००६

मूलम् (समाप्तिः)

[विविध प्रकारके कर्मफलोंका वर्णन]

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरासुरपते देव वरद प्रीतिवर्धन।
मानुषेष्वेव ये केचिदाढ्‌याः क्लेशविवर्जिताः॥
भुञ्जाना विविधान्‌ भोगान् दृश्यन्ते निरुपद्रवाः॥
अपरे क्लेशसंयुक्ता दरिद्रा भोगवर्जिताः॥
किमर्थं मानुषे लोके न समत्वेन कल्पिताः।
एतच्छ्रोतुं महादेव कौतूहलमतीव मे॥

मूलम्

सुरासुरपते देव वरद प्रीतिवर्धन।
मानुषेष्वेव ये केचिदाढ्‌याः क्लेशविवर्जिताः॥
भुञ्जाना विविधान्‌ भोगान् दृश्यन्ते निरुपद्रवाः॥
अपरे क्लेशसंयुक्ता दरिद्रा भोगवर्जिताः॥
किमर्थं मानुषे लोके न समत्वेन कल्पिताः।
एतच्छ्रोतुं महादेव कौतूहलमतीव मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— सुरासुरपते! सबकी प्रीति बढ़ानेवाले वरदायक देव! मनुष्योंमें ही कितने ही लोग क्लेशशून्य, उपद्रवरहित एवं धन-धान्यसे सम्पन्न होकर भाँति-भाँतिके भोग भोगते देखे जाते हैं और दूसरे बहुत-से मनुष्य क्लेशयुक्त, दरिद्र एवं भोगोंसे वंचित पाये जाते हैं। महादेव! मनुष्यलोकमें सब लोग समान क्यों नहीं बनाये गये (वहाँ इतनी विषमता क्यों है)? यह सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल हो रहा है॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमश्नुते।
स्वकृतस्य फलं भुङ्क्ते नान्यस्तद् भोक्तुमर्हति॥

मूलम्

यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमश्नुते।
स्वकृतस्य फलं भुङ्क्ते नान्यस्तद् भोक्तुमर्हति॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वर कहते हैं— देवि! जीव जैसा कर्म करता है, वैसा फल पाता है। वह अपने किये हुएका फल स्वयं ही भोगता है, दूसरा कोई उसे भोगनेका अधिकारी नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे धर्मकामेभ्यो निवृत्ताश्च शुभेक्षणे।
कदर्या निरनुक्रोशाः प्रायेणात्मपरायणाः ॥
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने।
दरिद्राः क्लेशभूयिष्ठा भवन्त्येव न संशयः॥

मूलम्

अपरे धर्मकामेभ्यो निवृत्ताश्च शुभेक्षणे।
कदर्या निरनुक्रोशाः प्रायेणात्मपरायणाः ॥
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने।
दरिद्राः क्लेशभूयिष्ठा भवन्त्येव न संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुभेक्षणे! जो लोग धर्म और कामसे निवृत्त हो लोभी, निर्दयी और प्रायः अपने ही शरीरके पोषक हो जाते हैं, शोभने! ऐसे लोग मृत्युके पश्चात् जब पुनः जन्म लेते हैं, तब दरिद्र और अधिक क्लेशके भागी होते हैं। इसमें संशय नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुषेष्वथ ये केचिद् धनधान्यसमन्विताः।
भोगहीनाः प्रदृश्यन्ते सर्वभोगेषु सत्स्वपि॥
न भूञ्जते किमर्थं ते तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

मानुषेष्वथ ये केचिद् धनधान्यसमन्विताः।
भोगहीनाः प्रदृश्यन्ते सर्वभोगेषु सत्स्वपि॥
न भूञ्जते किमर्थं ते तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! मनुष्योंमें जो लोग धन-धान्यसे सम्पन्न हैं, उनमेंसे भी कितने ही ऐसे हैं, जो सम्पूर्ण भोगोंके होनेपर भी भोगहीन देखे जाते हैं। वे उन भोगोंको क्यों नहीं भोगते? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परैः संचोदिता धर्मं कुर्वते न स्वकामतः।
धर्मश्रद्धां बहिष्कृत्य कुर्वन्ति च रुदन्ति च॥
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने।
फलानि तानि सम्प्राप्य भुञ्जते न कदाचन॥
रक्षन्तो वर्धयन्तश्च आसते निधिपालवत्॥

मूलम्

परैः संचोदिता धर्मं कुर्वते न स्वकामतः।
धर्मश्रद्धां बहिष्कृत्य कुर्वन्ति च रुदन्ति च॥
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने।
फलानि तानि सम्प्राप्य भुञ्जते न कदाचन॥
रक्षन्तो वर्धयन्तश्च आसते निधिपालवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! जो दूसरोंसे प्रेरित होकर धर्म करते हैं, स्वेच्छासे नहीं तथा धर्मविषयक श्रद्धाको दूर करके अश्रद्धासे दान या धर्म करते हैं और उसके लिये रोते या पछताते हैं; शोभने! ऐसे लोग जब मृत्युको प्राप्त होकर फिर जन्म लेते हैं तो धर्मके उन फलोंको पाकर कभी भोगते नहीं हैं। केवल खजानेकी रक्षा करनेवाले सिपाहीकी भाँति उस धनकी रखवाली करते हुए उसे बढ़ाते रहते हैं॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिद् धनवियुक्ताश्च भोगयुक्ता महेश्वर।
मानुषाः सम्प्रदृश्यन्ते तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

केचिद् धनवियुक्ताश्च भोगयुक्ता महेश्वर।
मानुषाः सम्प्रदृश्यन्ते तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— महेश्वर! कितने ही मनुष्य धनहीन होनेपर भी भोगयुक्त दिखायी देते हैं। इसका क्या कारण है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं ये दातुमनसो नरा वित्तेष्वसत्स्वपि॥
कालधर्मवशं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि ते नराः।
एते धनविहीनाश्च भोगयुक्ता भवन्त्युत॥

मूलम्

नित्यं ये दातुमनसो नरा वित्तेष्वसत्स्वपि॥
कालधर्मवशं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि ते नराः।
एते धनविहीनाश्च भोगयुक्ता भवन्त्युत॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! जो धन न होनेपर भी सदा दान देनेकी इच्छा रखते हैं, वे मनुष्य मृत्युके पश्चात् जब फिर जन्म लेते हैं, तब निर्धन होनेके साथ ही भोगयुक्त होते हैं (धर्मके प्रभावसे उनके योगक्षेमकी व्यवस्था होती रहती है)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मदानोपदेशं वा कर्तव्यमिति निश्चयः।
इति ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥

मूलम्

धर्मदानोपदेशं वा कर्तव्यमिति निश्चयः।
इति ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः धर्म और दानका उपदेश करना चाहिये—यह विद्वानोंका निश्चय है। देवि! तुम्हारे इस प्रश्नका उत्तर तो दे दिया, अब और क्या सुनना चाहती हो?॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् देवदेवेश त्रियक्ष वृषभध्वज।
मानुषास्त्रिविधा देव दृश्यन्ते सततं विभो॥

मूलम्

भगवन् देवदेवेश त्रियक्ष वृषभध्वज।
मानुषास्त्रिविधा देव दृश्यन्ते सततं विभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने कहा— भगवन्! देवदेवेश्वर! त्रिलोचन! वृषभध्वज! देव! विभो! मनुष्य तीन प्रकारके दिखायी देते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीना एव भुञ्जन्ते स्थानैश्वर्यपरिग्रहैः।
अपरे यत्नपूर्वं तु लभन्ते भोगसंग्रहम्॥
अपरे यतमानाश्च न लभन्ते तु किंचन।
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

आसीना एव भुञ्जन्ते स्थानैश्वर्यपरिग्रहैः।
अपरे यत्नपूर्वं तु लभन्ते भोगसंग्रहम्॥
अपरे यतमानाश्च न लभन्ते तु किंचन।
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोग बैठे-बैठे ही उत्तम स्थान, ऐश्वर्य और विविध भोगोंका संग्रह पाकर उनका उपभोग करते हैं। दूसरे लोग यत्नपूर्वक भोगोंका संग्रह कर पाते हैं, और तीसरे ऐसे हैं, जो यत्न करनेपर भी कुछ नहीं पाते। किस कर्मविपाकसे ऐसा होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यायतस्त्वं महाभागे श्रोतुकामासि भामिनि॥
ये लोके मानुषा देवि दानधर्मपरायणाः।
पात्राणि विधिवज्ज्ञात्वा दूरतोऽप्यनुमानतः ॥
अभिगम्य स्वयं तत्र ग्राहयन्ति प्रसाद्य च।
दानादि चेङ्गितैरेव तैरविज्ञातमेव वा॥
पुनर्जन्मनि ते देवि तादृशाः शोभना नराः।
अयत्नतस्तु तान्येव फलानि प्राप्नुवन्त्युत॥
आसीना एव भुञ्जन्ते भोगान् सुकृतभागिनः।

मूलम्

न्यायतस्त्वं महाभागे श्रोतुकामासि भामिनि॥
ये लोके मानुषा देवि दानधर्मपरायणाः।
पात्राणि विधिवज्ज्ञात्वा दूरतोऽप्यनुमानतः ॥
अभिगम्य स्वयं तत्र ग्राहयन्ति प्रसाद्य च।
दानादि चेङ्गितैरेव तैरविज्ञातमेव वा॥
पुनर्जन्मनि ते देवि तादृशाः शोभना नराः।
अयत्नतस्तु तान्येव फलानि प्राप्नुवन्त्युत॥
आसीना एव भुञ्जन्ते भोगान् सुकृतभागिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— महाभागे! भामिनि! तुम न्यायतः मेरा उपदेश सुनना चाहती हो, अतः सुनो। देवि! दानधर्ममें तत्पर रहनेवाले जो मनुष्य संसारमें दानके सुयोग्य पात्रोंका विधिवत् ज्ञान प्राप्त करके अथवा अनुमानसे भी उन्हें जानकर दूरसे भी स्वयं उनके पास चले जाते और उन्हें प्रसन्न करके अपनी दी हुई वस्तुएँ उन्हें स्वीकार करवाते हैं, उनके दान आदि कर्म संकेतसे ही होते हैं; अतः दान-पात्रोंको जनाये बिना ही जो उनके लिये दानकी वस्तुएँ दे देते हैं; देवि! वे ही पुनर्जन्ममें वैसे श्रेष्ठ पुरुष होते हैं तथा वे बिना यत्नके ही उन कर्मोंके फलोंको प्राप्त कर लेते हैं और पुण्यके भागी होनेके कारण बैठे-बैठाये ही सब तरहके भोग भोगते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे ये च दानानि ददत्येव प्रयाचिताः॥
यदा यदार्थिने दत्त्वा पुनर्दानं च याचिताः।
तावत्कालं ततो देवि पुनर्जन्मनि ते नराः।
यत्नतः श्रमसंयुक्ताः पुनस्तान् प्राप्नुवन्ति च॥

मूलम्

अपरे ये च दानानि ददत्येव प्रयाचिताः॥
यदा यदार्थिने दत्त्वा पुनर्दानं च याचिताः।
तावत्कालं ततो देवि पुनर्जन्मनि ते नराः।
यत्नतः श्रमसंयुक्ताः पुनस्तान् प्राप्नुवन्ति च॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे जो लोग याचकोंके माँगनेपर दान देते ही हैं और जब-जब याचकने माँगा, तब-तब उसे दान देकर उसके पुनः याचना करनेपर फिर दान दे देते हैं; देवि! वे मनुष्य पुनर्जन्म पानेपर यत्न और परिश्रमसे बारंबार उन दान-कर्मोंके फल पाते रहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याचिता अपि केचित् तु न ददत्येव किंचन।
अभ्यसूयापरा मर्त्या लोभोपहतचेतसः ॥

मूलम्

याचिता अपि केचित् तु न ददत्येव किंचन।
अभ्यसूयापरा मर्त्या लोभोपहतचेतसः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोग ऐसे हैं, जो याचना करनेपर भी याचकको कुछ नहीं देते। उनका चित्त लोभसे दूषित होता है और वे सदा दूसरोंके दोष ही देखा करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते पुनर्जन्मनि शुभे यतन्तो बहुधा नराः।
न प्राप्नुवन्ति मनुजा मार्गन्तस्तेऽपि किंचन॥

मूलम्

ते पुनर्जन्मनि शुभे यतन्तो बहुधा नराः।
न प्राप्नुवन्ति मनुजा मार्गन्तस्तेऽपि किंचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुभे! ऐसे लोग फिर जन्म लेनेपर बहुत यत्न करते रहते हैं तो भी कुछ नहीं पाते। बहुत ढूँढ़नेपर भी उन्हें कोई भोग सुलभ नहीं होता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानुप्तं रोहते सस्यं तद्वद् दानफलं विदुः।
यद् यद् ददाति पुरुषस्तत्‌ तत् प्राप्नोति केवलम्॥
इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि॥

मूलम्

नानुप्तं रोहते सस्यं तद्वद् दानफलं विदुः।
यद् यद् ददाति पुरुषस्तत्‌ तत् प्राप्नोति केवलम्॥
इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बीज बोये बिना खेती नहीं उपजती, यही बात दानके फलके विषयमें समझनी चाहिये—दिये बिना किसीको कुछ नहीं मिलता। मनुष्य जो-जो देता है, केवल उसीको पाता है। देवि! यह विषय तुम्हें बताया गया। अब और क्या सुनना चाहती हो?॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् भगनेत्रघ्न केचिद् वार्धक्य संयुताः।
अभोगयोग्यकाले तु भोगांश्चैव धनानि च॥
लभन्ते स्थविरा भूता भोगैश्वर्यं यतस्ततः॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसिगर्हसि॥

मूलम्

भगवन् भगनेत्रघ्न केचिद् वार्धक्य संयुताः।
अभोगयोग्यकाले तु भोगांश्चैव धनानि च॥
लभन्ते स्थविरा भूता भोगैश्वर्यं यतस्ततः॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसिगर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! भगदेवताका नेत्र नष्ट करनेवाले महादेव! कुछ लोग बूढ़े हो जानेपर, जब कि उनके लिये भोग भोगने योग्य समय नहीं रह जाता, बहुत-से भोग और धन पा जाते हैं। वे वृद्ध होनेपर भी जहाँ-तहाँसे भोग और ऐश्वर्य प्राप्त कर लेते हैं; ऐसा किस कर्म-विपाकसे सम्भव होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता॥
धर्मकार्यं चिरं कालं विस्मृत्य धनसंयुताः।
प्राणान्तकाले सम्प्राप्ते व्याधिभिश्च निपीडिताः॥
आरभन्ते पुनर्धर्मान् दातुं दानानि वा नराः॥
ते पुनर्जन्मनि शुभे भूत्वा दुःखपरिप्लुताः।
अतीतयौवने काले स्थविरत्वमुपागताः ॥
लभन्ते पूर्वदत्तानां फलानि शुभलक्षणे॥
एतत् कर्मफलं देवि कालयोगाद् भवत्युत॥

मूलम्

हन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता॥
धर्मकार्यं चिरं कालं विस्मृत्य धनसंयुताः।
प्राणान्तकाले सम्प्राप्ते व्याधिभिश्च निपीडिताः॥
आरभन्ते पुनर्धर्मान् दातुं दानानि वा नराः॥
ते पुनर्जन्मनि शुभे भूत्वा दुःखपरिप्लुताः।
अतीतयौवने काले स्थविरत्वमुपागताः ॥
लभन्ते पूर्वदत्तानां फलानि शुभलक्षणे॥
एतत् कर्मफलं देवि कालयोगाद् भवत्युत॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! मैं प्रसन्नतापूर्वक तुमसे इसका उत्तर देता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर इसका तात्त्विक विषय सुनो। जो लोग धनसे सम्पन्न होनेपर भी दीर्घकालतक धर्मकार्यको भूले रहते हैं और जब रोगोंसे पीड़ित होते हैं, तब प्राणान्त-काल निकट आनेपर धर्म करना या दान देना आरम्भ करते हैं, शुभे! वे पुनर्जन्म लेनेपर दुःखमें मग्न हो यौवनका समय बीत जानेपर जब बूढ़े होते हैं, तब पहलेके दिये हुए दानोंके फल पाते हैं। शुभलक्षणे! देवि! यह कर्म-फल काल-योगसे प्राप्त होता है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोगयुक्ता महादेव केचिद् व्याधिपरिप्लुताः।
असमर्थाश्च तान् भोक्तुं भवन्ति किल कारणम्॥

मूलम्

भोगयुक्ता महादेव केचिद् व्याधिपरिप्लुताः।
असमर्थाश्च तान् भोक्तुं भवन्ति किल कारणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— महादेव! कुछ लोग युवावस्थामें ही भोगसे सम्पन्न होनेपर भी रोगोंसे पीड़ित होनेके कारण उन्हें भोगनेमें असमर्थ हो जाते हैं, इसका क्या कारण है?॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याधियोगपरिक्लिष्टा ये निराशाः स्वजीविते।
आरभन्ते तदा कर्तुं दानानि शभलक्षणे॥
ते पुनर्जन्मनि शुभे प्राप्य तानि फलान्युत।
असमर्थाश्च तान् भोक्तुं व्याधितास्ते भवन्त्युत॥

मूलम्

व्याधियोगपरिक्लिष्टा ये निराशाः स्वजीविते।
आरभन्ते तदा कर्तुं दानानि शभलक्षणे॥
ते पुनर्जन्मनि शुभे प्राप्य तानि फलान्युत।
असमर्थाश्च तान् भोक्तुं व्याधितास्ते भवन्त्युत॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— शुभलक्षणे! जो रोगोंसे कष्टमें पड़ जानेपर जब जीवनसे निराश हो जाते हैं, तब दान करना आस्मभ करते हैं। शुभे! वे ही पुनर्जन्म लेनेपर उन फलोंको पाकर रोगोंसे आक्रान्त हो उन्हें भोगनेमें असमर्थ हो जाते हैं॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् देवदेवेश मानुषेष्वेव केचन।
रूपयुक्ताः प्रदृश्यन्ते शुभाङ्का प्रियदर्शनाः॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

भगवन् देवदेवेश मानुषेष्वेव केचन।
रूपयुक्ताः प्रदृश्यन्ते शुभाङ्का प्रियदर्शनाः॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! देवदेवेश्वर! मनुष्योंमें कुछ ही लोग रूपवान्, शुभ लक्षणसम्पन्न और प्रिय-दर्शन (परम मनोहर) देखे जाते हैं, किस कर्मविपाकसे ऐसा होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता॥
ये पुरा मानुषा देवि लज्जायुक्ताः प्रियंवदाः।
शक्ताः सुमधुरा नित्यं भूत्वा चैव स्वभावतः॥
अमांसभोजिनश्चैव सदा प्राणिदयायुताः ।
प्रतिकर्मप्रदा वापि वस्त्रदा धर्मकारणात्॥
भूमिशुद्धिकरा वापि कारणादग्निपूजकाः ॥
एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि ते नराः।
रूपेण स्पृहणीयास्तु भवन्त्येव न संशयः॥

मूलम्

हन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता॥
ये पुरा मानुषा देवि लज्जायुक्ताः प्रियंवदाः।
शक्ताः सुमधुरा नित्यं भूत्वा चैव स्वभावतः॥
अमांसभोजिनश्चैव सदा प्राणिदयायुताः ।
प्रतिकर्मप्रदा वापि वस्त्रदा धर्मकारणात्॥
भूमिशुद्धिकरा वापि कारणादग्निपूजकाः ॥
एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि ते नराः।
रूपेण स्पृहणीयास्तु भवन्त्येव न संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! मैं प्रसन्नतापूर्वक इसका रहस्य बताता हूँ। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। जो मनुष्य पूर्वजन्ममें लज्जायुक्त, प्रिय वचन बोलनेवाले, शक्तिशाली और सदा स्वभावतः मधुर स्वभाववाले होकर सर्वदा समस्त प्राणियोंपर दया करते हैं, कभी मांस नहीं खाते हैं, धर्मके उद्देश्यसे वस्त्र और आभूषणोंका दान करते हैं, भूमिकी शुद्धि करते हैं, कारणवश अग्निकी पूजा करते हैं; ऐसे सदाचारसम्पन्न मनुष्य पुनर्जन्म लेनेपर रूप-सौन्दर्यकी दृष्टिसे स्पृहणीय होते ही हैं, इसमें संशय नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरूपाश्च प्रदृश्यन्ते मानुषेष्वेव केचन।
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

विरूपाश्च प्रदृश्यन्ते मानुषेष्वेव केचन।
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! मनुष्योंमें ही कुछ लोग बड़े कुरूप दिखायी देते हैं, इसमें कौन-सा कर्मविपाक कारण है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु कल्याणि कारणम्॥
रूपयोगात् पुरा मर्त्या दर्पाहंकारसंयुताः।
विरूपहासकाश्चैव स्तुतिनिन्दादिभिर्भृशम् ॥
परोपतापिनश्चैव मांसादाश्च तथैव च।
अभ्यसूयापराश्चैव अशुद्धाश्च तथा नराः॥
एवंयुक्तसमाचारा यमलोके सुदण्डिताः ।
कथंचित् प्राप्य मानुष्यं तत्र ते रूपवर्जिताः॥
विरूपाः सम्भवन्त्येव नास्ति तत्र विचारणा।

मूलम्

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु कल्याणि कारणम्॥
रूपयोगात् पुरा मर्त्या दर्पाहंकारसंयुताः।
विरूपहासकाश्चैव स्तुतिनिन्दादिभिर्भृशम् ॥
परोपतापिनश्चैव मांसादाश्च तथैव च।
अभ्यसूयापराश्चैव अशुद्धाश्च तथा नराः॥
एवंयुक्तसमाचारा यमलोके सुदण्डिताः ।
कथंचित् प्राप्य मानुष्यं तत्र ते रूपवर्जिताः॥
विरूपाः सम्भवन्त्येव नास्ति तत्र विचारणा।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— कल्याणि! सुनो, मैं तुमको इसका कारण बताता हूँ। पूर्वजन्ममें सुन्दर रूप पाकर जो मनुष्य दर्प और अहंकारसे युक्त हो स्तुति और निन्दा आदिके द्वारा कुरूप मनुष्योंकी बहुत हँसी उड़ाया करते हैं, दूसरोंको सताते, मांस खाते, पराया दोष देखते और सदा अशुद्ध रहते हैं, ऐसे अनाचारी मनुष्य यमलोकमें भलीभाँति दण्ड पाकर जब फिर किसी प्रकार मनुष्य-योनिमें जन्म लेते हैं, तब रूपहीन और कुरूप होते ही हैं। इसमें विचार करनेकी कोई आवश्यकता नहीं॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् देवदेवेश केचित् सौभाग्यसंयुताः।
रूपभोगविहीनाश्च दृश्यन्ते प्रमदाप्रियाः ॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

भगवन् देवदेवेश केचित् सौभाग्यसंयुताः।
रूपभोगविहीनाश्च दृश्यन्ते प्रमदाप्रियाः ॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! देवदेवेश्वर! कुछ मनुष्य सौभाग्यशाली होते हैं, जो रूप और भोगसे हीन होनेपर भी नारीको प्रिय लगते हैं। किस कर्म-विपाकसे ऐसा होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये पुरा मानुषा देवि सौम्यशीलाः प्रियंवदाः।
स्वदारैरेव संतुष्टा दारेषु समवृत्तयः॥
दाक्षिण्येनैव वर्तन्ते प्रमदास्वप्रियास्वपि ।
न तु प्रत्यादिशन्त्येव स्त्रीदोषान् गुणसंश्रितान्॥
अन्नपानीयदाः काले नृणां स्वादुप्रदाश्च ये।
स्वदारव्रतिनश्चैव धृतिमन्तो निरत्ययाः ॥
एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने ।
मानुषास्ते भवन्त्येव सततं सुभगा भृशम्॥
अर्थादृतेऽपि ते देवि भवन्ति प्रमदाप्रियाः॥

मूलम्

ये पुरा मानुषा देवि सौम्यशीलाः प्रियंवदाः।
स्वदारैरेव संतुष्टा दारेषु समवृत्तयः॥
दाक्षिण्येनैव वर्तन्ते प्रमदास्वप्रियास्वपि ।
न तु प्रत्यादिशन्त्येव स्त्रीदोषान् गुणसंश्रितान्॥
अन्नपानीयदाः काले नृणां स्वादुप्रदाश्च ये।
स्वदारव्रतिनश्चैव धृतिमन्तो निरत्ययाः ॥
एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने ।
मानुषास्ते भवन्त्येव सततं सुभगा भृशम्॥
अर्थादृतेऽपि ते देवि भवन्ति प्रमदाप्रियाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! जो मनुष्य पहले सौम्य-स्वभावके तथा प्रिय वचन बोलनेवाले होते हैं, अपनी ही पत्नीमें संतुष्ट रहते हैं, यदि कई पत्नियाँ हों तो उन सबपर समान भाव रखते हैं, अपने स्वभावके कारण अप्रिय लगनेवाली स्त्रियोंके प्रति भी उदारतापूर्ण बर्ताव करते हैं, स्त्रियोंके दोषोंकी चर्चा नहीं करते, उनके गुणोंका ही बखान करते हैं, समयपर अन्न और जलका दान करते हैं, अतिथियोंको स्वादिष्ट अन्न भोजन कराते हैं, अपनी पत्नीके प्रति ही अनुरक्त रहनेका नियम लेते हैं, धैर्यवान् और दुःखरहित होते हैं, शोभने! ऐसे आचारवाले मनुष्य पुनर्जन्म लेनेपर सदा सौभाग्यशाली होते ही हैं। देवि! वे धनहीन होनेपर भी अपनी पत्नीके प्रीतिपात्र होते हैं॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्भगाः सम्प्रदृश्यन्ते आर्या भोगयुता अपि।
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

दुर्भगाः सम्प्रदृश्यन्ते आर्या भोगयुता अपि।
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! बहुत-से श्रेष्ठ पुरुष भोगोंसे सम्पन्न होनेपर भी दुर्भाग्यके मारे दिखायी देते हैं। किस कर्मविपाकसे ऐसा सम्भव होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वं समाहिता॥
ये पुरा मेनुजा देवि स्वदारेष्वनपेक्षया।
यथेष्टवृत्तयश्चैव निर्लज्जा वीतसम्भ्रमाः ॥
परेषां विप्रियकरा वाङ्‌मनःकायकर्मभिः ।
निराश्रया निरन्नाद्याः स्त्रीणां हृदयकोपनाः॥
एवं युक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि ते नराः।
दुर्भगास्तु भवन्त्येव स्त्रीणां हृदयविप्रियाः॥
नास्ति तेषां रतिसुखं स्वदारेध्वपि किंचन॥

मूलम्

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वं समाहिता॥
ये पुरा मेनुजा देवि स्वदारेष्वनपेक्षया।
यथेष्टवृत्तयश्चैव निर्लज्जा वीतसम्भ्रमाः ॥
परेषां विप्रियकरा वाङ्‌मनःकायकर्मभिः ।
निराश्रया निरन्नाद्याः स्त्रीणां हृदयकोपनाः॥
एवं युक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि ते नराः।
दुर्भगास्तु भवन्त्येव स्त्रीणां हृदयविप्रियाः॥
नास्ति तेषां रतिसुखं स्वदारेध्वपि किंचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! इस बातको मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम एकाग्रचित होकर सारी बातें सुनो। जो मनुष्य पहले अपनी पत्नीकी उपेक्षा करके स्वेच्छाचारी हो जाते हैं, लज्जा और भयको छोड़ देते हैं, मन, वाणी और शरीर तथा क्रियाद्वारा दूसरोंकी बुराई करते हैं और आश्रयहीन एवं निराहार रहकर पत्नीके हृदयमें क्रोध उत्पन्न करते हैं; ऐसे दूषित आचारवाले मनुष्य पुनर्जन्म लेनेपर दुर्भाग्ययुक्त और नारी जातिके लिये अप्रिय ही होते हैं। ऐसे भाग्यहीनोंको अपनी पत्नीसे भी अनुरागजनित सुख नहीं सुलभ होता॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् देवदेवेश मानुषेष्वपि केचन।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्ना बुद्धिमन्तो विचक्षणाः ॥
दुर्गतास्तु प्रदृश्यन्ते यतमाना यथाविधि।
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

भगवन् देवदेवेश मानुषेष्वपि केचन।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्ना बुद्धिमन्तो विचक्षणाः ॥
दुर्गतास्तु प्रदृश्यन्ते यतमाना यथाविधि।
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! देवदेवेश्वर! मनुष्योंमेंसे कुछ लोग ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न, बुद्धिमान् और विद्वान् होनेपर भी दुर्गतिमें पड़े दिखायी देते हैं। वे विधिपूर्वक यत्न करके भी उस दुर्गतिसे नहीं छूट पाते। किस कर्मविपाकसे ऐसा होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु कल्याणि कारणम्॥
ये पुरा मनुजा देवि श्रुतवन्तोऽपि केवलम्।
निराश्रया निरन्नाद्या भृशमात्मपरायणाः ॥
ते पुनर्जन्मनि शुभे ज्ञानबुद्धियुता अपि।
निष्किंचना भवन्त्येव अनुप्तं हि न रोहति॥

मूलम्

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु कल्याणि कारणम्॥
ये पुरा मनुजा देवि श्रुतवन्तोऽपि केवलम्।
निराश्रया निरन्नाद्या भृशमात्मपरायणाः ॥
ते पुनर्जन्मनि शुभे ज्ञानबुद्धियुता अपि।
निष्किंचना भवन्त्येव अनुप्तं हि न रोहति॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— कल्याणि! सुनो, मैं इसका कारण तुम्हें बताता हूँ। देवि! जो मनुष्य पहले केवल विद्वान् होनेपर भी आश्रयहीन और भोजन-सामग्रीसे वंचित होकर केवल अपने ही उदर-पोषणके प्रयत्नमें लगे रहते हैं, शुभे! वे पुनर्जन्म लेनेपर ज्ञान और बुद्धिसे युक्त होनेपर भी अकिंचन ही रह जाते हैं, क्योंकि बिना बोया हुआ बीज नहीं जमता है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्खा लोके प्रदृश्यन्ते दृढमूला विचेतसः।
ज्ञानविज्ञानरहिताः समृद्धाश्च समन्ततः ॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

मूर्खा लोके प्रदृश्यन्ते दृढमूला विचेतसः।
ज्ञानविज्ञानरहिताः समृद्धाश्च समन्ततः ॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! इस जगत्‌में मूर्ख, अचेत तथा ज्ञान-विज्ञानसे रहित मनुष्य भी सब ओरसे समृद्धिशाली और दृढ़मूल दिखायी देते हैं। किस कर्मविपाकसे ऐसा होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये पुरा मनुजा देवि बालिशा अपि सर्वतः।
समाचरन्ति दानानि दीनानुग्रहकारणात् ॥
अबुद्धिपूर्वं वा दानं ददत्येव ततस्ततः।
ते पुनर्जन्मनि शुभे प्राप्नुवन्त्येव तत् तथा॥
पण्डितोऽपण्डितो वापि भुङ्‌क्ते दानफलं नरः।
बुद्‌ध्याऽनपेक्षितं दानं सर्वथा तत् फलत्युत॥

मूलम्

ये पुरा मनुजा देवि बालिशा अपि सर्वतः।
समाचरन्ति दानानि दीनानुग्रहकारणात् ॥
अबुद्धिपूर्वं वा दानं ददत्येव ततस्ततः।
ते पुनर्जन्मनि शुभे प्राप्नुवन्त्येव तत् तथा॥
पण्डितोऽपण्डितो वापि भुङ्‌क्ते दानफलं नरः।
बुद्‌ध्याऽनपेक्षितं दानं सर्वथा तत् फलत्युत॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! जो मनुष्य पहले मूर्ख होनेपर भी सब ओर दीन-दुःखियोंपर अनुग्रह करके उन्हें दान देते रहे हैं, जो पहलेसे दानके महत्त्वको न समझकर भी जहाँ-तहाँ दान देते ही रहे हैं, शुभे! वे मनुष्य पुनर्जन्म प्राप्त होनेपर वैसी अवस्थाको प्राप्त होते ही हैं। कोई मूर्ख हो या पण्डित, प्रत्येक मनुष्य दानका फल भोगता है। बुद्धिसे अनपेक्षित दान भी सर्वथा फल देता ही है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् देवदेवेश मानुषेषु च केचन।
मेधाविनः श्रुतिधरा भवन्ति विशदाक्षराः॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

भगवन् देवदेवेश मानुषेषु च केचन।
मेधाविनः श्रुतिधरा भवन्ति विशदाक्षराः॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! देवदेवेश्वर! मनुष्योंमें ही कुछ लोग बड़े मेधावी, किसी बातको एक बार सुनकर ही उसे याद कर लेनेवाले और विशद अक्षर-ज्ञानसे सम्पन्न होते हैं। किस कर्मविपाकसे ऐसा होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये पुरा मनुजा देवि गुरुशुश्रूषका भृशम्।
ज्ञानार्थं ते तु संगृह्य तीर्थं ते विधिपूर्वकम्॥
विधिनैव परांश्चैव ग्राहयन्ति च नान्यथा।
अश्लाघमाना ज्ञानेन प्रशान्ता यतवाचकाः॥
विद्यास्थानानि ये लोके स्थापयन्ति च यत्नतः।
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने॥
मेधाविनः श्रुतिधरा भवन्ति विशदाक्षराः।

मूलम्

ये पुरा मनुजा देवि गुरुशुश्रूषका भृशम्।
ज्ञानार्थं ते तु संगृह्य तीर्थं ते विधिपूर्वकम्॥
विधिनैव परांश्चैव ग्राहयन्ति च नान्यथा।
अश्लाघमाना ज्ञानेन प्रशान्ता यतवाचकाः॥
विद्यास्थानानि ये लोके स्थापयन्ति च यत्नतः।
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने॥
मेधाविनः श्रुतिधरा भवन्ति विशदाक्षराः।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! जो मनुष्य पहले गुरुकी अत्यन्त सेवा करनेवाले रहे हैं और ज्ञानके लिये विधिपूर्वक गुरुका आश्रय लेकर स्वयं भी दूसरोंको विधिसे ही अपनी विद्या ग्रहण कराते रहे हैं, अविधिसे नहीं। अपने ज्ञानके द्वारा जो कभी अपनी झूठी बड़ाई नहीं करते रहे हैं, अपितु शान्त और मौन रहे हैं तथा जो जगत्‌में यत्नपूर्वक विद्यालयोंकी स्थापना करते रहे हैं, शोभने! ऐसे पुरुष जब मृत्युको प्राप्त होकर पुनर्जन्म लेते हैं, तब मेधावी, किसी बातको एक बार ही सुनकर उसे याद कर लेनेवाले और विशद अक्षर-ज्ञानसे सम्पन्न होते हैं॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे मानुषा देव यतन्तोऽपि यतस्ततः।
बहिष्कृताः प्रदृश्यन्ते श्रुतविज्ञानबुद्धितः ॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

अपरे मानुषा देव यतन्तोऽपि यतस्ततः।
बहिष्कृताः प्रदृश्यन्ते श्रुतविज्ञानबुद्धितः ॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— देव! दूसरे मनुष्य यत्न करनेपर भी जहाँ-तहाँ शास्त्रज्ञान और बुद्धिसे बहिष्कृत दिखायी देते हैं। किस कर्मविपाकसे ऐसा होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये पुरा मनुजा देवि ज्ञानदर्पसमन्विताः।
श्लाघमानाश्च तत् प्राप्य ज्ञानाहङ्कारमोहिताः॥
वदन्ति ये परान् नित्यं ज्ञानाधिक्येन दर्पिताः।
ज्ञानादसूयां कुर्वन्ति न सहन्ते हि चापरान्॥
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने।
मानुष्यं सुचिरात् प्राप्य तत्र बोधविवर्जिताः॥
भवन्ति सततं देवि यतन्तो हीनमेधसः॥

मूलम्

ये पुरा मनुजा देवि ज्ञानदर्पसमन्विताः।
श्लाघमानाश्च तत् प्राप्य ज्ञानाहङ्कारमोहिताः॥
वदन्ति ये परान् नित्यं ज्ञानाधिक्येन दर्पिताः।
ज्ञानादसूयां कुर्वन्ति न सहन्ते हि चापरान्॥
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने।
मानुष्यं सुचिरात् प्राप्य तत्र बोधविवर्जिताः॥
भवन्ति सततं देवि यतन्तो हीनमेधसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! जो मनुष्य ज्ञानके घमंडमें आकर अपनी झूठी प्रशंसा करते हैं और ज्ञान पाकर उसके अहंकारसे मोहित हो दूसरोंपर आक्षेप करते हैं, जिन्हें सदा अपने अधिक ज्ञानका गर्व रहता है, जो ज्ञानसे दूसरोंके दोष प्रकट किया करते हैं और दूसरे ज्ञानियोंको नहीं सहन कर पाते हैं, शोभने! ऐसे मनुष्य मृत्युके पश्चात् पुनर्जन्म लेनेपर चिरकालके बाद मनुष्य-योनि पाते हैं। देवि! उस जन्ममें वे सदा यत्न करनेपर भी बोधहीन और बुद्धिरहित होते हैं॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् मानुषाः केचित् सर्वकल्याणसंयुताः।
पुत्रैर्दारैर्गुणयुतैर्दासीदासपरिच्छदैः ॥
परस्परर्द्धिसंयुक्ताः स्थानैश्वर्यमनोहरैः ।
व्याधिहीना निराबाधा रूपारोग्यबलैर्युताः ॥
धनधान्येन सम्पन्नाः प्रसादैर्यानवाहनैः ।
सर्वोपभोगसंयुक्ता नानाचित्रैर्मनोहरैः ॥
ज्ञातिभिः सह मोदन्ते अविघ्नं तु दिने दिने।
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

भगवन् मानुषाः केचित् सर्वकल्याणसंयुताः।
पुत्रैर्दारैर्गुणयुतैर्दासीदासपरिच्छदैः ॥
परस्परर्द्धिसंयुक्ताः स्थानैश्वर्यमनोहरैः ।
व्याधिहीना निराबाधा रूपारोग्यबलैर्युताः ॥
धनधान्येन सम्पन्नाः प्रसादैर्यानवाहनैः ।
सर्वोपभोगसंयुक्ता नानाचित्रैर्मनोहरैः ॥
ज्ञातिभिः सह मोदन्ते अविघ्नं तु दिने दिने।
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! कितने ही मनुष्य समस्त कल्याणमय गुणोंसे युक्त होते हैं। वे गुणवान् स्त्री-पुत्र, दास-दासी तथा अन्य उपकरणोंसे सम्पन्न होते हैं। स्थान, ऐश्वर्य तथा मनोहर भोगों और पारस्परिक समृद्धिसे संयुक्त होते हैं। रोगहीन, बाधाओंसे रहित, रूप-आरोग्य और बलसे सम्पन्न, धन-धान्यसे परिपूर्ण, भाँति-भाँतिके विचित्र एवं मनोहर महल, यान और वाहनोंसे युक्त एवं सब प्रकारके भोगोंसे संयुक्त हो वे प्रतिदिन जाति-भाइयोंके साथ निर्विघ्न आनन्द भोगते हैं। किस कर्मविपाकसे ऐसा होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वं समाहिता॥
ये पुरा मनुजा देवि आढ्‌या वा इतरेऽपि वा।
श्रुतवृत्तसमायुक्ता दानकामाः श्रुतप्रियाः ॥
परेङ्गितपरा नित्यं दातव्यमिति निश्चिताः।
सत्यसंधाः क्षमाशीला लोभमोहविवर्जिताः ॥
दातारः पात्रतो दानं व्रतैर्नियमसंयुताः।
स्वदुःखमिव संस्मृत्य परदुःखविवर्जिताः ॥
सौम्यशीलाः शुभाचारा देवब्राह्मणपूजकाः ॥
एवंशीलसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने ।
दिवि वा भूवि वा देवि जायन्ते कर्मभोगिनः॥

मूलम्

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वं समाहिता॥
ये पुरा मनुजा देवि आढ्‌या वा इतरेऽपि वा।
श्रुतवृत्तसमायुक्ता दानकामाः श्रुतप्रियाः ॥
परेङ्गितपरा नित्यं दातव्यमिति निश्चिताः।
सत्यसंधाः क्षमाशीला लोभमोहविवर्जिताः ॥
दातारः पात्रतो दानं व्रतैर्नियमसंयुताः।
स्वदुःखमिव संस्मृत्य परदुःखविवर्जिताः ॥
सौम्यशीलाः शुभाचारा देवब्राह्मणपूजकाः ॥
एवंशीलसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने ।
दिवि वा भूवि वा देवि जायन्ते कर्मभोगिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! यह मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम एकाग्रचित होकर सब बातें सुनो। जो धनाढ्‌य या निर्धन मनुष्य पहले शास्त्रज्ञान और सदाचारसे युक्त, दान करनेके इच्छुक, शास्त्रप्रेमी, दूसरोंके इशारेको समझकर सदा दान देनेके लिये दृढ़ विचार रखनेवाले, सत्यप्रतिज्ञ, क्षमाशील, लोभ-मोहसे रहित, सुपात्रको दान देनेवाले, व्रत और नियमोंसे युक्त तथा अपने दुःखके समान ही दूसरोंके भी दुःखको समझकर किसीको दुःख न देनेवाले होते हैं, जिनका शील-स्वभाव सौम्य होता है, आचार-व्यवहार शुभ होते हैं, जो देवताओं तथा ब्राह्मणोंके पूजक होते हैं, शोभामयी देवि! ऐसे शील-सदाचारवाले मानव पुनर्जन्म पानेपर स्वर्गमें या पृथ्वीपर अपने सत्कर्मोंके फल भोगते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुषेष्वपि ये जातास्तादृशाः सम्भवन्ति ते।
यादृशास्तु त्वया प्रोक्ताः सर्वे कल्याणसंयुताः॥
रूपं द्रव्यं बलं चायुर्भोगैश्वर्यं कुलं श्रुतम्।
इत्येतत् सर्वसाद्‌गुण्यं दानाद् भवति नान्यथा॥
तपोदानमयं सर्वमिति विद्धि शुभानने॥

मूलम्

मानुषेष्वपि ये जातास्तादृशाः सम्भवन्ति ते।
यादृशास्तु त्वया प्रोक्ताः सर्वे कल्याणसंयुताः॥
रूपं द्रव्यं बलं चायुर्भोगैश्वर्यं कुलं श्रुतम्।
इत्येतत् सर्वसाद्‌गुण्यं दानाद् भवति नान्यथा॥
तपोदानमयं सर्वमिति विद्धि शुभानने॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैसे पुरुष जब मनुष्योंमें जन्म ग्रहण करते हैं, तब वे सभी तुम्हारे बताये अनुसार कल्याणमय गुणोंसे सम्पन्न होते हैं। उन्हें रूप, द्रव्य, बल, आयु, भोग, ऐश्वर्य, उत्तम कुल और शास्त्रज्ञान प्राप्त होते हैं। इन सभी सद्‌गुणोंकी प्राप्ति दानसे ही होती है, अन्यथा नहीं। शुभानने! तुम यह जान लो कि सब कुछ तपस्या और दानका ही फल है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ केचित् प्रदृश्यन्ते मानुषेष्वेव मानुषाः।
दुर्गताः क्लेशभूयिष्ठा दानभोगविवर्जिताः ॥
भयैस्त्रिभिः समायुक्ता व्याधिक्षुद्भयसंयुताः ।
दुष्कलत्राभिभूताश्च सततं विघ्नदर्शकाः ॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

अथ केचित् प्रदृश्यन्ते मानुषेष्वेव मानुषाः।
दुर्गताः क्लेशभूयिष्ठा दानभोगविवर्जिताः ॥
भयैस्त्रिभिः समायुक्ता व्याधिक्षुद्भयसंयुताः ।
दुष्कलत्राभिभूताश्च सततं विघ्नदर्शकाः ॥
केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— प्रभो! मनुष्योंमें ही कुछ लोग दुर्गतियुक्त अधिक क्लेशसे पीड़ित, दान और भोगसे वंचित, तीन प्रकारके भयोंसे युक्त, रोग और भोगके भयसे पीड़ित, दुष्ट पत्नीसे तिरस्कृत तथा सदा सभी कार्योंमें विघ्नका ही दर्शन करनेवाले होते हैं। किस कर्मविपाकसे ऐसा होता है? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये पुरा मनुजा देवि आसुरं भावमाश्रिताः।
क्रोधलोभसमायुक्ता निरन्नाद्याश्च निष्क्रियाः ॥
नास्तिकाश्चैव धूर्ताश्च मूर्खाश्चात्मपरायणाः ।
परोपतापिनो देवि प्रायशः प्राणिनिर्दयाः॥
एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने ।
कथंचित् प्राप्य मानुष्यं तत्र ते दुःखपीडिताः॥
सर्वतः सम्भवन्त्येव पूर्वमात्मप्रमादतः ।
यथा ते पूर्वकथितास्तथा ते सम्भवन्त्युत॥

मूलम्

ये पुरा मनुजा देवि आसुरं भावमाश्रिताः।
क्रोधलोभसमायुक्ता निरन्नाद्याश्च निष्क्रियाः ॥
नास्तिकाश्चैव धूर्ताश्च मूर्खाश्चात्मपरायणाः ।
परोपतापिनो देवि प्रायशः प्राणिनिर्दयाः॥
एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने ।
कथंचित् प्राप्य मानुष्यं तत्र ते दुःखपीडिताः॥
सर्वतः सम्भवन्त्येव पूर्वमात्मप्रमादतः ।
यथा ते पूर्वकथितास्तथा ते सम्भवन्त्युत॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! जो मनुष्य पहले आसुरभावके आश्रित, क्रोध और लोभसे युक्त, भोजन-सामग्रीसे वंचित, अकर्मण्य, नास्तिक, धूर्त, मूर्ख, अपना ही पेट पालनेवाले, दूसरोंको सतानेवाले तथा प्रायः सभी प्राणियोंके प्रति निर्दय होते हैं। शोभने! ऐसे आचार-व्यवहारसे युक्त मनुष्य पुनर्जन्मके समय किसी प्रकार मनुष्ययोनिको पाकर जहाँ-कहीं भी उत्पन्न होते हैं, सर्वत्र अपने ही प्रमादके कारण दुःखसे पीड़ित होते हैं और जैसा तुमने बताया है, वैसे ही अवांछनीय दोषसे युक्त होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभाशुभं कृतं कर्म सुखदुःखफलोदयम्।
इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि॥

मूलम्

शुभाशुभं कृतं कर्म सुखदुःखफलोदयम्।
इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! मनुष्यका किया हुआ शुभ या अशुभ कर्म ही उसे सुख या दुःखरूप फलकी प्राप्ति करानेवाला है। यह बात मैंने तुम्हें बता दी। अब और क्या सुनना चाहती हो?॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)