मूलम् (समाप्तिः)
[योद्धाओंके धर्मका वर्णन तथा रणयज्ञमें प्राणोत्सर्गकी महिमा]
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ यस्तु सहायार्थमुक्ताः स्यात् पार्थिवैर्नरैः॥
भोगानां संविभागेन वस्त्राभरणभूषणैः ।
सहभोजनसम्बन्धैः सत्कारैर्विविधैरपि ॥
सहायकाले सम्प्राप्ते संग्रामे शस्त्रमुद्धरेत्॥
मूलम्
अथ यस्तु सहायार्थमुक्ताः स्यात् पार्थिवैर्नरैः॥
भोगानां संविभागेन वस्त्राभरणभूषणैः ।
सहभोजनसम्बन्धैः सत्कारैर्विविधैरपि ॥
सहायकाले सम्प्राप्ते संग्रामे शस्त्रमुद्धरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् महेश्वर कहते हैं— राजा भाँति-भाँतिके भोग, वस्त्र और आभूषण देकर जिन लोगोंको अपनी सहायताके लिये बुलाता और रखता है, उनके साथ भोजन करके घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता है और नाना प्रकारके सत्कारोंद्वारा उन्हें संतुष्ट करता है, ऐसे योद्धाओंको उचित है कि युद्ध छिड़ जानेपर सहायताके समय उस राजाके लिये शस्त्र उठावे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्यमानेष्वभिघ्नत्सु शूरेषु रणसंकटे ।
पृष्ठं दत्त्वा च ये तत्र नायकस्य नराधमाः॥
अनाहता निवर्तन्ते नायके चाप्यनीप्सति।
ते दुष्कृतं प्रपद्यन्ते नायकस्याखिलं नराः॥
यच्चास्ति सुकृतं तेषां युज्यते तेन नायकः।
मूलम्
हन्यमानेष्वभिघ्नत्सु शूरेषु रणसंकटे ।
पृष्ठं दत्त्वा च ये तत्र नायकस्य नराधमाः॥
अनाहता निवर्तन्ते नायके चाप्यनीप्सति।
ते दुष्कृतं प्रपद्यन्ते नायकस्याखिलं नराः॥
यच्चास्ति सुकृतं तेषां युज्यते तेन नायकः।
अनुवाद (हिन्दी)
जब घोर संग्राममें शूरवीर एक-दूसरेको मारते और मारे जाते हों, उस अवसरपर जो नराधम सैनिक पीठ देकर सेनानायककी इच्छा न होते हुए भी बिना घायल हुए ही युद्धसे मुँह मोड़ लेते हैं, वे सेनापतिके सम्पूर्ण पापोंको स्वयं ही ग्रहण कर लेते हैं और उन भगेड़ोंके पास जो कुछ भी पुण्य होता है, वह सेनानायकको प्राप्त हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा परमो धर्म इति येऽपि नरा विदुः।
संग्रामेषु न युध्यन्ते भृत्याश्चैवानुरूपतः॥
नरकं यान्ति ते घोरं भर्तृपिण्डापहारिणः॥
मूलम्
अहिंसा परमो धर्म इति येऽपि नरा विदुः।
संग्रामेषु न युध्यन्ते भृत्याश्चैवानुरूपतः॥
नरकं यान्ति ते घोरं भर्तृपिण्डापहारिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहिंसा परम धर्म है,’ ऐसी जिनकी मान्यता है, वे भी यदि राजाके सेवक हैं, उनसे भरण-पोषणकी सुविधा एवं भोजन पाते हैं, ऐसी दशामें भी वे अपनी शक्तिके अनुरूप संग्रामोंमें जूझते नहीं हैं तो घोर नरकमें पड़ते हैं; क्योंकि वे स्वामीके अन्नका अपहरण करनेवाले हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु प्राणान् परित्यज्य प्रविशेदुद्यतायुधः।
संग्राममग्निप्रतिमं पतंग इव निर्भयः॥
स्वर्गमाविशते ज्ञात्वा योधस्य गतिनिश्चयम्॥
मूलम्
यस्तु प्राणान् परित्यज्य प्रविशेदुद्यतायुधः।
संग्राममग्निप्रतिमं पतंग इव निर्भयः॥
स्वर्गमाविशते ज्ञात्वा योधस्य गतिनिश्चयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने प्राणोंकी परवाह छोड़कर पतंगकी भाँति निर्भय हो हाथमें हथियार उठाये अग्निके समान विनाशकारी संग्राममें प्रवेश कर जाता है और योद्धाको मिलनेवाली निश्चित गतिको जानकर उत्साहपूर्वक जूझता है, वह स्वर्गलोकमें जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु स्वं नायकं रक्षेदतिघोरे रणाङ्गणे।
तापयन्नरिसैन्यानि सिंहो मृगगणानिव ॥
आदित्य इव मध्याह्ने दुर्निरीक्ष्यो रणाजिरे॥
निर्दयो यस्तु संग्रामे प्रहरन्तुद्यतायुधः।
यजते स तु पूतात्मा संग्रामेण महाक्रतुम्॥
मूलम्
यस्तु स्वं नायकं रक्षेदतिघोरे रणाङ्गणे।
तापयन्नरिसैन्यानि सिंहो मृगगणानिव ॥
आदित्य इव मध्याह्ने दुर्निरीक्ष्यो रणाजिरे॥
निर्दयो यस्तु संग्रामे प्रहरन्तुद्यतायुधः।
यजते स तु पूतात्मा संग्रामेण महाक्रतुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अत्यन्त घोर समरांगणमें मृगोंके झुडोंको संतप्त करनेवाले सिंहके समान शत्रुसैनिकोंको ताप देता हुआ अपने नायक (राजा या सेनापति) की रक्षा करता है, मध्याह्नकालके सूर्यकी भाँति रणक्षेत्रमें जिसकी ओर देखना शत्रुओंके लिये अत्यन्त कठिन हो जाता है तथा जो संग्राममें शस्त्र उठाये निर्दयतापूर्वक प्रहार करता है, वह शुद्धचित्त होकर उस युद्धके द्वारा ही मानो महान् यज्ञका अनुष्ठान करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्म कृष्णाजिनं तस्य दन्तकाष्ठं धनुः स्मृतम्।
रथो वेदिर्ध्वजो यूपः कुशाश्च रथरश्मयः॥
मानो दर्पस्त्वहङ्कारस्त्रयस्त्रेताग्नयः स्मृताः ।
प्रतोदश्च स्रुवस्तस्य उपाध्यायो हि सारथिः॥
स्रुग्भाण्डं चापि यत् किंचिद् यज्ञोपकरणानि च॥
आयुधान्यस्य तत् सर्वं समिधः सायकाः स्मृताः॥
मूलम्
वर्म कृष्णाजिनं तस्य दन्तकाष्ठं धनुः स्मृतम्।
रथो वेदिर्ध्वजो यूपः कुशाश्च रथरश्मयः॥
मानो दर्पस्त्वहङ्कारस्त्रयस्त्रेताग्नयः स्मृताः ।
प्रतोदश्च स्रुवस्तस्य उपाध्यायो हि सारथिः॥
स्रुग्भाण्डं चापि यत् किंचिद् यज्ञोपकरणानि च॥
आयुधान्यस्य तत् सर्वं समिधः सायकाः स्मृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कवच ही उसका काला मृगचर्म है, धनुष ही दाँतुन या दन्तकाष्ठ है, रथ ही वेदी है, ध्वज यूप है और रथकी रस्सियाँ ही बिछे हुए कुशोंका काम देती हैं। मान, दर्प और अहंकार—ये त्रिविध अग्नियाँ हैं, चाबुक, स्रुवा है, सारथि उपाध्याय है, स्रुक्-भाण्ड आदि जो कुछ भी यज्ञकी सामग्री है, उसके स्थानमें उस योद्धाके भिन्न-भिन्न अस्त्र-शस्त्र हैं। सायकोंको ही समिधा माना गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वेदस्रवश्च गात्रेभ्यः क्षौद्रं तस्य यशस्विनः।
पुरोडाशा नृशीर्षाणि रुधिरं चाहुतिः स्मृता॥
तूणाश्चैव चरुर्ज्ञेया वसोर्धारा वसाः स्मृताः॥
क्रव्यादा भूतसंघाश्च तस्मिन् यज्ञे द्विजातयः।
तेषां भक्तान्नपानानि हता नृगजवाजिनः॥
मूलम्
स्वेदस्रवश्च गात्रेभ्यः क्षौद्रं तस्य यशस्विनः।
पुरोडाशा नृशीर्षाणि रुधिरं चाहुतिः स्मृता॥
तूणाश्चैव चरुर्ज्ञेया वसोर्धारा वसाः स्मृताः॥
क्रव्यादा भूतसंघाश्च तस्मिन् यज्ञे द्विजातयः।
तेषां भक्तान्नपानानि हता नृगजवाजिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस यशस्वी वीरके अंगोंसे जो पसीने ढलते हैं, वे ही मानो मधु हैं। मनुष्योंके मस्तक पुरोडाश हैं, रुधिर आहुति है, तूणीरोंको चरु समझना चाहिये। वसाको ही वसुधारा माना गया है, मांसभक्षी भूतोंके समुदाय ही उस यज्ञमें द्विज हैं। मारे गये मनुष्य, हाथी और घोड़े ही उनके भोजन और अन्नपान हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहतानां तु योधानां वस्त्राभरणभूषणम्।
हिरण्यं च सुवर्णं च यद् वै यज्ञस्य दक्षिणा॥
मूलम्
निहतानां तु योधानां वस्त्राभरणभूषणम्।
हिरण्यं च सुवर्णं च यद् वै यज्ञस्य दक्षिणा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मारे गये योद्धाओंके जो वस्त्र, आभूषण और सुवर्ण हैं, वे ही मानो उस रणयज्ञकी दक्षिणा हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तत्र हन्यते देवि गजस्कन्धगतो नरः।
ब्रह्मलोकमवाप्नोति रणेष्वभिमुखो हतः ॥
मूलम्
यस्तत्र हन्यते देवि गजस्कन्धगतो नरः।
ब्रह्मलोकमवाप्नोति रणेष्वभिमुखो हतः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! जो संग्राममें हाथीकी पीठपर बैठा हुआ युद्धके मुहानेपर मारा जाता है, वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथमध्यगतो वापि हयपृष्ठगतोऽपि वा।
हन्यते यस्तु संग्रामे शक्रलोके महीयते॥
मूलम्
रथमध्यगतो वापि हयपृष्ठगतोऽपि वा।
हन्यते यस्तु संग्रामे शक्रलोके महीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथके बीचमें बैठा हुआ या घोड़ेकी पीठपर चढ़ा हुआ जो वीर युद्धमें मारा जाता है, वह इन्द्रलोकमें सम्मानित होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गे हताः प्रपूज्यन्ते हन्ता त्वत्रैव पूज्यते।
द्वावेतौ सुखमेधेते हन्ता यश्चैव हन्यते॥
मूलम्
स्वर्गे हताः प्रपूज्यन्ते हन्ता त्वत्रैव पूज्यते।
द्वावेतौ सुखमेधेते हन्ता यश्चैव हन्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
मारे गये योद्धा स्वर्गमें पूजित होते हैं; किन्तु मारनेवाला इसी लोकमें प्रशंसित होता है। अतः युद्धमें दोनों ही सुखी होते हैं—जो मारता है वह और जो मारा जाता है वह॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् संग्राममासाद्य प्रहर्तव्यमभीतवत् ॥
निर्भयो यस्तु संग्रामे प्रहरेदुद्यतायुधः॥
यथा नदीसहस्राणि प्रविष्टानि महोदधिम्।
तथा सर्वे न संदेहो धर्मा धर्मभृतां वरम्॥
मूलम्
तस्मात् संग्राममासाद्य प्रहर्तव्यमभीतवत् ॥
निर्भयो यस्तु संग्रामे प्रहरेदुद्यतायुधः॥
यथा नदीसहस्राणि प्रविष्टानि महोदधिम्।
तथा सर्वे न संदेहो धर्मा धर्मभृतां वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः संग्रामभूमिमें पहुँच जानेपर निर्भय होकर शत्रुपर प्रहार करना चाहिये। जो हथियार उठाकर संग्राममें निर्भय होकर प्रहार करता है, धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ उस वीरको निस्संदेह सभी धर्म प्राप्त होते हैं। ठीक उसी तरह जैसे महासागरमें सहस्रों नदियाँ आकर मिलती हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद् धर्मो न हन्तव्यः पार्थिवेन विशेषतः॥
मूलम्
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद् धर्मो न हन्तव्यः पार्थिवेन विशेषतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म ही, यदि उसका हनन किया जाय तो मारता है और धर्म ही सुरक्षित होनेपर रक्षा करता है; अतः प्रत्येक मनुष्यको, विशेषतः राजाको धर्मका हनन नहीं करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजाः पालयते यत्र धर्मेण वसुधाधिपः।
षट्कर्मनिरता विप्राः पूज्यन्ते पितृदैवतैः॥
नैव तस्मिन्ननावृष्टिर्न रोगा नाप्युपद्रवाः।
धर्मशीलाः प्रजाः सर्वाः स्वधर्मनिरते नृपे॥
मूलम्
प्रजाः पालयते यत्र धर्मेण वसुधाधिपः।
षट्कर्मनिरता विप्राः पूज्यन्ते पितृदैवतैः॥
नैव तस्मिन्ननावृष्टिर्न रोगा नाप्युपद्रवाः।
धर्मशीलाः प्रजाः सर्वाः स्वधर्मनिरते नृपे॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ राजा धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करता है तथा जहाँ पितरों और देवताओंके साथ षट्कर्मपरायण ब्राह्मणोंकी पूजा होती है, उस देशमें न तो कभी अनावृष्टि होती है, न रोगोंका आक्रमण होता है और न किसी तरहके उपद्रव ही होते हैं। राजाके स्वधर्म-परायण होनेपर वहाँकी सारी प्रजा धर्मशील होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष्टव्यः सततं देवि युक्ताचारो नराधिपः।
छिद्रज्ञश्चैव शत्रूणामप्रमत्तः प्रतापवान् ॥
मूलम्
एष्टव्यः सततं देवि युक्ताचारो नराधिपः।
छिद्रज्ञश्चैव शत्रूणामप्रमत्तः प्रतापवान् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! प्रजाको सदा ऐसे नरेशकी इच्छा रखनी चाहिये, जो सदाचारी तो हो ही, देशमें सब ओर गुप्तचर नियुक्त करके शत्रुओंके छिद्रोंकी जानकारी रखता हो। सदा ही प्रमादशून्य और प्रतापी हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुद्राः पृथिव्यां बहवो राज्ञां बहुविनाशकाः।
तस्मात् प्रमादं सुश्रोणि न कुर्यात् पण्डितो नृपः॥
मूलम्
क्षुद्राः पृथिव्यां बहवो राज्ञां बहुविनाशकाः।
तस्मात् प्रमादं सुश्रोणि न कुर्यात् पण्डितो नृपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुश्रोणि! पृथ्वीपर बहुत-से ऐसे क्षुद्र मनुष्य हैं, जो राजाओंका महान् विनाश करनेपर तुले रहते हैं; अतः विद्वान् राजाको कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये (आत्मरक्षाके लिये सदा सावधान रहना चाहिये।)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु मित्रेषु त्यक्तेषु तथा मर्त्येषु हस्तिषु।
विस्रम्भो नोपगन्तव्यः स्नानपानेघु नित्यशः॥
मूलम्
तेषु मित्रेषु त्यक्तेषु तथा मर्त्येषु हस्तिषु।
विस्रम्भो नोपगन्तव्यः स्नानपानेघु नित्यशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहलेके छोड़े हुए मित्रोंपर, अन्यान्य मनुष्योंपर, हाथियोंपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। प्रतिदिनके स्नान और खानपानमें भी किसीका पूर्णतः विश्वास करना उचित नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञो वल्लभतामेति कुलं भावयते स्वकम्।
यस्तु राष्ट्रहितार्थाय गोब्राह्मणकृते तथा॥
बन्दीग्रहाय मित्रार्थे प्राणांस्त्यजति दुस्त्यजान्॥
मूलम्
राज्ञो वल्लभतामेति कुलं भावयते स्वकम्।
यस्तु राष्ट्रहितार्थाय गोब्राह्मणकृते तथा॥
बन्दीग्रहाय मित्रार्थे प्राणांस्त्यजति दुस्त्यजान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राष्ट्रके हितके लिये, गौ और ब्राह्मणोंके उपकारके लिये, किसीको बन्धनसे मुक्त करनेके लिये और मित्रोंकी सहायताके निमित्त अपने दुस्त्यज प्राणोंका परित्याग कर देता है, वह राजाको प्रिय होता है और अपने कुलको उन्नतिके शिखरपर पहुँचा देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वकामदुघां धेनुं धरणीं लोकधारिणीम्।
समुद्रान्तां वरारोहे सशैलवनकाननाम् ॥
दद्याद् देवि द्विजातिभ्यो वसुपूर्णां वसुन्धराम्॥
न तत्समं वरारोहे प्राणत्यागी विशिष्यते॥
मूलम्
सर्वकामदुघां धेनुं धरणीं लोकधारिणीम्।
समुद्रान्तां वरारोहे सशैलवनकाननाम् ॥
दद्याद् देवि द्विजातिभ्यो वसुपूर्णां वसुन्धराम्॥
न तत्समं वरारोहे प्राणत्यागी विशिष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
वरारोहे! यदि कोई सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाली कामधेनुको तथा पर्वत और वनोंसहित समुद्रपर्यन्त लोकधारिणी पृथ्वीको धनसे परिपूर्ण करके द्विजोंको दान कर देता है, उसका वह दान भी पूर्वोक्त प्राणत्यागी योद्धाके त्यागके समान नहीं है। वह प्राण-त्यागी ही उस दातासे बढ़कर है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रमपि यज्ञानां यजते च धनर्द्धिमान्।
यज्ञैस्तस्य किमाश्चर्यं प्राणत्यागः सुदुष्करः॥
मूलम्
सहस्रमपि यज्ञानां यजते च धनर्द्धिमान्।
यज्ञैस्तस्य किमाश्चर्यं प्राणत्यागः सुदुष्करः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके पास धन और सम्पत्ति है, वह सहस्रों यज्ञ कर सकता है। उसके उन यज्ञोंसे कौन-सी आश्चर्यकी बात हो गयी! प्राणोंका परित्याग करना तो सभीके लिये अत्यन्त दुष्कर है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सर्वेषु यज्ञेषु प्राणयज्ञो विशिष्यते।
एवं संग्रामयज्ञास्ते यथार्थं समुदाहृताः॥
मूलम्
तस्मात् सर्वेषु यज्ञेषु प्राणयज्ञो विशिष्यते।
एवं संग्रामयज्ञास्ते यथार्थं समुदाहृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः सम्पूर्ण यज्ञोंमें प्राणयज्ञ ही बढ़कर है। देवि! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष रणयज्ञका यथार्थरूपसे वर्णन किया है॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)