ब्राह्मणाय स पुण्यफलभाग् भवेत्॥

मूलम्

शरावांस्तिलसम्पूर्णान् सहिरण्यान् सचम्पकान् ।
नृपो ददद् ब्राह्मणाय स पुण्यफलभाग् भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा सुवर्ण और चम्पासे युक्त तथा तिलसे भरे हुए शरावों (पुरवों) का ब्राह्मणको दान करता है, वह पुण्य-फलका भागी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तिलमयं देयं नरेण हितमिच्छता।
नानादानफलं भूयः शृणु देवि समाहिता॥

मूलम्

एवं तिलमयं देयं नरेण हितमिच्छता।
नानादानफलं भूयः शृणु देवि समाहिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! अपना हित चाहनेवाले मनुष्यको इसी प्रकार तिलमयी धेनुका दान करना चाहिये। अब पुनः एकाग्रचित्त होकर नाना प्रकारके दानोंका फल सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलमायुष्यमारोग्यमन्नदानाल्लभेन्नरः ।
पानीयदस्तु सौभाग्यं रसज्ञानं लभेन्नरः॥

मूलम्

बलमायुष्यमारोग्यमन्नदानाल्लभेन्नरः ।
पानीयदस्तु सौभाग्यं रसज्ञानं लभेन्नरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्नदान करनेसे मनुष्यको बल, आयु और आरोग्यकी प्राप्ति होती है। जलदान करनेवाला पुरुष सौभाग्य तथा रसका ज्ञान प्राप्त करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वस्त्रदानाद् वपुःशोभामलंकारं लभेन्नरः ।
दीपदो बुद्धिवैशद्यं द्युतिशोभां लभेन्नरः॥

मूलम्

वस्त्रदानाद् वपुःशोभामलंकारं लभेन्नरः ।
दीपदो बुद्धिवैशद्यं द्युतिशोभां लभेन्नरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वस्त्रदान करनेसे मनुष्य शारीरिक शोभा और आभूषण लाभ करता है। दीपदान करनेवालेकी बुद्धि निर्मल होती है तथा उसे द्युति एवं शोभाकी प्राप्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजबीजाविमोक्षं तु छत्रदो लभते फलम्।
दासीदासप्रदानात् तु भवेत् कर्मान्तभाङ्नरः॥
दासीदासं च विविधं लभेत् प्रेत्य गुणान्वितम्॥

मूलम्

राजबीजाविमोक्षं तु छत्रदो लभते फलम्।
दासीदासप्रदानात् तु भवेत् कर्मान्तभाङ्नरः॥
दासीदासं च विविधं लभेत् प्रेत्य गुणान्वितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

छत्रदान करनेवाला पुरुष किसी भी जन्ममें राजवंशसे अलग नहीं होता। दासी और दासोंका दान करनेसे मनुष्य कर्मोंका अन्त कर देता है और मृत्युके पश्चात् उत्तम गुणोंसे युक्त भाँति-भाँतिके दासों और दासियोंको प्राप्त करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानानि वाहनं चैव तदर्हाय ददन्नरः।
पादरोगपरिक्लेशान्मुक्तः श्वसनवाहवान् ।
विचित्रं रमणीयं च लभते यानवाहनम्॥

मूलम्

यानानि वाहनं चैव तदर्हाय ददन्नरः।
पादरोगपरिक्लेशान्मुक्तः श्वसनवाहवान् ।
विचित्रं रमणीयं च लभते यानवाहनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य सुयोग्य ब्राह्मणको रथ आदि यानों और वाहनोंका दान करता है, वह पैरसम्बन्धी रोगों और क्लेशोंसे मुक्त हो जाता है। उसकी सवारीमें वायुके समान वेगशाली घोड़े मिलते हैं। वह विचित्र एवं रमणीय यान और वाहन पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेतुकूपतटाकानां कर्ता तु लभते नरः।
दीर्घायुष्यं च सौभाग्यं तथा प्रेत्य गतिं शुभाम्॥

मूलम्

सेतुकूपतटाकानां कर्ता तु लभते नरः।
दीर्घायुष्यं च सौभाग्यं तथा प्रेत्य गतिं शुभाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुल, कुआँ और पोखरा बनवानेवाला मानव दीर्घायु, सौभाग्य तथा मृत्युके पश्चात् शुभ गति प्राप्त कर लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृक्षसंरोपको यस्तु छायापुष्पफलप्रदः ।
प्रेत्यभावे लभेत् पुण्यमभिगम्यो भवेन्नरः॥

मूलम्

वृक्षसंरोपको यस्तु छायापुष्पफलप्रदः ।
प्रेत्यभावे लभेत् पुण्यमभिगम्यो भवेन्नरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वृक्ष लगानेवाला तथा छाया, फूल और फल प्रदान करनेवाला है, वह मृत्युके पश्चात् पुण्यलोक पाता है और सबके लिये मिलनेके योग्य हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु संक्रमकृल्लोके नदीषु जलहारिणाम्।
लभेत् पुण्यफलं प्रेत्य व्यसनेभ्यो विमोक्षणम्॥

मूलम्

यस्तु संक्रमकृल्लोके नदीषु जलहारिणाम्।
लभेत् पुण्यफलं प्रेत्य व्यसनेभ्यो विमोक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य इस जगत्‌में नदियोंपर जल ले जानेवाले पुरुषोंकी सुविधाके लिये पुल निर्माण कराता है, वह मृत्युके पश्चात् उसका पुण्यफल पाता है और सब प्रकारके संकटोंसे छुटकारा पा जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्गकृत् सततं मर्त्यो भवेत् संतानवान् पुनः।
कायदोषविमुक्तस्तु तीर्थकृत् सततं भवेत्॥

मूलम्

मार्गकृत् सततं मर्त्यो भवेत् संतानवान् पुनः।
कायदोषविमुक्तस्तु तीर्थकृत् सततं भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य सदा मार्गका निर्माण करता है, वह संतानवान् होता है। तथा जो जलमें उतरनेके लिये सीढ़ी एवं पक्के घाट बनवाता है, वह शारीरिक दोषसे मुक्त हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

औषधानां प्रदानात् तु सततं कृपयान्वितः।
भवेद् व्याधिविहीनश्च दीर्घायुश्च विशेषतः॥

मूलम्

औषधानां प्रदानात् तु सततं कृपयान्वितः।
भवेद् व्याधिविहीनश्च दीर्घायुश्च विशेषतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सदा कृपापूर्वक रोगियोंको औषध प्रदान करता है, वह रोगहीन और विशेषतः दीर्घायु होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाथान् पोषयेद् यस्तु कृपणान्धकपङ्गुकान्।
स तु पुण्यफलं प्रेत्य लभते कृच्छ्रमोक्षणम्॥

मूलम्

अनाथान् पोषयेद् यस्तु कृपणान्धकपङ्गुकान्।
स तु पुण्यफलं प्रेत्य लभते कृच्छ्रमोक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अनाथों, दीन-दुःखियों, अन्धों और पंगु मनुष्योंका पोषण करता है, वह मृत्युके पश्चात् उसका पुण्यफल पाता और संकटसे मुक्त हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदगोष्ठाः सभाः शाला भिक्षूणां च प्रतिश्रयम्।
यः कुर्याल्लभते नित्यं नरः प्रेत्य शुभं फलम्॥

मूलम्

वेदगोष्ठाः सभाः शाला भिक्षूणां च प्रतिश्रयम्।
यः कुर्याल्लभते नित्यं नरः प्रेत्य शुभं फलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य वेदविद्यालय, सभाभवन, धर्मशाला तथा भिक्षुओंके लिये आश्रम बनाता है, वह मृत्युके पश्चात् शुभ फल पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विविधं विविधाकारं भक्ष्यभोज्यगुणान्वितम् ।
रम्यं सदैव गोवाटं यः कुर्याल्लभते नरः।
प्रेत्यभावे शुभां जातिं व्याधिमोक्षं तथैव च।
एवं नानाविधं द्रव्यं दानकर्ता लभेत् फलम्॥

मूलम्

विविधं विविधाकारं भक्ष्यभोज्यगुणान्वितम् ।
रम्यं सदैव गोवाटं यः कुर्याल्लभते नरः।
प्रेत्यभावे शुभां जातिं व्याधिमोक्षं तथैव च।
एवं नानाविधं द्रव्यं दानकर्ता लभेत् फलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मानव उत्तम भक्ष्य-भोज्यसम्बन्धी गुणोंसे युक्त तथा नाना प्रकारकी आकृतिवाली भाँति-भाँतिकी रमणीय गोशालाओंका सदैव निर्माण करता है, वह मृत्युके पश्चात् उत्तम जन्म पाता और रोगमुक्त होता है। इस प्रकार भाँति-भाँतिके द्रव्योंका दान करनेवाला मनुष्य पुण्यफलका भागी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धिमायुष्यमारोग्यं बलं भाग्यं तथाऽऽगमम्।
रूपेण सप्तधा भूत्वा मानुष्यं फलति ध्रुवम्॥

मूलम्

बुद्धिमायुष्यमारोग्यं बलं भाग्यं तथाऽऽगमम्।
रूपेण सप्तधा भूत्वा मानुष्यं फलति ध्रुवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धि, आयुष्य, आरोग्य, बल, भाग्य, आगम तथा रूप—इन सात भागोंमें प्रकट होकर मनुष्यका पुण्यकर्म अवश्य अपना फल देता है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् देवदेवेश विशिष्टं यज्ञमुच्यते।
लौकिकं वैदिकं चैव तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

भगवन् देवदेवेश विशिष्टं यज्ञमुच्यते।
लौकिकं वैदिकं चैव तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने कहा— भगवन्! देवदेवेश्वर! लौकिक और वैदिक यज्ञको उत्तम बताया जाता है। अतः इस विषयका मुझसे वर्णन कीजिये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवतानां तु पूजा या यज्ञेष्वेव समाहिता।
यज्ञा वेदेष्वधीताश्च वेदा ब्राह्मणसंयुताः॥

मूलम्

देवतानां तु पूजा या यज्ञेष्वेव समाहिता।
यज्ञा वेदेष्वधीताश्च वेदा ब्राह्मणसंयुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वर बोले— देवि! देवताओंकी जो पूजा है, वह यज्ञोंके ही अन्तर्गत है। यज्ञोंका वेदोंमें वर्णन है और वेद ब्राह्मणोंके साथ हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु सकलं द्रव्यं दिवि वा भुवि वा प्रिये।
यज्ञार्थं विद्धि तत् सृष्टं लोकानां हितकाम्यया॥

मूलम्

इदं तु सकलं द्रव्यं दिवि वा भुवि वा प्रिये।
यज्ञार्थं विद्धि तत् सृष्टं लोकानां हितकाम्यया॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! स्वर्गलोकमें या पृथ्वीपर जो द्रव्य दृष्टि-गोचर होता है, इस सबकी सृष्टि विधाताद्वारा लोकहितकी कामनासे यज्ञके लिये की गयी है, ऐसा समझो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विज्ञाय तत् कर्ता सदारः सततं द्विजः।
प्रेत्यभावे लभेल्लोकान् ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥

मूलम्

एवं विज्ञाय तत् कर्ता सदारः सततं द्विजः।
प्रेत्यभावे लभेल्लोकान् ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा समझकर जो द्विज सदा अपनी स्त्रीके साथ रहकर यज्ञ-कर्म करता है, वह ब्रह्मकर्ममें तत्पर रहनेके कारण मृत्युके पश्चात् पुण्यलोकोंको प्राप्त कर लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेष्वेव तद् ब्रह्म नित्यं देवि समाहितम्॥
तस्माद् विप्रैर्यथाशास्त्रं विधिदृष्टेन कर्मणा।
यज्ञकर्म कृतं सर्वं देवता अभितर्पयेत्॥

मूलम्

ब्राह्मणेष्वेव तद् ब्रह्म नित्यं देवि समाहितम्॥
तस्माद् विप्रैर्यथाशास्त्रं विधिदृष्टेन कर्मणा।
यज्ञकर्म कृतं सर्वं देवता अभितर्पयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! वह ब्रह्म (वेद) सदा ब्राह्मणोंमें ही स्थित है, अतः शास्त्र-विधिके अनुसार ब्राह्मणोंद्वारा किया हुआ सम्पूर्ण यज्ञकर्म देवताओंको तृप्त करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणाः क्षत्रियाश्चैव यज्ञार्थं प्रायशः स्मृताः॥
अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैर्वेदेषु परिकल्पितैः ।
सुशुद्धैर्यजमानैश्च ऋत्विग्भिश्च यथाविधि ॥
शुद्धैर्द्रव्योपकरणैर्यष्टव्यमिति निश्चयः ॥

मूलम्

ब्राह्मणाः क्षत्रियाश्चैव यज्ञार्थं प्रायशः स्मृताः॥
अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैर्वेदेषु परिकल्पितैः ।
सुशुद्धैर्यजमानैश्च ऋत्विग्भिश्च यथाविधि ॥
शुद्धैर्द्रव्योपकरणैर्यष्टव्यमिति निश्चयः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणों और क्षत्रियोंकी उत्पत्ति प्रायः यज्ञके लिये ही मानी गयी है। शुद्ध यजमानों तथा ऋत्विजों-द्वारा किये गये वेदवर्णित अग्निष्टोम आदि यज्ञों एवं विशुद्ध द्रव्योपकरणोंसे यजन करना चाहिये, यह शास्त्रका निश्चय है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा कृतेषु यज्ञेषु देवानां तोषणं भवेत्।
तुष्टेषु सर्वदेवेषु यज्वा यज्ञफलं लभेत्॥

मूलम्

तथा कृतेषु यज्ञेषु देवानां तोषणं भवेत्।
तुष्टेषु सर्वदेवेषु यज्वा यज्ञफलं लभेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार किये गये यज्ञोंमें देवताओंको संतोष होता है और सम्पूर्ण देवताओंके संतुष्ट होनेपर यजमानको यज्ञका पूरा-पूरा फल मिलता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवाः संतोषिता यज्ञैर्लोकान् संवर्धयन्त्युत।

मूलम्

देवाः संतोषिता यज्ञैर्लोकान् संवर्धयन्त्युत।

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञोंद्वारा संतुष्ट किये हुए देवता सम्पूर्ण लोकोंकी वृद्धि करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् यज्वा दिवं गत्वामरैः सह मोदते।
नास्ति यज्ञसमं दानं नास्ति यज्ञसमो निधिः॥
सर्वधर्मसमुद्देशो देवि यज्ञे समाहितः।

मूलम्

तस्माद् यज्वा दिवं गत्वामरैः सह मोदते।
नास्ति यज्ञसमं दानं नास्ति यज्ञसमो निधिः॥
सर्वधर्मसमुद्देशो देवि यज्ञे समाहितः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये यजमान स्वर्गलोकमें जाकर देवताओंके साथ आनन्द भोगता है। यज्ञके समान कोई दान नहीं है और यज्ञके समान कोई निधि नहीं है। देवि! सम्पूर्ण धर्मोंका उद्देश्य यज्ञमें प्रतिष्ठित है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा यज्ञकृता पूजा लौकिकीमपरां शृणु॥
देवसत्कारमुद्दिश्य क्रियते लौकिकोत्सवः ॥

मूलम्

एषा यज्ञकृता पूजा लौकिकीमपरां शृणु॥
देवसत्कारमुद्दिश्य क्रियते लौकिकोत्सवः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह यज्ञद्वारा की गयी देवपूजा वैदिकी है। इससे भिन्न जो दूसरी लौकिकी पूजा है, उसका वर्णन सुनो। देवताओंके सत्कारके लिये लोकमें समय-समयपर उत्सव किया जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवगोष्ठेऽधिसंस्कृत्य चोत्सवं यः करोति वै।
यागान् देवोपहारांश्च शुचिर्भूत्वा यथाविधि॥
देवान् संतोषयित्वा स देवि धर्ममवाप्नुयात्॥

मूलम्

देवगोष्ठेऽधिसंस्कृत्य चोत्सवं यः करोति वै।
यागान् देवोपहारांश्च शुचिर्भूत्वा यथाविधि॥
देवान् संतोषयित्वा स देवि धर्ममवाप्नुयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! जो देवालयमें देवताका संस्कार करके उत्सव मनाता है और पवित्र होकर विधिपूर्वक यज्ञ एवं देवताओंको उपहार समर्पित करके उन्हें संतुष्ट करता है, वह धर्मका पूरा-पूरा फल प्राप्त करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्धमाल्यैश्च विविधैः परमान्नेन धूपनैः।
बह्वीभिः स्तुतिभिश्चैव स्तुवद्भिः प्रयतैर्नरैः॥
नृत्तैर्वाद्यैश्च गान्धर्वैरन्यैर्दृष्टिविलोभनैः ।
देवसत्कारमुद्दिश्य कुर्वते ये नरा भुवि॥
तेषां भक्तिकृतेनैव सत्कारेणैव पूजिताः।
तेनैव तोषं संयान्ति देवि देवास्त्रिविष्टपे॥

मूलम्

गन्धमाल्यैश्च विविधैः परमान्नेन धूपनैः।
बह्वीभिः स्तुतिभिश्चैव स्तुवद्भिः प्रयतैर्नरैः॥
नृत्तैर्वाद्यैश्च गान्धर्वैरन्यैर्दृष्टिविलोभनैः ।
देवसत्कारमुद्दिश्य कुर्वते ये नरा भुवि॥
तेषां भक्तिकृतेनैव सत्कारेणैव पूजिताः।
तेनैव तोषं संयान्ति देवि देवास्त्रिविष्टपे॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! इस भूतलपर जो मनुष्य देवताओंके सत्कारके उद्देश्यसे नाना प्रकारके गन्ध, माल्य, उत्तम अन्न, धूपदान तथा बहुत-सी स्तुतियोंद्वारा स्तवन करते हैं और शुद्धचित्त हो नृत्य, वाद्य, गान तथा दृष्टिको लुभानेवाले अन्यान्य कार्यक्रमोंद्वारा देवाराधन करते हैं, उनके भक्तिजनित सत्कारसे ही पूजित हो देवता स्वर्गमें उतनेसे ही संतुष्ट हो जाते हैं॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)