००९

मूलम् (समाप्तिः)

[प्राणियोंके चार भेदोंका निरूपण, पूर्वजन्मकी स्मृतिका रहस्य, मरकर फिर लौटनेमें कारण स्वप्नदर्शन, दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्मका विवेचन]

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् देवदेवेश कर्मणैव शुभाशुभम्।
यथायोगं फलं जन्तुः प्राप्नोतीति विनिश्चयः॥

मूलम्

भगवन् देवदेवेश कर्मणैव शुभाशुभम्।
यथायोगं फलं जन्तुः प्राप्नोतीति विनिश्चयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! देवदेवेश्वर! जीव अपने कर्मसे यथायोग्य शुभाशुभ फल पाता है—यह निश्चय हुआ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परेषां विप्रियं कुर्वन् यथा सम्प्राप्नुयाच्छुभम्।
यदेतदस्मिंश्चेद् देहे तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

परेषां विप्रियं कुर्वन् यथा सम्प्राप्नुयाच्छुभम्।
यदेतदस्मिंश्चेद् देहे तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंका अप्रिय करके भी इस शरीरमें स्थित हुआ जीवात्मा किस प्रकार शुभ फल पाता है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदप्यस्ति महाभागे अभिसंधिबलान्नृणाम् ।
हितार्थं दुःखमन्येषां कृत्वा सुखमवाप्नुयात्॥

मूलम्

तदप्यस्ति महाभागे अभिसंधिबलान्नृणाम् ।
हितार्थं दुःखमन्येषां कृत्वा सुखमवाप्नुयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— महाभागे! ऐसा भी होता है कि शुभ संकल्पके बलसे मनुष्योंके हितके लिये उन्हें दुःख देकर भी पुरुष सुख प्राप्त कर सके॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्डयन् भर्त्सयन् राजा प्रजाः पुण्यमवाप्नुयात्।
गुरुः संतर्जयन् शिष्यान्‌ भर्ता भृत्यजनान् स्वकान्॥

मूलम्

दण्डयन् भर्त्सयन् राजा प्रजाः पुण्यमवाप्नुयात्।
गुरुः संतर्जयन् शिष्यान्‌ भर्ता भृत्यजनान् स्वकान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा प्रजाको अपराधके कारण दण्ड देता और फटकारता है तो भी वह पुण्यका ही भागी होता है। गुरु अपने शिष्योंको और स्वामी अपने सेवकोंको उनके सुधारके लिये यदि डाँटता-फटकारता है तो इससे सुखका ही भागी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उन्मार्गप्रतिपन्नांश्च शास्ता धर्मफलं लभेत्॥
चिकित्सकश्च दुःखानि जनयन् हितमाप्नुयात्।

मूलम्

उन्मार्गप्रतिपन्नांश्च शास्ता धर्मफलं लभेत्॥
चिकित्सकश्च दुःखानि जनयन् हितमाप्नुयात्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो कुर्मागपर चल रहे हों, उनका शासन करनेवाला राजा धर्मका फल पाता है। चिकित्सक रोगीकी चिकित्सा करते समय उसे कष्ट ही देता है तथापि रोग मिटानेका प्रयत्न करनेके कारण वह हितका ही भागी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमन्ये सुमनसो हिंसकाः स्वर्गमाप्नुयुः॥
एकस्मिन् निहते भद्रे बहवः सुखमाप्नुयुः।
तस्मिन् हते भवेद् धर्मः कुत एव तु पातकम्॥

मूलम्

एवमन्ये सुमनसो हिंसकाः स्वर्गमाप्नुयुः॥
एकस्मिन् निहते भद्रे बहवः सुखमाप्नुयुः।
तस्मिन् हते भवेद् धर्मः कुत एव तु पातकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार दूसरे लोग भी यदि शुद्ध हृदयसे किसीको कष्ट पहुँचाते हैं तो स्वर्गलोकमें जाते हैं। भद्रे! जहाँ किसी एक दुष्टके मारे जानेपर बहुत-से सत्पुरुषोंको सुख प्राप्त होता हो तो उसके मारनेपर पातक क्या लगेगा, उलटे धर्म होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिसंधेरजिह्मत्वाच्छुद्धे धर्मस्य गौरवात् ।
एतत्‌ कृत्वा तु पापेभ्यो न दोषं प्राप्नुयुः क्वचित्॥

मूलम्

अभिसंधेरजिह्मत्वाच्छुद्धे धर्मस्य गौरवात् ।
एतत्‌ कृत्वा तु पापेभ्यो न दोषं प्राप्नुयुः क्वचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि उद्देश्य कुटिलतापूर्ण न हो, अपितु धर्मके गौरवसे शुद्ध हो तो पापियोंके प्रति ऐसा व्यवहार करके भी कहीं दोषकी प्राप्ति नहीं होती॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्विधानां जन्तूनां कथं ज्ञानमिह स्मृतम्।
कृत्रिमं तत्स्वभावं वा तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

चतुर्विधानां जन्तूनां कथं ज्ञानमिह स्मृतम्।
कृत्रिमं तत्स्वभावं वा तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— इस जगत्‌में रहनेवाले चार प्रकारके प्राणियोंको कैसे ज्ञान प्राप्त होता है! वह कृत्रिम है या स्वाभाविक? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थावरं जङ्गमं चेति जगद् द्विविधमुच्यते।
चतस्रो योनयस्तत्र प्रजानां क्रमशो यथा॥

मूलम्

स्थावरं जङ्गमं चेति जगद् द्विविधमुच्यते।
चतस्रो योनयस्तत्र प्रजानां क्रमशो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! यह जगत् स्थावर और जंगमके भेदसे दो प्रकारका पाया जाता है! इसमें प्रजाकी क्रमशः चार योनियाँ हैं—जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामुद्भिदजा वृक्षा लतावल्ल्यश्च वीरुधः।
दंशयूकादयश्चान्ये स्वेदजाः कृमिजातयः ॥

मूलम्

तेषामुद्भिदजा वृक्षा लतावल्ल्यश्च वीरुधः।
दंशयूकादयश्चान्ये स्वेदजाः कृमिजातयः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमेंसे वृक्ष, लता, वल्ली और तृण आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं। डाँस और जूँ आदि कीट जातिके प्राणी स्वेदज कहे गये हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पक्षिणश्छिद्रकर्णाश्च प्राणिनस्त्वण्डजा मताः ।
मृगव्यालमनुष्यांश्च विद्धि तेषां जरायुजान्॥

मूलम्

पक्षिणश्छिद्रकर्णाश्च प्राणिनस्त्वण्डजा मताः ।
मृगव्यालमनुष्यांश्च विद्धि तेषां जरायुजान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके पंख होते हैं और कानके स्थानमें एक छिद्र मात्र होता है, ऐसे प्राणी अण्डज माने गये हैं। पशु, व्याल (हिंसक जन्तु बाघ, चीते आदि) और मनुष्य—इनको जरायुज समझो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं चतुर्विधां जातिमात्मा संसृत्य तिष्ठति॥

मूलम्

एवं चतुर्विधां जातिमात्मा संसृत्य तिष्ठति॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह आत्मा इन चार प्रकारकी जातियोंका आश्रय लेकर रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा भूम्यम्बुसंयोगाद् भवन्त्युद्भिदजाः प्रिये।
शीतोष्णयोस्तु संयोगाज्जायन्ते स्वेदजाः प्रिये॥

मूलम्

तथा भूम्यम्बुसंयोगाद् भवन्त्युद्भिदजाः प्रिये।
शीतोष्णयोस्तु संयोगाज्जायन्ते स्वेदजाः प्रिये॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! पृथ्वी और जलके संयोगसे उद्भिज्ज प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है तथा स्वेदज जीव सर्दी और गर्मीके संयोगसे जीवन ग्रहण करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अण्डजाश्चापि जायन्ते संयोगात् क्लेदबीजयोः।
शुक्लशोणितसंयोगात् सम्भवन्ति जरायुजाः ॥
जरायुजानां सर्वेषां मानुषं पदमुत्तमम्॥

मूलम्

अण्डजाश्चापि जायन्ते संयोगात् क्लेदबीजयोः।
शुक्लशोणितसंयोगात् सम्भवन्ति जरायुजाः ॥
जरायुजानां सर्वेषां मानुषं पदमुत्तमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्लेद और बीजके संयोगसे अण्डज प्राणियोंका जन्म होता है और जरायुज प्राणी रज-वीर्यके संयोगसे उत्पन्न होते हैं। समस्त जरायुजोंमें मनुष्यका स्थान सबसे ऊँचा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः परं तमोत्पत्तिं शृणु देवि समाहिता।
द्विविधं हि तमो लोके शार्वरं देहजं तथा॥

मूलम्

अतः परं तमोत्पत्तिं शृणु देवि समाहिता।
द्विविधं हि तमो लोके शार्वरं देहजं तथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! अब एकाग्रचित्त होकर तमकी उत्पत्ति सुनो। लोकमें दो प्रकारका तम बताया गया है—रात्रिका और देहजनित॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्योतिर्भिश्च तमो लोके नाशं गच्छति शार्वरम्।
देहजं तु तमो लोके तैः समस्तैर्न शाम्यति॥

मूलम्

ज्योतिर्भिश्च तमो लोके नाशं गच्छति शार्वरम्।
देहजं तु तमो लोके तैः समस्तैर्न शाम्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोकमें ज्योति या तेजके द्वारा रात्रिका अन्धकार नष्ट हो जाता है; परंतु जो देहजनित तम है, वह सम्पूर्ण ज्योतियोंके प्रकाशित होनेपर भी नहीं शान्त होता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमसस्तस्य नाशार्थं नोपायमधिजग्मिवान् ।
तपश्चचार विपुलं लोककर्ता पितामहः॥

मूलम्

तमसस्तस्य नाशार्थं नोपायमधिजग्मिवान् ।
तपश्चचार विपुलं लोककर्ता पितामहः॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोककर्ता पितामह ब्रह्माजीको जब उस तमका नाश करनेके लिये कोई उपाय नहीं सूझा, तब वे बड़ी भारी तपस्या करने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरतस्तु समुद्‌भूता वेदाः साङ्गाः सहोत्तराः।
ताल्ँलब्ध्वा मुमुदे ब्रह्मा लोकानां हितकाम्यया॥
देहजं तत् तमो घोरं वेदैरेव विनाशितम्॥

मूलम्

चरतस्तु समुद्‌भूता वेदाः साङ्गाः सहोत्तराः।
ताल्ँलब्ध्वा मुमुदे ब्रह्मा लोकानां हितकाम्यया॥
देहजं तत् तमो घोरं वेदैरेव विनाशितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्या करते समय उनके मुखसे छहों अंगों और उपनिषदोंसहित चारों वेद प्रकट हुए। उन्हें पाकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने लोकोंके हितकी कामनासे वेदोंके ज्ञानद्वारा ही उस देहजनित घोर तमका नाश किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्याकार्यमिदं चेति वाच्यावाच्यमिदं त्विति।
यदि चेन्न भवेल्लोके श्रुतं चारित्रदैशिकम्॥
पशुभिर्निर्विशेषं तु चेष्टन्ते मानुषा अपि॥

मूलम्

कार्याकार्यमिदं चेति वाच्यावाच्यमिदं त्विति।
यदि चेन्न भवेल्लोके श्रुतं चारित्रदैशिकम्॥
पशुभिर्निर्विशेषं तु चेष्टन्ते मानुषा अपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह वेदज्ञान कर्तव्य और अकर्तव्यकी शिक्षा देनेवाला है, वाच्य और अवाच्यका बोध करानेवाला है। यदि संसारमें सदाचारकी शिक्षा देनेवाली श्रुति न हो तो मनुष्य भी पशुओंके समान ही मनमानी चेष्टा करने लगें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञादीनां समारम्भः श्रुतेनैव विधीयते।
यज्ञस्य फलयोगेन देवलोकः समृद्‌ध्यते॥

मूलम्

यज्ञादीनां समारम्भः श्रुतेनैव विधीयते।
यज्ञस्य फलयोगेन देवलोकः समृद्‌ध्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंके द्वारा ही यज्ञ आदि कर्मोंका आरम्भ किया जाता है। यज्ञफलके संयोगसे देवलोककी समृद्धि बढ़ती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतियुक्ताः पुनर्देवा मानुषाणां भवन्त्युत।
एवं नित्यं प्रवर्धेते रोदसी च परस्परम्॥

मूलम्

प्रीतियुक्ताः पुनर्देवा मानुषाणां भवन्त्युत।
एवं नित्यं प्रवर्धेते रोदसी च परस्परम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे देवता मनुष्योंपर प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार पृथ्वी और स्वर्गलोक दोनों एक-दूसरेकी उन्नतिमें सदा सहयोगी होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकसंधारणं तस्माच्छ्रुतमित्यवधारय ।
ज्ञानाद् विशिष्टं जन्तूनां नास्ति लोकत्रयेऽपि च॥

मूलम्

लोकसंधारणं तस्माच्छ्रुतमित्यवधारय ।
ज्ञानाद् विशिष्टं जन्तूनां नास्ति लोकत्रयेऽपि च॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः तुम यह अच्छी तरह समझ लो कि वेद ही धर्मकी प्रवृत्तिद्वारा सम्पूर्ण जगत्‌को धारण करनेवाला है। जीवोंके लिये इस त्रिलोकीमें ज्ञानसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रगृह्य श्रुतं सर्वं कृतकृत्यो भवत्युत।
उपर्युपरि मर्त्यानां देववत् सम्प्रकाशते॥

मूलम्

सम्प्रगृह्य श्रुतं सर्वं कृतकृत्यो भवत्युत।
उपर्युपरि मर्त्यानां देववत् सम्प्रकाशते॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण वेदोंका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके द्विज कृतकृत्य हो जाता है और साधारण मनुष्योंकी अपेक्षा ऊँची स्थितिमें पहुँचकर देवताके समान प्रकाशित होने लगता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं क्रोधं भयं दर्पमज्ञानं चैव बुद्धिजम्।
तच्छ्रुतं नुदति क्षिप्रं यथा वायुर्बलाहकान्॥

मूलम्

कामं क्रोधं भयं दर्पमज्ञानं चैव बुद्धिजम्।
तच्छ्रुतं नुदति क्षिप्रं यथा वायुर्बलाहकान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे हवा बादलोंको उड़ाकर छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार वेदशास्त्रजनित ज्ञान काम, क्रोध, भय, दर्प और बौद्धिक अज्ञानको भी शीघ्र ही दूर कर देता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पमात्रं कृतो धर्मो भवेज्ज्ञानवता महान्।
महानपि कृतो धर्मो ह्यज्ञानान्निष्फलो भवेत्॥

मूलम्

अल्पमात्रं कृतो धर्मो भवेज्ज्ञानवता महान्।
महानपि कृतो धर्मो ह्यज्ञानान्निष्फलो भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानवान् पुरुषके द्वारा किया हुआ थोड़ा-सा धर्म भी महान् बन जाता है और अज्ञानपूर्वक किया हुआ महान् धर्म भी निष्फल हो जाता है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् मानुषाः केचिज्जातिस्मरणसंयुताः ।
किमर्थमभिजायन्ते जानन्तः पौर्वदैहिकम् ॥

मूलम्

भगवन् मानुषाः केचिज्जातिस्मरणसंयुताः ।
किमर्थमभिजायन्ते जानन्तः पौर्वदैहिकम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! कुछ मनुष्योंको पूर्वजन्म-की बातोंका स्मरण होता है। वे किसलिये पूर्व शरीरके वृत्तान्तको जानते हुए जन्म लेते हैं?॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता॥
ये मृताः सहसा मर्त्या जायन्ते सहसा पुनः।
तेषां पौराणिकोऽभ्यासः कंचिद् कालं हि तिष्ठति॥

मूलम्

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता॥
ये मृताः सहसा मर्त्या जायन्ते सहसा पुनः।
तेषां पौराणिकोऽभ्यासः कंचिद् कालं हि तिष्ठति॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! मैं तुम्हें तत्त्वकी बात बता रहा हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। जो मनुष्य सहसा मृत्युको प्राप्त होकर फिर कहीं सहसा जन्म ले लेते हैं, उनका पुराना अभ्यास या संस्कार कुछ कालतक बना रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माज्जातिस्मरा लोके जायन्ते बोधसंयुताः।
तेषां विवर्धतां संज्ञा स्वप्नवत् सा प्रणश्यति॥
परलोकस्य चास्तित्वे मूढानां कारणं त्विदम्॥

मूलम्

तस्माज्जातिस्मरा लोके जायन्ते बोधसंयुताः।
तेषां विवर्धतां संज्ञा स्वप्नवत् सा प्रणश्यति॥
परलोकस्य चास्तित्वे मूढानां कारणं त्विदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये वे लोकमें पूर्वजन्मकी बातोंके ज्ञानसे युक्त होकर जन्म लेते हैं और जातिस्मर (पूर्वजन्मका स्मरण करनेवाले) कहलाते हैं। फिर ज्यों-ज्यों वे बढ़ने लगते हैं, त्यों-त्यों उनकी स्वप्न-जैसी वह पुरानी स्मृति नष्ट होने लगती है। ऐसी घटनाएँ मूर्ख मनुष्योंको परलोककी सत्तापर विश्वास करानेमें कारण बनती हैं॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् मानुषाः केचिन्मृता भूत्वापि सम्प्रति।
निवर्तमाना दृश्यन्ते देहेष्वेव पुनर्नराः॥

मूलम्

भगवन् मानुषाः केचिन्मृता भूत्वापि सम्प्रति।
निवर्तमाना दृश्यन्ते देहेष्वेव पुनर्नराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! कई मनुष्य मरनेके बाद भी फिर उसी शरीरमें लौटते देखे जाते हैं। इसका क्या कारण है?॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं ते प्रवक्ष्यामि कारणं शृणु शोभने॥
प्राणैर्वियुज्यमानानां बहुत्वात् प्राणिनां क्षये।
तथैव नामसामान्याद् यमदूता नृणां प्रति॥
वहन्ति ते क्वचिन्मोहादन्यं मर्त्यं तु धार्मिकाः।
निर्विकारं हि तत् सर्वं यमो वेद कृताकृतम्॥

मूलम्

तदहं ते प्रवक्ष्यामि कारणं शृणु शोभने॥
प्राणैर्वियुज्यमानानां बहुत्वात् प्राणिनां क्षये।
तथैव नामसामान्याद् यमदूता नृणां प्रति॥
वहन्ति ते क्वचिन्मोहादन्यं मर्त्यं तु धार्मिकाः।
निर्विकारं हि तत् सर्वं यमो वेद कृताकृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— शोभने! वह कारण मैं बताता हूँ, सुनो। प्राणी बहुत हैं और मृत्युकाल आनेपर सभीका अपने प्राणोंसे वियोग हो जाता है। धार्मिक यमदूत कभी-कभी कई मनुष्योंके एक ही नाम होनेके कारण मोहवश एकके बदले दूसरेको पकड़ ले जाते हैं, परंतु यमराज निर्विकार भावसे दूतोंके द्वारा किये गये और नहीं किये गये, सभी कार्योंको जानते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् संयमनीं प्राप्य यमेनैकेन मोक्षिताः।
पुनरेवं निवर्तन्ते शेषं भोक्तुं स्वकर्मणः॥
स्वकर्मण्यसमाप्ते तु निवर्तन्ते हि मानवाः॥

मूलम्

तस्मात् संयमनीं प्राप्य यमेनैकेन मोक्षिताः।
पुनरेवं निवर्तन्ते शेषं भोक्तुं स्वकर्मणः॥
स्वकर्मण्यसमाप्ते तु निवर्तन्ते हि मानवाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः संयमनीपुरीमें जानेपर भूलसे गये हुए मनुष्यको एकमात्र यमराज फिर छोड़ देते हैं; अतः वे अपने प्रारब्ध कर्मका शेष भाग भोगनेके लिये पुनः लौट आते हैं। वे ही मनुष्य लौटते हैं, जिनका कर्म-भोग समाप्त नहीं हुआ होता है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् सुप्तमात्रेण प्राणिनां स्वप्नदर्शनम्।
किं तत् स्वभावमन्यद् वा तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

भगवन् सुप्तमात्रेण प्राणिनां स्वप्नदर्शनम्।
किं तत् स्वभावमन्यद् वा तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! सोनेमात्रसे प्राणियोंको स्वप्नका दर्शन होने लगता है। यह उनका स्वभाव है, या और कोई बात है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुप्तानां तु मनश्चेष्टा स्वप्न इत्यभिधीयते।
अनागतमतिक्रान्तं पश्यते संचरन्मनः ॥

मूलम्

सुप्तानां तु मनश्चेष्टा स्वप्न इत्यभिधीयते।
अनागतमतिक्रान्तं पश्यते संचरन्मनः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— प्रिये! सोये हुए प्राणियोंके मनकी जो चेष्टा है, उसीको स्वप्न कहते हैं। स्वप्नमें विचरता हुआ मन भूत और भविष्यकी घटनाओंको देखता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमित्तं च भवेत्‌ तस्मात् प्राणिनां स्वप्नदर्शनम्।
एतत् ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि॥

मूलम्

निमित्तं च भवेत्‌ तस्मात् प्राणिनां स्वप्नदर्शनम्।
एतत् ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः उन घटनाओंके देखनेमें प्राणियोंके लिये स्वप्नदर्शन निमित्त बनता है। देवि! तुम्हें स्वप्नका विषय बताया गया, अब और क्या सुनना चाहती हो?॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् सर्वभूतेश लोके कर्मक्रियापथे।
दैवात् प्रवर्तते सर्वमिति केचिद् व्यवस्थिताः॥

मूलम्

भगवन् सर्वभूतेश लोके कर्मक्रियापथे।
दैवात् प्रवर्तते सर्वमिति केचिद् व्यवस्थिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने कहा— भगवन्! सर्वभूतेश्वर! जगत्‌में दैवकी प्रेरणासे ही सबकी कर्ममार्गमें प्रवृत्ति होती है। ऐसी कुछ लोगोंकी मान्यता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे चेष्टया चेति दृष्ट्वा प्रत्यक्षतः क्रियाम्।
पक्षभेदे द्विधा चास्मिन् संशयस्थं मनो मम॥
तत्त्वं वद महादेव श्रोतुं कौतूहलं हि मे॥

मूलम्

अपरे चेष्टया चेति दृष्ट्वा प्रत्यक्षतः क्रियाम्।
पक्षभेदे द्विधा चास्मिन् संशयस्थं मनो मम॥
तत्त्वं वद महादेव श्रोतुं कौतूहलं हि मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे लोग क्रियाको प्रत्यक्ष देखकर ऐसा मानते हैं कि चेष्टासे ही सबकी प्रवृत्ति होती है, दैवसे नहीं। ये दो पक्ष हैं। इनमें मेरा मन संशयमें पड़ जाता है; अतः महादेव! यथार्थ बात बताइये। इसे सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल हो रहा है॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता।

मूलम्

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! मैं तुम्हें तत्त्वकी बात बता रहा हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्ष्यते द्विविधं कर्म मानुषेष्वेव तच्छृणु।
पुराकृतं तयोरेकमैहिकं त्वितरत् तथा॥

मूलम्

लक्ष्यते द्विविधं कर्म मानुषेष्वेव तच्छृणु।
पुराकृतं तयोरेकमैहिकं त्वितरत् तथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंमें दो प्रकारका कर्म देखा जाता है, उसे सुनो। इनमें एक तो पूर्वकृत कर्म है और दूसरा इहलोकमें किया गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लौकिकं तु प्रवक्ष्यामि दैवमानुषनिर्मितम्।
कृषौ तु दृश्यते कर्म कर्षणं वपनं तथा॥
रोपणं चैव लवनं यच्चान्यत् पौरुषं स्मृतम्।
दैवादसिद्धिश्च भवेद् दुष्कृतं चास्ति पौरुषे॥

मूलम्

लौकिकं तु प्रवक्ष्यामि दैवमानुषनिर्मितम्।
कृषौ तु दृश्यते कर्म कर्षणं वपनं तथा॥
रोपणं चैव लवनं यच्चान्यत् पौरुषं स्मृतम्।
दैवादसिद्धिश्च भवेद् दुष्कृतं चास्ति पौरुषे॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं देव और मनुष्य दोनोंसे सम्पादित होनेवाले लौकिक कर्मका वर्णन करता हूँ। कृषिमें जो जुताई, बोवाई, रोपनी, कटनी तथा ऐसे ही और भी जो कार्य देखे जाते हैं, वे सब मानुष कहे गये हैं। दैवसे उस कर्ममें सफलता और असफलता होती है। मानुष कर्ममें बुराई भी सम्भव है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुयत्नाल्लभ्यते कीर्तिर्दुर्यत्नादयशस्तथा ।
एवं लोकगतिर्देवि आदिप्रभृति वर्तते॥

मूलम्

सुयत्नाल्लभ्यते कीर्तिर्दुर्यत्नादयशस्तथा ।
एवं लोकगतिर्देवि आदिप्रभृति वर्तते॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम प्रयत्न करनेसे कीर्ति प्राप्त होती है और बुरे उपायोंके अवलम्बनसे अपयश। देवि! आदिकालसे ही जगत्‌की ऐसी ही अवस्था है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोपणं चैव लवनं यच्चान्यत् पौरुषं स्मृतम्॥
काले वृष्टिः सुवापं च प्ररोहः पंक्तिरेव च।
एवमादि तु यच्चान्यत् तद् दैवतमिति स्मृतम्॥

मूलम्

रोपणं चैव लवनं यच्चान्यत् पौरुषं स्मृतम्॥
काले वृष्टिः सुवापं च प्ररोहः पंक्तिरेव च।
एवमादि तु यच्चान्यत् तद् दैवतमिति स्मृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बीजका रोपना और काटना आदि मनुष्यका काम है; परंतु समयपर वर्षा होना, बोवाईका सुन्दर परिणाम निकलना, बीजमें अंकुर उत्पन्न होना और शस्यका श्रेणीबद्ध होकर प्रकट होना इत्यादि कार्य देवसम्बन्धी बताये गये हैं। दैवकी अनुकूलतासे ही इन कार्योंका सम्पादन होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चभूतस्थितिश्चैव ज्योतिषामयनं तथा ।
अबुद्धिगम्यं यन्मर्त्यैर्हेतुभिर्वा न विद्यते॥
तादृशं कारणं दैवं शुभं वा यदि वेतरत्।
यादृशं चात्मना शक्यं तत् पौरुषमिति स्मृतम्॥

मूलम्

पञ्चभूतस्थितिश्चैव ज्योतिषामयनं तथा ।
अबुद्धिगम्यं यन्मर्त्यैर्हेतुभिर्वा न विद्यते॥
तादृशं कारणं दैवं शुभं वा यदि वेतरत्।
यादृशं चात्मना शक्यं तत् पौरुषमिति स्मृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पंचभूतोंकी स्थिति, ग्रहनक्षत्रोंका चलना-फिरना तथा जहाँ मनुष्योंकी बुद्धि न पहुँच सके अथवा किन्हीं कारणों या युक्तियोंसे भी समझमें न आ सके—ऐसा कर्म शुभ हो या अशुभ दैव माना जाता है और जिस बातको मनुष्य स्वयं कर सके, उसे पौरुष कहा गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केवलं फलनिष्पत्तिरेकेन तु न शक्यते।
पौरुषेणैव दैवेन युगपद् ग्रथितं प्रिये॥

मूलम्

केवलं फलनिष्पत्तिरेकेन तु न शक्यते।
पौरुषेणैव दैवेन युगपद् ग्रथितं प्रिये॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल दैव या पुरुषार्थसे फलकी सिद्धि नहीं होती। प्रिये! प्रत्येक वस्तु या कार्य एक ही साथ पुरुषार्थ और दैव दोनोंसे ही गुँथा हुआ है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः समाहितं कर्म शीतोष्णं युगपत् तथा।
पौरुषं तु तयोः पूर्वमारब्धव्यं विजानता॥
आत्मना तु न शक्यं हि तथा कीर्तिमवाप्नुयात्॥

मूलम्

तयोः समाहितं कर्म शीतोष्णं युगपत् तथा।
पौरुषं तु तयोः पूर्वमारब्धव्यं विजानता॥
आत्मना तु न शक्यं हि तथा कीर्तिमवाप्नुयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

दैव और पुरुषार्थ दोनोंके समानकालिक सहयोगसे कर्म सम्पन्न होता है। जैसे एक ही कालमें सर्दी और गर्मी दोनों होती हैं, उसी प्रकार एक ही समय दैव और पुरुषार्थ दोनों काम करते हैं। इन दोनोंमें जो पुरुषार्थ है, उसका आरम्भ विज्ञ पुरुषको पहले करना चाहिये। जो अपने-आप होना सम्भव नहीं है, उसको आरम्भ करनेसे मनुष्य कीर्तिका भागी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खननान्मथनाल्लोके जलाग्निप्रापणं तथा ।
तथा पुरुषकारे तु दैवसम्पत् समाहिता॥

मूलम्

खननान्मथनाल्लोके जलाग्निप्रापणं तथा ।
तथा पुरुषकारे तु दैवसम्पत् समाहिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे लोकमें भूमि खोदनेसे जल तथा काष्ठका मन्थन करनेसे अग्निकी प्राप्ति होती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ करनेपर दैवका सहयोग स्वतः प्राप्त हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरस्याकुर्वतः कर्म दैवसम्पन्न लभ्यते।
तस्मात् सर्वसमारम्भो दैवमानुषनिर्मितः ॥

मूलम्

नरस्याकुर्वतः कर्म दैवसम्पन्न लभ्यते।
तस्मात् सर्वसमारम्भो दैवमानुषनिर्मितः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य कर्म नहीं करता, उसको दैवी सहायता नहीं प्राप्त होती; अतः समस्त कार्योंका आरम्भ दैव और पुरुषार्थ दोनोंपर निर्भर है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् सर्वलोकेश लोकनाथ वृषध्वज।
नास्त्यात्मा कर्मभोक्तेति मृतो जन्तुर्न जायते॥

मूलम्

भगवन् सर्वलोकेश लोकनाथ वृषध्वज।
नास्त्यात्मा कर्मभोक्तेति मृतो जन्तुर्न जायते॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! सर्वलोकेश्वर! लोकनाथ! वृषध्वज! कर्मोंका फल भतोनेवाले जीवात्मा नामक किसी द्रव्यकी सत्ता नहीं है; इसलिये मरा हुआ जीव फिर जन्म नहीं लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वभावाज्जायते सर्वं यथा वृक्षफलं तथा।
यथोर्मयः सम्भवन्ति तथैव जगदाकृतिः॥

मूलम्

स्वभावाज्जायते सर्वं यथा वृक्षफलं तथा।
यथोर्मयः सम्भवन्ति तथैव जगदाकृतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वृक्षसे फल पैदा होता है, उसी प्रकार स्वभावसे ही सब कुछ उत्पन्न होता है और जैसे समुद्रसे लहरें प्रकट होती हैं, उसी प्रकार स्वभावसे ही जगत्‌की आकृति प्रकट होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपोदानानि यत् कर्म तत्र तद् दृश्यते वृथा।
नास्ति पौनर्भवं जन्म इति केचिद् व्यवस्थिताः॥

मूलम्

तपोदानानि यत् कर्म तत्र तद् दृश्यते वृथा।
नास्ति पौनर्भवं जन्म इति केचिद् व्यवस्थिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तप और दान आदि जो कर्म हैं, वे सब व्यर्थ दिखायी देते हैं, किंतु जीवात्माका पुनर्जन्म नहीं होता है। ऐसी कुछ लोगोंकी मान्यता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परोक्षवचनं श्रुत्वा न प्रत्यक्षस्य दर्शनात्।
तत् सर्वं नास्ति नास्तीति संशयस्थास्तथा परे॥
पक्षभेदान्तरे चास्मिंस्तत्त्वं मे वक्तुमर्हसि।
उक्तं भगवता यत् तु तत् तु लोकस्य संस्थितिः॥

मूलम्

परोक्षवचनं श्रुत्वा न प्रत्यक्षस्य दर्शनात्।
तत् सर्वं नास्ति नास्तीति संशयस्थास्तथा परे॥
पक्षभेदान्तरे चास्मिंस्तत्त्वं मे वक्तुमर्हसि।
उक्तं भगवता यत् तु तत् तु लोकस्य संस्थितिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रोंके परोक्षवादी वचन सुनकर और प्रत्यक्ष दर्शन न होनेसे कितने ही लोग इस संशयमें पड़े रहते हैं कि वह सब (परलोक) नहीं है, नहीं है। इस पक्षभेदके भीतर यथार्थवाद क्या है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें। भगवन्! आपने जो कुछ बताया है, वही लोककी स्थिति है॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रश्नमेतत् तु पृच्छन्त्या रुद्राण्या परिषत् तदा।
कौतूहलयुता श्रोतुं समाहितमनाभवत् ॥

मूलम्

प्रश्नमेतत् तु पृच्छन्त्या रुद्राण्या परिषत् तदा।
कौतूहलयुता श्रोतुं समाहितमनाभवत् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— रुद्राणीके यह प्रश्न उपस्थित करनेपर सारी मुनिमण्डली एकाग्रचित्त होकर इसका उत्तर सुननेके लिये उत्कण्ठित हो गयी॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतदस्ति महाभागे यद् वदन्तीह नास्तिकाः।
एतदेवाभिशस्तानां श्रुतविद्वेषिणां मतम् ॥

मूलम्

नैतदस्ति महाभागे यद् वदन्तीह नास्तिकाः।
एतदेवाभिशस्तानां श्रुतविद्वेषिणां मतम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— महाभागे! इस विषयमें नास्तिक लोग जो कुछ कहते हैं, वह ठीक नहीं है। यह तो कलंकित शास्त्रद्रोही पुरुषोंका मत है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वमर्थं श्रुतं दृष्टं यत् प्रागुक्तं मया तव।
तदाप्रभृति मर्त्यानां श्रुतमाश्रित्य पण्डिताः॥
कामान् संछिद्य परिघान् धृत्या वै परमासनाः।
अभियान्त्येव ते स्वर्गं पश्यन्तः कर्मणः फलम्॥

मूलम्

सर्वमर्थं श्रुतं दृष्टं यत् प्रागुक्तं मया तव।
तदाप्रभृति मर्त्यानां श्रुतमाश्रित्य पण्डिताः॥
कामान् संछिद्य परिघान् धृत्या वै परमासनाः।
अभियान्त्येव ते स्वर्गं पश्यन्तः कर्मणः फलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने पहले तुमसे जो कुछ कहा है, वह सारा विषय शास्त्रसम्मत तथा अनुभूत है। तभीसे मनुष्योंमें जो विद्वान् पुरुष हैं, वे वेद-शास्त्रका आश्रय ले परिघ-जैसी कामनाओंका उच्छेद करके धैर्यपूर्वक उत्तम आसन लगाये ध्यानमग्न रहते हैं, वे कर्मोंका फल प्रत्यक्ष देखते हुए स्वर्ग (ब्रह्म) लोकको ही जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं श्रद्धाभवं लोके परतः सुमहत् फलम्।
बुद्धिः श्रद्धा च विनयः करणानि हितैषिणाम्॥

मूलम्

एवं श्रद्धाभवं लोके परतः सुमहत् फलम्।
बुद्धिः श्रद्धा च विनयः करणानि हितैषिणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार परलोकमें श्रद्धाजनित महान् फलकी प्राप्ति होती है। जो अपना हित चाहते हैं, उन पुरुषोंके लिये बुद्धि, श्रद्धा और विनय—ये कारण (उन्नतिके साधन) हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् स्वर्गाभिगन्तारः कतिचित् त्वभवन् नराः।
अन्ये करणहीनत्वान्नास्तिक्यं भावमाश्रिताः ॥

मूलम्

तस्मात् स्वर्गाभिगन्तारः कतिचित् त्वभवन् नराः।
अन्ये करणहीनत्वान्नास्तिक्यं भावमाश्रिताः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः कुछ ही लोग उक्त साधनसे सम्पन्न होनेके कारण स्वर्ग आदि पुण्यलोकोंमें जाते हैं। दूसरे लोग उन साधनोंसे हीन होनेके कारण नास्तिकभावका अवलम्बन लेते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतविद्वेषिणो मूर्खा नास्तिकादृढनिश्चयाः ।
निष्क्रियास्तु निरन्नादाः पतन्त्येवाधमां गतिम्॥

मूलम्

श्रुतविद्वेषिणो मूर्खा नास्तिकादृढनिश्चयाः ।
निष्क्रियास्तु निरन्नादाः पतन्त्येवाधमां गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदविद्वेषी मूर्ख, नास्तिक, अदृढ़निश्चयवाले, क्रियाहीन तथा अन्नार्थियोंको बिना कुछ दिये ही घरसे निकाल देनेवाले पापी मनुष्य अधम गतिको प्राप्त होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्त्यस्तीति पुनर्जन्म कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
नाधिगच्छन्ति तन्नित्यं हेतुवादशतैरपि ॥

मूलम्

नास्त्यस्तीति पुनर्जन्म कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
नाधिगच्छन्ति तन्नित्यं हेतुवादशतैरपि ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुनर्जन्म नहीं होता है या होता है, इस विषयमें बड़े-बड़े विद्वान् मोहित हो जाते हैं। वे सैकड़ों युक्तिवादोंद्वारा भी उसे सर्वथा नहीं समझ पाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा ब्रह्मकृता माया दुर्विज्ञेया सुरासुरैः।
किं पुनर्मानवैर्लोके ज्ञातुकामैः कुबुद्धिभिः॥

मूलम्

एषा ब्रह्मकृता माया दुर्विज्ञेया सुरासुरैः।
किं पुनर्मानवैर्लोके ज्ञातुकामैः कुबुद्धिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह ब्रह्माजीके द्वारा रची माया है, जिसे देवता और असुर भी बड़ी कठिनाईसे समझ पाते हैं; फिर दूषित बुद्धिवाले मानव यदि लोकमें इस विषयको जानना चाहें तो कैसे जान सकते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केवलं श्रद्धया देवि श्रुतिमात्रनिविष्टया।
ततोऽस्तीत्येव मन्तव्यं तथा हितमवाप्नुयात्॥

मूलम्

केवलं श्रद्धया देवि श्रुतिमात्रनिविष्टया।
ततोऽस्तीत्येव मन्तव्यं तथा हितमवाप्नुयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! केवल वेदमें पूर्णतः श्रद्धा करके ‘परलोक एवं पुनर्जन्म होता है’ ऐसा मानना चाहिये। इससे आस्तिक मनुष्यका हित होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवगुह्येषु चान्येषु हेतुर्देवि निरर्थकः।
बधिरान्धवदेवात्र वर्तितव्यं हितैषिणा ॥
एतत् ते कथितं देवि ऋषिगुह्यं प्रजाहितम्॥

मूलम्

दैवगुह्येषु चान्येषु हेतुर्देवि निरर्थकः।
बधिरान्धवदेवात्र वर्तितव्यं हितैषिणा ॥
एतत् ते कथितं देवि ऋषिगुह्यं प्रजाहितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! देवसम्बन्धी जो दूसरे-दूसरे गुह्य विषय हैं, उनमें युक्तिवाद काम नहीं देता। जो अपना हित चाहनेवाले हैं, उन्हें इस विषयमें अन्धे और बहरेके समान बर्ताव करना चाहिये। अर्थात् नास्तिकोंकी ओर न तो देखे और न उनकी बातें ही सुने। देवि! यह ऋषियोंके लिये गोपनीय तथा प्रजाके लिये हितकर विषय तुम्हें बताया गया है॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)