मूलम् (समाप्तिः)
[संक्षेपसे राजधर्मका वर्णन]
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्रहासश्च भृत्येषु न कर्तव्यो नराधिपैः।
लघुत्वं चैव प्राप्नोति आज्ञा चास्य निवर्तते॥
मूलम्
सम्प्रहासश्च भृत्येषु न कर्तव्यो नराधिपैः।
लघुत्वं चैव प्राप्नोति आज्ञा चास्य निवर्तते॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी कहते हैं— देवि! राजाओंको अपने सेवकोंके साथ हास-परिहास नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करनेसे उन्हें लघुता प्राप्त होती है और उनकी आज्ञाका पालन नहीं किया जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भृत्यानां सम्प्रहासेन पार्थिवः परिभूयते।
अयाच्यानि च याचन्ति अवक्तव्यं ब्रुवन्ति च॥
मूलम्
भृत्यानां सम्प्रहासेन पार्थिवः परिभूयते।
अयाच्यानि च याचन्ति अवक्तव्यं ब्रुवन्ति च॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेवकोंके साथ हँसी-परिहास करनेसे राजाका तिरस्कार होता है। वे धृष्ट सेवक न माँगने योग्य वस्तुओंको भी माँग बैठते हैं और न कहने योग्य बातें भी कह डालते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वमप्युचितैर्लाभैः परितोषं न यान्ति ते।
तस्माद् भृत्येषु नृपतिः सम्प्रहासं विवर्जयेत्॥
मूलम्
पूर्वमप्युचितैर्लाभैः परितोषं न यान्ति ते।
तस्माद् भृत्येषु नृपतिः सम्प्रहासं विवर्जयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहलेसे ही उचित लाभ मिलनेपर भी वे संतुष्ट नहीं होते; इसलिये राजा सेवकोंके साथ हँसी-मजाक करना छोड़ दे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते न च विश्वसेत्।
सगोत्रेषु विशेषेण सर्वोपायैर्न विश्वसेत्॥
मूलम्
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते न च विश्वसेत्।
सगोत्रेषु विशेषेण सर्वोपायैर्न विश्वसेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा अविश्वस्त पुरुषपर कभी विश्वास न करे। जो विश्वस्त हो, उसपर भी पूरा विश्वास न करे; विशेषतः अपने समान गोत्रवाले भाई-बन्धुओंपर किसी भी उपायसे कदापि विश्वास न करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वासाद् भयमुत्पन्नं हन्याद् वृक्षमिवाशनिः।
प्रमादाद्धन्यते राजा लोभेन च वशीकृतः॥
तस्मात् प्रमादं लोभं च न च कुर्यान्न विश्वसेत्॥
मूलम्
विश्वासाद् भयमुत्पन्नं हन्याद् वृक्षमिवाशनिः।
प्रमादाद्धन्यते राजा लोभेन च वशीकृतः॥
तस्मात् प्रमादं लोभं च न च कुर्यान्न विश्वसेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वज्र वृक्षको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार विश्वाससे उत्पन्न हुआ भय राजाको नष्ट कर डालता है। प्रमादवश लोभके वशीभूत हुआ राजा मारा जाता है। अतः प्रमाद और लोभको अपने भीतर न आने दे तथा किसीपर भी विश्वास न करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भयार्तानां भयात् त्राता दीनानुग्रहकारणात्।
कार्याकार्यविशेषज्ञो नित्यं राष्ट्रहिते रतः॥
मूलम्
भयार्तानां भयात् त्राता दीनानुग्रहकारणात्।
कार्याकार्यविशेषज्ञो नित्यं राष्ट्रहिते रतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा भयातुर मनुष्योंकी भयसे रक्षा करे, दीन-दुःखियोंपर अनुग्रह करे, कर्तव्य और अकर्तव्यको विशेषरूपसे समझे और सदा राष्ट्रके हितमें संलग्न रहे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यः संधस्थितो राज्ये प्रजापालनतत्परः।
अलुब्धो न्यायवादी च षड्भागमुपजीवति॥
मूलम्
सत्यः संधस्थितो राज्ये प्रजापालनतत्परः।
अलुब्धो न्यायवादी च षड्भागमुपजीवति॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी प्रतिज्ञाको सत्य कर दिखावे। राज्यमें स्थित रहकर प्रजाके पालनमें तत्पर रहे। लोभशून्य होकर न्याययुक्त बात कहे और प्रजाकी आयका छठा भागमात्र लेकर जीवन-निर्वाह करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्याकार्यविशेषज्ञः सर्वं धर्मेण पश्यति।
स्वराष्ट्रेषु दयां कुर्यादकार्ये न प्रवर्तते॥
मूलम्
कार्याकार्यविशेषज्ञः सर्वं धर्मेण पश्यति।
स्वराष्ट्रेषु दयां कुर्यादकार्ये न प्रवर्तते॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्तव्य-अकर्तव्यको समझे। सबको धर्मकी दृष्टिसे देखे! अपने राष्ट्रके निवासियोंपर दया करे और कभी न करने योग्य कर्ममें प्रवृत न हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चैवैनं प्रशंसन्ति ये च निन्दन्ति मानवाः।
शत्रुं च मित्रवत् पश्येदपराधविवर्जितम्॥
मूलम्
ये चैवैनं प्रशंसन्ति ये च निन्दन्ति मानवाः।
शत्रुं च मित्रवत् पश्येदपराधविवर्जितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य राजाकी प्रशंसा करते हैं और जो उसकी निन्दा करते हैं, इनमेंसे शत्रु भी यदि निरपराध हो तो उसे मित्रके समान देखे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपराधानुरूपेण दुष्टं दण्डेन शासयेत्।
धर्मः प्रवर्तते तत्र यत्र दण्डरुचिर्नृपः॥
मूलम्
अपराधानुरूपेण दुष्टं दण्डेन शासयेत्।
धर्मः प्रवर्तते तत्र यत्र दण्डरुचिर्नृपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्टको अपराधके अनुसार दण्ड देकर उसका शासन करे। जहाँ राजा न्यायोचित दण्डमें रुचि रखता है, वहाँ धर्मका पालन होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाधर्मो विद्यते तत्र यत्र राजाक्षमान्वितः॥
अशिष्टशासनं धर्मः शिष्टानां परिपालनम्।
मूलम्
नाधर्मो विद्यते तत्र यत्र राजाक्षमान्वितः॥
अशिष्टशासनं धर्मः शिष्टानां परिपालनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ राजा क्षमाशील न हो, वहाँ अधर्म नहीं होता। अशिष्ट पुरुषोंको दण्ड देना और शिष्ट पुरुषोंका पालन करना राजाका धर्म है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वध्यांश्च घातयेद् यस्तु अवध्यान् परिरक्षति॥
अवध्या ब्राह्मणा गावो दूताश्चैव पिता तथा।
विद्यां ग्राहयते यश्च ये च पूर्वोपकारिणः॥
स्त्रियश्चैव न हन्तव्या यश्च सर्वातिथिर्नरः॥
मूलम्
वध्यांश्च घातयेद् यस्तु अवध्यान् परिरक्षति॥
अवध्या ब्राह्मणा गावो दूताश्चैव पिता तथा।
विद्यां ग्राहयते यश्च ये च पूर्वोपकारिणः॥
स्त्रियश्चैव न हन्तव्या यश्च सर्वातिथिर्नरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा वधके योग्य पुरुषोंका वध करे और जो वधके योग्य न हों, उनकी रक्षा करे। ब्राह्मण, गौ, दूत, पिता, जो विद्या पढ़ाता है वह अध्यापक तथा जिन्होंने पहले कभी उपकार किये हैं वे मनुष्य—ये सब-के-सब अवध्य माने गये हैं। स्त्रियोंका तथा जो सबका अतिथि-सत्कार करनेवाला हो, उस मनुष्यका भी वध नहीं करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरणीं गां हिरण्यं च सिद्धान्नं च तिलान् घृतम्।
ददन्नित्यं द्विजातिभ्यो मुच्यते राजकिल्बिषात्॥
मूलम्
धरणीं गां हिरण्यं च सिद्धान्नं च तिलान् घृतम्।
ददन्नित्यं द्विजातिभ्यो मुच्यते राजकिल्बिषात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी, गौ, सुवर्ण, सिद्धान्न, तिल और घी—इन वस्तुओंका ब्राह्मणके लिये प्रतिदिन दान करनेवाला राजा पापसे मुक्त हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चरति यो नित्यं राजा राष्ट्रहिते रतः।
तस्य राष्ट्रं धनं धर्मो यशः कीर्तिश्च वर्धते॥
मूलम्
एवं चरति यो नित्यं राजा राष्ट्रहिते रतः।
तस्य राष्ट्रं धनं धर्मो यशः कीर्तिश्च वर्धते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा इस प्रकार राष्ट्रके हितमें तत्पर हो प्रतिदिन ऐसा बर्ताव करता है, उसके राष्ट्र, धन, धर्म, यश और कीर्तिका विस्तार होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च पापैर्न चानर्थैर्युज्यते स नराधिपः॥
षड्भागमुपयुञ्जन् यः प्रजा राजा न रक्षति॥
स्वचक्रपरचकाभ्यां धर्मैर्वा विक्रमेण वा।
निरुद्योगो नृपो यश्च परराष्ट्रविघातने॥
स्वराष्ट्रं निष्प्रतापस्य परचक्रेण हन्यते॥
मूलम्
न च पापैर्न चानर्थैर्युज्यते स नराधिपः॥
षड्भागमुपयुञ्जन् यः प्रजा राजा न रक्षति॥
स्वचक्रपरचकाभ्यां धर्मैर्वा विक्रमेण वा।
निरुद्योगो नृपो यश्च परराष्ट्रविघातने॥
स्वराष्ट्रं निष्प्रतापस्य परचक्रेण हन्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा राजा पाप और अनर्थका भागी नहीं होता। जो नरेश प्रजाकी आयके छठे भागका उपयोग तो करता है; परंतु धर्म या पराक्रमद्वारा स्वचक्र (अपनी मण्डलीके लोगों) तथा परचक्र (शत्रुमण्डलीके लोगों)-से प्रजाकी रक्षा नहीं करता एवं जो राजा दूसरेके राष्ट्रपर आक्रमण करनेके विषयमें सदा उद्योगहीन बना रहता है, उस प्रतापहीन राजाका राज्य शत्रुओंद्वारा नष्ट कर दिया जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् पापं परचक्रस्य परराष्ट्राभिघातने।
तत् पापं सकलं राजा हतराष्ट्रः प्रपद्यते॥
मूलम्
यत् पापं परचक्रस्य परराष्ट्राभिघातने।
तत् पापं सकलं राजा हतराष्ट्रः प्रपद्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे चक्रके राजाके लिये दूसरेके राष्ट्रका विनाश करनेपर जो पाप लागू होता है, वह समूचा पाप उस राजाको भी प्राप्त होता है, जिसका राज्य उसीकी दुर्बलताके कारण शत्रुओंद्वारा नष्ट कर दिया जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातुलं भागिनेयं वा मातरं श्वशुरं गुरुम्।
पितरं वर्जयित्वैकं हन्याद् घातकमागतम्॥
मूलम्
मातुलं भागिनेयं वा मातरं श्वशुरं गुरुम्।
पितरं वर्जयित्वैकं हन्याद् घातकमागतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मामा, भानजा, माता, श्वशुर, गुरु तथा पिता—इनमेंसे प्रत्येकको छोड़कर यदि दूसरा कोई मनुष्य मारनेकी नीयतसे आ जाय तो उसे (आततायी समझकर) मार डालना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वस्य राष्ट्रस्य रक्षार्थं युध्यमानस्तु यो हतः।
संग्रामे परचक्रेण श्रूयतां तस्य या गतिः॥
मूलम्
स्वस्य राष्ट्रस्य रक्षार्थं युध्यमानस्तु यो हतः।
संग्रामे परचक्रेण श्रूयतां तस्य या गतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा अपने राष्ट्रकी रक्षाके लिये युद्धमें जूझता हुआ शत्रुमण्डलके द्वारा मारा जाता है, उसे जो गति मिलती है, उसको श्रवण करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमाने तु वरारोहे अप्सरोगणसेविते।
शक्रलोकमितो याति संग्रामे निहतो नृपः॥
मूलम्
विमाने तु वरारोहे अप्सरोगणसेविते।
शक्रलोकमितो याति संग्रामे निहतो नृपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वरारोहे! संग्राममें मारा गया नरेश अप्सराओंसे सेवित विमानपर आरूढ़ हो इस लोकसे इन्द्रलोकमें जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावन्तो रोमकूपाः स्युस्तस्य गात्रेषु सुन्दरि।
तावद्वर्षसहस्राणि शक्रलोके महीयते ॥
मूलम्
यावन्तो रोमकूपाः स्युस्तस्य गात्रेषु सुन्दरि।
तावद्वर्षसहस्राणि शक्रलोके महीयते ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दरि! उसके अंगोंमें जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक वह इन्द्रलोकमें सम्मानित होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि वै मानुषे लोके कदाचिदुपपद्यते।
राजा वा राजमात्रो वा भूयो भवति वीर्यवान्॥
मूलम्
यदि वै मानुषे लोके कदाचिदुपपद्यते।
राजा वा राजमात्रो वा भूयो भवति वीर्यवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कदाचित् वह फिर मनुष्यलोकमें आता है तो पुनः राजा या राजाके तुल्य ही शक्तिशाली पुरुष होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् यत्नेन कर्तव्यं स्वराष्ट्रपरिपालनम्।
व्यवहाराश्च चारश्च सततं सत्यसंधता॥
अप्रमादः प्रमोदश्च व्यवसायेऽप्यचण्डता ।
भरणं चैव भृत्यानां वाहनानां च पोषणम्॥
योधानां चैव सत्कारः कृते कर्मण्यमोघता।
श्रेय एव नरेन्द्राणामिह चैव परत्र च॥
मूलम्
तस्माद् यत्नेन कर्तव्यं स्वराष्ट्रपरिपालनम्।
व्यवहाराश्च चारश्च सततं सत्यसंधता॥
अप्रमादः प्रमोदश्च व्यवसायेऽप्यचण्डता ।
भरणं चैव भृत्यानां वाहनानां च पोषणम्॥
योधानां चैव सत्कारः कृते कर्मण्यमोघता।
श्रेय एव नरेन्द्राणामिह चैव परत्र च॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये राजाको यत्नपूर्वक अपने राष्ट्रकी रक्षा करनी चाहिये। राजोचित व्यवहारोंका पालन, गुप्तचरोंकी नियुक्ति, सदा सत्यप्रतिज्ञ होना, प्रमाद न करना, प्रसन्न रहना, व्यवसायमें अत्यन्त कुपित न होना, भृत्यवर्गका भरण और वाहनोंका पोषण करना, योद्धाओंका सत्कार करना और किये हुए कार्यमें सफलता लाना—यह सब राजाओंका कर्तव्य है। ऐसा करनेसे उन्हें इहलोक और परलोकमें भी श्रेयकी प्राप्ति होती है॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)