मूलम् (समाप्तिः)
[राजधर्मका वर्णन]
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदेव नमस्तुभ्यं त्रियक्ष वृषभध्वज।
श्रुतं मे भगवन् सर्वं त्वत्प्रसादान्महेश्वर॥
मूलम्
देवदेव नमस्तुभ्यं त्रियक्ष वृषभध्वज।
श्रुतं मे भगवन् सर्वं त्वत्प्रसादान्महेश्वर॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने कहा— देवदेव! त्रिलोचन! वृषभध्वज! भगवन्! महेश्वर! आपकी कृपासे मैंने पूर्वोक्त सब विषयोंको सुना है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगृहीतं मया तच्च तव वाक्यमनुत्तमम्।
इदानीमस्ति संदेहो मानुषेष्विह कश्चन॥
मूलम्
संगृहीतं मया तच्च तव वाक्यमनुत्तमम्।
इदानीमस्ति संदेहो मानुषेष्विह कश्चन॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुनकर आपके उस परम उत्तम उपदेशको मैंने बुद्धिके द्वारा ग्रहण किया है। इस समय मनुष्योंके विषयमें एक संदेह ऐसा रह गया है, जिसका समाधान आवश्यक है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुल्यप्राणशिरःकायो राजायमिति दृश्यते ।
केन कर्मविपाकेन सर्वप्राधान्यमर्हति ॥
मूलम्
तुल्यप्राणशिरःकायो राजायमिति दृश्यते ।
केन कर्मविपाकेन सर्वप्राधान्यमर्हति ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्योंमें यह जो राजा दिखायी देता है, उसके भी प्राण, सिर और धड़ दूसरे मनुष्योंके समान ही हैं; फिर किस कर्मके फलसे यह सबमें प्रधान पद पानेका अधिकारी हुआ है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चापि दण्डयन् मर्त्यान् भर्त्सयन् विविधानपि।
प्रेत्यभावे कथं लोकाल्ँलभते पुण्यकर्मणाम्॥
राजवृत्तमहं तस्माच्छ्रोतुमिच्छामि मानद ।
मूलम्
स चापि दण्डयन् मर्त्यान् भर्त्सयन् विविधानपि।
प्रेत्यभावे कथं लोकाल्ँलभते पुण्यकर्मणाम्॥
राजवृत्तमहं तस्माच्छ्रोतुमिच्छामि मानद ।
अनुवाद (हिन्दी)
यह राजा नाना प्रकारके मनुष्योंको दण्ड देता और उन्हें डाँटता-फटकारता है। यह मृत्युके पश्चात् कैसे पुण्यात्माओंके लोक पाता है? मानद! अतः मैं राजाके आचार-व्यवहारका वर्णन सुनना चाहती हूँ॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदहं ते प्रवक्ष्यामि राजधर्मं शुभानने॥
राजायत्तं हि यत् सर्वं लोकवृत्तं शुभाशुभम्।
महतस्तपसो देवि फलं राज्यमिति स्मृतम्॥
मूलम्
तदहं ते प्रवक्ष्यामि राजधर्मं शुभानने॥
राजायत्तं हि यत् सर्वं लोकवृत्तं शुभाशुभम्।
महतस्तपसो देवि फलं राज्यमिति स्मृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— शुभानने! अब मैं तुम्हें राजधर्मकी बात बताऊँगा; क्योंकि जगत्का सारा शुभाशुभ आचार-व्यवहार राजाके ही अधीन है। देवि! राज्यको बहुत बड़ी तपस्याका फल माना गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अराजके पुरा त्वासीत् प्रजानां संकुलं महत्।
तद् दृष्ट्वा संकुलं ब्रह्मा मनुं राज्ये न्यवेशयत्॥
मूलम्
अराजके पुरा त्वासीत् प्रजानां संकुलं महत्।
तद् दृष्ट्वा संकुलं ब्रह्मा मनुं राज्ये न्यवेशयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन कालकी बात है, सर्वत्र अराजकता फैली हुई थी। प्रजापर महान् संकट आ गया। प्रजाकी यह संकटापन्न अवस्था देख ब्रह्माजीने मनुको राजसिंहासनपर बिठाया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदाप्रभृति संदृष्टं राज्ञां वृत्तं शुभाशुभम्।
तन्मे शृणु वरारोहे तस्य पथ्यं जगद्धितम्॥
मूलम्
तदाप्रभृति संदृष्टं राज्ञां वृत्तं शुभाशुभम्।
तन्मे शृणु वरारोहे तस्य पथ्यं जगद्धितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तभीसे राजाओंका शुभाशुभ बर्ताव देखनेमें आया है। वरारोहे! राजाका जो आचरण जगत्के लिये हितकर और लाभदायक है, वह मुझसे सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा प्रेत्य लभेत् स्वर्गं यथा वीर्यं यशस्तथा।
पित्र्यं वा भूतपूर्वं वा स्वयमुत्पाद्य वा पुनः॥
राज्यधर्ममनुष्ठाय विधिवद् भोक्तुमर्हति ॥
मूलम्
यथा प्रेत्य लभेत् स्वर्गं यथा वीर्यं यशस्तथा।
पित्र्यं वा भूतपूर्वं वा स्वयमुत्पाद्य वा पुनः॥
राज्यधर्ममनुष्ठाय विधिवद् भोक्तुमर्हति ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस बर्तावके कारण वह मृत्युके पश्चात् स्वर्गका भागी हो सकता है, वही बता रहा हूँ। उसमें जैसा पराक्रम और जैसा यश होना चाहिये, वह भी सुनो। पिताकी ओरसे प्राप्त हुए अथवा और पहलेसे चले आते हुए अथवा स्वयं ही पराक्रमद्वारा प्राप्त करके वशमें किये हुए राज्यको राजा धर्मका आश्रय ले विधिपूर्वक उपभोगमें लाये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानमेव प्रथमं विनयैरुपपादयेत् ।
अनुभृत्यान् प्रजाः पश्चादित्येष विनयक्रमः॥
मूलम्
आत्मानमेव प्रथमं विनयैरुपपादयेत् ।
अनुभृत्यान् प्रजाः पश्चादित्येष विनयक्रमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले अपने आपको ही विनयसे सम्पन्न करे। तत्पश्चात् सेवकों और प्रजाओंको विनयकी शिक्षा दे। यही विनयका क्रम है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वामिनं चोपमां कृत्वा प्रजास्तद्वृत्तकाङ्क्षया।
स्वयं विनयसम्पन्ना भवन्तीह शुभेक्षणे॥
मूलम्
स्वामिनं चोपमां कृत्वा प्रजास्तद्वृत्तकाङ्क्षया।
स्वयं विनयसम्पन्ना भवन्तीह शुभेक्षणे॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभेक्षणे! राजाको ही आदर्श मानकर उसके आचरण सीखनेकी इच्छासे प्रजावर्गके लोग स्वयं भी विनयसे सम्पन्न होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वस्मात् पूर्वतरं राजा विनयत्येव वै प्रजाः।
अपहास्यो भवेत्तादृक् स्वदोषस्यानवेक्षणात् ॥
मूलम्
स्वस्मात् पूर्वतरं राजा विनयत्येव वै प्रजाः।
अपहास्यो भवेत्तादृक् स्वदोषस्यानवेक्षणात् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा स्वयं विनय सीखनेके पहले प्रजाको ही विनय सिखाता है, वह अपने दोषोंपर दृष्टि न डालनेके कारण उपहासका पात्र होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्याभ्यासैर्वृद्धयोगैरात्मानं विनयं नयेत् ।
विद्या धर्मार्थफलिनी तद्विदो वृद्धसंज्ञिताः॥
मूलम्
विद्याभ्यासैर्वृद्धयोगैरात्मानं विनयं नयेत् ।
विद्या धर्मार्थफलिनी तद्विदो वृद्धसंज्ञिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्याके अभ्यास और वृद्ध पुरुषोंके संगसे अपने आपको विनयशील बनाये। विद्या धर्म और अर्थरूप फल देनेवाली है। जो उस विद्याके ज्ञाता हैं, उन्हींको वृद्ध कहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणां जयो देवि अत ऊर्ध्वमुदाहृतः।
अजये सुमहान् दोषो राजानं विनिपातयेत्॥
मूलम्
इन्द्रियाणां जयो देवि अत ऊर्ध्वमुदाहृतः।
अजये सुमहान् दोषो राजानं विनिपातयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! इसके बाद राजाको अपनी इन्द्रियोंपर विजय पाना चाहिये—यह बात बतायी गयी। इन्द्रियोंको काबूमें न रखनेसे जो महान् दोष प्राप्त होता है, वह राजाको नीचे गिरा देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चैव स्ववशे कृत्वा तदर्थान् पञ्च शोषयेत्।
षडुत्सृज्य यथायोगं ज्ञानेन विनयेन च॥
शास्त्रचक्षुर्नयपरो भूत्वा भृत्यान् समाहरेत्॥
मूलम्
पञ्चैव स्ववशे कृत्वा तदर्थान् पञ्च शोषयेत्।
षडुत्सृज्य यथायोगं ज्ञानेन विनयेन च॥
शास्त्रचक्षुर्नयपरो भूत्वा भृत्यान् समाहरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँचों इन्द्रियोंको अपने अधीन करके उनके पाँचों विषयोंको सुखा डाले। ज्ञान और विनयके द्वारा आवश्यक प्रयत्न करके काम-क्रोध आदि छः दोषोंको त्याग दे तथा शास्त्रीय दृष्टिका सहारा लेकर न्यायपरायण हो सेवकोंका संग्रह करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृत्तश्रुतकुलोपेतानुपधाभिः परीक्षितान् ।
अमात्यानुपधातीतान् सापसर्पान् जितेन्द्रियान् ॥
योजयेत यथायोगं यथार्हं स्वेषु कर्मसु॥
मूलम्
वृत्तश्रुतकुलोपेतानुपधाभिः परीक्षितान् ।
अमात्यानुपधातीतान् सापसर्पान् जितेन्द्रियान् ॥
योजयेत यथायोगं यथार्हं स्वेषु कर्मसु॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सदाचार, शास्त्रज्ञान और उत्तम कुलसे सम्पन्न हों, जिनकी सचाई और ईमानदारीकी परीक्षा ले ली गयी हो, जो उस परीक्षामें उत्तीर्ण हुए हों, जिनके साथ बहुत-से जासूस हों और जो जितेन्द्रिय हों—ऐसे अमात्योंको यथायोग्य अपने कर्मोंमें उनकी योग्यताके अनुसार नियुक्त करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमात्या बुद्धिसम्पन्ना राष्ट्रं बहुजनप्रियम्।
दुराधर्षं पुरश्रेष्ठं कोशः कृच्छ्रसहः स्मृतः॥
अनुरक्तं बलं साम्नामद्वैधं मित्रमेव च।
एताः प्रकृतयः स्वेषु स्वामी विनयतत्त्ववित्॥
मूलम्
अमात्या बुद्धिसम्पन्ना राष्ट्रं बहुजनप्रियम्।
दुराधर्षं पुरश्रेष्ठं कोशः कृच्छ्रसहः स्मृतः॥
अनुरक्तं बलं साम्नामद्वैधं मित्रमेव च।
एताः प्रकृतयः स्वेषु स्वामी विनयतत्त्ववित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् मन्त्री, बहुजनप्रिय राष्ट्र, दुर्धर्ष श्रेष्ठ नगर या दुर्ग, कठिन अवसरोंपर काम देनेवाला कोष, सामनीतिके द्वारा राजामें अनुराग रखनेवाली सेना, दुविधेमें न पड़ा हुआ मित्र और विनयके तत्त्वको जाननेवाला राज्यका स्वामी—ये सात प्रकृतियाँ कही गयी हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजानां रक्षणार्थाय सर्वमेतद् विनिर्मितम्।
आभिः करणभूताभिः कुर्याल्लोकहितं नृपः॥
मूलम्
प्रजानां रक्षणार्थाय सर्वमेतद् विनिर्मितम्।
आभिः करणभूताभिः कुर्याल्लोकहितं नृपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजाकी रक्षाके लिये ही यह सारा प्रबन्ध किया गया है। रक्षाकी हेतुभूत जो ये प्रकृतियाँ है, इनके सहयोगसे राजा लोकहितका सम्पादन करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मरक्षा नरेन्द्रस्य प्रजारक्षार्थमिष्यते ।
तस्मात् सततमात्मानं संरक्षेदप्रमादवान् ॥
मूलम्
आत्मरक्षा नरेन्द्रस्य प्रजारक्षार्थमिष्यते ।
तस्मात् सततमात्मानं संरक्षेदप्रमादवान् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको प्रजाकी रक्षाके लिये ही अपनी रक्षा अभीष्ट होती है, अतः वह सदा सावधान होकर आत्मरक्षा करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजनाच्छादनस्नानाद् बहिर्निष्क्रमणादपि ।
नित्यं स्त्रीगणसंयोगाद् रक्षेदात्मानमात्मवान् ॥
मूलम्
भोजनाच्छादनस्नानाद् बहिर्निष्क्रमणादपि ।
नित्यं स्त्रीगणसंयोगाद् रक्षेदात्मानमात्मवान् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनको वशमें रखनेवाला राजा भोजन-आच्छादन-स्नान, बाहर निकलना तथा सदा स्त्रियोंके समुदायसे संयोग रखना—इन सबसे अपनी रक्षा करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वेभ्यश्चैव परेभ्यश्च शस्त्रादपि विषादपि।
सततं पुत्रदारेभ्यो रक्षेदात्मानमात्मवान् ॥
मूलम्
स्वेभ्यश्चैव परेभ्यश्च शस्त्रादपि विषादपि।
सततं पुत्रदारेभ्यो रक्षेदात्मानमात्मवान् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मनको सदा अपने अधीन रखकर स्वजनोंसे, दूसरोंसे, शस्त्रसे, विषसे तथा स्त्री-पुत्रोंसे भी निरन्तर अपनी रक्षा करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेभ्य एव स्थानेभ्यो रक्षेदात्मानमात्मवान्।
प्रजानां रक्षणार्थाय प्रजाहितकरो भवेत्॥
मूलम्
सर्वेभ्य एव स्थानेभ्यो रक्षेदात्मानमात्मवान्।
प्रजानां रक्षणार्थाय प्रजाहितकरो भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मवान् राजा प्रजाकी रक्षाके लिये सभी स्थानोंसे अपनी रक्षा करे और सदा प्रजाके हितमें संलग्न रहे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजाकार्यं तु तत्कार्यं प्रजासौख्यं तु तत्सुखम्।
प्रजाप्रियं प्रियं तस्य स्वहितं तु प्रजाहितम्॥
प्रजार्थं तस्य सर्वस्वमात्मार्थं न विधीयते॥
मूलम्
प्रजाकार्यं तु तत्कार्यं प्रजासौख्यं तु तत्सुखम्।
प्रजाप्रियं प्रियं तस्य स्वहितं तु प्रजाहितम्॥
प्रजार्थं तस्य सर्वस्वमात्मार्थं न विधीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजाका कार्य ही राजाका कार्य है, प्रजाका सुख ही उसका सुख है, प्रजाका प्रिय ही उसका प्रिय है तथा प्रजाके हितमें ही उसका अपना हित होता है। प्रजाके हितके लिये ही उसका सर्वस्व है, अपने लिये कुछ भी नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतीनां हि रक्षार्थं रागद्वेषौ व्युदस्य च।
उभयोः पक्षयोर्वादं श्रुत्वा चैव यथातथम्॥
तमर्थं विमृशेद् बुद्ध्या स्वयमातत्त्वदर्शनात्॥
मूलम्
प्रकृतीनां हि रक्षार्थं रागद्वेषौ व्युदस्य च।
उभयोः पक्षयोर्वादं श्रुत्वा चैव यथातथम्॥
तमर्थं विमृशेद् बुद्ध्या स्वयमातत्त्वदर्शनात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृतियोंकी रक्षाके लिये राग-द्वेष छोड़कर किसी विवादके निर्णयके लिये पहले दोनों पक्षोंकी यथार्थ बातें सुन ले। फिर अपनी बुद्धिके द्वारा स्वयं उस मामलेपर तबतक विचार करे, जबतक कि उसे यथार्थताका सुस्पष्ट ज्ञान न हो जाय॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वविद्भिश्च बहुभिः सहासीनो नरोत्तमैः।
कर्तारमपराधं च देशकालौ नयानयौ॥
ज्ञात्वा सम्यग्यथाशास्त्रं ततो दण्डं नयेन्नृषु॥
मूलम्
तत्त्वविद्भिश्च बहुभिः सहासीनो नरोत्तमैः।
कर्तारमपराधं च देशकालौ नयानयौ॥
ज्ञात्वा सम्यग्यथाशास्त्रं ततो दण्डं नयेन्नृषु॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्त्वको जाननेवाले अनेक श्रेष्ठ पुरुषोंके साथ बैठकर परामर्श करनेके बाद अपराधी, अपराध, देश, काल, न्याय और अन्यायका ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करके फिर शास्त्रके अनुसार राजा अपराधी मनुष्योंको दण्ड दे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कुर्वंल्लभेद् धर्मं पक्षपातविवर्जनात्॥
प्रत्यक्षाप्तोपदेशाभ्यामनुमानेन वा पुनः ।
बोद्धव्यं सततं राज्ञा देशवृत्तं शुभाशुभम्॥
मूलम्
एवं कुर्वंल्लभेद् धर्मं पक्षपातविवर्जनात्॥
प्रत्यक्षाप्तोपदेशाभ्यामनुमानेन वा पुनः ।
बोद्धव्यं सततं राज्ञा देशवृत्तं शुभाशुभम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पक्षपात छोड़कर ऐसा करनेवाला राजा धर्मका भागी होता है। प्रत्यक्ष देखकर, माननीय पुरुषोंके उपदेश सुनकर अथवा युक्तियुक्त अनुमान करके राजाको सदा ही अपने देशके शुभाशुभ वृत्तान्तको जानना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारैः कर्मप्रवृत्त्या च तद् विज्ञाय विचारयेत्।
अशुभं निर्हरेत् सद्यो जोषयच्छुभमात्मनः॥
मूलम्
चारैः कर्मप्रवृत्त्या च तद् विज्ञाय विचारयेत्।
अशुभं निर्हरेत् सद्यो जोषयच्छुभमात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुप्तचरोंद्वारा और कार्यकी प्रवृत्तिसे देशके शुभाशुभ वृत्तान्तको जानकर उसपर विचार करे। तत्पश्चात् अशुभका तत्काल निवारण करे और अपने लिये शुभका सेवन करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्ह्यान् विगर्हयेदेव पूज्यान् सम्पूजयेत् तथा।
दण्ड्यांश्च दण्डयेद् देवि नात्र कार्या विचारणा॥
मूलम्
गर्ह्यान् विगर्हयेदेव पूज्यान् सम्पूजयेत् तथा।
दण्ड्यांश्च दण्डयेद् देवि नात्र कार्या विचारणा॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! राजा निन्दनीय मनुष्योंकी निन्दा ही करे, पूजनीय पुरुषोंका पूजन करे और दण्डनीय अपराधियोंको दण्ड दे। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चापेक्षं सदा मन्त्रं कुर्याद् बुद्धियुतैर्नरैः।
कुलवृत्तश्रुतोपेतैर्नित्यं मन्त्रपरो भवेत् ॥
मूलम्
पञ्चापेक्षं सदा मन्त्रं कुर्याद् बुद्धियुतैर्नरैः।
कुलवृत्तश्रुतोपेतैर्नित्यं मन्त्रपरो भवेत् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँच व्यक्तियोंकी अपेक्षा रखकर अर्थात् पाँच मन्त्रियोंके साथ बैठकर सदा ही राज-कार्यके विषयमें गुप्त मन्त्रणा करे। जो बुद्धिमान्, कुलीन, सदाचारी और शास्त्रज्ञानसम्पन्न हों, उन्हींके साथ राजाको सदा मन्त्रणा करनी चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामकारेण वैमुख्यैर्नैव मन्त्रमना भवेत्।
राजा राष्ट्रहितापेक्षं सत्यधर्माणि कारयेत्॥
मूलम्
कामकारेण वैमुख्यैर्नैव मन्त्रमना भवेत्।
राजा राष्ट्रहितापेक्षं सत्यधर्माणि कारयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इच्छानुसार राज्यकार्यसे विमुख हो जाते हों, ऐसे लोगोंके साथ मन्त्रणा करनेका विचार भी मनमें नहीं लाना चाहिये। राजाको राष्ट्रके हितका ध्यान रखकर सत्य-धर्मका पालन करना और कराना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वोद्योगं स्वयं कुर्याद् दुर्गादिषु सदा नृषु।
देशवृद्धिकरान् भृत्यानप्रमादेन कारयेत् ॥
देशक्षयकरान् सर्वानप्रियांश्च विसर्जयेत् ।
अहन्यहनि सम्पश्येदनुजीविगणं स्वयम् ॥
मूलम्
सर्वोद्योगं स्वयं कुर्याद् दुर्गादिषु सदा नृषु।
देशवृद्धिकरान् भृत्यानप्रमादेन कारयेत् ॥
देशक्षयकरान् सर्वानप्रियांश्च विसर्जयेत् ।
अहन्यहनि सम्पश्येदनुजीविगणं स्वयम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्ग आदि तथा मनुष्योंकी देखभालके लिये राजा सम्पूर्ण उद्योग सदा स्वयं ही करे। वह देशकी उन्नति करनेवाले भृत्योंको सावधानीके साथ कार्यमें नियुक्त करे और देशको हानि पहुँचानेवाले समस्त अप्रियजनोंका परित्याग कर दे। जो राजाके आश्रित होकर जीविका चला रहे हों, ऐसे लोगोंकी देखभाल भी राजा प्रतिदिन स्वयं ही करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमुखः सुप्रियो दत्त्वा सम्यग्वृत्तं समाचरेत्।
अधर्म्यं परुषं तीक्ष्णं वाक्यं वक्तुं न चार्हति॥
मूलम्
सुमुखः सुप्रियो दत्त्वा सम्यग्वृत्तं समाचरेत्।
अधर्म्यं परुषं तीक्ष्णं वाक्यं वक्तुं न चार्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह प्रसन्नमुख और सबका परम प्रिय होकर लोगोंको जीविका दे, उनके साथ उत्तम बर्ताव करे। किसीसे पापपूर्ण, रूखा और तीखा वचन बोलना उसके लिये कदापि उचित नहीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविश्वास्यं हि वचनं वक्तुं सत्सु न चार्हति।
नरे नरे गुणान् दोषान् सम्यग्वेदितुमर्हति॥
मूलम्
अविश्वास्यं हि वचनं वक्तुं सत्सु न चार्हति।
नरे नरे गुणान् दोषान् सम्यग्वेदितुमर्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्पुरुषोंके बीचमें वह कभी ऐसी बात न कहे, जो विश्वासके योग्य न हो। प्रत्येक मनुष्यके गुणों और दोषोंको उसे अच्छी तरह समझना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वेङ्गितं वृणुयाद् धैर्यान्न कुर्यात् क्षुद्रसंविदम्।
परेङ्गितज्ञो लोकेषु भूत्वा संसर्गमाचरेत्॥
मूलम्
स्वेङ्गितं वृणुयाद् धैर्यान्न कुर्यात् क्षुद्रसंविदम्।
परेङ्गितज्ञो लोकेषु भूत्वा संसर्गमाचरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी चेष्टाको धैर्यपूर्वक छिपाये रखे। क्षुद्र बुद्धिका प्रदर्शन न करे अथवा मनमें क्षुद्र विचार न लाये। दूसरेकी चेष्टाको अच्छी तरह समझकर संसारमें उनके साथ सम्पर्क स्थापित करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वतश्च परतश्चैव परस्परभयादपि ।
अमानुषभयेभ्यश्च स्वाः प्रजाः पालयेन्नृपः॥
मूलम्
स्वतश्च परतश्चैव परस्परभयादपि ।
अमानुषभयेभ्यश्च स्वाः प्रजाः पालयेन्नृपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको चाहिये कि वह अपने भयसे, दूसरोंके भयसे, पारस्परिक भयसे तथा अमानुष भयोंसे अपनी प्रजाको सुरक्षित रखे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लुब्धाः कठोराश्चाप्यस्य मानवा दस्युवृत्तयः।
निग्राह्या एव ते राज्ञा संगृहीत्वा यतस्ततः॥
मूलम्
लुब्धाः कठोराश्चाप्यस्य मानवा दस्युवृत्तयः।
निग्राह्या एव ते राज्ञा संगृहीत्वा यतस्ततः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोभी, कठोर तथा डाका डालनेवाले मनुष्य हों, उन्हें जहाँ-तहाँसे पकड़वाकर राजा कैदमें डाल दे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुमारान् विनयैरेव जन्मप्रभृति योजयेत्।
तेषामात्मगुणोपेतं यौवराज्येन योजयेत् ॥
मूलम्
कुमारान् विनयैरेव जन्मप्रभृति योजयेत्।
तेषामात्मगुणोपेतं यौवराज्येन योजयेत् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमारोंको जन्मसे ही विनयशील बनावे। उनमेंसे जो भी अपने अनुरूप गुणोंसे युक्त हो, उसे युवराजपदपर नियुक्त करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अराजकं क्षणमपि राज्यं न स्याद्धि शोभने।
आत्मनोऽनुविधानाय यौवराज्यं सदेष्यते ॥
मूलम्
अराजकं क्षणमपि राज्यं न स्याद्धि शोभने।
आत्मनोऽनुविधानाय यौवराज्यं सदेष्यते ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शोभने! एक क्षणके लिये भी बिना राजाका राज्य नहीं रहना चाहिये। अतः अपने पीछे राजा होनेके लिये एक युवराजको नियत करना सदा ही आवश्यक है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलजानां च वैद्यानां श्रोत्रियाणां तपस्विनाम्।
अन्येषां वृत्तियुक्तानां विशेषं कर्तुमर्हति॥
आत्मार्थं राज्यतन्त्रार्थं कोशार्थं च समाचरेत्॥
मूलम्
कुलजानां च वैद्यानां श्रोत्रियाणां तपस्विनाम्।
अन्येषां वृत्तियुक्तानां विशेषं कर्तुमर्हति॥
आत्मार्थं राज्यतन्त्रार्थं कोशार्थं च समाचरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुलीन पुरुषों, वैद्यों, श्रोत्रिय ब्राह्मणों, तपस्वी मुनियों तथा वृत्तियुक्त दूसरे पुरुषोंका भी राजा विशेष सत्कार करे। अपने लिये, राज्यके हितके लिये तथा कोष-संग्रहके लिये ऐसा करना आवश्यक है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्धा विभजेत् कोशं धर्मभृत्यात्मकारणात्।
आपदर्थं च नीतिज्ञो देशकालवशेन तु॥
मूलम्
चतुर्धा विभजेत् कोशं धर्मभृत्यात्मकारणात्।
आपदर्थं च नीतिज्ञो देशकालवशेन तु॥
अनुवाद (हिन्दी)
नीतिज्ञ पुरुष अपने कोषको चार भागोंमें विभक्त करे—धर्मके लिये, पोष्य वर्गके पोषणके लिये, अपने लिये तथा देश-कालवश आनेवाली आपत्तिके लिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाथान् व्याधितान् वृद्धान् स्वदेशे पोषयेन्नृपः॥
सन्धिं च विग्रहं चैव तद् विशेषांस्तथा परान्।
यथावत् संविमृश्यैव बुद्धिपूर्वं समाचरेत्॥
मूलम्
अनाथान् व्याधितान् वृद्धान् स्वदेशे पोषयेन्नृपः॥
सन्धिं च विग्रहं चैव तद् विशेषांस्तथा परान्।
यथावत् संविमृश्यैव बुद्धिपूर्वं समाचरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको चाहिये कि अपने देशमें जो अनाथ, रोगी और वृद्ध हों, उनका स्वयं पोषण करे। संधि, विग्रह तथा अन्य नीतियोंका बुद्धिपूर्वक भलीभाँति विचार करके प्रयोग करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषां सम्प्रियो भूत्वा मण्डलं सततं चरेत्।
शुभेष्वपि च कार्येषु न चैकान्तः समाचरेत्॥
मूलम्
सर्वेषां सम्प्रियो भूत्वा मण्डलं सततं चरेत्।
शुभेष्वपि च कार्येषु न चैकान्तः समाचरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा सबका प्रिय होकर सदा अपने मण्डल (देशके भिन्न-भिन्न भाग) में विचरे। शुभ कार्योंमें भी वह अकेला कुछ न करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वतश्च परतश्चैव व्यसनानि विमृश्य सः।
परेण धार्मिकान् योगान् नातीयाद् द्वेषलोभतः॥
मूलम्
स्वतश्च परतश्चैव व्यसनानि विमृश्य सः।
परेण धार्मिकान् योगान् नातीयाद् द्वेषलोभतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने और दूसरोंसे संकटकी सम्भावनाका विचार करके द्वेष या लोभवश धार्मिक पुरुषोंके साथ सम्बन्धका त्याग न करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्ष्यत्वं वै प्रजाधर्मः क्षत्रधर्मस्तु रक्षणम्।
कुनृपैः पीडितास्तस्मात् प्रजाः सर्वत्र पालयेत्॥
मूलम्
रक्ष्यत्वं वै प्रजाधर्मः क्षत्रधर्मस्तु रक्षणम्।
कुनृपैः पीडितास्तस्मात् प्रजाः सर्वत्र पालयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजाका धर्म है रक्षणीयता और क्षत्रिय राजाका धर्म है रक्षा; अतः दुष्ट राजाओंसे पीड़ित हुई प्रजाकी सर्वत्र रक्षा करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यसनेभ्यो बलं रक्षेन्नयतो व्ययतोऽपि वा।
प्रायशो वर्जयेद् युद्धं प्राणरक्षणकारणात्॥
मूलम्
व्यसनेभ्यो बलं रक्षेन्नयतो व्ययतोऽपि वा।
प्रायशो वर्जयेद् युद्धं प्राणरक्षणकारणात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाको संकटोंसे बचावे, नीतिसे अथवा धन खर्च करके भी प्रायः युद्धको टाले। सैनिकों तथा प्रजाजनोंके प्राणोंकी रक्षाके उद्देश्यसे ही ऐसा करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कारणादेव योद्धव्यं नात्मनः परदोषतः।
सुयुद्धे प्राणमोक्षश्च तस्य धर्माय इष्यते॥
मूलम्
कारणादेव योद्धव्यं नात्मनः परदोषतः।
सुयुद्धे प्राणमोक्षश्च तस्य धर्माय इष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनिवार्य कारण उपस्थित होनेपर ही युद्ध करना चाहिये, अपने या पराये दोषसे नहीं। उत्तम युद्धमें प्राण-विसर्जन करना वीर योद्धाके लिये धर्मकी प्राप्ति करानेवाला होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभियुक्तो बलवता कुर्यादापद्विधिं नृपः।
अनुनीय तथा सर्वान् प्रजानां हितकारणात्॥
एष देवि समासेन राजधर्मः प्रकीर्तितः॥
मूलम्
अभियुक्तो बलवता कुर्यादापद्विधिं नृपः।
अनुनीय तथा सर्वान् प्रजानां हितकारणात्॥
एष देवि समासेन राजधर्मः प्रकीर्तितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी बलवान् शत्रुके आक्रमण करनेपर राजा उस आपत्तिसे बचनेका उपाय करे। प्रजाके हितके लिये समस्त विरोधियोंको अनुनय-विनयके द्वारा अनुकूल बना ले। देवि! यह संक्षेपसे राजधर्म बताया गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संवर्तमानस्तु दण्डयन् भर्त्सयन् प्रजाः।
निष्कल्मषमवाप्नोति पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥
मूलम्
एवं संवर्तमानस्तु दण्डयन् भर्त्सयन् प्रजाः।
निष्कल्मषमवाप्नोति पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बर्ताव करनेवाला राजा प्रजाको दण्ड देता और फटकारता हुआ भी जलसे लिप्त न होनेवाले कमलदलके समान पापसे अछूता ही रहता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संवर्तमानस्य कालधर्मो यदा भवेत्।
स्वर्गलोके तदा राजा त्रिदशैः सह तोष्यते॥
मूलम्
एवं संवर्तमानस्य कालधर्मो यदा भवेत्।
स्वर्गलोके तदा राजा त्रिदशैः सह तोष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बर्तावसे रहनेवाले राजाकी जब मृत्यु होती है, तब वह स्वर्गलोकमें जाकर देवताओंके साथ आनन्द भोगता है॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्यप्रतिमें अध्याय समाप्त)